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Thursday, July 18, 2013

committee to choose best Journalist of Uttarakhand


उत्तराखण्ड सरकार
सूचना एवं लोक सपंर्क विभाग,
12. .सी. रोड़, देहरादून

प्रेस नोट

स्व. रामप्रसाद बहुगुणा स्मृति पुरस्कार को बनी समिति
देहरादून, 18 जुलाई, 2013 (सू.वि.)
30 मई को पत्रकारिता दिवस के अवसर पर स्व. रामप्रसाद बहुगुणा स्मृति पुरस्कार दिये जाने हेतु शासन द्वारा चयन समिति का गठन कर लिया गया है। सचिव सूचना विनोद फोनिया द्वारा जारी आदेश के अनुसार तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया है। इस समिति में पत्रकार एवं साहित्य जगत के वरिष्ठ लोगों को शामिल किया गया है। शासन द्वारा गठित चयन समिति में पिं्रट मीडिया से स्वतंत्र पत्रकार जय सिंह रावत, इलैक्ट्रांनिक मीडिया से श्री आशीष गोयल ब्यूरोचीफ .एन.आई. तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्री लीलाधर जगूड़ी को शामिल किया गया है।

ज्ञातव्य है कि सरकार द्वारा प्रतिवर्ष 30 मई, को पत्रकारिता दिवस के अवसर पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य करने वाले वरिष्ठ पत्रकारों को सम्मानित किया जायेगा। इसके लिए एक चयन समिति का गठन किया जाना था, जो पुरस्कार के लिए पात्र लोगों का चयन करेंगे। इस क्रम में सचिव सूचना द्वारा चयन समिति के गठन संबंधी आदेश जारी कर दिया गया है।


सूचना एवं लोक सपंर्क विभाग,

Monday, June 24, 2013

TRIBAL HISTORY OF UTTARAKHAND

JANJATIYON KA ITIHAS  

The book, Uttarakhand: Janjatiyon Ka Itihas  comes at  a time,  when there is a renewed focus on the Tribals in the backdrop of the naxalisim movement engulfing several parts of the country and resistance to the  unhindered exploitation of their land for Development project.
In Uttarakhand, the five tribes comprising of Bhotiya, Jaunsari, Tharu, Boxa and Raji the18 percent chunk of the tribal population in the state.    They present an interesting diversity with their presence extending from  from the  Indo- Tibet border in the north to Terai in south and Nepal border in east to Himachal Pradesh in west.
 The eight chapters  of the book dwell on various issues like the threat to national security due to the large-scale migration of people from the Indo-Tibet border region in Uttarakhand, land alienation in tribal areas, lands of Tharus and Boxas in the Terai region being snatched away from them by influential outsiders, atrocities and exploitation of tribals by non tribals,apathy of the authorities towards the Forest Rights Act 2006 and formation of tribal advisory council in observance of the spirit of the schedule V of Constitution of India and other relevant issues.

The book written by senior journalist Jay Singh Rawat  also analyses the demand for declaring the Rawain, Jaunpur and the Indo-Tibet border area as scheduled areas. While there  have been plethora of books on the Tribal issues recently, there have been very few books focusing on their History and their way of life and stressing on the need to understand the Tribal issues, while taking their history into account. The book has been lucidly written. The writer has tried to combine his own  journalistic experience and his own understanding of the Tribal History, about which he was always curious since childhood. The book has been published by Dehradun based Winsar Publication and  would prove useful for students and  Historians.




