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Thursday, December 29, 2011

CORRUPTION AND LOKAYUKTA

CORRUPTION IN THE NAME OF CORRUPTION

-JAY SINGH RAWAT

Uttarakhand much hyped Lokayukta bill of Uttarakhand could have had a smooth sail from a concept of a chief minister to Rajbhawan in the state but doubts still await the finally passage of this bill even as it brings false cheers to the ruling party camp of Uttarakhand hoping for its encashment in the coming assembly elections in the state. The Central bill has come up and obviously Khanduri’s Lokayukta has gone into the dustbin of history.

BJP, in Uttarakhand was banking on its premature Lokayukta to ensure it a success in the forthcoming assembly elections, the Central Law has already made its way to the states. Thus, Khanduri’s Lokayukta would never see the light of day. Just to show honest face the aim of this entire exercise evidently looks just to win assembly elections. Just to propagate. Just to say Khanduris’s Lokayukta had brought under its ambit all bureaucrats besides ministers and MLAs. But the matter of fact is that this Lokayukta can never grill Chief Minister or Minister even MLSs as Khanduri has made it impossible in his Lokayukta. Interestingly, the present tooth less Lokayukta is much better than Khanduri’s brain child.. The Lokayukta then was in position to probe the misdoings of ministers and senior officers. If you want to lodge a complaint against Chief Minister.

We have three pillars of democracy and Constitution of India had already specified rights and duties of both Center and states. Our constitution draws line between all pillars of our parliamentary democracy. But not only the federal structure but the system of all three pillars of our parliamentary democracy Khanduri’s lokayukta was a violation of the Constitution. For you example lower judiciary works under high court but by bringing it under ambit of enquiry, the Khanduri Lokayuktat has even encroached upon the jurisdiction of the judiciary, one of the four pillars of democracy. Even IAS and IPS services that are subject of union government by central service rules have been infringed upon by the state government encroaching the jurisdiction of Central government.

As far as practicality of Lokayukta is concerned, it is not as easy as said. Lokayukta could also become autocratic by the virtue of powers vested in it. While team Anna wants the entire CBI in Lokpal, Uttarakhand government has just brought a DSP level police officer under Lokpal leaving the entire vigilance department. Interestingly, while Lokayukta calls for a check on corruption, even a small probe against MLA or minister will require prior approval of 7 member Lokayukta board headed by a chairman and a consensus among these can lead a way to probe, which looks impossible. Further, these members are to be appointed with the consent of both chief minister and the leader of the opposition thereby putting a question mark in the credibility.

In Uttarakhand, Lokayukta has to be selected by a seven member committee comprising Chief Minster, leader of Opposition, two judges of high court and senior most member in earlier Lokayukta office and other two members. But constituting this committee is in itself a vexed issue.

It is noteworthy that the administrative reforms commission headed by Morarji Desai had in 1966 had recommended a Lokpal at national level and also termed necessary setting up of Lokayukta at state level. But with centre contemplating such a bill, Khanduri government in order to score a point went for a hasty bill. On the other hand the the new Central law which is in the pipeline is catering the need of hour. Veerapa Moily headed second Administrative Reforms Commission has some time back in a Lokayukta conference in Dehradun had said the state assemblies had to ratify the new Lokayukta being brought by the centre. Today 18 states in the country have Lokayukta but besides Karnataka, all the Lokayukta are teeth less.

