आपदाओं से बचाव और राहत अब भी दूर
-जयसिंह रावत
20 मार्च 1991 को जब उत्तरकाशी में विनाशकारी भूकम्प आया था तो हफ्तेभर तक स्थिति साफ नहीं हुयी थी कि किस इलाके में जानोमाल का कितना नुकसान हुआ है। इसके ठीक 8 साल बाद 28 मार्च 1999 को जब चमोली में धरती डोली तो 72 घण्टों तक वास्तविक क्षति और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र का पता नहीं चल पाया था। गजब तो तब हो गया जबकि 16 और 17 जून को केदार घाटी में आयी जल प्रलय हजारों लोगों को लील गयी, मगर देहरादून में बैठी सरकार के कानों तक मंदाकिनी की भयानक गर्जना तीन दिन तक नहीं पहुंच पायी। जब सूचना ही समय पर नहीं मिलेगी तो बचाव या राहत की आशा कैसे की जा सकती है? सूचना प्रोद्योगिकी की महाक्रांति के दौर के मीडिया की सजगता से अब प्रकृति के प्रकोप की सूचनाएं रफ्तार तो पकड़ गयीं मगर अब भी भौगोलिक विकटताएं उन सूचनाओं का लाभ उठा कर संकटग्रस्त लोगों तक पहुंचने में आड़े आ रही हैं। आपदा के समय ’रिस्पांस टाइम’कम न हो पाने के कारण हम चाह कर भी तत्काल प्रभावित क्षेत्र में जाकर मलबे के अन्दर आखिरी सांस ले रहे लोगों को उनकी सांसे थमने से पहले बचा नहीं पा रहे हैं।
31 जून और पहली जुलाइ की रात को पिथौरागढ़ जिले की डीडीहाट और थल तहसीलों के सिगाली, दाफीला, बस्तड़ी एवं नौलड़ा गावों में बादल फटने से भारी तबाही की सूचना तो सोशियल और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये सुबह होते ही जंगल की आग की तरह जहां तहां पहुंच तो गयी थी मगर राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर ऐसी ही स्थिति से निपटने के लिये तैनात नेशनल डिसआस्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) और स्टेट डिसआस्टर रिसपांस फोर्स (एसडीआरएफ) की टीमें तत्परता से बचाव कार्य में नहीं जुट पायीं। एनडीआरएफ की इस मजबूरी पर इस बल के महानिदेशक का दूसरे दिन कहना था कि उनके बचाव दल रवाना तो हो गये मगर मार्ग जहां तहां टूट जाने के कारण बचाव दलों की मोबिलिटी धीमी हो गयी है। उन्हें हैलीकाप्टर से आपदा प्रभावित क्षेत्र में पहुंचाने का प्रयास किया गया तो मौसम बेहद खराब होने के कारण वह उड़ नहीं पाया। बहरहाल सेना, आइटीबीपी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और आपदा प्रबन्धन विभाग के लोग जान जोखिम में डाल कर घटनास्थलों तक तो पहुंच गये और उन्होंने कुछ लोगों को फिर भी बचा ही लिया। लेकिन अगर इस आपदा प्रबंधन का रिस्पांस टाइम कुछ और कम होता तो निश्चित ही कुछ और जानें बचाई जा सकती थीं। अब तो सवाल यह भी उठ रहा है कि अगर 2013 में इसी तरह राज्य सरकार हरकत में आती तो जान बचा कर पहाड़ पर चढ़े उन सेकड़ों लोगों की जानें भी बचाई जा सकतीं थीं जो कि ठण्ड, भूख, प्यास और बिना इलाज के प्राण गंवा बैठे।
दैवी आपदा और उत्तराखण्ड एक दूसरे पर्याय बन गये हैं। ऐसा कोई साल नहीं गुजरता जब कि इस पहाड़ी राज्य में प्रकृति के कोप से कहीं न कहीं भारी तबाही न होती हो। प्रकृति की यह विनाशलीला कुछ सालों या दशकों से नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है फिर भी हर साल जानोमाल की भारी क्षति हो ही जाती है। देखा जाय तो हम अतीत के भयावह अनुभवों से सबक नहीं सीख पा रहे हैं। हम कह सकते हैं कि हम प्रकृति के साथ उस तरह जीना नहीं सीखे जिस तरह भूकम्पों के लिये अति संवेदनशील जापान के लोग सीखे हैं। अगर हम कुछ सीखे होते तो इतने कटु अनुभवों से लाभ जरूर उठाते।