Saturday, June 22, 2013

SERIOUS THREAT TO HIMALAYAN SHRINES (CHAAR DHAAMS)

खतरे में हिमालय के चारों धाम
-जयसिंह रावत
हिमालय पर मानसून के हमले के बाद उत्तराखण्ड में चारों ओर तबाही का मंजर नजर रहा है। बेसुध सरकार और उसकी ऐजेंसियों को तो पता भी नहीं कि, आखिर केदारनाथ सहित विभिन्न स्थानों पर कितने लोग जिन्दा दफन हो गये और कितनों को उफनती नदियां लील गयीं। यह सब इतना जल्दी और इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि किसी को सम्भलने का मौका तक नहीं मिला। इतनी बड़ तबाही के बाद अब सवाल उठने लग गये हैं कि अगर पिछले वैज्ञानिक अध्ययनों और इसरो जैसे संगठनों की चेतावनियों पर गौर किया गया होता तो सम्भव है कि काफी हद तक जन और धन की हानि को कम किया जा सकता था। इन अध्ययनों में केदारनाथ ही नहीं बल्कि चारों हिमालयी धामों पर मंडराते खतरे के प्रति कई साल पहले ही नीति नियन्ताओं को आगाह कर दिया गया था।
हिमालय की स्थिति के कारण भूकम्प, भूस्खलन और बादल फटने से त्वरित बाढ़ जैसी आपदायें हिमालयी राज्यों की किश्मत में ही लिखी हुयी हैं। भूकम्प के लिये विज्ञानियों ने समूचे भारत को पांच संवेदनशील जोनों में बांटा हुआ है, जिनमें उत्तराखण्ड सर्वाधिक संवेदनशीन जोन पांच और चार में आता है। इसी तरह पर्यावरणविद् चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध और प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल से इसरो ने दर्जनभर विशेषज्ञ संस्थानों की सहायता से उत्तराखण्ड के भूस्खलन सम्भावित नक्शे भी तैयार कर रखे हैं। लेकिन उत्तराखण्ड सरकार है कि उसे इन चेतावनियों पर गौर करने की फुर्सत ही कहा है। होगी भी कैसे यहां साल के बारहों महीने कुर्सी बचाने और कुर्सी छीनने का म्यूजिकल चेयर का खेल चलता रहता है। और तो और सरकार का ध्यान उस केदार बाबा की घाटी, पर भी नहीं गया जहां लगभग हर साल भूस्खलन और त्वरित बाढ़ की जैसी आपदाऐं आम हो गयी हैं।
उत्तराखण्ड की ताजा भयावह त्रासदी में केदारनाथ धाम तबाही का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। इसी केदारनाथ की सुरक्षा के बारे में एक दशक से भी पहले वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान के विज्ञानियों ने आगाह कर दिया था। स्वयं मैंने इसी खतरे का जिक्र 2004 में छपे अपने एक लेख में कर दिया था। समुद्रतल से 3581 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ मंदिर की सुरक्षा के बारे में उत्तराखण्ड विधानसभा में भी सवाल उठ चुके हैं। इस मंदिर के पृष्ठ भाग में बह रही मन्दाकिनी मंदिर परिसर का कटाव कर रही थी। इसी नदी ने इस बार बिकराल रूप धारण कर सेकड़ों मकान और कई लोगों को लील लिया। मंदिर को बचाने के लिये, सिंचाई विभाग ने सुरक्षा दीवार का निर्माण तो किया मगर असली खतरा तो मंदिर के पीछे वर्फ का जलस्तम्भ चोराबारी ग्लेशियर था। भूविज्ञानियों ने अपनी एक रिपोर्ट में एक दशक पहले ही मदिर के पीछे खड़े लगभग 8 कि.मी लम्बे चोराबारी ग्लेशियर से सम्भावित खतरे से आगाह कर दिया था। वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संसथान के विज्ञानियों का कहना था कि इस ग्लेशियर के मोरैन पर वर्फीली झीलों की संख्या बढ़ती जा रही है। झीलों का आयतन बढ़ने से उनमें हिमकणियां बन सकती हैं, जिनमें विस्फोट का खतरा रहता है। हिमालय पर वर्फ के ऊपर निरन्तर वर्फ गिरने से सबसे नीचे की वर्फ दबते-दबते अत्यधिक ठोस और गोलियों की तरह लघु आकार में जाती है। इन ठोस गोलियों को स्थानीय भाषा में कणियां कहा जाता है, जोकि फटने पर किसी भारी भरकम बम का जैसा भयंकर धमाका करती हैं। इस बार केदारनाथ के ऊपर इसी तरह का धमाका होने का अनुमान है।