The new proposed law that is in the pipeline keeps provision of a Lokayukta and 2 deputy Lokayukta. It calls for making a former judge of supreme court or chief justice of high court the Lokayukta. Further, it directs for making vigilance commissioner and judge or administrator as deputy lokayukta. But if the Uttarakhand had waited for the Centre bill, it could have failed to encash on Lokayukta issue before elections

Wednesday, December 28, 2011

WHAT JUSTICE KATJU VIEW MEDIA AND REALITY

आधुनिक काल के कबीर है जस्टिस काटजू

- जयसिंह रावत-

अपनी बेवाक, मगर सटीक कड़ुवी टिप्पणियों के लिये चर्चित रहे जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने अगर मीडिया के धुरन्धरों के भारतीय संस्कृति, इसके असली मुद्दों और इतिहास के बारे में ज्ञानकोको चुनौती दी है तो कोई गलत काम नहीं किया है। मीडिया के बौद्धिक स्तर को ललकारने के बाद अब अगर उन्होंने सचिन तेन्दुलकर को भगवान मानने वालों की उन्हें भारत रत्न देने की मांग को बेतुका बता दिया तो इसके लिये भी समाज को और खास कर मीडिया के उस वर्ग को उनका आभार व्यक्त करना चाहिये जिसकी आंखें खोलने के लिये काटजू को ऐसी टिप्पणियां करनी पड़ी हैं।

मीडिया के जो मित्र आज भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष जस्टिस काटजू के शब्दबाणों से स्वयं को आहत महसूस कर रहे हैं, वही लोग तब आनन्दित हुये होंगे, जब इन्हीं जस्टिस काटजू ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के बारे में कहा था किवहां कुछ सड़ रहा है।यही नहीं जब न्यायाधेशों के विशेषाधिकार और उनकी श्रेष्ठता के लिये उनके दिये गये अवमानना के अधिकार की बात उठी तो यह वही जस्टिस काटजू थे जिन्होंने कहा था किन्यायाधेशों की सत्ता किसी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही के अधिकार में नहीं बल्कि जनता की न्यायाधीश के प्रति आस्था और विश्वास में निहित है।दरअसल जस्टिस काटजू भारतीय न्यायपालिका के वह कबीरदास हैं जो कि उनके तीखे और कभी-कभी नुकीले वचनों से घायल पक्ष के दिलोदिमाग पर भी असर रखते हैं। उनके बारे में प्रख्यात न्यायविद् फाली एस. नारीमन ने भी कहा था कि वह ऐसे जज हैं जो कि कण्टेम्पट (अवमानना) के अधिकार से भी ऊपर हैं। उनकी ताजा टिप्पणियों के बारे में भी इसलिये मीडिया को उनके कटु बचनों पर हायतौबा मचाने के बजाय एकउद्भट विद्वान न्यायाधीश के नपे तुले और हर कसौटी पर जांचे परखे शब्दों पर मनन करना चाहिये। अपने एक लेख में वह स्वयं भी कहते हैं कि उनका ध्येय किसी को आहत करना नहीं बल्कि सुधार के लिये उन्हें प्रेरित करना है। ऐसा भी नहीं कि वह हमेशा अपने कटु बचनों से लोगों को आहत ही करते रहते हों। अगर किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचती है, तो वह माफी मांगने से भी गुरेज नहीं करते। उनके शब्द चुभते जरूर हैं मगर उन्हें दुर्भाषा ऋषि मानना सत्य का उपहास उड़ाना ही है।

