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Monday, July 4, 2016



संसदीय सचिव : दो मुंहे कानून, दोगली व्यवस्था
-जयसिंह रावत

राष्ट्रपति भवन द्वारा दिल्ली सरकार में संसदीय सचिव पद को लाभ की श्रेणी से बाहर निकालने सम्बन्धी विधेयक को नामंजूर किये जाने से संविधान की मूल भावना के विपरीत उसके विभिन्न प्रावधानों का राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये दुरुपयोग किये जाने और राजनीतिक दोमुंहे और दोगलेपन का भी पर्दाफाश हो गया है। संविधान के प्रावधानों का स्वार्थसिद्धि के लिये दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जो संसदीय सचिव दिल्ली, गोवा और पश्चिम बंगाल में लाभ की श्रेणी में माने गये हैं वे उत्तराखण्ड जैसे कई राज्यों में वैधानिक रूप से अलाभकारी घोषित किये गये हैं। जो भाजपा दिल्ली और उत्तराखण्ड में इन पदों पर नियुक्ति को संविधान की मूल भावना का उल्लंघन मान रही है, उसे यह उल्लंघन भाजपा शासित प्रदेशों में नजर नहीं रहा है। भाजपा यह भी भूल गयी है कि उत्तराखण्ड में सबसे पहले 7 संसदीय सचिवों की नियुक्ति के साथ ही यह संवैधानिक पाप उसी के कार्यकाल में शुरू हुआ था। भाजपा के उसी पाप का रसपान अब उत्तराखण्ड में कांग्रेस सरकार कर रही है।
संसदीय सचिव का जो पद संविधान के अनुच्छेद 191 के तहत दिल्ली, गोवा और पश्चिम बंगाल में लाभ का पद माना जा सकता है वही पद उसी अनुच्छेद के तहत देश के अन्य राज्यों में अलाभकारी कैसे हो सकता है?वास्तव में सवाल केवल लाभ के पद के दायरे में आने का नहीं है। संविधान के अनुसार विधायिका के सदस्य मंत्री पद के अलावा सरकार के किसी भी लाभ के पद को स्वीकार नहीं कर सकते। यह बंदिश संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के लिये अनुच्छेद 102 में तथा विधान सभा के सदस्यों के लिये अनुच्छेद 191 में रखी गयी हैं। इसके पीछे संविधान निर्माताओं की भावना यह थी कि केन्द्र या राज्य की सरकारें विधायिका (सदन) के प्रति जवाबदेह होती हैं। इसी जवाबदेही के तहत विधायिका के सदस्य सदन में सरकार का जवाबतलब करते हैं तथा उसके कार्यों की समीक्षा कर उसका भविष्य तय करते हैं। इसलिये उन्हें सरकार से ऐसा लाभ का पद स्वीकारने की मनाही है जिससे सरकार के प्रति सदस्य की राय या उसके निर्णय प्रभावित हों। वैसे भी सदस्यों को वेतन- भत्ते, यातायात और आवास जैसी काफी सुविधाएं मिल जाती हैं, इसलिये यह अपने आप में ही भारी लाभ का पद होता है। संविधान के इन्हीं दो अनुच्छेदों में यह प्रावधान भी रखा गया है कि विधायिका बहुमत से लाभ के दायरे में माने जाने वाले कुछ पदों को इस परिभाषा के दायरे से बाहर निकाल सकती है। इस प्रावधान का प्रयोग सत्ता में आने वाले राजनीतिक दल अपनी सहूलियतों के हिसाब से समय-समय पर करते रहे हैं। सन् 2004 में जया बच्चन के मामले में उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद का अध्यक्ष पद और 2006 में सोनिया गांधी के मामले में राष्ट्रीय विकास परिषद का अध्यक्ष पद लाभ के पद के दायरे से बाहर निकाला जा चुका है। उत्तराखण्ड में भाजपा और कांग्रेस की सरकारें कई खेपों में अब तक विधानसभा से कुल 93 पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर निकलवा चुकी हैं।
प्रश्न यह है कि दिल्ली के संसदीय सचिव अगर मंत्री के ही समान हैं और मंत्री के समान होने के नाते उनकी नियुक्ति से संविधान के 91 वें संशोधन के प्रावधानों का उल्लंघन होता है तो देश के अन्य राज्यों में जहां संसदीय सचिवों समेत अनेक संविधानेत्तर पदों का श्रृजन किया गया है, वहां संविधान का उल्लंघन क्यों नहीं हो रहा है? हालांकि दिल्ली के संसदीय सचिव अतिरिक्त वेतनभत्ते नहीं पा रहे हैं। मगर उन्हें कार, ड्राइवर जैसी सुविधाएं तो मिल ही रही हैं। कुछ नहीं तो मंत्री जैसा रुतवा तो मिल ही रहा है। क्या रुतवा पाना लाभान्वित होना नहीं है? वैसे भी संविधान में लाभ के पद वाली बंदिश के पीछे भावना यह थी कि सदस्य सरकार से उपकृत हो कर सरकार के पक्ष में प्रभावित हो जाँय। लेकिन बाकी राज्यों में तो संसदीय सचिव धड़ल्ले से उन तमाम सुविधाओं को भोग रहे हैं जो कि मंत्री भोगते हैं। उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है। सवाल उठता है कि अगर विधानसभा या संसद रात को दिन और दिन को रात घोषित करने के लिये कानून बना दे तो क्या दिन और रात की यही नयी परिभाषा मान ली जाय?
