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Tuesday, February 28, 2017

UTTARAKHAND IS MUCH AHEAD OF HIMACHAL PRADESH

अपने सहोदर हिमाचल प्रदेश से आगे निकल गया उत्तराखण्ड
जयसिंह रावत
 मात्र 16 साल की आयु वाला उत्तराखण्ड अपने से 69 साल बड़े अपने सहोदर हिमालयी भाई हिमाचल प्रदेश से कई मायनों में आगे निकल गया है। विकास के मामले में हिमालयी राज्यों का रोल मॉडल माने जाने वाला हिमाचल प्रदेश हालांकि बागवानी के मामले में अब भी सबसे आगे है लेकिन बावजूद इसके उत्तराखण्ड मात्र डेढ दशक में ही सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय के मामले में हिमाचल से काफी आगे निकल चुका है। हिमाचल प्रदेश का गठन 1948 में तथा उसे पूर्ण राज्य का दर्जा 1971 में मिला था। उत्तराखण्ड और हिमाचल के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं।
उत्तराखण्ड के अर्थ एवं सांख्यकी निदेशालय द्वारा हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश के बीच किये गये एक तुलनात्मक अध्ययन के अनुसार 2014-15 में उत्तराखण्ड की प्रति व्यक्ति आय 1,39,184 रुपये तथा हिमाचल प्रदेश की 1,19,720 रुपये थी। इसी प्रकार 2014-15 की दरों के आधार पर उत्तराखण्ड का सकल घरेलू उत्पाद 1,64,931 रुपये तथा स्थिर दरों पर 1,43,639 रुपये था। जबकि हिमाचल प्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद उस समय की दरों के आधार पर 1,01,108 रुपये तथा स्थिर दरों के आधार पर 89,050 रुपये था। सांख्यकी निदेशालय के सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2014-15 में नव गठित उत्तराखण्ड का राजस्व 17320.53 करोड़ रुपये तथा हिमाचल प्रदेश का राजस्व 15711.07 करोड़ रुपये था। वर्ष 2015-16 के अग्रिम आंकड़ों में राज्य की आर्थिक विकास दर 8.70 फीसद आंकी गई है। इससे पीछे वित्तीय वर्ष 2014-15 की तुलना में यह 3.70 फीसद अधिक है। वहीं प्रति व्यक्ति आय में 16,435 रुपये का इजाफा होने के साथ यह 1,51,219 रुपये सालाना आंकी गई है। हिमाचल प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 2015-16 तक 1,30,067 तक ही पहुंची थी।
उत्तराखण्ड का सालाना बजट 40,422 करोड़ तक पहुंच गया है जबकि पूर्ण राज्य बनने के 46 साल बाद भी हिमाचल प्रदेश का बजट चालू वित्तीय वर्ष तक 32,593 करोड़ तक ही पहुंच पाया है। लेकिन कर्ज के मामले में भी उत्तराखण्ड अपने सहोदर से काफी आगे निकल गया है। उत्तराखण्ड पर मात्र 16 साल की आयु में लगभग 46 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है, जिसका व्याज ही लगभग 4500 करोड़ सालाना बैठता है, जबकि हिमाचल प्रदेश का कर्ज चालू वर्ष तक 35,151 करोड़़ और सालाना ब्याज भार 3,400 करोड़ रुपये ही था।
