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Friday, February 26, 2021

निष्ठुर ----संवेदनहीन सरकार ---लाशों पर जश्न --- --------------------------------------------------- नीति घाटी में ऋषिगंगा- धौली गंगा जल प्रलय के बाद अभी 204 लोगों की पूरी लाशें निकली भी नहीं और उत्तराखंड सरकार जश्नों में डूबी हुयी है। ...ईश्वर इनको सद्बुद्धि दे ---

 




  • प्रदेश में नियुक्त दायित्व धारियों से मुख्यमंत्री ने की भेंट।
  • जन समस्याओं के समाधान के साथ ही जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में बनें सहयोगी।
  • प्रदेश का समग्र एवं संतुलित विकास हमारा ध्येय है।
      मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने शुक्रवार को मुख्यमंत्री आवास में दायित्व धारियों से भेंट की। मुख्यमंत्री ने सभी दायित्व धारियों का आह्वान किया कि वे जन समस्याओं के समाधान तथा जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सहयोगी बनें। उन्होंने कहा कि आगामी 18 मार्च को प्रदेश सरकार के चार वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर सभी विधान सभा क्षेत्रों में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना है। इस आयोजन की सफलता में भी सभी को सहयोगी बनना होगा।
       मुख्यमंत्री ने कहा कि जिन दायित्व धारियों को जो भी दायित्व मिला है वे उसका पूरे मनोयोग से निर्वहन करें। पिछले चार साल में राज्य के सन्तुलित एवं समग्र विकास के लिये जो प्रभावी प्रयास किये गये हैं, उन्हें जनता तक पहुंचाने का भी कार्य किया जाय। उन्होंने कहा कि प्रदेश के हित में राज्य सरकार द्वारा अनेक एतिहासिक निर्णय लिये हैं चाहे वह सडकों, पुलों का निर्माण हो अथवा अन्य अवस्थापना सुविधाओं का विकास या सीधे आम जनता के हित से जुड़ी योजनायें, सभी के हित में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर बिना किसी भेद भाव के हर क्षेत्र का विकास हमारा ध्येय रहा है। सभी विधान सभा क्षेत्रों के लिये क्षेत्र की आवश्यकता के अनुरूप करोड़ों की योजनायें स्वीकृत कर उनपर कार्य किया गया है।





Thursday, February 25, 2021

GAIRSAIN (BHARARISAIN) :A POLITICAL PLAYGROUND

GAIRSAIN (BHARARISAIN) : THE SUMMER CAPITAL OF UTTARAKHAND 

-Jay Singh Rawat 

Gairsain (Bhararisain) was officially declared the Summer Capital of the state after Governor Baby Rani Maurya gave her nod to the state government's move. Governor gave her nod in pursuance of the provisions of clause (3) of Article 348 of the Constitution of India. The development came three months after Chief Minister Mr. Trivendra Singh Rawat announced on 4 March 2020 in the budget session of the assembly held at Gairsain (Bhararisain) that the town would be made the summer capital of the state. But on the other hand a large section of people and intelligentsia termed the decision as an eye wash and a nightmare of people's long cherished dream as they were demanding a full fledged hill capital of the hill state. As per the organizations and leaders who had been associated with historic Uttarakhand Movement the concept of the Summer Capital or twin capitals is neither practical nor feasible for a small state like Uttarakhand having meager resources.
 The demand of Gairsain as permanent capital of Uttarakhand was core to the indomitable statehood struggle. However, after the formation of the state on 9 November 2000, Dehradun was made the temporary capital of the state. The interim Government of Uttarakhand had constituted the Dixit Commission for the search of a suitable place for permanent capital; but the commission in its report rejected Gairsain and preferred Dehradun ignoring public sentiments. 
Chandra Singh Garhwali was the first person to propose Gairsain as the capital of a hill state in the 1960s. The Uttarakhand Kranti Dal, in the year 1992, formally declared Gairsain as the capital of the proposed state of Uttarakhand. UKD, In the honour of Veer Chandra Singh Garhwali, named this proposed capital region as Chandranagar. A hunger strike, which lasted for 157 days, was organised in the year 1994 in order to pressurize the government to announce Gairsain as the capital of Uttarakhand. The same year, a committee headed by Rama Shankar Kaushik, which was constituted by then Mulayam Singh Yadav Government, recommended the creation of the hill state of Uttarakhand with Gairsain as its capital. But the Dikshit Commission narrowed down the search to 5 cities: Dehradun, Kashipur, Ramnagar, Rishikesh and Gairsain; and after taking 8 years, submitted its 80-page report to the Uttarakhand Government on 17 August 2008. Dixit Commission's report was tabled in the state assembly on July 13, 2008. The commission found Dehradun and Kashipur eligible for the capital, noting "the interim capital, Dehradun, is a more suitable place as the permanent capital owing to the factors like its distance from national capital, centralized population and safety from natural calamities" 
 In 2012, the then Chief Minister of Uttarakhand, Vijay Bahuguna covened a cabinet meeting in Gairsain. After the success of this meeting, the foundation stone of a new building for the Uttarakhand Assembly was set in the GIC Ground in the year 2013. The same year, Bhoomi Poojan Program was organized for the Vidhan Sabha Bhavan in Bhararisain, located about 14 km away from Gairsain. Keeping peoples sentiments a three-day-long assembly session of Uttarakhand Legislative Assembly was held I n tents at Gairsain from 9 to 12 June 2014 during Harish Rawat government. During Congress regime a three-day session of the Uttarakhand assembly was called for the first time in this newly constructed assembly building at Bhararisain that was completed in 2014. In May 2014, a decision was taken by Harish Rawat government to constitute 'Gairsain Development Council' by merging the blocks of Gairsain in Chamoli and Chaukhutia in Almora. 


