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Tuesday, May 28, 2019

क्या भारत राष्ट्रपति शासन प्रणाली की ओर जा रहा है ? (साभार अमर उजाला ब्लॉग 28 मई )


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मोदी ने नई तरह से दिए चुनाव प्रणाली में बदलाव के संकेत? ये बड़े फैसले ले सकती है नई सरकार
जयसिंह रावत Updated Tue, 28 May 2019 03:47 PM IST 
17वीं लोकसभा के चुनाव परपंरा से हटकर रहा।17वीं लोकसभा के चुनाव परपंरा से हटकर रहा। - फोटो : PTI

संसदीय लोकतंत्र में पहले सांसद (एमपी) चुने जाते हैं और फिर वही सांसद बहुमत के आधार पर प्रधानमंत्री (पीएम) को चुनते हैं। लेकिन 17वीं लोकसभा के चुनाव में मामला उल्टा-उल्टा सा नजर आयाक्योंकि प्रधानमंत्री ने चुनाव अभियान के दौरान स्वयं ही स्वयं को पीएम घोषित कर लिया और उसके बाद देश की जनता से एमपी चुनने की अपील कर दी। चुनाव अभियान के इस नये ढर्रे को संवैधानिक परम्पराओं की उलटबासी या मोदी विरोधियों की खामो-खयाली कहकर टाल देने के बजाय आने वाले समय में देश की शासन व्यवस्था में बड़े बदलावों का संकेत माना जा सकता है।
आखिर किस बदलाव की ओर है व्यवस्था?
दरअसल, देश के संसदीय लोकतंत्र की खामियों और प्रजातांत्रिक गणराज्य की अवधारणा के सही अर्थों में फलीभूत होने के कारण संसदीय लोकतंत्र के विकल्प के रूप अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों की तरह ऐसी राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत की जा रही है, जिसमें राष्ट्र प्रमुख ही शासन प्रमुख होता है जो कि भारत की तरह तो विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है और ना ही विधायिका बहुमत के आधार पर उसे हटा सकती हैउसमें सामूहिक जिम्मेदारी की भी सोच नहीं है, क्योंकि वहां मंत्री चुने हुए लेजिस्लेटर्स की नहीं बल्कि राष्ट्रपति द्वारा अपनी पसन्द से नियुक्त होते हैं। लोकसभा या विधानसभाओं के चुनाव सदैव मौजूदा सरकार और उसके मुखिया की उपलब्धियों और भावी कार्यक्रमों पर लड़े जाते हैं और मुखिया के पिछले कामकाज पर जनता अपना फैसला भी देती हैइसलिए अब डेमोक्रेसी और एण्टी इन्कम्बेंसी एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे ही हो गए हैं। अगर फैसला पक्ष में गया तो सरकार के उस मुखिया का दुबारा मुखिया चुने जाने की केवल औपचारिकता ही रह जाती हैइसीलिये अक्सर राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए भावी मुखिया के तौर पर एक चेहरा आगे कर लेते हैं और चुनाव जीतने पर वही नेता सरकार का मुखिया बनने के लिए औपचारिक तौर पर निर्वाचित सदस्यों के बहुमत से चुन लिया जाता है। लेकिन राजनीतिक दल भले ही उस नेता को चुनाव अभियान में मुखिया घोषित कर लें मगर उस भावी मुखिया ने इस चुनाव से पहले तक कभी भी स्वयं को प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री घोषित करने में संयम जरूर बरता है। लेकिन इस बार लोकसभा के लिए जिस तरह चुनाव अभियान चला वह अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह का ही था।
 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी की तरह ही साहसिक फैसले ले सकते हैं। - फोटो : पीटीआई

मोदी जी को संवैधानिक तौर पर नया प्रधानमंत्री चुने जाने की प्रक्रिया 25 मई को नवनिर्वाचित भाजपा संसदीय दल एवं एनडीए घटक दलों के नये सांसदों की साझा बैठकों से शुरू हुई। इसी संवैधानिक औपचारिकता के बाद मोदी राष्ट्रपति भवन अपना दावा पेश करने गए और वहां से उन्हें औपचारिक रूप से सरकार बनाने का आमंत्रण मिला, लेकिन संसदीय दल से चुने जाने से पहले स्वयं को प्रधानमंत्री घोषित करने की परम्परा भी टूट गई।

