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Monday, April 29, 2019

क्या नतीजे तय करेंगे त्रिवेन्द्र रावत का भविष्य?

Article of Jay Singh Rawat carried by Amar Ujala blog on April 29, 2019




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उत्तराखंड का चुनावी हालः क्या नतीजे तय करेंगे त्रिवेन्द्र रावत का भविष्य?
 
Updated Mon, 29 Apr 2019 04:57 PM IST 
क्या उत्तराखंड में भाजपा दर्ज करेगी जीत- फोटो : अमर उजाला
भाजपा ने लोकसभा चुनाव में भले ही उत्तराखण्ड की पांचों सीटों पर ठीकठाक प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, लेकिन वास्तव में हर एक सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशियों का मुकाबला भाजपा प्रत्याशियों से होकर सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से था। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने भी अपनी उपलब्धियों और अपने नाम से नहीं बल्कि सीधे मोदी के नाम पर जनता से वोट मांगे, इसलिए राज्य में अगर एक सीट भी भाजपा हार गई तो उसे सीधे मोदी की हार माना जाएगा जिसका खामियाजा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को भुगतना पड़ सकता है। 
क्या है उत्तराखंड में भाजपा की स्थिति
भाजपा पूरे देश में एक-एक सीट के लिए मेहनत कर रही है, ऐसे उत्तराखण्ड में भाजपा की एक भी सीट गई तो उसका असर त्रिवेन्द्र रावत की कुर्सी के स्थायित्व पर पड़ सकता है। उत्तराखण्ड की सभी 5 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुकाबला है और रुझान भाजपा के पक्ष में नजर रहा है। लेकिन कांग्रेस ने कमजोर माने जाने वाले कुछ भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ हरीश रावत जैसे दिग्गज नेता उतार कर अंधेरे में उजाले की रोशनी की उम्मीद पाली हुई है। ऊपर से राज्य में त्रिवेन्द्र सरकार के खिलाफ एण्टी इन्कम्बेंसी और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा डबल इंजन का वायदा निभा पाने की बात मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस की उम्मीदों को जीवित रखे हुए है।

क्या है कांग्रेस की स्थिति?
कांग्रेस प्रदेश की 5 सीटों में से भी सबसे अधिक आशान्वित नैनीताल-उधमसिंहनगर सीट के प्रति नजर रही है। इस उम्मीद का कारण वहां के कांग्रेस प्रत्याशी हरीश रावत का भाजपा प्रत्याशी अजय भट्ट की तुलना में भारी भरकम व्यक्तित्व, लंबा राजनीतिक कैरियर एवं उनके प्रति सहानुभूति माना जा रहा है।

कांग्रेस अपने पक्ष में जातीय समीकरण को मानने के साथ ही अल्पसंख्यक मतों के प्रति भी आश्वस्त नजर रही है। अजय भट्ट गत् विधानसभा चुनाव में जबरदस्त मोदी लहर के बावजूद रानीखेत विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए थे और 2012 के विधानसभा चुनाव में अपने प्रतिद्वन्दी करण महरा से 80 से कम वोटों के अंतर से जीत पाए थे। उससे पहले 2007 में भी करण महरा ने अजय भट्ट को हराया था। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में हरीश रावत भी हरिद्वार ग्रामीण एवं किच्छा सीटों से मुख्यमंत्री रहते हुए हार गए थे, लेकिन हार के बावजूद वह निरन्तर सक्रिय रहे और अपने पक्ष में सहानुभूति बटोरने में काफी हद तक सफल माने जाते रहे हैं।
 
हरीश रावत समर्थक चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस सरकार बनने पर रावत की कैबिनेट में सीट पक्की होने की उम्मीद जगाने के साथ ही नैनीताल के मतदाताओं को नारायण दत्त तिवारी की 1991 की हार की याद दिलाने से नहीं चूके। उस समय तिवारी नैनीताल से चुनाव नहीं हारते तो उनका नरसिम्हा राव की जगह प्रधानमंत्री बनना पक्का था। हरीश रावत समर्थक नैनीताल-उधमसिंहनगर के मतदाताओं को भुवनचन्द्र खण्डूड़ी, भगतसिंह कोश्यारी और रमेश पोखरियाल निशंक की याद भी दिलाते रहे हैं, जो कि पूर्व मुख्यमंत्री होते हुए भी मोदी कैबिनेट में जगह नहीं पा सके। इस संसदीय सीट पर अब तक हुए 15 लोकसभा चुनावों में से 10 में कांग्रेस विजयी रही। इस बार वहां हरीश रावत को अपने ही दल के लोगों और खास कर प्रतिपक्ष की नेता इंदिरा हृदयेश की नाराजगी का डर भी सता रहा था।

