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Wednesday, December 28, 2011

इतिहास के गर्त में गया खंडूरी का लोकायुक्त

-जयसिंह रावत-

उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री का नया लोकायुक्त कानून विधानसभा से लेकर राजभवन तक निष्कंटक पास होते ही इतिहास के गर्त में चला गया खंडूरी के इस कानून की भ्रूण हत्या इसलिए हो गयी क्योंकि यह प्रदेश में व्याप्त भ्रटाचार के लिये कम और राष्ट्रीय स्तर पर दिखावे के लिये और आगामी फरबरी तक होने वाले चुनावों के लिये मुख्य रूप से बनाया गया था जबकि संसद का काम विधानसभा द्वारा किये जाने और केन्द्र की ओर से एक केन्द्रीय कानून के पाइप लाइन में होने के कारण दिल्ली भेजे गये इस कानून के भविष्य में देहरादून लौटने के ही आसार नहीं हैं।

उत्तराखण्ड में भाजपा जिस प्रस्तावित लोकायुक्त पर सवार हो कर आगामी विधानसभा चुनावों की दिग्विजय पर निकलने जा रही है उसकी हव्वा केंद्र सरकार के लोकपाल ने निकाल दी. अब सारे देश में एक जैसा ही केंद्रीय कानून लागू होगा.कारण यह कि उस तरह का लोकायुक्त केवल संसद ही दे सकती है। इसलिए खंडूरी जी के दिमाग की यह अजीबोगरीब उपज अब कभी हकीकत में नहीं बदलेगी. उत्तराखण्ड विधानसभा ने जो कानून पास किया था वह तो संवैधानिकता और ना ही व्यवहारिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। यह कारगर इसलिये नहीं हो सकता , क्योंकि उसका मकसद भ्रटाचार को दबाने के बजाय चुनाव जीतना और अपना गुणगान कराना ज्यादा है। वाहवाही लूटने के लिये खण्डूड़ी ने इस लोकायुक्त में मुख्यमंत्री के साथ ही मंत्रियों और विधायकों के अलावा बड़े सरकारी नौकरों को भी जांच के दायरे में कर दिया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस कानून के मौजूदा प्रवधानों के तहत लोकायुक्त का हाथ किसी सफेद कालर तक पहुंचना लगभग नामुमकिन ही है।उत्तराखण्ड में इससे अच्छा तो नारायण दत्त तिवारी का वह बिना नाखून और दांत का लोकायुक्त था जो कम से कम मंत्रियों और आला नौकरशाहों के खिलाफ जांच तो कर ही सकता था। कुछ नही तो वह कम से कम दिख तो रहा है। भाजपा सरकार का लोकायुक्त का दिखना भी नामुमकिन है। कोई खण्डूड़ी जी या टीम अन्ना से पूछे कि खण्डूड़ी के दिमाग की यह विचित्र उपज कभी हकीकत बन सकेगी या नहीं। क्या दिल्ली अनुमोदन के लिये भेजा गया खण्डूड़ी का लोकायुक्त देहरादून लौट सकेगा? मुख्यमंत्री या मंत्री के खिलाफ अभियोजन के लिये राज्यपाल की अनुमति की जरूरत होती है, मगर खण्डूड़ी जी ने यह अधिकार लोकायुक्त को दिला दिया। सीआरपीसी और आइपीसी में संशोधन का अधिकार संसद को है लेकिन उत्तराखण्ड में यह काम विधानसभा ने कर दिया। अधीनस्थ न्यायपालिका या लोवर न्यायपालिका हाइ कोर्ट के अधीन होती है मगर खण्डूड़ी जी ने इन्हें भी जांच के दायरे में ला कर लोकतंत्र के तीन स्तम्भों में से एक न्यायपालिका के अधिकारों को भी अतिक्रमित करा दिया। आइएएस और आइपीएस जैसे संघीय सेवा के अधिकारी केन्द्रीय सेवा नियमों के तहत प्रशासित होते हैं लेकिन खण्डूड़ी जी के सपनों के लोकायुक्त ने भारत की संघ सरकार के अधिकार पर भी ढपटा मार दिया।इस तरह के प्रावधानों के कारण यह प्रस्तावित कानून एक तरह से इतिहास के गर्त में चला गया इसका कारण यह है कि केन्द्र को देशभर में लोकायुक्त की एकरूपता के लिये केन्द्रीय एम्ब्रेला कानून संसद की ओर से रहा है