जस्टिस काटजू ने तो केवल मीडिया के ज्ञानकोष पर ही उंगली उठाई है। जबकि मीडिया की नीयत और विवसनीयता भी कठघरे में खड़ी हो गयी है। जस्टिस काटजू ने केवल दिल्ली जैसे महानगरों के मीडिया पर टिप्पणी की है जबकि उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में मीडिया की आत्मा मरती जा रही है। उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव से पहले ही मीडिया की कमाई का सीजन गया। लोग खण्डूड़़ी और उनकी सरकार को ईमान्दार साबित करने के लिये अपना ईमान बेच रहे हैं। ईमान खरीदने वाले भी ईमान्दार दिखने के लिये पत्रकारों को बेइमान बनाने पर तुले हैं। यहां सवाल केवल पेड न्यूज का नहीं है। मीडिया को जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद के दलदल में झोंका जा रहा है। मीडिया के कुछ प्रभावशाली लोगों की प्रबिद्धता अपने पाठकों या दर्शकों के प्रति नहीं बल्कि अपनी जात बिरादरी और इलाके के नेताओं के प्रति दिखाई दे रही है। गत लोकसभा चुनाव में मीडिया के असरदार वर्ग ने प्रदे की पांच में से पांच सीटें भाजपा को दे दी थी जबकि उनकी भविष्यवाणी उल्टी पड़ गयीं और खण्डूड़ी के नेतृत्व में भाजपा की र्मनाक हार हो गयी। जिसके लिये भाजपा को खण्डूड़ी को कुर्सी से हटाना पड़ा। इस बार भी मीडिया का वह वर्ग एक बार फिर केवल अपने पाठकों और दर्शकों को बल्कि अपने पेशे को और स्वयं भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को धोखा देने की कबायद में जुट गया है। चाहे अव्यवहारिक और असंवैधानिक लोकायुक्त का मामला हो या फिर भूमि कानून और पावर प्रोजेक्ट घोटाला हो या पंचायती राज का मामला हो प्रदे के अधिकां मुद्दों के प्रति स्थानीय मीडिया अनविज्ञ है। जो सरकार बोलती है वही रटन्त विद्या शुरू हो जाती है।

जस्टिस काटजू वही न्यायाधीश हैं जिन्होने वैश्याओं के पुनर्वास के निर्दे केन्द्र और राज्य सरकारों को दिये थे। उनके दया मृत्यु के मामले में दिये गये दो फैसले भी ज्यूरिसप्रूडेंस में मील के पत्थर की तरह हैं। यह वही जस्टिस मार्कण्डेय हैं, जिन्होने मावोवादियों को मदद देने के मामले में जेल में ठूंसे गये बिनायक सेन को यह कह कर जमानत दे दी थी किकेवल एक प्रतिबन्धित संगठन की सदस्यता लेने से कोई व्यक्ति तब तक टाडा के तहत अपराधी नहीं माना जा सकता जब तक कि वह स्वयं हिंसा नहीं करता या लोगों को हिंसा के लिये नहीं उकसाता या शांति व्यवस्था भंग नहीं करता।जस्टिस काटजू के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद पुलिस द्वारा अकारण भी जेलों में ठूंसे गये सेकड़ों एक्टिविस्ट निचली अदालतों से ही जमानत पर छूट गये। जस्टिस काटजू के बारे में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एच.कपाडिया ने भी कहा था किवह बेवाक (आउट स्पोकन) हैं और संस्थागत विवसनीयता के प्रबल समर्थक हैं। आज हम आडम्बर (हिपोक्रेसी) की दुनियां में जी रहे हैं। इसलिये सत्य बोलने के लिये भी साहस चाहिये।

जहां तक सवाल मीडिया के बौद्धिक स्तर और जनता के असली मुद्दों से मीडिया के सरोकार का सवाल है तो जस्टिस काटजू की टिप्पणियां वास्तव में बेहद सटीक हैं। आज आप अखबार पढ़ लो या कोई धार्मिक चैनल के अलावा किसी भी अन्य चैनल को देख लो, तो लगता है कि इस दे में भ्रष्टाचार , बलात्कार, राजनीति और क्रिकेट के सिवा कुछ नहीं होता। इसके अलावा भी कोई दुनियां है तो वह फिल्मी सितारों की दुनियां है, जिसे क्रिकेट सितारों की दुनियां से चुनौती मिल रही है। एक चैनल ने आरुषी तलवार काण्ड उठाया तो मीडिया को कम से कम दो वर्षों तक के लिए मशाला मिल गया। अन्ना हजारे ने अनशन शुरू किया तो मीडिया ने आसमान सर पर उठा लिया। ऐसा लगता है कि अन्ना का लोकपाल आते ही रामराज स्थापित हो जायेगा और शे तथा बकरी एक ही घाट पर पानी पीने लगेंगे। अमिताभ बच्चन की पुत्रबधू गर्भवती हो जाती है तो मीडिया इस तरह प्रचार करता है जैसे कि कोई देवी अवतरित हो रही हैं। जो लाखों बच्चे कुपो से पांच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते उनकी अहमियत मीडिया के लिये कीड़े मकोड़ों से ज्यादा कुछ नहीं है। महेन्द्र सिंह धौनी शादी करते हैं तो लगता है कि सारे संसार की शादी है।

