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Monday, February 2, 2015

ONE YEAR OF HARISH RAWAT RULE : MILES TO GO BEFORE HE SLEEPS

हरीश रावत: अब विकास के मोर्चे पर चुनौती
-जयसिंह रावत
श्राजनीतिक जीवन के लगभग चार दशकों के उतार-चढ़ाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले हरीश रावत ने विषम परिस्थितियों में जैसे तैसे एक साल पूरा कर लिया। इस एक वर्ष में उन्होंने गरदन टूटने के बावजूद अपने राजनीतिक कौशल का लोहा केवल विपक्षी भाजपा के सूरमाओं से बल्कि अपने ही दल के प्रतिद्वन्दियों से भी मनवा लिया है। लेकिन दशकों से विशिष्ट परिस्थितियों से घिरे इस पहाड़ी भूभाग के लोगों को इस माटी के सपूत से विकास और प्रशासन के मोर्चों पर किसी करामात की अभी भी प्रतीक्षा है।
अपने ही दल के विजय बहुगुणा से पहली फरबरी 2014 को प्रदेश की कमान छीनने के बाद राजनीति के इस महारथी ने एक ही साल के अंदर राजनीति के मोर्चे पर अपना जौहर तो दिखा दिया मगर अभी भी उन्हें अपने नियोजन शिल्प, दूर दृष्टि और माटी का पूत होने के नाते प्रदेश की विशिष्ट समस्याओं और विकास की जरूरतों के प्रति सटीक रणनीति का जलवा दिखाना बाकी है। लोकसभा चुनाव से पहले और बाद में पार्टी में भगदड़ और चुनावों में मोदी के तूफान के आगे अपने तंबू उड़वा चुका कांग्रेस नेतृत्व जब सदमे से उबर भी नहीं पाया था कि इस ऐतिहासिक हार के दो माह के अंदर ही हरीश रावत ने ही उत्तराखंड की तीन विधानसभा सीटों पर हुये उपचुनाव में जीत का स्वाद चखा कर केवल कांग्रेस को निराशा के घटाटोप से उबारा अपितु समूचे भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों को भी उम्मीद की किरण दिखा दी। हरीश रावत ने केवल धारचुला की कांग्रेस की सीट दुबारा कब्जाई बल्कि मोदी का तूफान थमने से पहले ही डोइवाला तथा सोमेश्वर विधानसभा सभा सीटों से भाजपा को उखाड़ कर वहां कांग्रेस का झंडा गाढ़ने में कामयाबी हासिल कर ली। हरीश रावत का ही राजनीतिक कौशल था कि विधानसभा उपचुनाव के साथ ही प्रदेश में कांग्रेस ने जो विजय अभियान शुरू किया वह त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव, सहाकारिता चुनाव और फिर कैंट बोर्ड के चुनाव में भी जारी रखा और विपक्षी भाजपा को लाख कोशिशों और चारों ओर मोदी की जयजयकार के बावजूद प्रदेश में जीत का स्वाद चखना मुश्किल कर दिया।
कबीर दास जी ने कहा है किजो तोको कांटा बाये ताइ बोय तो फूल, फूल के फूल हैं बाकी है त्रिशूल... पिछले 14 सालों में हरीश रावत जी ने जो कुछ बोया था उसकी फसल अब उन्हें खुद ही काटनी पड़ रही है। फिर भी हरीश रावत ने इस मोर्चे पर भी काफी दिलेरी दिखा कर अपने प्रतिद्वन्दियों को उनका आकार दिखा दिया। विपक्ष को चित्त करने के साथ ही पार्टी के घरेलू मोर्चे पर भी खाटी राजनीतिज्ञ हरीश रावत ने ऐसा दांव चला कि अपने एक प्रतिद्वन्दी विजय बहुगुणा से मुख्यमंत्री पद छीन लिया और दूसरे प्रतिद्वन्दी सतपाल महाराज को पार्टी से बाहर जाने का रास्ता दिखा कर अपनी राजनीतिक राहें लगभग आसान कर लीं। अब पार्टी के एकमात्र प्रतिद्वन्दी विजय बहुगुणा कभी पीडीएफ के नाम पर तो कभी अपने निर्वाचन क्षेत्र की उपेक्षा को लेकर बखेड़ा तो खड़ा करते हैं, मगर हरीश रावत का बाल बांका भी नहीं कर पाते हैं। कुछ बहुगुणा समर्थकों को यह भय सताने लगा है कि हरीश रावत कहीं विजय बहुगुणा का तंबू भी सतपाल महाराज की ही तरह कांग्रेस खेमे से उखड़वा दें! उन्होंने पहले बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदखल कराया और फिर अपने गुट के किशोर उपाध्याय को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनवा कर संगठन पर भी कब्जा कर दिया। उसके बाद बहुगुणा खेमे को पटखनी दे कर अप्रत्याशित रूप से अपने गुट की एक और कामरेड मनोरमा शर्मा को राज्य सभा में भिजवा दिया। बार-बार पटखनी खाने के बाद हताश-निराश विजय बहुगुणा को अपने गुट की लाज बचाने के लिये कभी पीडीएफ के मंत्रियों को बाहर कर अपने समथकों को जगह देने की मांग उठानी पड़ रही है तो कभी अपने निर्वाचन क्षेत्र सितारगंज की उपेक्षा और अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में की गयी घोषणाओं की अनदेखी का राग अलापना पड़ रहा है।