केदारनाथ ही नहीं बल्कि हिन्दुओं का सर्वोच्च तीर्थ बद्रीनाथ, जिसे बैकुण्ठ धाम भी कहा जाता है, इसी तरह खतरे की जद में है। बद्रीनाथ मंदिर को हिमखण्ड स्खलन (एवलांच) से बचाने के लिये सिंचाई विभाग ने नब्बे के दशक में एवलांचरोधी सुरक्षा उपाय तो कर दिये मगर वे उपाय कितने कारगर हैं, उसकी अभी परीक्षा नहीं हुयी है। मगर मंदिर के पृष्ठभाग में खड़े नारायण पर्वत के ठीक सिर पर आई दरार इस बार की केदारनाथ की जैसी त्रासदी की सम्भावनाओं को बढ़ा देती है। इस दरार का अध्ययन राज्य सरकार ने भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन निदेशक पी.सी. नवानी से कराया था। इस मंदिर को हिमस्खलन के अलावा अलकनन्दा द्वारा किये जा रहे कटाव से भी खतरा बना हुआ है। समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर अलकनन्दा के किनारे बने इस 15 मीटर ऊंचे मंदिर का कई बार जीर्णोद्धार हो चुका है। यह मंदिर पूर्व में भी विशाल एवलाचों से क्षतिग्रस्त हो चुका है। अतीत में प्रचण्ड भूकम्प के झटके भी इस मंदिर को कई बार झकझोर चुके हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार यह वैदिक काल से भी पुराना मंदिर है, जिसका आठवीं सदी में आद्यगुरू शंकराचार्य ने पुनर्निर्माण किया था।
भागीरथी के उद्गम क्षेत्र में स्थित गंगा नदी का गंगोत्री मंदिर भी निरन्तर खतरे झेलता जा रहा है। इस मंदिर पर भैंरोझाप नाला खतरा बना हुआ है। समुद्रतल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर का निर्माण उत्तराखण्ड को जीतने वाले नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने 19वीं सदी में किया था। करोड़ों हिन्दुओं की मान्यता है कि भगीरथ ने अपने पुरखों के उद्धार हेतु गंगा के पृथ्वी पर उतरने के लिये इसी स्थान पर तपस्या की थी। इसरो द्वारा देश के चोटी के वैज्ञानिक संस्थानों की मदद से तैयार किये गये लैण्ड स्लाइड जोनेशन मैप के अनुसार गंगोत्री क्षेत्र में 97 वर्ग कि.मी. इलाका भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है जिसमें से 14 वर्ग कि.मी. का इलाका अति संवेदनशील है। गोमुख का भी 68 वर्ग कि.मी. क्षेत्र संवेदनशील बताया गया है। भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिक पी.वी.एस. रावत ने अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में गंगोत्री मंदिर के पूर्व की ओर स्थित भैरांेझाप नाले को मंदिर के अस्तित्व के लिये खतरा बताया है और चेताया है कि अगर इस नाले का शीघ्र इलाज नहीं किया गया तो ऊपर से गिरने वाले बडे़ बोल्डर कभी भी गंगोत्री मंदिर को धराशयी करने के साथ ही भारी जनहानि कर सकते हैं। मार्च 2002 के तीसरे सप्ताह में नाले के रास्ते हिमखण्डों एवं बोल्डरों के गिरने से मंदिर परिसर का पूर्वी हिस्सा क्षतिग्रसत हो गया था। यह नाला नीचे की ओर संकरा होने के साथ ही इसका ढलान अत्यधिक है। इसलिये ऊपर से गिरा बोल्डर मंदिर परिसर में तबाही मचा सकता है।