On 4 March 2020, the chief minister of Uttarakhand, Trivendra Singh Rawat announced in the Legislative Assembly of the state during budget session that Gairsain would be the summer Capital of the state. An official notification to this effect was issued on 8 June 2020 by the government after the Governor, Baby Rani Maurya gave her assent to the move. A session of Uttarakhand Legislative Assembly was held on 17 and 18 November 2016 for the first time in the newly constructed, grand Uttarakhand Legislative Assembly building at Bhararisain, some 14 km. away from Gairsain. Much important legislations were passed during the session. The assembly also resolved to hold the next budget session at Bhararisain.

Monday, February 15, 2021

बिजली कम्पनियों के हवाले कर दिया हिमालय

बिजली कम्पनियों के हवाले कर दिया हिमालय -जयसिंह रावत गंगा एवं यमुना जैसी सदानिराओं का मायका हिमालय अपने में समेटे हुये अपार जनसंसाधन एवं पानी का शक्ति के रूप में बदलने के लिये उपयुक्त ढलान के कारण जल विद्युत उत्पादन के लिये एक आदर्श क्षेत्र माना जाता रहा है, प्रदेश हित में इस अमूल्य संसाधन के न्यायसंगत दोहन की आवश्यकता भी है, लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था और मुर्गी का पेट फाड़ कर अंडे निकालने की प्रवृत्ति के चलते वही आदर्श परिस्थितियां आज उत्तराखण्ड हिमालय के वासियों के लिये आफत का कारण बन गयी हैं। उत्तराखण्ड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में छोटी बड़ी बिजली परियोजनाओं का अंधांधुध आबंटन किये जाने से निजी क्षेत्र की कंपनियां पहाड़ों का बेतहासा कटान करने के साथ ही सुरंगें खोद कर पहाड़ों के सीनें छलनी कर रही हैं। बिजली और धन की हवस ने हिमालय के हिमक्षेत्र को अशांत कर दिया है जिसका नतीजा धौलीगंगा और ऋषिगंगा की बाढ़ के रूप में सामने आ गया है। परियोजनाओं के आबंटन में खुले भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हो गयी हैं। पहले वन माफिया ने वनों का विनाश किया तो अब बिजली कंपनियां पहाड़ों पर जुल्म ढा रही हैं। केदारनाथ की आपदा के संदेश को भी बिजली परियोजनाओं की बंदरबांट करने वालों ने अनसुना कर दिया गया। केदारनाथ आपदा से सबक लेने के बजाय पुनर्निर्माण के नाम पर वहां इतना भारी निर्माण करा दिया गया जो कि भविष्य के लिये दूसरी आपदा का कारण बनेगा। यही बदरीनाथ का हुलिया बिगाड़ने की तैयारी चल रही है। आलवेदर रोड के नाम पर पहाड़ों का सत्यानाश तो कर ही दिया है।
बिजली परियोजनाओं के विरोध में सन्तों के बलिदान उत्तराखण्ड में बिजली परियोजनाओं का विरोध नया नहीं है। गांधीवादी पर्यावरणविद सुन्दर लाल बहुगुणा टिहरी बांध के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ चुके हैं। उन्होंने बांध के खिलाफ 74 दिन लम्बी भूख हड़ताल की थी। प्रख्यात पर्यावरण विज्ञानी डा0 जी. डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानन्द ने गंगा की अविरलता और बिजली परियोजनाओं के विरोध में 111 दिन की भूख हड़ताल के बाद प्राण त्यागे थे। उन्होंने वर्ष 2012 में भी इसी तरह एक लम्बी भूख हड़ताल की थी। इस उद्ेश्य के लिये हरिद्वार के मातृ सदन के स्वामी निगमानन्द ने 73 दिन की भूख हड़ताल के बाद 13 जून 2011 को प्राण त्यागे थे। चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट स्वयं उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बिजली परियोजनाओं का निरन्तर विरोध करते रहे हैं। उन्होंने काफी पहले अलकनन्दा और नीती घाटी के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बिजली परियोजनाओं से संभावित पर्यावरणीय और अन्य खतरों के प्रति आगाह कर दिया था। यह सही है कि विकास की जरूरतों को देखते हुये उत्तराखण्ड में बिजली परियोजनाओं को भारी जन समर्थन भी प्राप्त है, मगर इस तरह परियोजनाओं की बंदरबांट कर उन्हें अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थापित करने का समर्थन कोई नहीं करता है। आम धारणा है कि इस तरह राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट की अनुमति भ्रष्टाचारियों की जेबें भरने