संसदीय लोकतंत्र में विधायिका के पास विधान बनाने के असीमित अधिकार होते हैं। लेकिन ये अधिकार विधि निर्माताओं को अपने हित के लिये नहीं बल्कि देश और समाज के हित के लिये दिये गये हैं। लेकिन दिल्ली समेत विभिन्न राज्यों में जिस तरह विधानसभाओं के सदस्यों के वेतन भत्ते और तमाम अन्य सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं तथा सत्ताधारियों के राजनीतिक हितों को साधने वाले कानून बन रहे हैं, उसे देख कर तो यही लग रहा है कि इस कलयुग में वृक्ष अपने फल स्वयं खाने लग गये तथा नदियां अपना जल स्वयं ही पीने लग गयी हैं। वह इसलिये हो रहा है क्योंकि जो मांगने वाले हैं वही देने वाले भी हैं। वरना केजरीवाल या किसी भी अन्य दल के मुख्यमंत्री की क्या मजाल थी कि मंत्रियों के जैसे ठाठबाट और रुतवे वाले संसदीय सचिव पद को विधानसभाओं से गैरलाभकारी पद घोषित करा दें। उत्तराखण्ड में तिवारी से लेकर भुवन चन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक और फिर विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री रहते हुये संसदीय सचिव सहित 93 ऐसे पद विधानसभा से अलाभकारी घोषित करा दिये जिनके वेतन भत्तों, आवास, कार्यालय, स्टाफ और कारों पर सरकार को हर साल 30 से लेकर 40 करोड़ रुपये खर्च होते हैं।
भारत सरकार के कानून मंत्रालय को दिल्ली सरकार में संसदीय सचिवों की नियुक्ति इसलिये संविधानेत्तर नजर आई क्योंकि वे नियुक्तियां मोदी सरकार को दिन-रात गरियाने वाले केजरीवाल ने की थीं। अगर दिल्ली मेंआपके बजाय भाजपा की सरकार होती तो क्या तब भी विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को संविधान की भावना के विपरीत माना जाता। अन्य राज्यों की तरह अगर दिल्ली भी पूर्ण राज्य होता तो यह विधेयक राष्ट्रपति के बजाय राज्यपाल के पास चला जाता और वहां से आसानी से पास भी हो जाता। बाकी राज्य भी राजनीतिक रेवड़ियां बांटने के लिये यही कर रहे हैं।
कुछ राज्यों में इस तरह की सविधानेत्तर नियुक्तियों पर अंकुश लग गया है। कलकत्ता हाइकोर्ट ने विशाल भट्टाचार्य बनाम पश्चिम बंगाल सरकार (2005) वाले फैसले में साफ कहा है कि विधायकों की संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति करना संविधान में मंत्रिमण्डल के सदस्यों की अधिकतम् सीमा के निर्धारण के प्रावधान को बाइपास करना या उससे बच कर निकलने का उपक्रम ही है। गोवा में भी संसदीय सचिव पद को मंत्री के समान मानकर सरकार के फैसले को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है। उत्तराखण्ड में भाजपा इस मामले का नैनीताल हाइकोर्ट में अवश्य ले गयी मगर ऐन मौके पर उसने कदम पीछे खींच लिये, क्योंकि वह सव्यं ऐसे कृत्य में शामिल रही है और आगे भी सत्ता में आने पर उसे यही सबकुछ करना है। उत्तराखण्ड में 2010 में भाजपा की ही सरकार ने 7 संसदीय सचिवों को नियुक्त कर तथा उन्हें मंत्री का दर्जा देकर यह परम्परा डाली थी। लेकिन जब हरीश रावत ने कांग्रेस के विधायकों को पटाने के लिये उन्हें रेवड़ियों की तरह संसदीय सचिव पद बांट लिये तो भाजपा को उसमें संवैधानिक पाप नजर आने लगा और उसके वरिष्ठ नेता तथा पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रकाश पन्त ने इन नियुक्तियों को नैनीताल हाइकोर्ट में चुनौती दे डाली। इस कानूनी चुनौती को मंजिल तक नहीं पहुंचाया जाना था, क्यों कि अगली बार सत्ता में आने पर विधायकों को खुश रखने और सत्ता की बंदरबांट के लिये यही संवैधानिक पाप भाजपा को भी करना है, इसलिये प्रकाश पन्त ने इस याचिका को हाइकोर्ट में अपनी मौत मरने के लिये लावारिश छोड़ दिया।