राजनीतिक उठापटक तो प्रदेश की जनता पिछले 14 सालों से देखती रही है। अब उत्तराखंड के लोग हरीश रावत के चातुर्य, उनके सार्वजनिक जीवन के चार दशकों के अनुभव, नारायण दत्त तिवारी की तरह विकास की सोच और पहाड़ की समस्याओं के निदान के लिये ठेठ पहाड़ीएप्रोचकी अपेक्षा करती है। इस अपेक्षा के अनुकूल उन्होंने गैरसैण के मामले में व्यवहारिक कदम तो उठाने शुरू कर दिये यह उनकी बहुत ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। सदियों के अन्तराल के बाद उत्तराखंड में अस्तित्व में आने वाला यह दूसरा नगर होगा। मगर अकेला गैरसैंण पहाड़ की जनता की पहाड़ जैसी समस्याओं का निदान नहीं है।
़राज्य बनने से पहले से ही पहाड़ों के अस्पतालों में डाक्टरों और स्कूलों में मास्टरों का जो अभाव था, वह आज भी बरकरार है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में पहाड़ों से पलायन अनवरत् जारी है। सतत आजीविका का साधन खेती दिन प्रतिदिन सिकुड़ती जा रही है। इन सभी क्षेत्रों में हरीश रावत प्रयास तो कर रहे हैं मगर अभी तक शुभ संकेत कहीं से नजर नहीं रहे हैं। संकेत आयेंगे भी कैसे? पहले विकास, सद्भावना, समर्पण और ईमान्दारी का माहौल तो बने! कभी-कभी तो लगता है कि ऊपर से नीचे तक और दायें से लेकर बायें तक लूट का राज कायम है। इस महौल से मुक्ति कैसे मिलेगी चारों तरफ बैठे लोग राज्य के संसाधनों पर गिद्धदृष्टि जमाये बैठे हों? आखिर अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता। जब तक हरीश रावत कुछ करने के लिये तत्पर होते हैं तब तक उन्हीं के दल के लोग बाधाएं खड़ी कर देते हैं, ताकि हरीश रावत भी विजय बहुगुणा की तरह विफल मुख्यमंत्रियों में सुमार हो कर उनकी भविष्य की संभावनाएं समाप्त हो जांय। नौकरशाही पर बेलगाम होने का आरोप तो सभी लगा रहे हैं मगर समाज को नेतृत्व देने वाली राजनीतिक बिरादरी के लोगों के बेलगाम होने की बात कोई नहीं कर रहा है। जब राजनीतिक कार्यकर्ता कैबिनेट की बैठकों में तक जाने लगे हैं और कैबिनेट के फैसलों की ब्रीफिंग तक करने लगे हैं तो स्थिति का स्वयं ही आंकलन किया जा सकता है।
देखा जाय तो प्रशासनिक मोर्चे पर भी हरीश रावत को बहुत कुछ करना है। सरकारी मशीनरी द्वारा राज्य के बजट में से लगभग 20 हजार करोड़ पचाने के बावजूद कोई संतुष्ट नहीं है। राज्य के एक करोड़ लोगों के विकास और उनकी समस्याओं के निदान के हिस्से में पांच हजार करोड़ भी नहीं पा रहे हैं। उत्तराखंड अब तक ऊर्जा प्रदेश, आयुष प्रदेश, बागवानी प्रदेश और पर्यटन प्रदेश तो बन नहीं सका मगर आये दिन हड़तालों के कारण राज्य को हड़ताल प्रदेश का ओहदा अवश्य हासिल कर चुका है। विभिन्न तबके के कर्मचारियों की हड़तालों को तोड़ने के लिये सरकार के बजाय अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। नौकरशाही में भी बदनाम मगर कमाऊ अधिकारी फल फूल रहे हैं और ईमान्दार अफसर घुट रहे हैं। विजिलेंस द्वारा जब लेखपाल, जेई और बाबू रेंक के कर्मचारी पकड़े जाते हैं तो लगता है कि इनसे ऊपर तो रामतराजा कायम है और ऊपर के अफसरान महात्मा गांधी के चेले हैं। इनके मगरमच्छों के गिरेबान तक हाथ डालने का साहस अभी तक हरीश रावत भी नही जुटा पाये हैं। मुख्यमंत्री ने बाहर से अफसर लाने की धमकी दे कर नौकरशाही की बिरादरी को बेचैनी में अवश्य डाला मगर वह धमकी भी फिलहाल ढाक के तीन पात साबित हुयी है।
-जयसिंह रावत
       पत्रकार
-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

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