मोदी में है इंदिरा गांधी की तरह साहस?
मोदी की ही तरह साहसिक निर्णय लेने वाली और एकाधिकार की प्रवृत्ति वाली इंदिरा गांधी पहली पारी में 4 मार्च 1967 से लेकर 24 मार्च 1977 तक 11 साल 59 दिनों की अवधि तक प्रधानमंत्री रहीं। वह 14 जनवरी 1980 से मृत्यु पर्यन्त 31 अक्टूबर 1984 तक दुबारा प्रधानमंत्री बनीं। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि उस समय भी उनके नाम से वोट मांगे जाते थे जो आज भी मांगे जा रहे हैं। लेकिन उन्होंने मंच से मोदी की तरह कभी नारे नहीं लगवाए कि ‘‘अब की बार फिर इंदिरा सरकार’’ इंदिरा गांधी विपक्षी दलों पर आरोप तो लगाती थी, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि ‘‘विपक्षी मेरी सरकार बनने से रोकने के लिए एक हो रहे हैं या महामिलावट कर रहे हैं।’’अभी थोड़े ही दिन तो हुए हैं। लोगों को याद होगा कि राहुल गांधी के ‘‘चौकीदार चोर’’ के जवाब में मोदी जी चुनावी सभाओं में मंच से आधा नारा स्वयं बोलकर शेष को जनता से कहलवाते थे कि-‘‘अब की बार फिर मोदी सरकार’’ या ‘‘जीतेगा तो मोदी ही’’ या फिर ‘‘मोदी है तो सब मुमकिन है’’ इस तरह उन्हें इस बार सीधे प्रधानमंत्री के तौर पर जनादेश मिला। उन्हें सांसदों (एमपी) ने प्रधानमंत्री (पीएम) नहीं बल्कि उन्होंने सांसद (एमपी) बनवाए। कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह अपना चुनाव अभियान चलाया वह अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव जैसा ही था जिसमें मोदी ने अपने तर्कों और हाजिर जवाबी से विपक्ष के हमलों को नियप्रभावी करने के साथ ही अपने हाथों में देश के सुरक्षित और विकसित होने के लिए देशवासियों को आश्वस्त किया।

नरेंद्र मोदी के पास चुनौतियां हैं तो उनसे लड़ने का साहस भी। - फोटो : PTI

नेपोलियन बोनापार्ट और पीएम मोदी के निर्णय
नेपोलियन बोनापार्ट जब यूरोप के कई देशों को जीतने के बाद फ्रांस लौटा तो वहां शासन व्यवस्था के साथ ही फ्रांस की क्रांति भी विफल हो गई थी। इसका लाभ उठाकर जब नेपालियन ने नवम्बर 1799 में डायरेक्टरी का तख्ता पलटकर सत्ता हासिल की तो उस समय उसने कहा था कि उसे ‘‘फ्रांस का ताज जमीन पर पड़ा हुआ मिला जिसे उसने अपनी तलवार की नोंक पर उठाकर अपने सिर पर धारण कर लिया।’’

बहरहाल, बात यहां तुलना की नहीं है लेकिन कुछ समानताओं के बावजूद नेपोलियन और नरेन्द्र मोदी की तुलना नहीं की जा सकती। फिर भी नेपोलियन का कथन आंशिक रूप से 17वीं लोकसभा के चुनाव में मोदी के साथ ही प्रासंगिक लगता है। वास्तव में मोदी ने नेपोलियन की तरह एक महत्वाकांक्षी और उद्दान्त लड़ाके की तरह चुनाव लड़ा और हर विपरीत परिस्थितियों को अपने युद्ध कौशल, आत्मविश्वास, ऊर्जा और कल्पाशीलता से अपनी ओर मोड़कर अपने पौरुष की तलवार से हिन्दुस्तान का ताज जीतने के साथ ही पार्टी और एनडीए घटकों के प्रत्याशियों को जिताया।