टिहरी संसदीय सीट और कांग्रेस
कांग्रेस रणनीतिकार टिहरी संसदीय सीट पर भी अपनी स्थिति मजबूत मान रहे हैं। इसके पीछे कांग्रेस की खुशफहमी यह है कि उस सीट पर भाजपा प्रत्याशी माला राज्यलक्ष्मी शाह की संसद और निर्वाचन क्षेत्र में सक्रियता नगण्य रही है। उन्होंने लोकसभा में अपने पांच साल के कार्यकाल में केवल 33 सवाल पूछे थे। उनके खिलाफ टिहरी रियासत की राजशाही के दौरान तिलाड़ी जैसे काण्डों का प्रचार भी उनके विरोधी चुनाव अभियान में करते रहे हैं। जबकि कांग्रेस प्रत्याशी प्रीतम सिंह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के साथ ही वह चकराता विधानसभा सीट पर निरन्तर जीत हासिल करते रहे हैं। उन्हें इस संसदीय क्षेत्र की 14 में से अपने गृह क्षेत्र चकराता और विकासनगर में सर्वाधिक मत मिलने की उम्मीद तो है ही साथ ही सहसपुर से भी भारी समर्थन मिलने की उम्मीद है। 

सहसपुर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है जहां इस चुनाव में भारी मतदान भी हुआ है। प्रीतम को पुरोला और धनोल्टी के जनजातीय संस्कृति वाले क्षेत्रों से भी अच्छे मत मिलने की उम्मीद है। लेकिन इन कुछ सीटों की बढ़त बाकी अधिसंख्य विधानसभा सीटों पर बह रही मोदी बयार के आगे कितनी टिक पाएगी, इसका पता 23 मई को ही चलेगा। इस सीट पर वैसे भी टिहरी के राज परिवार का एक तरह से एकाधिकार रहा है। 1951 में पहले चुनाव में राजमाता कमलेन्दुमती शाह ने कांग्रेस की देशव्यापी लहर में भी निर्दलीय के तौर पर यह सीट जीती थी। उनके बाद महाराजा माबेन्द्र शाह टिहरी से 8 बार तथा राज्यलक्ष्मी शाह 2 बार सांसद रहीं। महाराजा को केवल 1971 में कांग्रेस के परिपूर्णानन्द पैन्यूली हरा पाए थे।

सर्जिकल स्ट्राइक और मोदी लहर
कांग्रेस ने मोदी लहर से पार पाने के लिए पौड़ी गढ़वाल में सिटिंग भाजपा सांसद मेजर जनरल (सेनि) भुवनचन्द्र खण्डूड़ी के पुत्र मनीष खण्डूड़ी को उतारकर एक जबरदस्त दांव तो चला था फिर भी पाकिस्तान के बालाकोट पर हवाई हमला और उससे पहले पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक से मोदी के प्रति उपजी जबरदस्त लहर पर कांग्रेस के दांव का ज्यादा असर नजर नहीं आता है। केवल इसी सीट पर नहीं बल्कि सभी पांचों सीटों पर कांग्रेस ने मनीष खण्डूड़ी के पिता एवं वर्तमान सांसद मेजर जनरल (सेनि) भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को मोदी सरकार की रक्षा तैयारियों पर सवाल उठाने पर संसद की रक्षा सम्बन्धी समिति से हटाये जाने का मुद्दा पूरे जोर-शोर से उठाया था। इस सीट पर 1951 से लेकर अब तक 8 बार कांग्रेस, पांच बार भाजपा (भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ही) और एक-एक बार तिवारी कांग्रेस, भालोद और जनता दल प्रत्याशी विजयी रहे। इसी संसदीय क्षेत्र में गढ़वाल रायफल्स रेजिमेंटल सेंटर लैंसडौन है और यहीं प्रदेश के सर्वाधिक सेवारत् और सेवानिवृत सैनिक हैं। थल सेनाध्यक्ष बिपिन रावत एवं उनके पिता जनरल लक्ष्मण सिंह रावत का गृह जिला पौड़ी भी यहीं है, इसलिए मोदी द्वारा की गई सैन्य कार्यवाहियों का सबसे अधिक असर भी यहीं माना जाता है।

कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जनरल खण्डूड़ी के अपमान को उनके पुत्र के माध्यम से कैश करने का प्रयास तो अवश्य किया और कांग्रेस के इस दांव से ब्राह्मण मतदाताओं को तोड़ने में भी कांग्रेस को कुछ हद तक सफलता मिली फिर भी सैन्य बाहुल्य इस क्षेत्र में मोदी लहर को नकारा नहीं जा सकता। कोटद्वार भावर से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र नीती-माणा तक 17,820 वर्ग किमी में फैले इस निर्वाचन क्षेत्र में 2004 में कांग्रेस के सतपाल महाराज को 41.08% और भाजपा के जनरल खण्डूड़ी को 51.21% मत, 2009 में कांग्रेस के सतपाल महाराज को 44.41% और भाजपा से जनरल टीपीएस रावत को 41.15% मत तथा 2014 में कांग्रेस के हरक सिंह रावत को 32.33% और भाजपा के जनरल भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को 59.31% मत मिले थे।

हरीश रावतः संभावना और कांग्रेस का हाल
कांग्रेस महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की अपनी सीट जीतें या जीतें मगर उन्होंने पड़ोस की अल्मोड़ा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप टमटा की संभावनाओं को नुकसान अवश्य पहुंचा दिया है। चुनाव अभियान में अल्मोड़ा से अधिकांश कांग्रेस कार्यकर्ता प्रदीप टमटा को मझधार में छोड़कर अपने बड़े नेता हरीश रावत का प्रचार करने नैनीताल पहुंच गए थे। कहां तो हरीश रावत ने अल्मोड़ा सीट को भी प्रभावित करने के लिए नैनीताल सीट चुनी थी और कहां अल्मोड़ा में कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप टमटा के लिए हरीश घाटे का सौदा साबित हो गए। इस सीट पर 2004 में कांग्रेस को 42.69% और भाजपा को 44.64%, 2009 में कांग्रेस को 41.70% और भाजपा को 40.36% और 2014 में कांगे्रस को 38.43% और भाजपा को 53% मत मिले थे।

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि राजनीति के मंझे खिलाड़ी हरीश रावत ने गत् विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी चूक कर दी। पिछले चुनाव में अगर वह दोनों मैदानी सीटों से लड़ने के बजाय पहाड़ की एक सीट से भी लड़ते तो जरूर चुनाव जीत जाते। इस बार उन्होंने भगतसिंह कोश्यारी के मैदान छोड़ने पर नैनीताल सीट को सबसे आसान और प्रतिद्वन्दी अजय भट्ट को सबसे कमजोर मान लिया जबकि वह इस बार भी हरिद्वार सीट पर किश्मत आजमाते तो जीत की सम्भावनाएं नैनीताल से अधिक हरिद्वार में थी। क्षेत्रफल (3,114 वर्ग किमी) के हिसाब से सबसे छोटे और मतदाताओं की संख्या (18,40,732)  के हिसाब से सबसे बड़े इस संसदीय क्षेत्र पर इस बार बसपा-सपा गठबंधन के बावजूद अल्पसंख्यकों का स्पष्ट रुझान कांग्रेस की ओर देखा गया।  इस सीट पर भगवानपुर, पिरान कलियर, मंगलोर और ज्वालापुर विधानसभा क्षेत्रों में 2004, 2009 और 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपराजेय रही। यहां साढ़े तीन लाख से लेकर पौने चार लाख के बीच अल्पसंख्यक मतदाता माने जाते हैं जिनका झुकाव इस बार कांग्रेस की ओर नजर रहा था।

कुल मिलाकर देखा जा तो भाजपा के कमजोर प्रत्याशियों और एंटी इन्कम्बेंसी के बावजूद उत्तराखण्ड की हर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशियों का असली मुकाबला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से ही था। हरिद्वार में रमेश पोखरियाल निशंक के अलावा भाजपा का एक भी प्रत्याशी ऐसा नहीं था जिसने अपने नाम और अपने काम पर वोट मांगे हों।  यहां तक कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने भी केवल मोदी का चेहरा सामने रख कर मतदाताओं से मतदान करने की अपील की थीइसलिए अगर इन पांच सीटों में से अगर किसी भी सीट पर भाजपा की हार होती है तो उसे मोदी की हार माना जायेगा और मोदी की इस हार के लिए सीधे-सीधे मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी को जिम्मेदार माना जाएगा। जाहिर है भाजपा के अंदर भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए लालायित नेताओं की निगाहें भी 23 मई को आने वाले चुनाव नतीजों पर टिकी हुई हैं। वैसे भी राज्य गठन के बाद भाजपा के किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है।
 
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : यह लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है