माना कि भूकम्प जैसी आपदा के लिये अभी तक दुनिया के विकसित देश भी ’अर्ली वार्निंग सिस्टम’ विकसित नहीं कर पाये हैं। मगर भूकम्प के अलावा भी अन्य आपदायें हैं जिनकी पूर्व चेतावनी लोगों को दी जा सकती हैं और अगर पूर्व चेतवानी नहीं भी दी जा सकी तो समय से बचाव और राहत पहुंचा कर लोगों के जानोमाल की रक्षा तो की ही जा सकती है या नुकसान को कम किया जा सकता है। वैसे भी विज्ञान के इस युग में उपग्रहों की आंखें धरती के अन्दर तक झांक रही हैं। आसमान में मंडरा रहे ये उपग्रह मौसम के बारे में सटीक जानकारी भी दे रहे हैं। इसलिये त्वरित बाढ़ या भूस्खलन की पूर्व चेतावनी देना अब कठिन कार्य नहीं रह गया है। उपग्रह के चित्रों से पता चल जाता है कि जमीन के अन्दर कहां पर बदलाव नजर आ रहा है। जहां तक मानसूनी भूस्खलन संभावित गावों या क्षेत्रों का सवाल है तो केन्द्रीय ऐजेंसियों ने उत्तराखण्ड के अधिकांश क्षेत्रों का ’लैण्डस्लाइड जोनेशन मैप’ नब्बे के दशक में ही बना दिया था और उसके बाद राज्य सरकार ने स्वयं अपने स्तर पर सर्वे कराया है जिसमें 263 गावों को भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील माना गया है। लेकिन राज्य सरकार ने इन गावों के बचाव की या इन गावों के विस्थापन की व्यवस्था करने के बजाय सर्वे का काम निपटा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। आर्थिक रूप से लगभग पूरी तरह केन्द्र सरकार पर निर्भर राज्य सरकार इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकती है। जब राज्य सरकार को अपने द्वारा पारित सालाना बजट के लिये भी केन्द्र के आगे नाक रगढ़नी पड़ रही हो तो फिर आपदाग्रस्त गावों को अन्यत्र बसाने के लिये बजट की कल्पना तो दूर की कौड़ी ही मानी जा सकती है।
केन्द्र सरकार की उदासीनता के कारण उत्तराखण्ड में मौसम के सटीक पूर्वानुमान लगाने वाले डॉप्लर राडार अभी तक धरातल पर नहीं उतर पाए। जबकि 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद केन्द्र सरकार ने अपने मौसम विभाग के लिये उत्तराखण्ड के मसूरी और अल्मोड़ा में भी ये डाप्लर राडार लगाने की घोषणा की थी। देश में इस तरह के कुल 55 डॉप्लर राडार स्थापित किये जाने हैं, जिनमें से 17 स्थानों पर पहले ही ये स्थापित किये जा चुके हैं। इनके लिये राज्य सरकार की ओर से भूमि चयनित कर ली गई है, मगर केन्द्र सरकार द्वारा धन उपलब्ध न कराये जाने से इस योजना पर काम शुरू नहीं हो सका है। इसी तरह यहां मलबे में जिंदा दबे व्यक्तियों की तलाश में काम आने वाले ’हीट सेंसर’ उपकरण लगने थे जिनकी खरीद भी नहीं हो सकी। राहत-बचाव अभियान में जीपीएस प्रणाली के उपयोग को भी प्रदेश में अब तक प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सका है।
