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Wednesday, July 13, 2016

My article  titled “ARUNANCHAL PART-2 IN UTTARAKHAND” Published in march 2016

उत्तराखंड में अरुणाचल भाग - दो
-जयसिंह रावत
उत्तराखंड में असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिल कर हरीश रावत सरकार की चूलें हिला कर भारत की केन्द्रीय सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी ने फिलहाल पुलिस के घोडे की झूलती हुयी लहूलुहान टंाग के विभत्य दृष्य से मचे बवाल से देश और दुनियां का ध्यान हटाने में तो कामयाबी हासिल कर ली लेकिन एक कृत्य के पाप से मुक्त होने के लिये किये गये इस दूसरे कृत्य के राजनीतिक पाप से वह इतनी जल्दी छुटकारा पा लेगी, इसकी संभावना कम ही नजर रही है। जनता की यादास्त को बहुत कमजोर मान कर भाजपा ने घोड़े की टांग तोड़ने के अपयश को भुलाने के लिये उत्तराखंड में जोअरुणाचल पार्ट टूका गेम खेला उससे उसने एक और तोहमत अपने सिर ले ली है। यही नहीं उसने छोटे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता को और अधिक हवा देने का पाप भी अपने सिर ले लिया है।
उत्तराखंड में किसी बहाने राष्ट्रपति शासन लागू होने की आशंकाएं कुछ सप्ताहों से प्रकट की जा रही थीं। इसके पीछे राजनीतिक कयासबाजों द्वारा तर्क यह दिया जा रहा था कि भाजपा हरीश रावत जैसे खाटी राजनीतिज्ञ के शासन के बजाय राष्ट्रपति के शासन के तहत राज्य में चुनाव को आसान मान रही है। हो सकता है कि कयासबाजों की यह कोरी कल्पना रही हो, मगर इस बीच देहरादून में भाजपा के एक जबरदस्त प्रदर्शन के दौरान पुलिस के घोड़े की टांग टूट गयी और सोशियल मीडिया सहित मुख्य धारा के मीडिया ने उस घटना को इस तरह प्रचारित कर दिया कि घोड़े की यह लहूलुहान टंाग भाजपा के गले की फांस बन गयी। कहां तो भाजपा सड़कों पर इस सफल शक्ति प्रदर्शन के अतिरेक में 2017 में देहरादून में अपनी सरकार के सपने देख रही थी और कहां इस घटना से देशभर में उसकी फजीहत हो गयी। संभवतः पुलिस के तीन टांग वाले इस घायल घोड़े के खून के छींटे धोने के लिये उसे उत्तराखंड में अरुणाचल प्रहसन को दोहराना पड़ा। लेकिन यह काम उसे इतनी जल्दबाजी में करना पड़ा कि देहरादून में ईटानगर को दुहराने का प्रयास समय से पहले भू्रण को जन्म देने (प्रीमैच्यौर डिलिवरी) के समान हो गया। वैसे भी हरीश रावत कोई नवाम टुकी नहीं हैं और विजय बहुगुणा या हरक सिंह रावत कोई कालिखो पुल नहीं जो कि अपने ही दल के विधायक दल का बड़ा हिस्सा अपने साथ कर लें। इसी तरह ईटानगर के राजभवन के राजखोवा की तरह देहरादून के राजभवन में कोई खाटी राजनीतज्ञ नहीं बल्कि एक विद्वान पूर्व नौकरशाह बैठा हुआ है।
बहरहाल देश और दुनिया का ध्यान फिलहाल घोड़े की टूटी टांग से तो हट गया लगता है, मगर सत्ता की इस अनावश्यक और असमय उठापटक में भाजपा की भूमिका ने उसे अपयश की एक खाई से निकलने के बाद दूसरी खाई में अवश्य धकेल दिया है। कुछ ही महीनों बाद उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव होने हैं और अपने भले-बुरे कर्म के लिये राज्य की कांग्रेस सरकार ने जनता की अदालत में जाना है। उसके कर्मों का फल जनता ने देना है, मगर भाजपा ने कांग्रेस के चंद असन्तुष्टों से मिल कर जनता के बदले का काम खुद ही करने की उतावली कर दी। यह समय वित्तीय वर्ष की क्लोजिंग का है। हर कोई जानता है कि इस समय सरकार की ओर से चलाई जा रही सभी गतिविधियां चरमोत्कर्ष पर होती हैं। सरकारी विभागों को अपने टारगेट पूरा करने का अंतिम मौका इसी समय मिलता है। अगर सरकारी मशीनरी के ऊपर कोई पूछनहार हो तो वह ढीली पड़ जाती है। सरकार को गिराने में जुटी भाजपा और उसके असंतुष्ट बागी कांग्रेसी मित्र कहते हैं कि बजट पास ही नहीं हुआ। अगर सचमुच ही बजट पास नहीं हुआ तो पहली अप्रैल से सरकारी खर्च कैसे चलेगा? पहली अप्रैल को कर्मचारियों का वेतन कैसे बंटेगा? अगर सरकार को गिराना इतना ही जरूरी था तो क्या इसके लिये चुना गया यह समय राज्यहित में था? हरीश रावत सरकार में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शामिल लोगों की ईमान्दारी पर सवाल तो अवश्य ही उठते रहे हैं लेकिन जो लोग आज सरकार पर भ्रष्टाचार और माफियाराज का आरोप लगा रहे हैं, उनके दामन कितने साफ हैं, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है।
राजनीति में कब क्या हो जाय, उसकी भविष्यवाणी करना बहुत ही मुश्किल होता है। वैसे भी राजनीति में स्थाई दोस्त नहीं होता है तो कोई स्थाई दुश्मन भी नहीं होता है। इसलिये राजनीति का ऊंट कब किस करबट बदल जाय, वह राजनीतिक ज्योतिषियों की पकिल्पना के राडार में नहीं पाता है। बहरहाल एक चुनी हुयी सरकार को अकारण गिराने के क्या परिणाम होंगे, यह सच्चाई भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भली भांति जानते हैं। हरीश रावत सरकार को संकट में डालने पर कांग्रेस के बागी और भाजपाई आपस में मिठाई बांट रहे हैं, लेकिन वे यह भूल गये हैं कि एक चुनी हुयी सरकार को गिराने और राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने के क्या दुष्परिमाण होते हैं। आज कांग्रेस की सरकार है तो कल भाजपा की सरकार भी सकती है। एक चुनी हुयी सरकार को अपनों के ही द्वारा गिराये जाने का सबसे कटु अनुभव भाजपा को ही है। अगर कल यही काम कांग्रेस करती है तो तब भाजपाई क्या कहेंगे?
उत्तराखंड, झारखंड और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता का जो माहौल व्याप्त है उससे छोटे राज्यों की अवधारणा पर ही सवाल उठने लगे हैं। कुछ समय पहले गोवा में भी ऐसे ही हालात बने थे। उत्तराखंड में 15 सालों में 8 मुख्यमंत्री गये हैं और नवें की ताजपोशी के लिये भाजपा और कांग्रेसी बागी जोर लगा रहे हैं। इन 15 सालों में झारखंड में ऐसा कोई मुख्यमंत्री नहीं रहा जिसने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया हो।