ऐसी स्थिति में मंत्रिमण्डल की सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धान्त भी अप्रासंगिक ही लग रहा है। जब मोदी ने कैबिनेट और रिजर्व बैंक को पूछे बिना अचानक नोटबंदी जैसा निर्णय ले लिए तो अब हालात पूरी तरह उनके नियंत्रण में हैं और पार्टी सहित सब कुछ उनकी मुट्ठी में है और अब भी जो कुछ उनकी मुट्ठी से बाहर है उसे मुट्ठी में बंद करने की उनकी चाहत छिपी नहीं हैसब कुछ नहीं तो अधिक से अधिक मुट्ठी में करने के लिए संविधान को वश में करना पड़ेगाइसलिए इस बार शासन व्यवस्था में असाधारण बदलाव अवश्यसंभावी है और उन बदलावों में संसदीय लोकतंत्र की जगह राष्ट्रपति प्रणाली और अगर वैसा हो सका तो विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने के जैसे संवैधानिक बदलावों की पूरी संभावना है। हो सकता है कि अनुच्छेद 370 और 35 () के बारे में भी बड़े फैसले हो जाएं।

तो क्या मोदी ले सकते हैं ये बड़े फैसले? 

मोदी की युगान्तरकारी फैसले लेकर इंदिरा गांधी से आगे निकलने की हसरत छिपी नहीं है। इंदिरा ने राजा महाराजाओं के प्रिवि पर्स समाप्त कर उन्हें प्रजा बनाने के साथ ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उन्होंने सिक्किम को भारत में मिलाकर और पाकिस्तान को दो फाड़कर दुनिया के राजनीतिक भूगोल को बदल दिया था। इसलिए मोदी वर्तमान में संसदीय लोकतंत्र की खामियों के कारण शासन प्रशासन की विकृतियां दूर करने के लिए राष्ट्रपति प्रणाली के लिए संविधान संशोधन करें तो अचरग नहीं होगा। इंदिरा गांधी के मन में भी फ्रांस की जैसी राष्ट्रपति प्रणाली थी, लेकिन राज्यसभा में पर्याप्त बहुमत होने के कारण वह ठिठक गईं।  मोदी को इस कार्यकाल में राज्यसभा में भी बहुमत मिल जाएगा। उस स्थिति में मोदी जो संवैधानिक परिवर्तन अपने पहले कार्यकाल में नहीं कर सके वे अब इस कार्यकाल में जरूर करेंगे। वाजपेयी जी के नेतृत्व में पहली बार एनडीए सरकार आई थी तो उस समय भी उनके मन में आमूल चूल परिवर्तनों की चाह थी। वाजपेयी सरकार ने भी सुप्रीमकोर्ट के पूर्व मख्य न्यायाधीश एम.. वैंकटचलैया की अध्यक्षता में 23 फरवरी 2000 को संविधान की समीक्षा के लिए एक 11 सदस्यीय आयोग का गठन किया थालेकिन विभिन्न घटक दलों की बैसाखियों के सहारे सरकार चलाने की मजबूरी के चलते वाजपेयी इस दिशा में आगे नहीं बढ़ सके। अब उनकी सोच को मोदी आगे बढ़ा सकते हैं।

क्या भारत अपनाएगा राष्ट्रपति शासन प्रणाली?
हमारे संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्र प्रमुख और शासन प्रमुख दो अलग-अलग हस्तियां होती हैं। राष्ट्र प्रमुख यानी कि राष्ट्रपति एक प्रतीकात्मक राष्ट्राध्यक्ष होता है, जबकि शासन प्रमुख के नाते प्रधानमंत्री के पास वास्तविक कार्यकारी शक्तियां होती हैं। दुनिया में लगभग 50 देशों में किसी किसी रूप में राष्ट्रपति शासन प्रणाली है जिनमें संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस, श्रीलंका और रूस जैसे देश शामिल हैं तो 2 दर्जन से अधिक देशों में अब भी वंशानुगत राजतंत्र है जहां सम्राट या मोनार्क ही राष्ट्राध्यक्ष होता है। राष्ट्रपति प्रणाली के समर्थक चाहते हैं कि हमारे देश में भी राष्ट्र प्रमुख और शासन प्रमुख एक ही व्यक्ति हो जिसे सीधे जनता द्वारा चुना जाए और अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह अपना राष्ट्रपति भी अपनी पसन्द की कैबिनेट का गठन करे जिसमें विभिन्न घटक दलों या जात-बिरादरी और क्षेत्र का सन्तुलन नहीं बल्कि योग्यता ही चयन का पैमाना हो। इसी तरह राज्यों में भी मुख्यमंत्री की जगह राज्यपाल का सीधे चुनाव हो जो कि अपनी पसन्द के सुयोग्य लोगों की कैबिनेट का गठन करे।