उत्तराखण्ड में प्राकृतिक आपदाओं में जानोमाल के नुकसान के न्यूनीकरण में राजनीतिक अस्थिरता तथा अदूरदर्शिता तो आड़े आ ही रही है साथ ही स्वयंभू विशेषज्ञों की बेतुकी भविष्यवाणियां और बेहूदे आंकलन भी नीतिनिर्धारकों और ’डिसिजन मेकर्स’ को गुमराह करते रहे हैं। पहले ये विशेषज्ञ 2013 की केदारनाथ आपदा के लिये बिजली प्रोजेक्टों को जिम्मेदार बता रहे थे और अब बादल फटने के लिये टिहरी बांध को जिम्मेदार बताने लगे हैं। इन स्वंभू विशेषज्ञों का दावा है कि टिहरी बांध के जलाशय से जो वास्पोर्त्सजन हो रहा है उससे भी बादल बन रहे हैं और वे बादल जहां तहां फट रहे हैं। इस तरह के बेतुके दावे करने वाले स्वयंभू विशेषज्ञ भूल गये कि अगर टिहरी बांध के वास्पोत्सर्जन से इतनी अधिक वर्षा हो रही है तो पिछले साल प्रदेश में सूखा क्यों पड़ा? सामान्यतः बादल वहां फटते हैं जहां उनके मार्ग में केदारनाथ डोम जैसी ऊंची पहाड़ियां खड़ी हो जाती हैं, जिन्हें वे पार न कर वहीं एक जगह पर बरस जाते हैं। टिहरी बांध तो 2007 से लबालब है। इसी तरह ये लोग केदारनाथ की तबाही के लिये बिजली प्रोजेक्टों को दोषी ठहराते रहे हैं। जबकि बादल केदारनाथ से भी ऊपर चोराबाड़ी ग्लेशियर पर फटा था जहां किसी प्रोजक्ट या बांध का सवाल ही नहीं उठता है। इस आपदाग्रस्त प्रदेश में भूकम्प, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरना, आंधी, तूफान के साथ ही राजनीतिक आपदा के जुड़ जाने से आपदाओं की सूची और लम्बी हो गयी है। इस नवीनतम् आपदा के कारण सत्ताधारियों का ध्यान लोगों के जानेमाल की हिफाजत पर कम और कुर्सी बचाने पर अधिक केन्द्रित हो गया है।
-जयसिंह रावत
पत्रकार
ई- 11 फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
jaysinghrawat@gmail.com, jaysinghrawat@hotmail.com
-जयसिंह रावत
20 मार्च 1991 को जब उत्तरकाशी में विनाशकारी भूकम्प आया था तो हफ्तेभर तक स्थिति साफ नहीं हुयी थी कि किस इलाके में जानोमाल का कितना नुकसान हुआ है। इसके ठीक 8 साल बाद 28 मार्च 1999 को जब चमोली में धरती डोली तो 72 घण्टों तक वास्तविक क्षति और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र का पता नहीं चल पाया था। गजब तो तब हो गया जबकि 16 और 17 जून को केदार घाटी में आयी जल प्रलय हजारों लोगों को लील गयी, मगर देहरादून में बैठी सरकार के कानों तक मंदाकिनी की भयानक गर्जना तीन दिन तक नहीं पहुंच पायी। जब सूचना ही समय पर नहीं मिलेगी तो बचाव या राहत की आशा कैसे की जा सकती है? सूचना प्रोद्योगिकी की महाक्रांति के दौर के मीडिया की सजगता से अब प्रकृति के प्रकोप की सूचनाएं रफ्तार तो पकड़ गयीं मगर अब भी भौगोलिक विकटताएं उन सूचनाओं का लाभ उठा कर संकटग्रस्त लोगों तक पहुंचने में आड़े आ रही हैं। आपदा के समय ’रिस्पांस टाइम’कम न हो पाने के कारण हम चाह कर भी तत्काल प्रभावित क्षेत्र में जाकर मलबे के अन्दर आखिरी सांस ले रहे लोगों को उनकी सांसे थमने से पहले बचा नहीं पा रहे हैं।