यमुना के उद्गम स्थल यमुनोत्री धाम को अब तक आड़ देने वाला कालिन्दी पर्वत इस विख्यात तीर्थ के लिये खतरा बन गया है। 27 जुलाइ 2004 को कालिन्दी पर्वत पर हुये भूस्खलन से यमुनोत्री मंदिर के निकट सो रहे 6 लोग जान गंवा बैठे थे। इस हादसे के मात्र एक महीने के अन्दर ही कालिन्दी फिर दरक गया और उसके मलवे ने यमुना का प्रवाह ही रोक दिया।  कालिन्दी पर्वत यमुनोत्री मन्दिर के लिये स्थाई खतरा बन गया है। सन् 2001 में यमुना नदी में बाढ़ आने से मंदिर का कुछ भाग बह गया था।
पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर कैबिनेट सचिव की पहल पर इसरो ने सन् 2000 में वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान, भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र, भौतिकी प्रयोगशाला हैदराबाद, दूर संवेदी उपग्रह संस्थान आदि कुछ वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग से हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्य केन्द्रीय भ्रंश के आसपास के क्षेत्रों का लैण्ड स्लाइड जोनेशन मैप तैयार किया था। उसके बाद इसरो ने ऋषिकेश से बद्रीनथ, ऋषिकेश से गंगोत्री, रुद्रप्रयाग से केदारनाथ और टनकपुर से माल्पा ट्रैक को आधार मान कर जोखिम वाले क्षेत्र चिन्हित कर दूसरा नक्शा तैयार किया था। इसी प्रकार संसथान ने उत्तराखण्ड की अलकनन्दा घाटी का भी अलग से अध्ययन किया था। ये सभी अध्ययन 2002 तक पूरे हो गये थे और इन सबकी रिपोर्ट उत्तराखण्ड के साथ ही हिमाचल प्रदेश की सरकार को भी इसरो द्वारा उपलब्ध कराई गयी थी, मगर आज इन रिपोर्टों का कहीं कोई अता पता नहीं है।
उत्तराखण्ड के चारों तीर्थों के साथ ही समूचा प्रदेश भूकम्प, भूस्खलन एवं बादल फटने से त्वरित बाढ के गम्भीर खतरे की जद में है। राज्य के 232 गांव भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील घोषित किये गये हैं। हालांकि घोषणा के अलावा वहां कोई भी सुरक्षात्मक कार्य नहीं हुआ। सन् 1998 में मालपा के साथ ही ऊखीमठ और मदमहेश्वर घाटी में भारी तबाही हुयी थी। उस समय घाटी के लगभग एक दर्जन गांव खिसक गये थे और 100 से अधिक लोग मारे गये थे। मगर उन गांवों का आज तक पुनर्वास नहीं हुआ। उसके बाद केदार घाटी आपदाओं की घाटी बन गयी है मगर वहां आपदा प्रबन्ध के कोई उपाय नहीं हो पाये हैं। हिमालय के चारों तीर्थ बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री तथा सिख तीर्थ हेमकुण्ड साहिब हर साल लगभग 20 लाख देशी विदेशी तीर्थ यात्रियों को आकर्षित करते हैं। इन तीर्र्थों के लिये लगभग 1350 कि.मी. लम्बा रूट दर्जनों जगहों पर बेहद संवेदनशील होने के कारण लाखों तीर्थ यात्रियों के लिये जोखिमपूर्ण बना हुआ है।