के बाद ही मिलती है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने बिजली प्रोजेक्ट न रोके होते? सर्वोच्च न्यायालय ने केदारनाथ आपदा के बाद उत्तराखण्ड के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्रों में लगाई जा रही जिन 24 परियोजनाओं पर रोक लगाई थी उनको दुबारा शुरू कराने के लिये केन्द्र एवं राज्य सरकारें पूरा जोर लगा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोकी गयी परियोजनाओं में ऋषि गंगा प्रथम (70 मे0वा0) एवं ऋषि गंगा द्वितीय (35 मे0वा0) के साथ ही लाता-तपोवन (171 मे0वा0) भी शामिल हैं। ये तीनों परियोजनाएं हाल ही में जलप्रलय प्रभावित क्षेत्र में ही स्वीकृत हैं। अगर कोर्ट द्वारा इनको रोका गया न होता तो आज धौलीगंगा की बर्फीली बाढ़ की विभीषिका अकल्पनीय हो सकती थी। बाढ़ में क्षतिग्रस्त होने वाली एक निजी कंपनी की मूल ऋषिगंगा परियोजना 2013 में सुप्रीमकोर्ट की रोक से तो बची मगर 2016 में बादल फटने के बाद आयी बाढ़ से नहीं बच पायी और यह जब दूसरी बार बन कर तैयार हुयी तो 7 फरबरी को दुबारा बाढ़ में बह गयी। इस उच्च हिमालय क्षेत्र की रोकी गयी लाता-तपोवन परियोजना में 7.51 किमी लम्बी हेड रेस और 320 मी0 टेल रेस सुरंगें बननी थीं। अब कल्पना की जा सकती है कि इन सुरंगों के लिये अति संवेदनशील क्षेत्र में कितने विस्फोट होते और सुरंगो से निकला मलबा बाढ़ को कितना भयंकर बना देता।
पहले भी पावर हाउस बहते रहे ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के अलावा भी उत्तरकाशी में कालीगंगा पर बना प्रोजेक्ट 2013 की बाढ़ में बह गया था जिसका हाल ही में पुनर्निमार्ण हुआ और मुख्यमंत्री ने स्वयं उसका उद्घाटन किया। इसी प्रकार उसी दौरान केदारनाथ घाटी की बाढ़ में रामबाड़ा का प्रोजक्ट पूरी तरह नष्ट हो गया था। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के समय नये राज्य को 23 लघु जलविद्युत परियोजनाएं मिली थीं जिनमें से लगभग सभी आज गायब ही हैं। अत्यधिक ढाल के कारण बहुत ही तेज गति से बहने वाले नदी नालों पर बनी ये परियोजनाऐं दूसरी बरसात में बह जाती हैं फिर भी सरकार में बैठे लोग निजी स्वार्थों से प्रेरित हो कर ऐसे नालों पर नयी परियोजनाएं आंबंटित कर देते हैं। इन छोटी योजनाओं के मलबे ने पहाड़ों में त्वरित बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाने के साथ ही अलकनन्दा और भागीरथी नदियों का रिवरबेड भी ऊंचा किया जिससे नदियों का रुख प्रभावित हुआ है।
छोटी परियोजनाओं में पर्यावरण की छूट का बड़ा खेल आंखमूंद कर राजस्व कमाने की होड़ के साथ ही भ्रष्टाचार की पराकाष्टा ने राज्य के अपार जलसंसाधनों की लूट खसोट और कच्चे पहाड़ों को बेरहमी से काटने और छेदने की छूट दे दी है। भारत सरकार के नियमों के अनुसार 25 मेगावाट से कम क्षमता की बिजली परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय क्लीयरेंस की कोई जरूरत नहीं है। इसी प्रकार एक हजार करोड़ से कम लागत की परियोजनाओं के लिये भी केन्द्र सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। इसी ढील का लाभ उठा कर निजी कंपनियों के हाथों छोटी परियोजनाओं का बेतहासा आबंटन होता रहा और निजी कंपनियां शासन-प्रशासन में बैठे लोगों से मिलभगत कर बलबूते हिमालय पर बेरोकटोक अत्याचार करते रहीं। नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व से लगी फूलों की घाटी के निकट निजी कंपनी को आबंटित भ्यूंडार बिजली परियोजना की क्षमता 24.3 मेगावाट से कम रखे जाने का मकसद समझा जा सकता है। किसे पता कि इतने संवेदनशील क्षेत्र में लगने वाली इस परियोजना की वास्तविक क्षमता 25 मेगावाट से कम ही होगी। वैसे भी कोई परियोजना कभी भी पूरी क्षमता से बिजली उत्पादन नहीं करती। बिजली परियोजनाओं को निजी कंपनियों को बेचने से ‘‘हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा-चोखा जाय’’। निजी कंपनियां निजी जेबों का भी पूरा खयाल रखती है। आखिर एक विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने के लिये पांच-दस करोड़ तो जेब में चाहिये हाते हैं। पार्टी फण्ड के अलावा नेताओं को नोटों से तोलना भ्ज्ञी होता है। उत्पादनरत परियोजनाओं के अलावा सरकार द्वारा निजी कंपनियों को विकास के लिये