31 जून और पहली जुलाइ की रात को पिथौरागढ़ जिले की डीडीहाट और थल तहसीलों के सिगाली, दाफीला, बस्तड़ी एवं नौलड़ा गावों में बादल फटने से भारी तबाही की सूचना तो सोशियल और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये सुबह होते ही जंगल की आग की तरह जहां तहां पहुंच तो गयी थी मगर राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर ऐसी ही स्थिति से निपटने के लिये तैनात नेशनल डिसआस्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) और स्टेट डिसआस्टर रिसपांस फोर्स (एसडीआरएफ) की टीमें तत्परता से बचाव कार्य में नहीं जुट पायीं। एनडीआरएफ की इस मजबूरी पर इस बल के महानिदेशक का दूसरे दिन कहना था कि उनके बचाव दल रवाना तो हो गये मगर मार्ग जहां तहां टूट जाने के कारण बचाव दलों की मोबिलिटी धीमी हो गयी है। उन्हें हैलीकाप्टर से आपदा प्रभावित क्षेत्र में पहुंचाने का प्रयास किया गया तो मौसम बेहद खराब होने के कारण वह उड़ नहीं पाया। बहरहाल सेना, आइटीबीपी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और आपदा प्रबन्धन विभाग के लोग जान जोखिम में डाल कर घटनास्थलों तक तो पहुंच गये और उन्होंने कुछ लोगों को फिर भी बचा ही लिया। लेकिन अगर इस आपदा प्रबंधन का रिस्पांस टाइम कुछ और कम होता तो निश्चित ही कुछ और जानें बचाई जा सकती थीं। अब तो सवाल यह भी उठ रहा है कि अगर 2013 में इसी तरह राज्य सरकार हरकत में आती तो जान बचा कर पहाड़ पर चढ़े उन सेकड़ों लोगों की जानें भी बचाई जा सकतीं थीं जो कि ठण्ड, भूख, प्यास और बिना इलाज के प्राण गंवा बैठे।
दैवी आपदा और उत्तराखण्ड एक दूसरे पर्याय बन गये हैं। ऐसा कोई साल नहीं गुजरता जब कि इस पहाड़ी राज्य में प्रकृति के कोप से कहीं न कहीं भारी तबाही न होती हो। प्रकृति की यह विनाशलीला कुछ सालों या दशकों से नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है फिर भी हर साल जानोमाल की भारी क्षति हो ही जाती है। देखा जाय तो हम अतीत के भयावह अनुभवों से सबक नहीं सीख पा रहे हैं। हम कह सकते हैं कि हम प्रकृति के साथ उस तरह जीना नहीं सीखे जिस तरह भूकम्पों के लिये अति संवेदनशील जापान के लोग सीखे हैं। अगर हम कुछ सीखे होते तो इतने कटु अनुभवों से लाभ जरूर उठाते।
माना कि भूकम्प जैसी आपदा के लिये अभी तक दुनिया के विकसित देश भी ’अर्ली वार्निंग सिस्टम’ विकसित नहीं कर पाये हैं। मगर भूकम्प के अलावा भी अन्य आपदायें हैं जिनकी पूर्व चेतावनी लोगों को दी जा सकती हैं और अगर पूर्व चेतवानी नहीं भी दी जा सकी तो समय से बचाव और राहत पहुंचा कर लोगों के जानोमाल की रक्षा तो की ही जा सकती है या नुकसान को कम किया जा सकता है। वैसे भी विज्ञान के इस युग में उपग्रहों की आंखें धरती के अन्दर तक झांक रही हैं। आसमान में मंडरा रहे ये उपग्रह मौसम के बारे में सटीक जानकारी भी दे रहे हैं। इसलिये त्वरित बाढ़ या भूस्खलन की पूर्व चेतावनी देना अब कठिन कार्य नहीं रह गया है। उपग्रह के चित्रों से पता चल जाता है कि जमीन के अन्दर कहां पर बदलाव नजर आ रहा है। जहां तक मानसूनी भूस्खलन संभावित गावों या क्षेत्रों का सवाल है तो केन्द्रीय ऐजेंसियों ने उत्तराखण्ड के अधिकांश क्षेत्रों का ’लैण्डस्लाइड जोनेशन मैप’ नब्बे के दशक में ही बना दिया था और उसके बाद राज्य सरकार ने स्वयं अपने स्तर पर सर्वे कराया है जिसमें 263 गावों को भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील माना गया है। लेकिन राज्य सरकार ने इन गावों के बचाव की या इन गावों के विस्थापन की व्यवस्था करने के बजाय सर्वे का काम निपटा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। आर्थिक रूप से लगभग पूरी तरह केन्द्र सरकार पर निर्भर राज्य सरकार इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकती है। जब राज्य सरकार को अपने द्वारा पारित सालाना बजट के लिये भी केन्द्र के आगे नाक रगढ़नी पड़ रही हो तो फिर आपदाग्रस्त गावों को अन्यत्र बसाने के लिये बजट की कल्पना तो दूर की कौड़ी ही मानी जा सकती है।