उत्तराखण्ड के अर्थ और सांख्यकी विभाग के ताजा सर्वे के अनुसार उत्तराखण्ड साक्षरता के मामले में अपने पड़ोसी से कुछ पीछे चल रहा है। इसकी साक्षरता 78.8 प्रतिशत है, जबकि हिमाचल प्रदेश की साक्षरता 82.80 प्रतिशत तक पहुंच गयी है। हिमाचल में उत्तराखण्ड की तुलना में अधिक बेसिक, सीनियर बेसिक और हायर सेकेण्डरी स्कूल अधिक हैं। स्वास्थ्य के मामले में मिली जुली स्थिति है। उत्तराखण्ड में भले ही कुल मिला कर ऐलोपैथिक अस्पताल हिमाचल के 75 के मुकाबले 390 हैं। लेकिन यहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हिमाचल से कम हैं। दोनों पहाड़ी राज्यों की सिंचाई के मामले में तुलना करें तो हिमाचल का कुल सिंचित क्षेत्र 1,09,930 हेक्टेअर है। जबकि उत्तराखण्ड का सिंचित क्षेत्र 1,31,226 हैक्टेअर तक पहुंच गया है। उत्तराखण्ड में सड़कों की लम्बाई 40,686 किमी तक और हिमाचल प्रदेश में सड़कों की लम्बाई अभी 35,583 किमी तक ही पहुंची है। उत्तराखण्ड में प्रति हजार वर्ग किमी पर 760.34 किमी सड़कें तथा हिमाचल में 639.14 किमी सड़कें बनी हुयी है। उत्तराखण्ड में प्रति लाख जनसंख्या पर 381.46 किमी और हिमाचल में 498.76 किमी सड़कें हैं।
उत्तराखण्ड का गठन 9 नवम्बर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में हुआ था, जबकि हिमाचल प्रदेश देश के 18वें राज्य के रूप में 25 जून 1971 को अस्तित्व में आ गया था। लेकिन लगभग 28 पहाड़ी रियासतों के राजाओं द्वारा 8 मार्च 1948 को एकीकरण प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये जाने के बाद 15 अप्रैल 1948 को इसे मुख्य आयुक्त के अधीन एक अलग प्रशासनिक इकाई का दर्जा दे दिया गया था। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने के साथ ही हिमाचल प्रदेश को उप राज्यपाल के अधीन एक सी श्रेणी के राज्य का दर्जा दे दिया गया था। सन् 1956 में हिमाचल प्रदेश को केन्द्र शासित राज्य बनाया गया और 1971 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया।  हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में भौगोलिक समानताएं ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक समानताएं भी हैं। इन दोनों के बीच ऐतिहासिक सम्बन्ध रहे हैं। कभी टिहरी रियासत भी हिमाचल प्रदेश की लगभग 35 रियासतों में से एक थी तथा ब्रिटिशकाल में जब ब्रिटिश शासित भारत में कांग्रेस सक्रिय थी तो देशी रियासतों में कांग्रेस का ही संगठन अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद सक्रिय था। उस परिषद में रियासतों के प्रजामण्डल शामिल थे। उसी परिषद के अधीन हिमालयी राज्यों के लिये हिमालयन हिल रिजनल काउंसिल बनायी गयी थी जिसमें टिहरी समेत हिमाचल की 35 रियासतों के प्रजामण्डल शामिल थे। इस काउंसिल के अध्यक्ष टिहरी प्रजा मण्डल के अध्यक्ष परिपूर्णानन्द पैन्यूली भी रहे। पैन्यूली ने कांउसिल के चुनाव में डा0 यशवन्त सिंह परमार को हराया था।