आंबंटित कुल 33 नयी परियोजनाओं में से 24 परियोजनाएं 25 मेगावाट से कम क्षमता की होने से स्वतः ही उन्हें अति संवेदनशील क्षेत्रों में भी पर्यावरणीय बंधनों से मुक्त करा दिया गया। नवम्बर 2010 में जब इसी तरह की 56 बिजली परियोजनाओं के आंबटन में भ्रष्टचार की शिकायत हाइकोर्ट तक पहुंची तो राज्य सरकार को कोर्ट में सुनवाई से पहले स्वयं ही सारे आबंटन रद्द करने पड़े थे। तब एक शराब माफिया की कंपनियों को भी बिजली परियोजनाएं बांटी गयीं थीं। उस समय शराब व्यवसाय के बेताज के बादशाह के दाये हाथ माने जाने वाले को सरकार राज्यमंत्री स्तर का पद भी दे दिया गया था।राज्य में इस समय कुल 37 छोटी बड़ी परियोजनाएं उत्पादनरत् हैं और उनमें भी 18 परियोजनाएं निजी हाथों में हैं। वर्तमान में राज्य सरकार के उपक्रम यूजेवीएनएल को 2723.8 मेगावट क्षमता की 32, केन्द्रीय उपक्रमों को 5801 मेगावाट की 32 और निजी क्षेत्र की कंपनियों को 1360.8 मेगावाट की 33 परियोजनाऐं विकसित करने के लिये आबंटित की गयी हैं। इन 9885.6 मेगावाट की 97 आबंटित परियोजनाओं में से ही 24 को सुप्रीम कोर्ट ने रोका हुआ है। जिन्हें खुलवाने के लिये सरकार ने अदालत में दिये शपथ पत्र में कहा है कि राज्य बिजली की गंभीर किल्लत से जूझ रहा है और उसे प्रति वर्ष हजार करोड़ की बिजली खरीदनी पड़ रही है।
चिपको की जन्मस्थली रेणी वासियों की पुकार नहीं सुनी गयी चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली रेणी गांव के निकट ऋषिगंगा पर बिजली परियोजना का निर्माण वर्ष 2007 में उत्तराखण्ड में खण्डूड़ी सरकार के कार्यकाल में शुरू होते ही आशंकित ग्रामीणों ने उसका विरोध शुरू कर दिया था। वर्ष 2008 में परियोजना क्षेत्र में भूस्खलन से भारी क्षति पहुंची तो कुछ समय के लिये काम बंद होने के बाद पुनः 2009 में इस पर काम शुरू करा दिया गया। फिर 2010 में भूस्खलन से इस परियोजना के 3 मजदूर मारे गये। कुछ समय काम रुकने के बाद 2011 में इस पर एक बार फिर काम शुरू हुआ तो फिर हादसा हो गया जिसकी चपेट में आने से परियोजना के मालिक लुधियाना निवासी राकेश मेहरा की मौत हो गयी। इस हादसे के बाद क्षेत्रवासियों की चिन्ताएं बढ़नी स्वाभाविक ही थी। इसलिये ग्रामीणों ने न केवल ऋषिगंगा के मूल प्रोजेक्ट अपितु जेलम-तमक, मलारी-लेलम, लाता-तपोवन आदि सभी परियोजनाओं का आबंटन निरस्त करने की मांग उठाई मगर यह मांग भी नक्कारखाने की तूती बन गयी। ग्रामीणों ने प्रदर्शन भी किये और वे हाइकोर्ट तक गये मगर उत्तराखण्ड सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। यह परियोजना 2016 में भी बाढ़ की चपेट में आ गयी थी। सुरंगों से छलनी होता हिमालय टिहरी बांध के बाद जनविरोध को देखते हुये अब बांध की जगह बैराज वाली रन ऑफ द रिवर परियोजनाएं ही चलनी हैं। इतनी सारी परियोजनाओं की मुख्य निर्माण गतिविधियां पहाड़ों के गर्भ में सुरंग आदि के रूप में होनी हैं। उत्तरकाशी में मनेरी भाली प्रथम में 8.6 किमी और द्वितीय चरण में 16 किमी, विष्णु प्रयाग में 11.33 किमी सुरंगें पहले बन चुकी हैं। इनके अलावा कई अन्य सुरंगें पहले ही बनी हुयी हैं अभी हिमालय के अंदर सेकड़ों किमी लम्बी सुरंगें प्रस्तावित हैं, जिनमें विष्णुगाड-पीपलकोटी की 13.4 किमी, लाता तपोवन में 7.51 किमी तथा मलारी-जेलम की 4.5 किमी सुरंगें भी शामिल हैं। कुल मिला कर उत्तराखण्ड हिमालय के पहाड़ों के अन्दर लगभग 700 किमी लम्बी सुरंगें बननी हैं। सुरंगों के मलब का निस्तारण भी एक समस्या है, लेकिन उस पर सरकार का ध्यान नहीं है।
केदारनाथ के बाद अब बदरीनाथ की बारी हिमालय के साथ भयंकर अत्याचार का ताजा नमूना निर्माणाधीन चारधाम ऑल वेदर रोड भी है जिसके लिये लगभग 50 हजार पेड़ और लाखों झाड़ियां काटी गयी। कोर्ट का हस्तक्षेप तब हुआ जबकि पहाड़ काटने का 70 प्रतिशत काम पूरा हो गया। केदारनाथ में पुनर्निर्माण के नाम पर वहां सीमेंट कंकरीट का ऐसा ढांचा खड़ा कर दिया जिसनेे भूगर्ववेताओं की भी चिन्ता बढ़ा दी। केदारनाथ के बाद अब बदरीनाथ का भी हुलिया बिगाड़ने का प्लान बन चुका है। स्थानीय प्ररस्थितियों की अनदेखी कर बदरीनाथ के लिये बना नया मास्टर प्लान इस इको फ्रेजाइल (पर्यावरणीय संवेदनशील) क्षेत्र में हादसों का आमंत्रण माना जा रहा है।