केन्द्र सरकार की उदासीनता के कारण उत्तराखण्ड में मौसम के सटीक पूर्वानुमान लगाने वाले डॉप्लर राडार अभी तक धरातल पर नहीं उतर पाए। जबकि 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद केन्द्र सरकार ने अपने मौसम विभाग के लिये उत्तराखण्ड के मसूरी और अल्मोड़ा में भी ये डाप्लर राडार लगाने की घोषणा की थी। देश में इस तरह के कुल 55 डॉप्लर राडार स्थापित किये जाने हैं, जिनमें से 17 स्थानों पर पहले ही ये स्थापित किये जा चुके हैं। इनके लिये राज्य सरकार की ओर से भूमि चयनित कर ली गई है, मगर केन्द्र सरकार द्वारा धन उपलब्ध न कराये जाने से इस योजना पर काम शुरू नहीं हो सका है। इसी तरह यहां मलबे में जिंदा दबे व्यक्तियों की तलाश में काम आने वाले ’हीट सेंसर’ उपकरण लगने थे जिनकी खरीद भी नहीं हो सकी। राहत-बचाव अभियान में जीपीएस प्रणाली के उपयोग को भी प्रदेश में अब तक प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सका है।
उत्तराखण्ड में प्राकृतिक आपदाओं में जानोमाल के नुकसान के न्यूनीकरण में राजनीतिक अस्थिरता तथा अदूरदर्शिता तो आड़े आ ही रही है साथ ही स्वयंभू विशेषज्ञों की बेतुकी भविष्यवाणियां और बेहूदे आंकलन भी नीतिनिर्धारकों और ’डिसिजन मेकर्स’ को गुमराह करते रहे हैं। पहले ये विशेषज्ञ 2013 की केदारनाथ आपदा के लिये बिजली प्रोजेक्टों को जिम्मेदार बता रहे थे और अब बादल फटने के लिये टिहरी बांध को जिम्मेदार बताने लगे हैं। इन स्वंभू विशेषज्ञों का दावा है कि टिहरी बांध के जलाशय से जो वास्पोर्त्सजन हो रहा है उससे भी बादल बन रहे हैं और वे बादल जहां तहां फट रहे हैं। इस तरह के बेतुके दावे करने वाले स्वयंभू विशेषज्ञ भूल गये कि अगर टिहरी बांध के वास्पोत्सर्जन से इतनी अधिक वर्षा हो रही है तो पिछले साल प्रदेश में सूखा क्यों पड़ा? सामान्यतः बादल वहां फटते हैं जहां उनके मार्ग में केदारनाथ डोम जैसी ऊंची पहाड़ियां खड़ी हो जाती हैं, जिन्हें वे पार न कर वहीं एक जगह पर बरस जाते हैं। टिहरी बांध तो 2007 से लबालब है। इसी तरह ये लोग केदारनाथ की तबाही के लिये बिजली प्रोजेक्टों को दोषी ठहराते रहे हैं। जबकि बादल केदारनाथ से भी ऊपर चोराबाड़ी ग्लेशियर पर फटा था जहां किसी प्रोजक्ट या बांध का सवाल ही नहीं उठता है। इस आपदाग्रस्त प्रदेश में भूकम्प, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरना, आंधी, तूफान के साथ ही राजनीतिक आपदा के जुड़ जाने से आपदाओं की सूची और लम्बी हो गयी है। इस नवीनतम् आपदा के कारण सत्ताधारियों का ध्यान लोगों के जानेमाल की हिफाजत पर कम और कुर्सी बचाने पर अधिक केन्द्रित हो गया है।
-जयसिंह रावत
पत्रकार
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