इसरो द्वारा उत्तराखण्ड सरकार को सौंपी गयी रिपोर्ट के अनुसार ऋषिकेश से लेकर बद्रीनाथ के बीच 110 स्थान या बस्तियां भूस्खलन के खतरे में हैं और 441.57 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित है। इसी प्रकार केदारनाथ क्षेत्र में 165 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूस्खलन खतरे की जद में है। इस संयुक्त वैज्ञानिक अध्ययन में रुद्रप्रयाग से लेकर केदारनाथ तक 65 स्थानों को संवेदनशील बताया गया है। वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान का हवाला देते हुये इसरो की रिपोर्ट में ऋषिकेश के आसपास के 89.22 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील बताया गया है। इसी तरह देवप्रयाग के निकट 15 वर्ग कि.मी क्षेत्र को अति संवेदनशील माना गया है। श्रीनगर गढ़वाल के निकट 33 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील तथा 8 वर्ग कि.मी क्षेत्र को अति सेवेदनशील बताया गया है। इस साझा अध्ययन में सी.बी.आर.आइ. रुड़की की भी मदद ली गयी है। इन संस्थानों के अध्ययनों का हवाला देते हुये रुद्रप्रयाग से लेकर बद्रीनाथ तक सड़क किनारे की 52 बस्तियों को तथा टिहरी से गोमुख तक 365.29 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील और 32.075 वर्ग कि.मी. को अति संवेदनशील बताया गया है। भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के डा0 प्रकाश चन्द्र की एक अध्ययन रिपोर्ट में डाकपत्थर से लेकर यमुनोत्री तक के 144 कि.मी. क्षेत्र में 137 भूस्खलन संवेदनशील स्पाट बताये गये हैं।
 पिछले साल उत्तरकाशी में असी गंगा की श्रोत झील डोडीताल पर बादल फटा था जिससे असी गंगा ने भारी तबाही मचा दी थी। इस बार केदारनाथ केे बासुकी ताल पर बादल फट गया। हिमालय पर भारी जलराशियों वाली ऐसी सेकड़ों झीलें हैं, जिनसे भविष्य में भारी तबाही हो सकती है। सन् 1840 से लेकर 1998 तक उत्तराखण्ड में 15 बड़ी और दर्जनों छोटी भूस्खलन या त्वरित वाढ़ त्रासदियां चुकी हैं। सन् 1846 में काली नदी में भूस्खलन से नदी का बहाव कुछ समय के लिये रुक गया था। सन् 1857 में इसी मन्दाकिनी का जल प्रवाह भारी भूस्खलन से 3 दिन तक रुक गया था और जब नदी का प्रवाह खुला तो बाढ़ गयी थी। सन् 1898 में बिरही गंगा में भूस्खलन से बनी झील के टूटने से अलकनन्दा में बाढ़ गयी थी, जिससे 73 लोग मारे गये थे। उसके बाद सन् 1894 में बिरही गंगा में गौणाताल बना जो 1970 में टूटा तो अलकनन्दा फिर विफर गयी। सन् 1978 में कण्डोलिया गाड पर भूस्खलन से बनी झील के टूटने से भगीरथी में बाढ़ गयी थी।
उत्तराखण्ड सरकार ने स्वयं भी प्रदेश के 232 गांव भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील तो घोषित कर दिये मगर उनकी सुरक्षा के उपाय नहीं किये। राज्य सरकार अभी तक 1998 में उजड़े केदार घाटी के गावों का पुनर्वास नहीं कर पाई। जब सरकार अपनी ही रिपोर्टों पर गौर नहीं करती तो फिर उससे इसरो की रिपोर्ट पर गौर करने के बाद कार्यवाही की उम्मीद कैसे की जा सकती है। राज्य सरकार की यह लापरवाही अब तक तो केवल उत्तराखण्डवासियों पर भारी पड़ रही थी मगर इस लापरवाही की चपेट में इस बार देशभर के हजारों तीर्थ यात्री भी गये हैं। पर्यावरण की दृष्टि से इन हिमालयी तीर्थों की धारक क्षमता या कैरीइंग कैपेसिटी समाप्त हो चुकी है। ऐसी स्थिति में सवाल उठने लगा है कि क्या इतनी भारी संख्या में तीर्थ यात्रियों को इतने अधिक  इको फ्रेजाइल क्षेत्र में जाने देना या उन्हें आकर्षित करना सुरक्षित है?
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-जयसिंह रावत
पत्रकार
- 11 फें्रण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
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