जस्टिस काटजू ने अपने एक लेख में लिखा है कि मीडिया के लिये गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, मंहगाई, किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याऐं, आम आदमी के लियेिक्षा, सिर ढकने के लिये छत और बीमारी से मुक्ति के लिये इलाज उपलब्ध नहीं है। मगर मीडिया के लिये ये मुद्दे जरूरी नहीं बल्कि उनके लिये यह महत्वपूर्ण है कि भारत ने क्रिकेट मैच में न्यूजीलैण्ड को हराया या नहीं। अगर मुकाबला भारत और पाकिस्तान के बीच हो तो वह उनके लिये महाभारत युद्ध जैसा रोमांचक हो जाता है। मीडिया के लिये यह महत्वपूर्ण है कि सचिन तेन्दुलकर या युवराज सिंह ने तक बनाया या नहीं। जस्टिस काटजू ने एक जगह यहां तक कह डाला कि अगर कहीं कोई आतंकी घटना हो जाती है तो मीडिया के आइनें से देखने पर लगता है कि उसमें जरूर किसी मुसलमान का हाथ होगा। जबकि सच्चाई यह है कि दे को 99 प्रति मुसलमान किसी भी अन्य भारतवासी की तरह देभक्त है। अगर काटजू कहते हैं कि मीडिया अन्ध विश्वास भी फैला रहा है तो इसमें लेस मात्र भी अतियोक्ति नहीं है। टीआरपी बढ़ाने के लिये मीडिया के लिये अजबगजब खबरें परोस कर अन्ध विश्वास को जिन्दा रखना जरूरी हो गया है। दरअसल मीडिया का काम सूचनाऐं या जानकारियां फैलाना है, मगर ज्ञान के अभाव में कुछ लोग गलतफहमियां और भ्रम फैला देते हैं। मुझे याद है कि पिछले साल जब उत्तराखण्ड में अभूतपूर्व वर्षा हुयी तो एक चैनल ने खबर उड़ा दी कि टिहरी बांध में पानी खतरे के निशान से उपर चढ़ गया है। इसके बाद सारे चैनल उसी खबर के पीछे पड़ गये। मैने जब चैनल के स्थानीय प्रमुख से कहा कि बांध पर खतरे के निशाननहीं बल्कि उसकी क्षमता के निशान होते हैं और जब पानी जरूरत से अधिक जाता है तो उसके स्पिलवे से पानी खुद ही छलक जाता है। मैने उनको यह भी आगाह किया कि उनकी अफवाह से ऋषिकेश और हरिद्वार के लोग दहशत में हैं, तो उनका कहना था कि अगर ऐसी खबर नहीं देंगे तो हमारी दुकान से सामान कैसे बिकेगा। उस दिन के बाद मेरा वह परम मित्र मुझसे दूरी बढ़ाता गया। यही सवाल मैने दे के एक जाने माने चैनल के संवाददाता से किया और कहा कि आप लोग दह क्यों फैला रहे हैं, तो उसका कहना था कि जब एक चैनल कोई स्टोरी ब्रेक करता है तो फिर हमारी मजबूरी बन जाती है कि जहां पर प्रतिद्धन्दी रुका हम वहीं से आगे चलें। उस संवाददाता को पता नहीं था कि क्यूमैक्स और क्यूसैक्स में फर्क क्या होता है। मैने उससे कहा कि 35 क्यूसैक्स का एक क्यूमैक्स होता है और अगर 5 लाख क्यूमैक्स पानी हरिद्वार की हरि-की-पैड़ी से गुजर जाये तो समझो कि हरिद्वार से लेकर फरक्का बांध तक महाविना के सिवा कुछ नहीं बचेगा। इस मामले में असलियत यह थी कि टिहरी बांध होता तो पिछले साल गंगा के मैदान में काफी तबाही जाती, क्योकि बांध ने उस समय भागीरथी को रोका जब अलकनन्दा अपने विकराल रूप में थी। अगर दोनों मिल जाती तो गंगा के मैदान में भारी तबाही होती। दरअसल बात यह थी कि एक चैनल के स्थानीय संवाददाता को बांध अधिकारियों ने तबज्जो नहीं दी तो उसने सबक सिखाने के लिये खतरे के निशान वाली खबर चला दी।

