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Saturday, February 13, 2016

Tea Gardens of Uttarakhand and Nilgiris

मरणासन्न हाल में भारत के सबसे पुराने चाय बागान
-जयसिंह रावत
स्मार्ट सिटी के लिये जमीन के चयन को लेकर उठे विवाद ने मरणासन्न हालत में पहुंचे देश के सबसे पुराने चाय बागानों में शामिल रहे उत्तराखंड के बागानों के जख्मों को कुरेद दिया है। कभी सात समंदर पार बिलायत तक अपनी जायकेदार चाय से अंग्रेजों को मुरीद बनाने वाले ये बचेखुचे ऐतिहासिक चाय बागान आज तो पूरी तरह जीवित हैं और ना ही ये मर रहे हैं। अलबत्ता इनको निगलने के लिये इन पर केवल सरकार की बल्कि भूमि व्यवसायियों की गिद्ध दृष्टि अवश्य ही लगी हुयी है।
 ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उन्नीसवीं सदी में असम के बाद उत्तराखंड में शुरू किये गये टी प्लांटेशनों में से एक हरबंशवाला आर्केडिया पर राज्य सरकार स्मार्ट सिटी बनाने जा रही है। हालांकि केन्द्र सरकार ने फिलहाल राज्य सरकार के इस प्रस्ताव को पहली सूची में नहीं रखा है, फिर भी इस चाय बागान की शामत निश्चित ही है। इससे पहले नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में भी इसी चाय बागान पर प्रेस कालोनी बनाने का निर्णय हो चुका था। बागान के मालिक पूरे क्षेत्र का भूउपयोग परिवर्तन करने की शर्त पर इसके एक हिस्से को मुफ्त में देने को तैयार थे लेकिन ऐन वक्त पर इसके खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपने के बाद पूरी योजना धरी की धरी रह गयी थी। इस बार तो इस बागान की खैर नजर नहीं रही है।
मार्केटिंग के पुराने घिसेपिटे तरीके और ट्रांसपोर्ट में भारी खर्च आने के कारण बाजारी मूल्य प्रतिस्पर्धा में गुणवत्ता के लिहाज से श्रेष्ठ होते हुए भी असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू और केरल के बागानों की चाय के मुकाबले बाजार में टिक पाने के कारण उत्तराखंड के लगभग पौने दो शताब्दी पुराने ऐतिहासिक बागान मरणासन्न हालत में हैं। आज प्रदेश में देहरादून के बागानों सहित भीमताल, कौसानी, इनागिरी, बेरीनाग, रानीखेत, ग्वालदम और भवाली आदि के जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार कीतरह खड़े नजर आते हैं। आज हालत यह है कि इन बचेखुचे चाय बागानों के मालिकों को बागानों की चाय बेचने के बजाय बागानों की जमीन बेचने में ज्यादा मुनाफा नजर रहा है। लेकिन टी प्लांटेशन ऐक्ट के चलते चाय बागान मालिक तो इन्हें बेच पा रहे हैं और ना ही इनका सही रखरखाव कर रहे हैं। इन बागानों के प्रति मालिकोंकी अनिच्छा के चलते भूमाफियाओं की ललचाई नजर इन पर टिकी हुयी है। चाय के बागान आज जहां नीलगिरी की पहाड़ियों का आकर्षण दोगुना कर बड़े पैमाने पर पर्यटकों को आकर्षित कर रहे हैं वहीं मार्केटिंग के आधुनिक तरीके अपना कर उन पहाड़ियों की चाय देश विदेश में धूम मचा रही है। कोन्नूर से