जहां तक व्यवहारिकता का सव।ल है तो यह लोकायुक्त इतना भारी भरकम और जटिल था कि उसका गठन ही बहुत टेढ़ी खीर थी और अगर वह बन भी गया होता तो उसके सदस्य या अध्यक्ष भटक गये तो उन्हें हटाना भी उतना ही मुश्किल होता टीम अन्ना एक तरफ तो केन्द्र में प्रधानमंत्री तक को लोकपाल के दायरे में लाने और सीबीआइ को उसके तहत लाने पर अड़ी हुयी है, जबकि उत्तराखण्ड में पूरा विजिलेंस विभाग तो रहा दूर वह मात्र पुलिस के एक डीएसपी रैंक के अदने से जांच अधिकारी को लोकायुक्त के दायरे में लाने से गदगद हो गयी है। टीम अन्ना भूल गयी कि कर्नाटक में अपर पुलिस महानिदेशक स्तर का जांच अधिकारी होता है। कहने को तो इस लोकायुक्त के दायरे में मुख्यमंत्री, मंत्रिपरिषद के सदस्य एवं विधायकों के अलावा सभी राज्य कर्मचारी, राज्य में कार्यरत केंद्र सरकार के कार्मिक एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को छोड़कर अधीनस्थ न्यायालयों के कार्मिक भी लोकायुक्त रखे गए थे स्थानीय निकायों के निर्वाचित सदस्य एवं कर्मचारी भी लोकायुक्त के दायरे में होंगे।लेकिन सभी जानते हैं कि ज्यादा बिल्लयां चुहा नहीं मार सकती। मुख्यमंत्री तो रहा दूर इस लोकायुक्त में ऐसे प्रावधान किये गये थे, जिनसे एक विधायक या मंत्री के खिलाफ जांच की अनुमति लेने के लिये लोकायुक्त बोर्ड के 7 सदस्यों और एक अध्यक्ष का एकमत होना जरूरी बनाया गया है, जो कि लगभग नामुमकिन ही है। कानून के शिकंजे को नेताओं के गले से दूर रखने के लिये ही इसमें सदस्यों की संख्या 7 रखी गयी इन सदस्यों का चयन जिस तरह से होना था उसे देख कर नहीं लगता कि सारे सदस्य कभी मुख्यमंत्री या मंत्रियों के खिलाफ जांच कराने के निर्णय पर एकमत हो सकते चूंकि चयन समिति में प्रतिपक्ष का नेता भी होता है इसलिये जाहिर है कि विपक्ष के नेता के लोगों को भी एडजस्ट करना सरकार की मजबूरी बन जाती है। इसलिये स्वयं ही अनुमान लगाया जा सकता है मुख्यमंत्री और प्रतिपक्ष के नेता द्वारा चुने गये ये सदस्य लोकायुक्त की जांच या जांच की अनुमति के बारे में कितने निष्पक्ष होंगे।

टीम अन्ना द्वारा भाजपा के सुर में सुर मिला कर देश का पहला सबसे ताकतवर लोकायुक्त कानून बताये जा रहे उत्तराखण्ड के जन्म से पहले हे मरने वाले लोकायुक्त का चयन मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, उच्च न्यायालय के दो जजों, पूर्व लोकायुक्त में वरिष्ठतम सदस्य और दो अन्य सदस्यों को करना था ।चयन समिति में सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, सेवानिवृत्त न्यायाधीश, हाइकोर्ट के सेवा निवृत्त मुख्य न्यायाधीश, सेवा निवृत मुख्य निर्वाचन आयुक्त, भारत के सेवा निवृत मुख्य सतर्कता आयुक्त, सेवा निवृत नियंत्रक तथा महालेख परीक्षक या तीनों सेनाओं के रिटायर सेनाध्यक्ष जैसी हस्तियों को शामिल किया गया था जाहिर है कि तो नौ मन तेल होगा और ना ही राधा नाचेगी। यह कमेटी भी सरकार द्वारा बनायी गयी सर्च कमेटी द्वारा की गई संस्तुति के अनुसार लोकायुक्त एवं अन्य आयुक्तों का चयन करती इस तरह पूरे सात सदस्यीय लोकायुक्त का चयन लगभग टेढ़ी खीर ही थी यही नहीं लोकायुक्त तो उत्तराखण्ड का होगा मगर उसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय मंे शिकायत की जा सकेगी और फिर शिकायत सही पाए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय राज्यपाल को उन्हें हटाने को कहेगा। अब्बल तो यह होता कि केन्द्र सरकार की ओर से रहे केन्द्रीय लोकायुक्त कानून के आने तक उत्तराखण्ड के अपने लोकायुक्त को कर्नाटक की तर्ज पर संशोधन कर लोकायुक्त को भ्रष्टाचारियों को नोचने के लिये नाखून और दांत दिये जाते।

सर्व विदित है कि मोराजी भाई देसाई की अध्यक्षता वाले पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने 1966 में प्रेषित अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय स्तर पर एक लोकपाल की सिफारिश की थी तो राज्यों के लिये लाकायुक्तों के गठन को भी उतना ही जरूरी बताया था। दशकों बाद अब लोकपाल बिल के साथ वह केन्द्रीय लोकायुक्त कानून भी पाइप लाइन में आया तो खण्डूड़ी ने 9 माह का इन्तजार करने के बजाय उसकी प्रीमैच्यौर डिलिवरी करा दी। अब जो लोकायुक्त केन्द्र द्वारा प्रस्तावित है उसमें एक लोकायुक्त और 2 उप लोकायुक्तों का प्रावधान है। इस प्रस्तावित कानून में सुप्रीम कोर्ट के सेवा निवृत जज या हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लोकायुक्त तथा प्रदेश के सतर्कता आयुक्त के साथ ही एक जाने माने न्यायविद या प्रमुख प्रशाशक को उपायुक्त बनाने का प्रावधान रखा गया है। लेकिन उत्तराखण्ड सरकार अगर केन्द्रीय कानून का इन्तजार करती तो तक तक प्रदेश विधानसभा के चुनाव हाथ से निकल जाते।वास्तवकिता यह है कि आखिरकार खण्डूड़ी के इस लोकायुक्त के बजाय केन्द्रीय कानून के तहत बनने वाले लोकायुक्त ने ही देशके अन्य राज्यों की तरह हकीकत बनना है। खण्डूड़ी का लोकायुक्त विधायकों,मंत्रियों और मुख्यमंत्री का कुछ बिगाड़ तो नहीं सकता अलबत्ता विधानसभा की समिति उल्टे लोकायुक्त की जांच अवश्य कर सकती थी इसका मजमून तैयार करने में अधिक चकड़ैती के कारण इसमें प्रावधानों के जाल के अन्दर उल्टे सीधे कई जाल बना कर इसे नाहक उलझा दिया गया है। इस सारे नाटक में टीम अन्ना की भूमिका संदिग्ध लगती है

जयसिंह रावत

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