Friday, February 12, 2021

नेताजी से सम्बंधित  फाइलें , खोदा पहाड़ निकली चुहिया। .....  

उत्तराखण्ड ने दी थी नेताजी को प्रेरणा और शक्ति -जयसिंह रावत नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज (आइएनए) का उत्तराखण्ड से गहरा नाता रहा है। हालांकि दावा तो यहां तक किया गया था कि नेताजी ने साधू वेश में 1977 तक अपना शेष जीवन देहरादून में ही बिताया था। उनके प्रवास की सच्चाई जो भी हो मगर यह बात निर्विवाद सत्य है कि आजाद हिन्द फौज बनाने की प्रेरणा उन्हें देहरादून के राजा महेन्द्र प्रताप सिंह से और पेशावर काण्ड के हीरो चन्द्र सिंह गढ़वाली से मिली और उनकी फौज को शक्ति गढ़वालियों की दो बटालियनों ने भी दी। इडियन नेशनल आर्मी (आइएनए) का गठन रास बिहारी बोस ने जापान में 1942 में कर लिया था और रास बिहारी भी देहरादून के फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में हेड क्लर्क थे । रास बिहारी 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली में वाइसरायॅ लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के मामले में वांछित होने पर देहरादून से भाग कर जापान चले गये थे। महेन्द्र प्रताप से भी मिली प्रेरणा नेताजी को एक के बाद एक जांच समितियों और आयोगों के गठन के बाद भी भले ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु की असलियत सामने नहीं आ पाई हो, मगर उनके जीवन की अंतिम लड़ाई में उत्तराखण्ड के कनेक्शन से इंकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि नेताजी ने निर्वासित ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में किया था। उस सरकार की राजधानी को 7 जनवरी 1944 को सिंगापुर से रंगून स्थानान्तरित किया गया। लेकिन इससे पहले आजाद भारत की निर्वासित सरकार का गठन राजा महेन्द्र प्रताप ने काबुल में 1915 में कर दिया था। उनके प्रधान मंत्री बरकतुल्ला थे। क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में मुसान के राजा थे, लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियां चलाने के लिये वह देहरादून आ गये थे। उनकी रियासत को भी अंग्रेजों ने नीलाम कर दिया था। उन्होंने 1914 में देहरादून से ‘‘निर्बल सेवक’’ नाम का अखबार निकाला जो कि आजादी समर्थक था इसलिये महेन्द्र प्रताप को भारत से भागना पड़ा और तब जा कर उन्होंने अफगानिस्तान में आजाद भारत की निर्वासित सरकार बनायी थी। वह 1946 में भारत लौटे और शेष जीवन देहरादून के राजपुर रोड पर रहने लगे। नेताजी को चन्द्र सिंह गढ़वाली ने प्रभावित किया सन् 1930 में हुआ पेशावर काण्ड भी नेताजी के लिये प्रेरणा श्रोत बना और उस काण्ड में चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों द्वारा निहत्थे आन्दोलनकारी पठानों पर गोलियां बरसाने से इंकार किये जाने की घटना ने नेताजी को भरोसा दिला दिया कि गढ़वाली सैनिक राष्ट्रवादी हैं और मातृभूमि की आजादी के लिये किसी भी हद तक गुजर सकते हैं। आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का वर्चस्व दरअसल आजाद हिन्द फौज (आइएनए) में गढ़वाल रायफल्स की दो बटालियन (2600 सैनिक) शामिल थीं। इनमें से 600 से अधिक सैनिक ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए शहीद हो गये थे। आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल रायफल्स के गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व करने वाले इन तीन जांबाज कमाण्डरों में कर्नल चन्द्र सिंह नेगी, कर्नल बुद्धिसिंह रावत और कर्नल पितृशरण रतूड़ी थे। जनरल मोहन सिंह के सेनापतित्व में गठित आजाद हिन्द फौज की गढ़वाली अफसरों और सैनिकों की दो बटालियनें बनायी गयीं थी। इनमें से एक सेकेण्ड गढ़वाल की कमान कैप्टन बुद्धिसिंह रावत को और फिफ्त गढ़वाल रायफल्स की कमान कैप्टन पितृ शरण रतूड़ी को सौंपी गयी। कैप्टन चन्द्र सिंह नेगी को आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल में सीनियर इंस्ट्रक्टर बनाया गया। बाद में उन्हें आइएनए के आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल सिंगापुर का कमाण्डेट बना दिया गया। इन तीनों को बाद में एक साथ पदोन्नति दे कर मेजर और फिर ले. कर्नल बना दिया गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गढ़वाली सैनिकों को बहुत पसन्द करते थे। उन्होंने मेजर बुद्धिसिंह रावत को अपने व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटैण्ट और रतूड़ी को गढ़वाली यूनिट का कमाण्डैण्ट बना दिया था। इसी तरह मेजर देबसिंह दानू पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर के तौर पर तैनात थे। आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का शौर्य इन तीन अफसरों के अलावा लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र सिंह बागड़ी, मेजर पद्मसिंह गुसाईं और मेजर देवसिंह दाणू की भी अपनी दिलेरी और निष्ठा के चलते आजाद हिन्द फौज में काफी धाक रही। लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट जब 17 मार्च 1945 को टौंगजिन के मोर्चे पर अपनी टुकड़ी का नेतृतव कर रहे थे तो उनके पास केवल 98 गढ़वाली सैनिक थे। जिनके पास रायफलें ही रक्षा और आक्रमण करने के लिये थीं। इन्होंने अंग्रेजी फौज के हवाई और टैंक-तोपों के हमलों का मुकाबला किया। इनमें से 40 ने वीरगति प्राप्त की। स्वयं ज्ञानसिंह भी दुश्मनों के दांत खट्टे करने के बाद सिर पर गोली लगने से शहीद हो गये थे। स्वयं जनरल शहनवाज खां ने अपनी पुस्तक में इन गढ़वाली सैनिकों और खास कर ज्ञानसिंह बिष्ट की असाधारण वीरता का विस्तार से उल्लेख किया है। कर्नल जी.एस.ढिल्लों ने भी अपनी रिपोर्ट “चार्ज ऑफ द इमोर्टल्स” में इन रणबांकुरों के बारे में लिखा है। इसी तरह महेन्द्र सिंह बागड़ी के नेतृत्व में गढ़वाली सेना ने कोब्यू के मोर्चे पर अंग्रेजों की तोपों और टैंकों से लैस लगभग 1000 सैंनिकों की तादात वाली सेना को केवल रायफलों और उन पर लगी संगीनों से ही खदेड़ दिया था। कर्नल पितृशरण रतूड़ी को सरदारे-जंग का वीरता पदक मिला था। दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया। आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर, 1945 में मुकदमा चलाया। जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार जापान ने सबसे पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा की थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गयी। लेकिन टोकिया और टहैकू के विरोधाभासी बयानों पर संदेह उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 3 दिसम्बर 1955 को 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करने की घोषणा की जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एन.