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Friday, January 30, 2015




 हरीश रावत का एक साल -
राजनीति के सूरमा को विकास के मोर्चे पर चुनौती
-जयसिंह रावत
उत्तराखंड की सक्रिय राजनीति के महारथी हरीश रावत की दशकों पुरानी मुराद पूरी होने के बाद मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल की वर्षगांठ ही गयी है। इस एक वर्ष में उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल का लोहा केवल विपक्षी भाजपा के सूरमाओं से बल्कि अपने ही दल के प्रतिद्वन्दियों से भी मनवा लिया है। लेकिन दशकों से विशिष्ट परिस्थितियों से घिरे इस पहाड़ी भूभाग के लोगों की परेशानियों और उनके अरमानों के साथ कदमताल कर रहे इस माटी के सपूत से विकास के मोर्चे पर किसी करामात की अभी भी प्रतीक्षा जारी है।
पहली फरबरी 2014 को विजय बहुगुणा से प्रदेश की कमान छीनने के बाद हरीश रावत को उत्तराखंड की कमान संभाले एक वर्ष होने को है। इस कुर्सी के लिये वह राज्य गठन से पहले से तब से निगाहें गढ़ाये हुये , जब उन्हें लगा था कि अलग राज्य से कम पर उत्तराखंडी मानने वाले नहीं हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव से नजदीकियों के चलते उन्होंने भी उत्तराखंड को हिल काउंसिल का दर्जा दिलाने का प्रयास किया था। हालांकि पिछले 14 सालों के अनुभव और राजनीतिक बिरादरी के नंगे नाच को देखते हुये अब राजनीतिक अराजकता से मुक्ति के लिये वही रास्ता सबसे सही लग रहा है। फिर भी अलग राज्य से कम पर बात बनने पर वह उत्तरखंड संयुक्त संघर्ष समिति से संरक्षक के तौर पर जुड़ कर स्वयं भी आंदोलन में कूद गये थे। बाद में राज्य बनने के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पहले अध्यक्ष के तौर पर उनकी ही मेहनत से 2002 में कांग्रेस को नव गठित प्रदेश में पहला विधानसभा चुनाव जीतने और पहली निर्वाचित सरकार का गठन करने का ऐतिहासिक अवसर मिला। मगर जब सरकार का नेतृत्व करने की बारी आयी तो बाजी राजनीति के महारथी नारायण दत्त तिवारी के हाथ लग गयी। उसके बाद 2012 में जब कांग्रेस को दूसरी बार राज्य में सरकार बनाने का अवसर मिला तो इस बार विजय बहुगुणा कीसेटिंग हरीश रावत के राजनीतिक चातुर्य पर भारी पड़ गयी। लेकिन बहुगुणा तो जनता और ना ही कांग्रेस आला कमान की उम्मीदों पर खरे उतर पाये और अन्ततः कांग्रेस आला कमान को हरीश रावत को उत्तराखंड में अपरिहार्य मानना पड़ा। पहली फरबरी 2014 को प्रदेश की कमान संभालने के बाद हरीश रावत ने कांग्रेस नेतृत्व को अपने राजनीतिक कौशल का सबूत तो दे दिया मगर प्रदेश की जनता द्वारा विकास के मोर्चे पर उनकी कामयाबी की अभी प्रतीक्षा की जा रही है।
यह सही है कि लोकसभा चुनाव में मोदी के तूफान के आगे अपने तंबू उड़वा चुकी कांग्रेस जब सदमे से उबर भी नहीं पाई थी, उस समय जीत का पहला स्वाद हरीश रावत ने ही उत्तराखंड की तीन विधानसभा सीटों पर हुये उपचुनाव जितवा कर चखाई थी। हरीश रावत ने केवल धारचुला की कांग्रेस की सीट दुबारा कब्जाई बल्कि मोदी का तूफान थमने से पहले ही डोइवाला तथा सोमेश्वर विधानसभा सभा सीटों से भाजपा को उखाड़ कर वहां कांग्रेस का झंडा गाढ़ने में कामयाबी हासिल कर ली। हरीश रावत का ही राजनीतिक कौशल था कि विधानसभा उपचुनाव के साथ ही प्रदेश में कांग्रेस ने जो विजय अभियान शुरू किया वह त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव आने के बाद सहाकारिता और फिर कैंट बोर्ड के चुनाव में भी जारी रहा और विपक्षी भाजपा को लाख कोशिशों और चारों ओर मोदी की जयजयकार के बावजूद जीत का स्वाद चखना मुश्किल हो गया।
