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Sunday, February 26, 2017

वतन पर मरने वालों का कोई नामोनिशां नहीं होगा
-जयसिंह रावत
देहरादून।  कहा जाता है कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा। अगर आप देहरादून के एक शहीद स्मारक तक पहुंच सकें तो किसी कवि की ये पंक्तियां फिजूल की लगेंगी। देहरादून के मुख्य मार्ग राजपुर रोड पर स्थित प्रथम विश्व युद्ध के स्मारक स्थल पर मेला लगना तो रहा दूर यहां पावर कोरपोरेशन के कब्जा कर स्माराक का ही नामोनिशां बराबर कर दिया। चूंकि अब उन शहीदों की वोट वैल्यू की डेट भी एक्सपायर हो गयी है इसलिये राजनीतिक लोगों के लिये भी उनका महत्व समाप्त हो चुका है।
अंग्रेजों को चाहे आप जितना भला बुरा कहें मगर वे बहादुर शत्रुओं की भी कद्र करते थे। इसीलिये उन्होंने खलंगा के ऐतिहासिक युद्ध में शत्रु गोरखा सैनिकों की बहादुरी को सलाम करने के लिये वहां एक युद्ध स्मारक बना डाला था जिस पर हर साल मेला लगता है और वहां नेपाली मूल के लोगों के साथ गोरखा वोटरों के लालची नेता पहुंचते हैं। लेकिन मुख्य राजपुर रोड स्थित प्रथम विश्व युद्ध के वार मेमोरियल पर श्रद्धा सुमन चढ़ाने की बात तो रही दूर उसे प्रशासन भी भूल गया है। शहर में दूसरे विश्व युद्ध का स्मारक तो कहीं खो ही चुका है। लेकिन जो दिखाई भी दिया था उस पर उत्तराखण्ड पावर कारपोरेशन ने केवल कब्जा कर दिया बल्कि भारत माता के इन वीर सपूतों के सर्वोच्च बलिदान को ही छिपा दिया है। शहीद सैनिकों की तो रही बात दूर ! पावर कारपोरेशन ने प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहीरलाल नेहरू का तक लिहाज नहीं किया। वह भी कांग्रेस भवन के लगभग ठीक सामने! प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री स्व0 नित्यानंद स्वामी ने 14 नवंबर 1991 को उत्तर प्रदेश विधान परिषद में उप सभापति रहते हुए छोटे से इस पार्क का केवल सौंदर्यीकरण करवाया बल्कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति भी स्थापित करवायी थी। नेहरू की उपेक्षित प्रतिमा भी यूपीसीएल के विशालकाय जेनरेटर के पीछे छिप गयी है।
प्रथम विश्वयुद्ध के इस शहीद स्मारक भी स्थित है जो कि उन 97 सैनिकों की याद में स्थापित किया गया था जो 28 जुलाइ 1914 से लेकर 11 नवम्बर 1918 तक चले विश्वयुद्ध में विदेशी धरती पर वीरगति को प्राप्त हुये थे। लेकिन उत्तराखण्ड पावर कारपोरेशन दुस्साहस देखिये कि ऐतिहासिक महत्व की इस विरासत पर  ही अतिक्रमण कर लिया है। यहां 11हजार वॉट का एक जनरेटर रखवा दिया गया है लेकिन इस बारे में इस पार्क की देखरेख करने वाले मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण को भी जानकारी नहीं दी गई। जिसके चलते केवल इस नेहरू पार्क का सौंदर्य बिगड गया] वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक भी जिले के इस इतिहास से रूबरू होने से वंचित हो रहे हैं। अगर ये बहादुर सैनिक ताजा---ताजा शहीद होते तो वोट देने वाले उनके परिजन] रिश्तेदार और परिचित भी मौजूद होते। राजनीतिक नेता वोटों की खातिर शहीदों के परिजनों को ^^इम्प्रेस’’ करने के लिये इन शहीदों की खोज खबर भी लेते। अब जब कि स्वयं शहीदों के वंशजों को उनकी याद नहीं तो राजनीतिक लोग भला क्यों उन शहीदों को याद करने लगेंगे\ यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध के वार मेमोरियल का कहीं अतापता नहीं है। मीडिया की नजर भी वहां पड़ती है जहां टीआरपी या सर्कुलेशन बढ़ने की संभावना होती है।
इस महायुद्ध में भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम] एडीन] अरब] पूर्वी अफ्रीका] गाली पोली] मिस्र] मेसोपेाटामिया] फिलिस्तीन] पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े सम्मान के साथ लड़े। गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट  के दो सैनिकों ] दरबान सिंह नेगी और गबर सिंह नेगी को ब्रिटिश साम्राज्य का उच्चतम  वीरता पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था। पहला पुरस्कार दरबान सिंह नेगी को 1914 में तथा दूसरा दरबान सिंह नेगी को 1915 में मिला था। इस युद्ध में विक्टोरिया क्रास प्राप्त करने वाले पहले भारतीय सैनिक खुदादाद खान को बताया जाता है जो कि विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे। लेकिन रणभूमि में सबसे पहले बहादुरी दरबान सिंह नेगी ने फ्रांस के फेस्टूवर्ट  मोर्चे पर 23 एवं 24 सितम्बर 1914 को दिखा कर शहीद हो गये थे जबकि खुदादाद को उसी वर्ष 9-10 नवम्बर को बहादुरी दिखाने का मौका मिला। चूंकि गजट में पहले नाम खुदादाद का आया इसलिये उन्हें पहला विजेता माना गया। अगले साल 1915 में दूसरे गढ़वाली गबर सिंह नेगी से यह सर्वोच्च पदक हासिल किया। इस युद्ध में लड़े जिसमें कुल  47746 सैनिक शहीद हुये जिनमें से देहरादून के ये 97 बहादुर भी शामिल थे जिनको राज्य सरकार और समाज भूल गया है।



-जयसिंह रावत
-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव
शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
मोबाइल 9412324999


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