एन. मैत्रा शामिल थे। इस कमेटी के शाहनवाज खान और मैत्रा ने नेताजी के निधन की जापान की घोषणा को सही ठहराया तो सुरेश चन्द्र बोस ने असहमति प्रकट की। इसलिये विवाद बरकार रहा। इसके बाद 11 जुलाई 1970 को जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बैठाया गया तो आयोग ने विमान दुर्घटना वाले पक्ष को सही माना, मगर नेताजी के परिजनों, जिनमें समर गुहा भी थे, ने इसे अविश्वसनीय करार दिया। इसी दौरान कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी मामले की गहनता से जांच करने का आदेश भारत सरकार को दिया तो 1999 में सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बिठाया गया। मुखर्जी आयोग ने माना कि नेताजी अब जीवित नहीं हैं, परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में ताईपेई में किसी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ताईवान ने कहा-18 अगस्त, 1945 को कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और रेनकोजी मंदिर (टोक्यो) में रखीं अस्थियां नेताजी की नहीं हैं। आयोग की जांच में यह भी पाया गया कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत नहीं। क्या देहरादून का साधू नेताजी थे? आयोग ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित शोलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदा नन्द को भी नेताजी होने की पुष्टि नहीं की। आयोग के समक्ष दावा किया गया था कि फकाता कूच बिहार की तर्ज पर ही शोलमारी आश्रम बना हुआ है। आयोग के समक्ष कहा गया कि इस आश्रम की स्थापना 1959 के आसपास उक्त साधू ने की थी जिसका विस्तार बाद में 100 एकड़ में किया गया और वहां लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे। आश्रम में सशस्त्र गार्ड भी रखे गये जिससे स्थानीय लोग आशंकित हुये। सन् 1962 में नेताजी के एक साथी मेजर सत्य गुप्ता आश्रम में पहुंच कर साधू से बात की और वापस कलकत्ता लौटने पर उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर साधू को नेताजी होने का दावा किया जो कि 13 फरबरी 1962 के अखबारों में छपा। यह मामला संसद में भी उठा। उक्त साधू की 1977 में मृत्य हो गयी। जांच आयोग ने कुल 12 लोगों के बयान शपथ पत्र के माध्यम से लिये जिनमें से 8 ने साधू को नेताजी बताया मगर एक वकील निखिल चन्द्र घटक, जो कि साधू के कानूनी मामले भी देखते थ,े ने आयोग के समक्ष कहा कि साधू स्वयं कई बार स्पष्ट कर चुके थे कि वह सुभाष चन्द्र बोस नहीं हैं और उनके पिता जानकी नाथ बोस और माता विभावती बोस नहीं बल्कि वह पूर्वी बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्में हैं। आयोग नेताजी के देहरादून में रहने की पुष्टि नहीं कर सका। इसी तरह आयोग के समक्ष शेवपुर कलां मध्य प्रदेश और फैजाबाद के साधुओं के नेताजी होने के दावे किये गये जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया। कैबिनेट सचिव अजीत सेठ कमेटी की सिफारिशें 10 अप्रैल, 2015 के अंक में इंडिया टुडे में खुफिया ब्यूरो द्वारा 20 साल तक नेताजी के परिजनों पर निगरानी की स्टोरी छपने के बाद मोदी सरकार ने अप्रैल 2015 में कैबिनेट सचिव अजीत सेठ की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसमें इसमें गृह मंत्रालय, आईबी, रॉ और प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े अधिकारी शामिल थे। इस कमेटी को आफिशियल सीक्रेट एक्ट के आलोक में यह देखना था कि क्या नेताजी से सम्बंधित गोपनीय फाइलों को अवर्गीकृत किया जा सकता है। यह एक्ट सूचना केअधिकार के दायरे से भी बाहर है। आफिशियल सीक्रेट एक्ट ब्रिटिश काल से चला आ रहा है। एक्ट में स्पष्ट किया गया है कि कोई भी एक्शन जो देश के दुश्मनों को मदद दे, इस एक्ट के दायरे में आता है। इसमें यह भी कहा गया है कि कोई भी सरकार की ओर से प्रतिबंधित क्षेत्र, कागजात आदि को नहीं देख सकता और ना ही देखने की मांग कर सकता है। अजीत सेठ कमेटी की सिफारिश के बाद सरकार ने नेताजी से संबंधित फाइलों को अवर्गीकृत कर सार्वजानिक करने का निर्णय लिया था। गोपनीय फाइलें: खोदा पहाड़ निकली चुहिया नेेताजी से संबंधित लगभग 200 गोपनीय फाइलें सार्वजनिक होने पर भी नेता जी की मौत का रहस्य नहीं सुलझ पाया है। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में जब एनडीए की सरकार बनी थी तो आशा बंधी थी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ नयी सरकार अपने चुनावी वायदे को पूरा कर जब नेताजी से सम्बंधित फाइलें सार्वजानिक करेगी तो नेताजी की मौत से सम्बधित रहस्य की परतें एक के बाद एक खुलती जायेंगी। यह चुनावी वायदा भी इसीलिये किया गया था ताकि देश की जनता अपने एक महानायक की मौत की सच्चाई जान सके। प्रधानमंत्री मोदी ने सचमुच अपने वायदे के अनुसार 14 अक्टूबर 2015 को वे फाइलें सार्वजानिक करने की घोषणा की और उस घोषणा के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय ने अवर्गीकृत 33 फाइलों की पहली खेप को 4 दिसम्बर 2015 को राष्ट्रीय अभिलेखागार के सुपुर्द कर दिया। इसके बाद गृह मंत्रालय ने 37 और विदेश मंत्रालय ने भी 25 फाइलों को पहली खेप के तौर पर राष्ट्रीय अभिलेखागार को सौंप दिया, ताकि शोधकर्ता उन फाइलों में छिपी सच्चाई को बाहर निकाल सकें। प्रधानमंत्री ने जनता की अपेक्षाओं के अनुकूल कदम उठाते हुये 23 जनवरी 2016 को स्वयं नेताजी से सम्बंधित 100 फाइलों की डिजिटल प्रतियां सार्वजनिक जानकारी के लिये जारी कीं जिनमें 15,000 से ज्यादा पन्ने हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार ने भी 29 मार्च 2016 को तथा 27 अप्रैल 2016 को दो किश्तों में नेता जी से सम्बंधित 75 अवर्गीकृत डिजिटल फाइलों की प्रतियां सार्वजनिक जानकारी के लिये जारी कीं। अभिलेखागार ने 27 मई 2016 को सर्वसाधारण के लिये 25 फाइलों की चौथी खेप जारी की जिसमें 5 फाइलें प्रधानमंत्री कार्यालय की, 4 फाइलें गृहमंत्रालय की और 16 फाइलें विदेश मंत्रालय की थीं। इसी प्रकार पश्चिम ंबगाल सरकार ने भी कुछ गोपनीय फाइलें राज्य अभिलेखागार को सौंपी। कोलकाता में राज्य सरकार ने 18 सितम्बर 2015 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी 64 फाइलों को सीडी के रूप में आम लोगों और नेताजी के परिजनों के बीच बांट दिया गया। इन फाइलों से जुड़े 12744 पेज को डिजिटल रूप में बदला गया है। नेताजी से जुड़ी इन फाइलों को कोलकाता पुलिस म्यूजियम में ही सुरक्षति रखा गया है। लेकिन इतनी बड़ी कशरत के बाद भी भारतीय राजनीति के सबसे बड़े रहस्य से पर्दा नहीं उठ सका। जयसिंह रावत ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून। मोबाइल-9412324999 jaysinghrawat@gmail.com