विपक्ष को चित्त करने के साथ ही पार्टी के घरेलू मोर्चे पर भी राजनीति के खाटी हरीश रावत ने ऐसा दांव चला कि अपने एक प्रतिद्वन्दी विजय बहुगुणा से मुख्यमंत्री पद छीन लिया और दूसरे प्रतिद्वन्दी सतपाल महाराज को पार्टी से बाहर जाने का रास्ता दिखा कर एक तरह से अश्वमेघ यज्ञ ही पूरा कर डाला। अब पार्टी में बचे एक मात्र मुख्य प्रतिद्वन्दी विजय बहुगुणा के सामनेे भी हरीश रावत ने राजनीतिक रोजी रोटी का सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने पहले बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदखल कराया और फिर अपने गुट के किशोर उपाध्याय को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया। जबकि बहुगुणा मुख्यमंत्री पद से बेदखली के मुआवजे के तौर पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद के साथ ही अपने चहेते सुबोध उनियाल सहित कुछ विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे। उनकी जब यह मुराद भी पूरी नहीं हुयी तो बहुगुणा खेमा उनके लिये राज्यसभा की सीट के साथ मंत्रिमंडल में जगह के लिये देहरादून से लेकर दिल्ली तक हायतौबा मचाने लगा। लेकिन पूरे चार दशकों के राजनीतिक झंझावातों से तपे हरीश रावत ने इस बार भी बहुगुणा खेमे को पटखनी दे कर अप्रत्याशित रूप से अपने गुट की एक और कामरेड मनोरमा शर्मा को राज्य सभा में भिजवा दिया। इस तरह बहुगुणा खेमे को जब Þ खुदा ही मिला बिसाले सनमß तो अब उन्होंने पीडीएफ के नाम से अपनी राजनीतिक दुकान चलाने वाले तीन निर्दलियों समेत सरकार समर्थक 7 विधायकों के गुट के मंत्रियों को बाहर कर उनके बदले बहुगुणा गुट के तीन विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल कराने के लिये कोहराम मचाना शुरू कर दिया। पीडीएफ वाले मामले की हवा निकलने के बाद अब विजय बहुगुणा ने *लेटर बम तो फेंक दिया लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि राजनीतिक के धिसे हुये खिलाड़ी हरीश रावत इस वार को भी नाकाम कर देंगे।
राजनीतिक उठापटक तो प्रदेश की जनता पिछले 14 सालों से देखती रही है। अब उत्तराखंड के लोग हरीश रावत के चातुर्य, उनके सार्वजनिक जीवन के चार दशकों के अनुभव, नारायण दत्त तिवारी की तरह विकास की सोच और पहाड़ की समस्याओं के निदान के लिये ठेठ पहाड़ीएप्रोच की अपेक्षा करती है। इस अपेक्षा के अनुकूल उन्होंने गैरसैण के मामले में व्यवहारिक कदम तो उठाने शुरू कर दिये मगर अकेला गैरसैंण पहाड़ की जनता की पहाड़ जैसी समस्याओं का निदान नहीं है। गैरसैण के मामले में विभिन्न दलों के अन्य नेताओं की तरह कोरी बयानबाजियां कर जनता का भावनात्मक शोषण करने के बजाय हरीश रावत ने गैरसैण के लिये बुनियादी कदम उठाये हैं और अगर उनकी अभिलाषा के अनुरूप वहां सड़कों का जाल बिछने और वहां एक सुंदर पहाड़ी नगर अस्तित्व में गया तो यह उनकी बहुत ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। सदियों के अन्तराल के बाद उत्तराखंड में अस्तित्व में आने वाला यह दूसरा नगर होगा। अंग्रेजों ने उन्नीसवीं सदी के बीसवें दशक में मसूरी और चालीसवें दशक में नैनीताल बसाया था। उसके डेढ सौ साल से भी अधिक समय के बाद उत्तराखंड में नयी टिहरी का जन्म हुआ और अब अगर सब कुछ ठीकठाक चला तो सदियों बाद उत्तराखंड में एक ऐसे नये शहर का उदय होगा जो कि केवल प्रदेश की सत्ता का एक केन्द्र होगा बल्कि उत्तराखंड के भाग्य की रेखाएं भी खींचेगा।