संविधान इस पद की नियुक्ति के लिये मनाही तो नहीं करता है मगर संविधान का 91वां संशोधन मंत्रिमण्डल सदस्यों की अधिकतम् सीमा तय करता है। इसलिये अगर इन पदों को मंत्री का जैसा ही पद मान लिया जाता है तो इनकी नियुक्ति से मंत्रिमण्डल का आकार बर्जित सीमा तक पहुंच जाता है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में सचिवालय अनुदेश 1982 के अनुच्छेद 7 की धारा 52 से लेकर 61 तक में संसदीय सचिवों को मंत्रियों का ही दर्जा दिया गया है और विधायिका के कुल सदस्यों के 15 प्रतिशत से अधिक मंत्रिमण्डल के सदस्यों की संख्या नहीं हो सकती है। छोटे राज्यों के लिये मुख्यमंत्री समेत मंत्रिमण्डल के सदस्यों की अधिकतम् सीमा 12 है। संविधान के 69 वें संशोधन के तहत जोडे़ गये अनुच्छेद 239 कक और 239 कख के तहत तय दिल्ली विधानसभा की सदस्य संख्या के अनुरूप वहां के मंत्रिमण्डल की संख्या 6 से अधिक नहीं हो सकती है और केजरीवाल ने 6 मंत्रियों के अतिरिक्त मंत्री जैसे ओहदे वाले 21 संसदीय सचिव नियुक्त कर दिये थे।
यह सही है कि विधानसभाओं को अनुच्छेद 191 तथा संसद को अनुच्छेद 102 के तहत इस बंदिश के साथ ही कुछ पदों को लाभ की श्रेणी से बाहर निकालने हेतु विधेयक पारित करने का अधिकार अवश्य है, लेकिन इस प्रावधान का दुरुपयोग किये जाने से संविधान के 91वें संशोधन की मूल भावना का अतिक्रमण अवश्य हो रहा है। स्मरणीय है कि जब 1998 में कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के सभी बागियों को अपने साथ मिलाने के लिये उन सबको मंत्री बनाना पड़ा तो उनके मंत्रिमण्डल की संख्या 92 तक पहुंच गयी थी जो कि तब तक का सबसे बड़ा मंत्रिमण्डल था। गठबन्धन सरकारों का युग पैर पसारने लगा तो राज्यों में सरकारें बचाने और बनाने के लिये मंत्रिमण्डलों का आकार बेसुमार बढ़ने लगा। इस स्थिति पर नियंत्रण के लिये बाजपेयी सरकार ने चुनाव सुधारों की श्रृंखला में मंत्रिमण्डल का आकार तय करने के लिये संविधान में 91 वां संशोधन 2003 में संसद से पारित कराया और राष्ट्रपति द्वारा इसकी अधिूसचना 7 जनवरी 2004 को जारी की गयी। जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं में कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक ही मंत्रिमण्डल की सदस्य संख्या सीमित कर दी गयी। छोटे राज्यों के लिये यह सीमा 12 तय की गयी। चूंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है इसलिये उसके मंत्रियों की संख्या मात्र 6 तक ही सीमित की गयी। मगर राज्य सरकारों ने संवैधानिक प्रावधानों को बाइपास कर हजारों की संख्या में संविधानेत्तर पदधारी बनाने शुरू कर दिये। इनमें विभिन्न राज्यों में बने संसदीय या सभा सचिव भी शामिल हैं।  अगर इस तरह के विवादों का समाधान निकालना है तो संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 के छेद बंद कर संविधान के 91 वें संशोधन में भी सुधार करना होगा।

जयसिंह रावत
पत्रकार
-11 फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल-09412324999


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