Monday, February 8, 2021

अलकनन्दा की इन सहायिकाओं का ऐसा विनाशकारी रौद्र रूप अपने आप में चेतावनी ही है।

Article of Jay Singh Rawat published in edit page of Rashtriya Sahara on 9 February 2021

पर्वतराज हिमालय फिर गुस्से में

-जयसिंह रावत

जून 2013 की भयंकर केदारनाथ आपदा के घाव भरे भी नहीं थे कि 7 फरबरी की सुबह हिमालय एक बार फिर गुस्से में गया। शीत ऋतु में जहां सभी नदियां और खास कर ग्लेशियरों पर आधारित हिमालयी नदियां ठण्ड से सिकुड़ जाती हैं, उनमें भयंकर बाढ़ का आना उतना ही विस्मयकारी है जितना कि केदारनाथ के ऊपर स्थाई हिमरेखा का उल्लंघन कर बादल का फटना था। शीतकाल में ग्लेशियरों के पिघलने की गति बहुत कम होने के कारण हिमालयी नदियों में इन दिनों निर्जीव नजर आती हैं और गर्मियां शुरू होते ही उनमें नये जीवन का संचार होने लगता है। लेकिन चमोली में भारत-तिब्बत सीमा से लगी नीती घाटी की धौली गंगा और ऋषिगंगा इतनी कड़ाके की ठण्ड में ही विकराल हो उठी।
अलकनन्दा
की इन सहायिकाओं का ऐसा विनाशकारी रौद्र रूप अपने आप में चेतावनी ही है। प्रकृति के इस विकराल रूप को हम अगर अब भी हिमालय के जख्मों और उसे नंगा करने के विरुद्ध चेतावनी नहीं मानेंगे तो यह पुनः एक भयंकर मानवीय भूल होगी। प्रख्यात पर्यावरणविद् चण्डी प्रसाद भट्ट एक बार नहीं, अनेक बार इस अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी निर्माण के प्रति आगाह कर चुके थे। उन्होंने खास कर धौलीगंगा की बर्फीली बाढ़ से बरबाद हुये तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना के प्रति सचेत किया था। यही नहीं उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने भी 2019 में रेणी गांव के ग्रामीणों की शिकायत पर निर्माणाधीन ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना के निर्माण में हो रही पर्यावरणीय लापरवाहियों के प्रति राज्य सरकार को आगाह कर दिया था। इन परियोजनाओं के मलबे ने भी बर्फीली बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ाया है।