लेकर डोडाबेटा और ऊटी तकटी पार्कोंमें देशी विदेशी पर्यटकों का हुजूम देखा जा सकता है। दरअसल वहां का पर्यटन ही वहां की चाय की मार्केटिंग और शोकेशिंग भी कर रहा है। नीलगिरी की तरह असम के मनास राष्ट्रीय पार्क में प्रवेश द्वार पर ही आपका स्वागत चाय बागान करता है। हर जगह चाय बागान और पर्यटन एक दूसरे के पूरक नजर आते हैं। इन चाय बागानों में फिल्मों की शुटिंग भी खूब होती है। जबकि उत्तराखंड के बागानों से रौनक को गायब हुये तो एक अर्सा बीत ही चुका है और अब इन में बीरानगी ही बीरानगी छायी नजर आती है।
मालिकों के लियेबोझ साबित हो रहे इन बागानों पर केन्द्र और राज्य सरकार की गिद्ध दृष्टि केवल आज ही टिकी हो, ऐसा नहीं है। इससे पहले देहरादून के मोहकमपुर में केन्द्र सरकार ने चाय बागान की जमीन अधिग्रहित कर उसमें भारतीय पेट्रोलियम संस्थान का विशाल भवन और संस्थान के कर्मचारियों की कालोनी बनवा डाली थी। उसके बाद देहरादून टी गार्डन की 256 एकड़ जमीन 1981 में भारतीय सैन्य अकादमी के हवाले कर दी गयी। इस मामले में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार भी कहां पीछे रहने वाली थी? उसने भी बंजारावाला टी एस्टेट को टिहरी बांध विस्थापितों के लिये अधिग्रहित कर दिया। देहरादून की गोरखपुर टी एस्टेट की कब्रगाह पर डिफेंस कालोनी की इमारतें उग आयी हैं।
इसी तरह कुमाऊं के बेरीनाग चाय बागान की फैक्ट्री की जगह एक आवासीय कालोनी बन गयी है। अब बेरीनाग टी कंपनी ध्वस्त हो चुकी है एवं चौकोड़ी बागान में चाय के पुराने पौंधों से ही थोड़ी मात्रा में चाय का उत्पादन होता है। देहरादून की ताजी आबोहवा तो पहले से ही देश विदेश के लोगों को आकर्षित कर रही थी लेकिन सन् 2000 में यहां राजधानी बनने के बाद जमीनों के भाव आसमान छूने लगे हैं और इस स्थिति में सबकी निगाह इन बागानों पर टिकी हुयी है। ये बागान जो कभी आबादी से काफी दूर होते थे, आज ये आबादी से घिरे हुये हैं और कहीं-कहीं तो आबादी और सरकारी संस्थान बागानों के अंदर ही घुस गये हैं। इनमें कई बागानों का अब अस्तित्व के रेवेन्य रिकार्ड तक ही सीमित है।
सन् 1863-64 में आयी डेनियल की पहली भूबंदोबस्त रिपोर्ट के अनुसार उस समय देहरादून में 1700 एकड़ में चाय बागान लगे थे। जीआरसी विलियम्स केमेम्वॉयर ऑफ दूनमें छपे एक विवरण के अनुसार 1870 तक देहरादून जिले में आर्केडिया, हरबंशवाला, एनफील्ड, बंजारावाला, लखनवाला, कॉलागढ़, गुडरिच, न्यू गुडरिच, वेस्टहोपटाउन, निरंजनपुर, अम्बाड़ी, रोजविले, चार्लविले, हरभजनवाला, गढ़ी, दुरतावाला और अम्बीवाला, नत्थनपुर, धूमसिंह का प्लांटेशन और निरंजनपुर नाम के 19 चाय बागान थे जो कि 2024.2  एकड़ में फैले हुये थे और इन बागानों से लगभग 2,97,828 पौंड चाय का उत्पादन होता था। उसके बाद देहरादून के चाय बागानों की सख्या 73 तक पहुंच गयी थी लेकिन आजादी के बाद चाय उद्योग के पतन की शुरुआत के साथ ही सन् 1951 तक यहां के बागानों की संख्या घट कर 45 और क्षेत्रफल सिमट कर 2805 हेक्टेअर तथा सन् 1982 तक बागानों की संख्या 31 और उनका क्षेत्रफल घट कर 1804 हेक्टेअर रह गया था। उन्नीसवीं सदी के अंत तक स्थापित कुल 19 चाय बाागनों में से आज एक दर्जन बागान भी मौजूद नहीं हैं और जो मौजूद हैं भी वे मरणासन्न हालत में हैं।