कैसी है वर्तमान संसदीय प्रणाली?  
वर्तमान संसदीय प्रणाली में संविधान के अनुच्छेद 74 और अनुच्छेद 75 के अनुसार केंद्र सरकार और अनुच्छेद 163 और 164 के अनुसार राज्यों में सरकारों का गठन सहित में संसदीय प्रणाली चलती है। न्यापालिका, कार्यपालिका और विधायिका संसदीय लोकतंत्र के तीन अंग हैं, मगर इनमें से कार्यपालिका और विधायिका एक दूसरे से जुड़े हैंक्योंकि विधायिका के बहुमत से ही सरकार बनती है और उसी के बहुमत पर सरकार टिकती भी है तथा उसी के द्वारा पारित कानूनों के हिसाब से सरकार को चलना होता है।  इस तरह कार्यपालिका सीधे तौर पर जनता द्वारा सीधे चुनी गई विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है। 

संसदीय लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की भावना प्रधानमंत्री को निरंकुश बनने से रोकती है। - फोटो : पीटीआई

संसदीय लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की भावना प्रधानमंत्री को निरंकुश बनने से रोकती है। जबकि राष्ट्रपति प्रणाली में राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा चुना गया होता है इसलिये वह सीधे जनता के प्रति जवाबदेह होता है और वह संसद से बाहर विशेषज्ञों या अपनी पसन्द के लोगों की कैबिनेट बनाता है। हमारी व्यवस्था में सरकार का मंत्री ज्यादा से ज्यादा 6 माह तक विधायिका से बाहर का हो सकता है और उस अवधि में उसे चुनाव जीत कर एम.पी. या एम.एल.. बनना पड़ता है। राष्ट्रपति प्रणाली में राज्यपाल भी सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं और उसकी कैबिनेट भी निजी होती है। भारत में जिस तरह खण्डित जनादेश, अवसरवादिता, सिद्धान्तहीनता और पदलोलुपता के कारण राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है उसका सीधा असर बेहतर शासन और जनेच्छाओं पर पड़ता है। यद्यपि हमारे संविधान निर्माताओं ने ग्यारह सत्रों में दो साल, 11 महीने और 17 दिन काफी सघन चर्चा और बहस-मुबाहिशों के बाद जो बेमिसाल संविधान तैयार किया था।

भारत विभिन्न वर्गों, जातियों, धर्मों और संस्कृतियों के विभिन्न समूहों का राष्ट्र है। इस विविधता में लोगों की आशाओं और अभिलाषाओं में भी विधिता स्वाभाविक है। इस उद्देश्य कार्यपालिका को और अधिक जवाबदेह बनाने और उस पर जनभावनाओं का नियंत्रण रखने के लिए विधायिका के प्रति जवाबदेह बनाया था। हमारे लोकतंत्र में ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र और अमेरिका के गणराज्यीय लोकतंत्र से अच्छी-अच्छी बातें लेकर तैयार संविधान को आदर्श शासन व्यवस्था माध्यम बनाया गया था। लेकिन उसमें अब तक 103 संशोधनों के बावजूद इच्छित परिणाम नहीं मिल पाए हैं। मुख्य राष्ट्रीय राजनीतिक धारा द्वारा क्षेत्रीय अभिलाषाओं और भारत जैसे विशाल राष्ट्र की विविधताओं की उपेक्षा के कारण जो क्षेत्रीयता उभर रही है। खण्डित जनादेश के कारण राजनीति अस्थिरता बढ़ गई है। कोई जात-बिरादरी तो कोई धर्म के नाम पर जनता की एकता को खण्डित कर रहा है। ऐसी स्थिति में 4 या 5 साल की स्थिर और मजबूत सरकार के लिए ही राष्ट्रपति प्रणाली के पक्ष में आवाजें उठ रही हैं। (साभार अमर उजाला ब्लॉग 28  मई  )

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।