यह सही है कि कोई भी मुख्यमंत्री रातोंरात परिणाम नहीं दे सकता। लेकिन जब आप नरेन्द्र मोदी से मात्र छह महीनों में परिणाम देने की उम्मीद कर रहे हैं, तो कम से कम सालभर में परिणाम ना सही, मगर परिणामों के संकेत तो दिये ही जा सकते हैं। ़राज्य बनने से पहले से ही पहाड़ों के अस्पतालों में डाक्टरों और स्कूलों में मास्टरों का जो अभाव था, वह आज भी बरकरार है। मूलभूत संविधाओं के अभाव में पहाड़ों से पलायन अनवरत् जारी है। सतत आजीविका का साधन खेती दिन प्रतिदिन सिकुड़ती जा रही है। राज्यवासियों को कभी उर्जा प्रदेश तो कभी पर्यटन प्रदेश और कभी आयुष या जड़ीबूटी प्रदेश के कई सपने दिखाये गये जो कि आज भी सपने ही रह गये नीति नियंता स्वयं भी दिशाभ्रम की स्थिति में हैं और तय नहीं कर पा रहे हैं कि अखरि किस दिशा की ओर बढ़ा जाय। ऐसी दिशाभ्रम की स्थिति में हरीश रावत जैसे जमीन से जुड़े नेता से प्रदेश की जनता को बहुत से उम्मीदें हैं जिन पर उन्हें खरा उतरना है। यह उम्मीद इसलिये बंधी थी, क्यों कि वह पहाड़ और पहाड़ की समस्याओं तथा पहाड़वासियों की विकास की जरूरतों को बखूबी जानते हैं। दलगत राजनीति से इतर लोग यहां तक कहने लगे हैं कि अगर हरीश रावत ने कुछ कर नहीं दिखाया तो फिर इस प्रदेश का ऊपर वाला ही मालिक है।
कहते हैं कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। विकास के लिये एक महौल की भी जरूरत होती है, जो कि उत्तराखंड राज्य के गठन के 14 साल बाद भी विकसित नहीं हो पाया। जब तक हरीश रावत कुछ करने के लिये तत्पर होते हैं तब तक उन्हीं के दल के लोग बाधाएं खड़ी कर देते हैं, ताकि हरीश रावत भी विजय बहुगुणा की तरह विफल मुख्यमंत्रियों में सुमार हो कर उनकी भविष्य की संभावनाएं समाप्त हो जांय। पिछले चौदह सालों का अनुभव कहता है कि आप चाहे लाख कोशिशें करें, लेकिन जब तक आप प्रदेश की कार्य संस्कृति में सुधार नहीं लाते और लूट खसोट के माहौल से इस प्रदेश को मुक्ति दिलाने के साथ ही राजनीतिक संस्कृति का शुद्धीकरण नहीं करते तब तक अकेले चने से भाड़ फाड़ने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्रदेश का बजट 25 हजार करोड़ तक पहुंच गया है और उसमें से प्रदेश के विकास पर 5 हजार करोड़ भी खर्च नहीं हो पा रहे हैं। शेष 20 हजार करोड़ से अधिक की रकम नौकरशाही और राजनीतिक शासकों की बिरादरियों की जेबों में जा रही हैं और उसके बाद भी कोई संतुष्ट नहीं है। राजनीतिक नेतृत्व में इतना दम नहीं कि अपने ही कर्मचारियों और अफसरों को रास्ते पर ला सके। हालत यह है कि निरीह सरकार पर तरस खा कर अदालत को हड़तालें तुड़वानी पड़ रही हैं। जो मंत्री खुद बेलेगाम हो गये हैं वे नौकरशाही को बेलगाम बता रहे हैं। सत्ताधारी दल का एक-एक विधायक सीधे कैबिनेट मंत्री बनना चाहता है और जो लोग मंत्री बने हुये हैं उनकी गिद्धदृष्टि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अटकी हुयी है। लूट के इस माहौल को देखते हुये वे लोग भी मचल रहे हैं जिन्होंने उत्तराखंड आन्दोलन में सड़कों पर नारे लगाये थे। उनको केवल ताम्रपत्र नहीं बल्कि पूरा हिस्सा चाहिये। सरकारी कर्मचारियों का पे कमीशन 10 सालों में आता है मगर उत्तराखंड में विधायकों के वेतन भत्ते 10 साल में पांच बार बढ़ गये। क्यों बढ़े खुद ही मांगने वाले और खुद ही देने वाले। नौकरशाही भी कहां पीछे रहने वाली है? गांव सतर पर काम करने वाला विकासकर्मी ग्राम विकास अधिकारी और बीडीओ के पद खाली पड़े हैं और मुख्य सचिव] पुलिस महानिदेशक और प्रमुख वन संरक्षक जैसे पदों पर तीन-तीन अफसर बैठे हुये हैं। पटवारी, क्लर्क, जेई जैसे छोटे कर्मचारी कुछ हजार की रिश्वत लेते हुये पहले भी पकड़े जाते थे तो अब भी पकड़े जा रहे हैं। करोड़ों की काली कमाई करने वाले अफसर कमाऊ पूत की तरह राजनीतिक नेताओं के लाडले बने हुये हैं। हरीश रावत को अगर सचमुच इतिहास पुरुष बनना है तो उन्हें घिसी पिटी एप्रोच से मुक्ति पानी होगी] और माहौल बदलने के लिये कुछ क्रन्तिकारी कदम उठाने होंगे।
-जयसिंह रावत
-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव] शाहनगर]
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