छोटे राज्यों के गठन का मुख्य मुद्दा अच्छा शासन और दु्रत विकास ही रहा है। लेकिन व्यवहार में आज छोटे राज्य का मतलब कम काम और सुविधाएं अधिक हो गया है। इसका मतलब सत्ता की बंदरबांट में अधिकाधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं का हिस्सा भी आप मान सकते हैं। राज्य का विकास हो या हो मगर सत्ता के गलियारों के ये जीव दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते है जिससे छोटे राज्य में बेहतर प्रशासन की अवधारणा धूमिल होती जा रही है। इसके विपरीत इन राज्यों में कुशासन, भ्रष्टाचार, भयादोहन और राजनीतिक दलों द्वारा सौदेबाजी का बोलवाला बढ़ रहा है। झारखंड में जब एक निर्दलीय करोड़पति मधुकोडा के हाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी लगी तो उन्होंने भ्रष्टाचार के कीर्तिमान तोड़ डाले। छोटे राज्यों की मांग प्रशासनिक अकुशलता, भेदभावपूर्ण विकास, राजनेताओं की महत्वाकांक्षाओं आदि के कारण ही होती है। लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर किया जाय तो आज छोटे राज्यों में राजनीतिक अवसरवाद बढ़ता जा रहा है, इसके कारण प्रशासन में भी ढीलापन रहा है। जिन रहनुमाओं को अपने राज्य के लिये अगले पचास या सौ साल के बारे में सोचना है वे केवल अपने ही भविष्य के बारे में सोच रहे हैं। इन राज्यों में राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का सारा ध्यान और ऊर्जा कुर्सी बचाने या कुर्सी झपटने में लगी होती है। यही नहीं ! कुर्सी बचाने के लिये कई तरह के समझौते करने पड़ रहे हैं। उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी जैसे राजनीति के महारथी को अपनी कुर्सी बचाने के लिये सेकड़ों की संख्या में मंत्रियों के जैसे ठाठबाट वाले पद बांटने पड़े। लालबत्तियों का रोग लगभग सभी राज्यों में फैल चुका है। मेघालय में पिछली बार तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.डी. लपांग ने तीन पदधारी नेताओं को मुख्यमंत्री पद का दर्जा तक दे दिया था, जिनमें दो पूर्व मुख्यमंत्री थे। उन्होंने अपने सलाहकार लिंगदोह के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष लिंगदोह और गठबन्धन में शामिल यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और योजना आयोग के अध्यक्ष दोन्कुपर राय और आर्थिक विकास परिषद के अध्यक्ष जे.डी. रिम्बाइ को भी मुख्यमंत्री का दर्जा दिये जाने से संविधान के मखौल की तो इन्तेहा ही हो गयी।
उत्तराखंड जैसे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के चलते अवसरवाद का बोलबाला हो गया है। राजनीतिक निष्ठायें ऐसी हो गयीं, जैसे कि कभी पेरिस में फैशन बदलते थे। विपक्ष में बैठकर जिनको महाभ्रष्ट कहा जाता था वे साथ जाने पर अचानक मर्यादा पुरुषोत्तम हो जाते हैं और जो मर्यादा पुरुषोत्तम दूसरे राजनीतिक खेमे में चले जाते हैं वे अचानक महाभ्रष्ट कहलाने लगते हैं। छोटे राज्य इस राजनीतिक अवसरवादिता की भारी कीमत चुका रहे हैं।

जयसिंह रावत
पत्रकार
-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,

डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।