मानव कल्याण के लिये विकास तो निश्चित रूप से जरूरी है, मगर विकास की योजनाएं बनाते समय योजनाकारों को क्षेत्र के इतिहास एवं भूगोल की जानकारी के साथ ही इको सस्टिम की संवेदनशीलता का ध्यान भी रखना चाहिये। ग्लेशियर (हिमनद) बर्फ की नदी होती है जो कि चलती तो है मगर चलते हुयी दिखती नहीं है। जबकि बर्फ के विशालकाय चट्टानों के टूटकर नीचे गिरने से एवलांच बनता है और उसके मार्ग में जो भी आता है उसका नामोनिशन मिट जाता है। ऋषिगंगा और धौली की बाढ़ इसी एवलांच स्खलन का नतीजा थी। लेकिन उसे ग्लेशियर टूटना और फटना बताया जा रहा है। हिमालय पर एक महासागर जितना पानी बर्फ के रूप में जमा है। इस हिमालयी ‘‘क्रायोस्फीयर’’ में ग्लेशियर और अवलांच जैसी गतिविधियां निरन्तर चलती रहती हैं। इनका असर निकटवर्ती मानव बसागतों पर भी पड़ता है। अलकनन्दा नदी के कैचमेंट इलाके में इस तरह की घटनाएं नयी नहीं हैं। ऋषिगंगा और धौलीगंगा परियोजनाओं से पहले अलकनन्दा पर बनी विष्णुप्रयाग परियोजना का लामबगड़ स्थित बैराज पहले भी एवलांच से क्षतिग्रस्त हो चुका है। सन् 2008 में हेमकुंड में एवलांच गिरने से 14 सिख तीर्थ यात्री मारे गये थे। सन् 1957 में इसी धौलीगंगा की सहायक द्रोणागिरी गधेरे में भापकुण्ड के निकट एवलांच आने से 3 कि.मी. लम्बी झील बन गयी थी। लगता है हमने अतीत से कुछ नहीं सीखा।

अलकनन्दा के इसी कैचमेंट क्षेत्र में तीब्र ढाल वाले नदी नाले पूर्व में भी अनेक बार भारी विप्लव मचा चुके हैं। सन् 1868 में चमोली गढ़वाल के सीमान्त क्षेत्र में झिन्झी गांव के निकट भूस्खलन से बिरही नदी में एक गोडियार ताल नाम की झील बनी जिसके टूटने से अलकनन्दा घाटी में भारी तबाही हुयी और 73 लोगों की जानें गयीं। सन् 1893 में गौणा गांव के निकट एक बड़े शिलाखण्ड के टूट कर बिरही में गिर जाने से नदी में फिर झील बन गयी जिसे गौणा ताल कहा गया जो कि 4 कि.मी.लम्बा और 700 मीटर चौड़ा था। यह झील 26 अगस्त 1894 को टूटी तो अलकनन्दा में ऐसी बाढ़ आयी कि गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर का आधा हिस्सा तक बह गया। बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुयी थी, इसके खुलने पर नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था। सन् 1967-68 में रेणी गांव के निकट भूस्खलन से जो झील बनी थी उसके 20 जुलाइ 1970 में टूटने से अलकनन्दा की बाढ़ गयी जिसने हरिद्वार तक भारी बताही मचाई। इसी बाढ़ के बाद 1973 में इसी रेणी गांव गौरा देवी ने विश्व बिरादरी को जगाने वाला चिपको आन्दोलन शुरू किया था।

तब्र झाल के कारण हिमालयी नदियां जितनी वेगवान उतनी ही उत्श्रृंखल भी होती है। इसलिये अगर उनका मिजाज बिगड़ गया तो फिर रविवार को धौली गंगा में आयी बाढ़ की तरह ही परिणाम सामने आते हैं। नदी का वेग उसकी ढाल पर निर्भर होता है। हरिद्वार से नीचे बहने वाली गंगा का ढाल बहुत कम होने के कारण वेगहीन हो जाती है। पहाड़ में गंगा की ही श्रोत धारा भागीरथी का औसत ढाल 42 मीटर प्रति किमी है। मतलब यह कि यह हर एक किमी पर 42 मीटर झुक जाती है। अलकनन्दा का ढाल इससे अधिक 48 मीटर प्रति किमी है। जबकि इसी धौलीगंगा का ढाल 75 मीटर प्रति किमी आंका गया है। इसी प्रकार नन्दाकिनी का 67 मीटर  और मन्दाकिनी का ढाल 66 मीटर प्रति कि.मी. आंका गया है। जाहिर है कि धौली सबसे अधिक वेगवान है तो उससे खतरा भी उतना ही                                                                                                        अधिक है।

हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है मगर अब इन विप्लवों की फ्रीक्वेंसी  बढ़ रही है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त 2010 की रात्रि बादल फटने से आयी त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गये थे। वहां दो साल में ही फिर सितम्बर 2014 में आयी बाढ़ ने धरती के इस को नर्क बना दिया था। मार्च 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग जानें गंवा बैठे थे। मार्च 1979 में आये एक अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गये थे। सतलुज नदी में 1 अगस्त 2000 को आयी बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे। उस समय सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ गयी। वर्ष 1995 में आयी आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गयीं थीं।

भूगर्भविदों के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है तथा भूकम्पों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों धरती पर पड़ता रहता है। जिस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर पूर्व के हिमालयी राज्यों में निरन्तर वनावरण घट रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति से बेतहासा छेड़छाड़ हो रही है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही मनुष्यों और वाहनों की अनियंत्रित भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।

जयसिंह रावत

-11, फ्रेंड्स एन्कलेव,

शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड

देहरादून।