जस्टिस काटजू ने अगर क्रिकेट को अफीम की संज्ञा दे दी तो उसमें हायतौबा मचाने की क्या बात है। आम युवा अगर सचिन तेन्दुलकर को भगवान मानता है तो मानता रहे! लेकिन अगर मीडिया भी तेन्दुलकर को भगवान साबित करे तो यह मानसिक दिवालियेपन की ही निशानी है। सचिन बहुत ही प्रतिभाशाली खिलाड़ी ही नहीं बल्कि बेहतरीन इंसान भी है। वह जितने विख्यात हैं उतने ही शालीन भी हैं। मगर वह भारत के भाग्यविधाता कतई नहीं हैं। जस्टिस काटजू की िकायत है कि मीडिया जनता का ध्यान असली मुद्दों बजाय क्रिकेट जैसे गैर जरूरी मुद्दों की ओर मोड़ता है। क्रिकेट खेल नहीं बल्कि अफीम हो गयी है। जनता को क्रिकेट में व्यस्त रखो ताकि वह अपने सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को भूल जाय। पहले तो मात्र मैच फिक्सिंग ही होती थी लेकिन अब जिन क्रिकेट सितारों को ब्रह्मा, विष्णु महेश की तरह देवता माना जा रहा है, उनकी नीलामी तक होने लगी है।

भारत के वैज्ञानिक या कारीगर जाने कितनी बार इतिहास रचते होंगे मगर हमारे मीडिया के लिये इतिहास वह है जोकि क्रिकेट के मैदान पर रचा जाता है। पिछले साल जब चन्द्र यान ने चांद पर तिरंगा गाढ़ा तो पत्रकारिता के कई धुरन्धरों के लिये यह रूटीन की जैसी घटना थी। लेकिन क्रिकेट के मैदान में भारत का आस्ट्रेलिया को हराना उनके लिये भारत का महाशक्ति बनना था। क्रिकेट ने बाकी सारे खेलों का सफाया ही कर दिया है। इस दे के प्रतिभाशाली खिलाड़ी गुमनामी में या फिर बदहाली में जी रहे हंै। यहां तक कि कई बार मैडल बेच कर रोटी जुटाने के किस्से भी आम हुये हैं। हाकी जैसा खेल जिसमें भारत की कभी तूती बोलती थी वह किस हाल में है उसे सारा दे देख रहा है। आज इस दे के बच्चे का ख्वाब जे. सी. बोस, डा0 एपीजे अब्दुल कलाम या प्रो0 सती धवन या फिर होमी भाभा बनना नहीं बल्कि सचिन तेंन्दुलकर और धौनी बनना है।बच्चों के आदर्श महात्मा गाँधी जवाहरलाल नेहरू या अटल विहारी बाजपेयी नहीं बल्कि क्रिकेट खिलाड़ी हैं उनके लिये अब्दुल हमीद या विक्रम बत्रा तो केवल सिरफिरे थे जो कि दे के लिये जान कुर्बान कर गये।

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