-जयसिंह रावत
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून
उत्तराखण्ड।


Monday, February 27, 2017

चुनाव नतीजों से पहले ही भाजपा में कुर्सी का घमासान

सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठमलट्ठा वाली कहावत उत्तराखण्ड में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों ने चरितार्थ कर दी है। चुनाव नतीजे अभी आये नहीं और उससे पहले ही भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में घमासान शुरू हो गयी है। इस पद के लिये आपस में मारामारी की आशंका के चलते ही भाजपा नेतृत्व ने अपनी ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा आगे करने के बजाय मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा था।
उत्तराखण्ड  की चौथी विधानसभा के चुनाव के लिये  गत 15 फरबरी को हुये मतदान के नतीजे आगामी 11 मार्च को आने हैं और सत्ता की एक दावेदार भाजपा के नेताओं में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिये पहले ही घमासान शुरू हो गया है। जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि भाजपा के दावेदारों ने पहले ही एक दूसरे को हराने के लिये गोटियां बिछानीं शुरू कर दीं थीं।  जबकि इस बार जिस तरह का मतदान हुआ उसका विश्लेषण वाले ऐसे राजनीतिक विश्लेशकों की भी कमी नहीं है जो कि सत्ता के दोनों दावेदारों में बराबर की टक्कर मान रहे हैं। कुछ लोग तो हरीश रावत की वापसी के प्रति भी आश्वस्त हैं।
भाजपा में चार पूर्व मुख्यमंत्रियों के होते हुये भी मुख्यमंत्री पद के लिये प्रबल दावेदार माने जा रहे सतपाल महाराज मतदान के तत्काल बाद देहरादून में पार्टी कार्यालय में मिठाई बांट कर उत्तर प्रदेश में पार्टी प्रत्याशियों के प्रचार में चले गये हैं। सतपाल महाराज का नाम आगे चलते देख उनके कांग्रेस के दिनों से चले आ रहे प्रतिद्वन्दी हरक सिंह रावत कहां चुप बैठने वाले थे। उनसे जब नहीं रहा गया तो उन्होंने कहा दिया कि जिसका नाम पहले चलता है वह पिछड़ जाता है। जाहिर है कि वह स्वयं को भी इस पद के लिये दावेदार मानते हैं जबकि भाजपा में उनकी एंट्री अभी-अभी होने के कारण उनकी संभावनाएं काफी धूमिल हैं। हरक सिंह रावत द्वारा सतपाल महाराज का परोक्ष विरोध किये जाने के बाद देहरादून की डोइवाला सीट से भाजपा के प्रत्याशी त्रिवेन्द्र सिंह रावत की महत्वाकाक्षाएं कुलबुलाने लगीं। उनके समर्थक इन दिनों सोशल मीडिया पर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मुहिम में जुटे हुये हैं। उनका दावा है कि जब कुछ ही साल पहले भाजपा में आने वाले सतपाल महाराज मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो आरएसएस संस्कारों में पले बढ़े और पढ़े त्रिवेन्द्र सिंह रावत क्यों नहीं बन सकते। वे कहते हैं कि अगर इस बार गढ़वाल का ही ठाकुर मुख्यमंत्री बनना है तो वह तीन दावेदार रावतों में सबसे सीनियर भाजपाई हैं। यही नहीं उनके सिर पर पार्टी के वरिष्ठतम् नेता भगतसिंह कोश्यारी का भी हाथ है। हालांकि कोश्यारी समर्थक अब भी आशावान हैं कि पार्टी नेतृत्व कोश्यारी के नाम पर अब भी विचार करेगा। सन् 1942 में जन्में कोश्यारी की उम्र 75 साल हो चुकी है इसलिये उन्हें दौड़ से बाहर माना जाता है। त्रिवेन्द्र रावत की इच्छायें जब कुलबुला सकती हैं तो रमेश पोखरियाल निशंक के लार सामने कुर्सी को देख कर क्यों नहीं टपक सकते। वह युवा हैं तथा इन सबसे अनुभवी भी हैं। पहले भी वह मुख्यमंत्री रह चुके हैं। राजनीतिक रणनीतिकार प्रशान्त कशोर का सोशल मीडिया का फार्मूला कांग्रेस के लिये कितना कारगर होता है, इसका पता तो आगामी 11 मार्च को ही चलेगा मगर उससे पहले भाजपा के दावेदार इस फार्मूले को अवश्य ही आजमा रहे हैं।
भाजपा के ही जानकारों के अनुसार वर्तमान में पार्टी की ओर से मुख्त्रयमंत्री पद के लिये सबसे प्रबल दावेदार सतपाल महाराज ही हैं लेकिन कम मतदान और भीतरघातियों ने उनकी जीत को ही मुश्किल में डाला हुआ है। उनके लिये सबसे बड़ा खतरा कवीन्द्र ईस्टवाल बने हुये हैं और वह भी एक दावेदार के खसमखास माने जाते हैं। डोइवाला सीट पर भाजपा का कोई बागी तो नहीं है मगर यहां भी भीतरघातियों ने त्रिवेन्द्र रावत की राहें मुश्किल कर रखी हैं। प्रतिपक्ष के नेता और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष को भीमुख्यमंत्री पद के लिये स्वाभाविक दावेदार माना जाता है मगर रानीखेत में अजय भट्ट के लिये प्रमोद नैनवाल ने संकट खड़ा कर रखा है। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा स्वयं तो चुनाव नहीं लड़ रहे मगर उनका बागी दल उनके लिये काम कर रहा है।  