एक जमाना था जबकि अग्रेज भी उत्तराखंड की चाय के जायके के दीवाने होते थे। देहरादून की चाय की महक ब्रिटेन तक पहुंचती थी। इसीलिये ईस्ट इंडिया कंपनी ने असम के बाद उत्तराखंड को चाय बागान के लिये चुना था। असम के बारे में कहा जाता है कि वहां सिंगपो लोग प्राचीन काल से चाय निष्कर्षण या बनाने का काम करते थे। वहां अहोम राजाओं के शासनकाल से जंगली चाय के पौधों से पेय बनता था। 1826 की यांडबू संधि के बाद अंग्रेजों ने चाय बागान अपने हाथ में ले लिये। सन् 1823 में राबर्ट ब्रूस ने वहां के जंगली चाय के पौधों को चीनी चाय की नस्ल के ही पौधे माना था। इन पौधों की वकालत पहले भारतीय चाय बागवान मनीराम दीवान ने अंग्रेजों से की थी। उसी दौरान सहारनपुर बॉटेनिकल गार्डन के अधीक्षक डा0 रॉयले की पहल पर उत्तराखंड में भी चाय बागान लगाने की संभावनाएं तलाशी गयीं। यहां बाहरी हिमालय की पर्वत श्रेणियों और घाटियों में जंगलीकमेलिया साइनेंसिसके पौधों को भी चीनी मूल की चाय के पौधे माना गया।
वास्तव में सहारनपुर बॉटेनिकल गार्डन के अधीक्षक डा0 रॉयले ने 1827 में सबसे पहले उत्तराखंड हिमालय के बाहरी क्षेत्र में चाय बागान लगाने की सिफारिश कंपनी सरकार से की थी। एटकिंसन के हिमालयन गजेटियर और जी.आर.सी. विलियम्स के मेम्वॉर ऑफ दून जैसे दस्तावेजों के अनुसार जब 1831 में गर्वनर जनरल लॉर्ड बेंटिंक सहारनपुर पहुंचा तो उससे भी डा0 रॉयले ने यही सिफारिश की। उसी दौरान डा0 वालिच ने हाउस ऑफ कॉमन्स की भारत संबंधी कमेटी के समक्ष भी गढ़वाल, कुमाऊं और सिरमौर जिलों में चाय बागन लगाने की मांग के लिये प्रस्तुतीकरण दिया। डा0 रॉयले ने 1833 में अपनी पुस्तकबॉटनी ऑफ हिमालयन  माउंटेंसकी भूमिका में भी इसकी चर्चा की थी। डा0 रॉयले ने 1834 में देहरादून के राजपुर और मसूरी के बीच झड़ीपानी क्षेत्र को चाय बागन लगाने के लिये उपयुक्त बताया था और उसी दौरान लॉर्ड बेंटिंक ने कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स की संस्तुति पर भारत में चाय उद्योग की संभावनाओं और विस्तृत प्लान तैयार करने के लिये एक कमेटी का गठन कर लिया। इस कमेटी ने भी हिमालय के बाहरी क्षेत्र की पहाड़ियों और घाटियों में पायी जाने वाले जंगली पौधों को चीनी चाय के पौधों की ही नस्ल का बताया। इस कमेटी की सिफारिश पर 1835 में बोहियो चाय के पौधों के बीजों से पैदा नयी पौध को अनुकूल जिलों में वितरित किया गया।
जब उत्तराखंड हिमालय को भी असम के साथ ही चाय बागान लगाने के लिये उपयुक्त पाया गया तो डा0 रॉयले के उत्तराधिकारी डा0 फाल्कोनर ने प्रयोग के तौर पर ब्रिटिश गढ़वाल जिले को चाय बागान लगाने के लिये चुना। इसी दौरान सन् 1838 में डा0 फाल्कोनर ने अपने पूर्ववर्ती डा0 रॉयले को सूचित किया कि गढ़वाल की कोठ नर्सरी में उगाये गये पौधों के बीज सहारानपुर बॉटेनिकल गार्डन में भी उग गये हैं। उन्होंने देहरादून में बागान के लिये अनुकूल माना। लेकिन डा0 रॉयले झड़ीपानी को ही सर्वोत्तम मानते रहे। अन्ततः 1844 में देहरादून कस्बे के निकट कौलागढ़, जो कि आज देहरादून शहर का ही एक हिस्सा है, में डा0 जेम्सन की देखरेख में 400 एकड़ जमीन पर असम के बाहर पहला चाय बागन लगाने का काम शुरू हुआ। सन् 1850 में कंपनी सरकार ने देहरादून के बागान की प्रगति की समीक्षा के लिये मिस्टर फार्चून को नियुक्त किया। उसने कई प्लाटेशन देखे और एक नकारात्मक रिपोर्ट सरकार को भेज दी जिसमें कहा गया कि यहां के प्लांटेशन में चीन के चाय बागानों की जैसी रंगत नहीं है। ये अच्छी क्वालिटी के नहीं हैं। उसी फार्चून ने दुबारा 1856 में सरकार को रिपोर्ट भेजी कि देहरादून के बागान किसी भी दृष्टि से चीन के बागानों से कमतर नहीं हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में जब देहरादून में चाय उद्योग जम गया तो कौलागढ़ वाला पहला चाय बागान 20 हजार ब्रिटिश पौंड में सिरमौर के राजा को बेच दिया गया। उस समय जेम्सन का अनुमान था कि देहरादून जिले में एक लाख एकड़ में चाय बागान लगा कर एक करोड़ पौंड चाय का उत्पादन किया जा सकता है।
आज चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है। भारत के 16 राज्यों में चाय के बागान हैं। इनमें से भी असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू और केरल में देश का 95 प्रतिशत चाय उत्पादन होता है। हैरानी का विषय यह है कि जिस उत्तराखंड हिमालय से अंग्रेजों ने चाय उद्योग की शुरुआत की थी और जिसकी चाय के दीवाने दुनियाभर में होते थे, उस उत्तराखड का चाय प्रमुख उत्पादकों में कहीं नाम नहीं है। उत्तराखंड के चाय विकास बोर्ड ने इस क्षेत्र में नयी शुरुआत तो की है मगर उसकी इस पहल में उत्साह और संकल्प का घोर अभाव नजर रहा है। राज्य सरकार के बोर्ड ने प्रदेश के 13 में से 8 पहाड़ी जिलों में कुल 676 हेक्टेअर क्षेत्र में बागान लगाये हैं जिनसे पिछले साल 1,75,590 किलोग्राम चाय पत्तियों की तुड़ाई हुयी और इन पत्तियों से 18,683 किलोग्राम चाय का उत्पादन हो सका। बिक्री मामले में भी चाय बोर्ड फिसड्डी ही साबित हुआ। वह कुल उत्पादित चाय का लगभग पांचवां हिस्सा याने कि मात्र 3500 किग्रा ही बेच पाया। इसके अलावा उसके पास पिछले साल की 6196 किग्रा चाय बिना बिके बची हुयी थी। बोर्ड के कर्मचारी इस निठल्लेपन के लिये धनाभाव को जिम्मेदार बताते हैं।

जयसिंह रावत-
पत्रकार
-11  फ्रेंड्स एन्क्लेव,
शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल 09412324999
jaysinghrawat@gmail.com