Sunday, February 26, 2017

वतन पर मरने वालों का कोई नामोनिशां नहीं होगा
-जयसिंह रावत
देहरादून।  कहा जाता है कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा। अगर आप देहरादून के एक शहीद स्मारक तक पहुंच सकें तो किसी कवि की ये पंक्तियां फिजूल की लगेंगी। देहरादून के मुख्य मार्ग राजपुर रोड पर स्थित प्रथम विश्व युद्ध के स्मारक स्थल पर मेला लगना तो रहा दूर यहां पावर कोरपोरेशन के कब्जा कर स्माराक का ही नामोनिशां बराबर कर दिया। चूंकि अब उन शहीदों की वोट वैल्यू की डेट भी एक्सपायर हो गयी है इसलिये राजनीतिक लोगों के लिये भी उनका महत्व समाप्त हो चुका है।
अंग्रेजों को चाहे आप जितना भला बुरा कहें मगर वे बहादुर शत्रुओं की भी कद्र करते थे। इसीलिये उन्होंने खलंगा के ऐतिहासिक युद्ध में शत्रु गोरखा सैनिकों की बहादुरी को सलाम करने के लिये वहां एक युद्ध स्मारक बना डाला था जिस पर हर साल मेला लगता है और वहां नेपाली मूल के लोगों के साथ गोरखा वोटरों के लालची नेता पहुंचते हैं। लेकिन मुख्य राजपुर रोड स्थित प्रथम विश्व युद्ध के वार मेमोरियल पर श्रद्धा सुमन चढ़ाने की बात तो रही दूर उसे प्रशासन भी भूल गया है। शहर में दूसरे विश्व युद्ध का स्मारक तो कहीं खो ही चुका है। लेकिन जो दिखाई भी दिया था उस पर उत्तराखण्ड पावर कारपोरेशन ने केवल कब्जा कर दिया बल्कि भारत माता के इन वीर सपूतों के सर्वोच्च बलिदान को ही छिपा दिया है। शहीद सैनिकों की तो रही बात दूर ! पावर कारपोरेशन ने प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहीरलाल नेहरू का तक लिहाज नहीं किया। वह भी कांग्रेस भवन के लगभग ठीक सामने! प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री स्व0 नित्यानंद स्वामी ने 14 नवंबर 1991 को उत्तर प्रदेश विधान परिषद में उप सभापति रहते हुए छोटे से इस पार्क का केवल सौंदर्यीकरण करवाया बल्कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति भी स्थापित करवायी थी। नेहरू की उपेक्षित प्रतिमा भी यूपीसीएल के विशालकाय जेनरेटर के पीछे छिप गयी है।
प्रथम विश्वयुद्ध के इस शहीद स्मारक भी स्थित है जो कि उन 97 सैनिकों की याद में स्थापित किया गया था जो 28 जुलाइ 1914 से लेकर 11 नवम्बर 1918 तक चले विश्वयुद्ध में विदेशी धरती पर वीरगति को प्राप्त हुये थे। लेकिन उत्तराखण्ड पावर कारपोरेशन दुस्साहस देखिये कि ऐतिहासिक महत्व की इस विरासत पर  ही अतिक्रमण कर लिया है। यहां 11हजार वॉट का एक जनरेटर रखवा दिया गया है लेकिन इस बारे में इस पार्क की देखरेख करने वाले मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण को भी जानकारी नहीं दी गई। जिसके चलते केवल इस नेहरू पार्क का सौंदर्य बिगड गया] वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक भी जिले के इस इतिहास से रूबरू होने से वंचित हो रहे हैं। अगर ये बहादुर सैनिक ताजा---ताजा शहीद होते तो वोट देने वाले उनके परिजन] रिश्तेदार और परिचित भी मौजूद होते। राजनीतिक नेता वोटों की खातिर शहीदों के परिजनों को ^^इम्प्रेस’’ करने के लिये इन शहीदों की खोज खबर भी लेते। अब जब कि स्वयं शहीदों के वंशजों को उनकी याद नहीं तो राजनीतिक लोग भला क्यों उन शहीदों को याद करने लगेंगे\ यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध के वार मेमोरियल का कहीं अतापता नहीं है। मीडिया की नजर भी वहां पड़ती है जहां टीआरपी या सर्कुलेशन बढ़ने की संभावना होती है।
इस महायुद्ध में भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम] एडीन] अरब] पूर्वी अफ्रीका] गाली पोली] मिस्र] मेसोपेाटामिया] फिलिस्तीन] पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े सम्मान के साथ लड़े। गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट  के दो सैनिकों ] दरबान सिंह नेगी और गबर सिंह नेगी को ब्रिटिश साम्राज्य का उच्चतम  वीरता पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था। पहला पुरस्कार दरबान सिंह नेगी को 1914 में तथा दूसरा दरबान सिंह नेगी को 1915 में मिला था। इस युद्ध में विक्टोरिया क्रास प्राप्त करने वाले पहले भारतीय सैनिक खुदादाद खान को बताया जाता है जो कि विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे। लेकिन रणभूमि में सबसे पहले बहादुरी दरबान सिंह नेगी ने फ्रांस के फेस्टूवर्ट  मोर्चे पर 23 एवं 24 सितम्बर 1914 को दिखा कर शहीद हो गये थे जबकि खुदादाद को उसी वर्ष 9-10 नवम्बर को बहादुरी दिखाने का मौका मिला। चूंकि गजट में पहले नाम खुदादाद का आया इसलिये उन्हें पहला विजेता माना गया। अगले साल 1915 में दूसरे गढ़वाली गबर सिंह नेगी से यह सर्वोच्च पदक हासिल किया। इस युद्ध में लड़े जिसमें कुल  47746 सैनिक शहीद हुये जिनमें से देहरादून के ये 97 बहादुर भी शामिल थे जिनको राज्य सरकार और समाज भूल गया है।



-जयसिंह रावत
-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव
शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
मोबाइल 9412324999