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Thursday, February 23, 2017

राजनीति से वैचारिक प्रतिबद्धता व निष्ठा गायब

राजनीति से वैचारिक प्रतिबद्धता निष्ठा गायब
-जयसिंह रावत
राजनीति में अवसरवाद और पदलोलुपता के चलते निर्वाचित सदनों की गरिमा गिरने से बचाने और देश में राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने के लिये देश का दलबदल विरोधी कानून दो भिन्न विचारधाराओं के प्रधानमंत्रियों के एकमत प्रयासों के बावजूद कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए  वैचारिक प्रतिबद्धता, आचरण की सुचिता और अपनी पार्टी की विचारधारा या राजनीतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा अब मजाक की चीजें बनकर रह गई हैं। राजनीतिक स्वार्थों के लिये लोग गिरगिट से भी जल्दी अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं बदल रहे हैं। देश का कोई भी प्रदेश और कोई भी दल इस बीमारी से अछूता नहीं है। इस बीमारी के इलाज के लिये जो कानून मौजूद है वह कारगर साबित नहीं हो पा रहा है।
18 मार्च 2016 की सांय उत्तराखण्ड के तत्कालीन कृषिमंत्री हरक सिंह रावत विधानसभा के बजट सत्र में अपने तीन विभागों के बजट पेश करते हैं। तीनों ही बार अपने विभाग और सरकार की तारीफ भी करते हैं। मगर उसी सत्र की उसी बैठक में आधे घंटे के बाद जब विनियोग विधेयक (पूरे बजट का बिल) पेश होता है तो उछल कर सदन के बीचोंबीच आकर अपनी ही सरकार के बजट का विरोध करने लगते हैं जिसमें उनके विभाग के वे बजट भी शामिल थे जिन पर उन्होंने उसी समय सदन से स्वीकृति ली थी। मंत्री का विरोध इसलिये था ताकि बजट गिरने के साथ ही सरकार गिर जाय और विपक्ष में बैठी भाजपा की मदद से नयी सरकार का मुख्यमंत्री बना जाय। वह बजट उस मंत्रिमण्डल की बैठक में अनुमोदित हुआ था जिसमें उक्त मंत्री भी मौजूद थे। अरुणाचल में नवाम टुकी की सरकार को गिरा कर स्वयं मुख्यमंत्री बनने के लिये कालिखो पुल विद्रोह कर भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बन गये। बाद में कांग्रेस ने कालिखो पुल की वापसी करा कर फिर नवाम टुकी की सरकार बहाल करा तो दी मगर कांग्रेस को नवाम टुकी की जगह पूर्व मुख्यमंत्री दोरजी खाण्डू के पुत्र तथा कैबिनेट मंत्री पेमा खाण्डू को सत्ता सौंपनी पड़ी। लेकिन खांडू ने पाला बदल लिया। पेमा खाण्डू ने पहले पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश, बनायी और फिर सदलबल भाजपा में शामिल हो गये। चूंकि भाजपा को उत्तरपूर्व में हर हाल में अपनी जड़ें जमानी थीं इसलिये उसने अरुणाचल में पेमा खाण्डू को उसी तरह गले लगा दिया जिस तरह उसने उत्तराखण्ड में कांग्रेस के उन 10 बागियों को गले लगाया जिनके खिलाफ वह सड़क से लेकर सदन तक भ्रष्टाचार को लेकर आन्दोलन करती रही। देश के राजनीतिक इतिहास में 36 साल बाद यह पहला मौका था जब किसी मुख्यमंत्री ने लगभग सभी विधायकों के साथ पार्टी बदल ली। इससे पहले 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में लौटने पर उसी साल जनवरी में हरियाणा में भजनलाल के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की पूरी सरकार कांग्रेस में शामिल हो गई थी। शंकर सिंह बाघेला से भी दलबदल कांग्रेस ने ही कराया था। हिमाचल प्रदेश में फरबरी 1980 में जब दलबदल से शान्ता कुमार की सरकार गिरी तो उसके पीछे भी कांग्रेस ही थी। केरल में पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार गिराने का पाप तो कांग्रेस के सिर पर था। सन् 1979 में जनता पार्टी में फूट डलवा कर चौधरी चरण सिंह से सरकार बनवाने और फिर समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिराने तथा बाद में चन्द्रशेखर की सरकार को समर्थन दे कर फिर समर्थन वापस लेने का काम कांग्रेस ने ही किया था। कांग्रेस ही क्यों? भाजपा का रिकार्ड कौन सा साफ सुथरा है? भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने 1997 में बसपा और कांग्रेस में दलबदल करा कर अपनी सरकार बचाई और दलबदलुओं को खुश करने के लिये इतना बड़ा मंत्रिमण्डल बनाया कि बाद में अटल बिहारी बाजपेयी को संसद में कानून पास करा कर मंत्रिमण्डलों का आकार तय करना पड़ा।
ऐसा नहीं कि दलदबल केवल अब ही हो रहा हो। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जीआचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी आदि नेता कभी काग्रेस में ही थे। यहां तक कि केरल में दुनियां की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने वाले मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव रहे .एम.एस. नम्बूदरीपाद और वाद में महासचिव बने हरिकिशन सिंह सुरजीत भी कभी कांग्रेसी ही हुआ करते थे। देश के इन महान नेताओं ने दल तो बदला मगर किसी व्यक्तिगत लोभ या राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये नहीं बल्कि सैद्धान्तिक आधार पर राजनीतिक लक्ष्य के लिये दल बदला था। इन्हें जब लगा कि जिस सिद्धान्त के पीछे चल कर वे व्यवस्था या समाज को बदलना चाहते हैं उससे कुछ होने वाला नहीं है तो वे अलग मार्ग पर चल दिये। लेकिन आज जो दल बदल हो रहा है उसके पीछे कहीं भी समाज या देश का हित होकर निहित स्वार्थ, पदलोलुपता और अवसरवाद ही है।
देखा जाय तो स्वाधीनता के बाद से ही दलबदल रोकने के लिये वैधानिक व्यवस्था की मांग उठती रही है। 21 मार्च 1968 को तत्कालीन गृह मंत्री यशवंतराव बलवंत राव चह्वाण ने लोकसभा में दलबदल पर चल रही चर्चा के दौरान कहा था किदलबदल का यह रोग एक राष्ट्रीय व्याधि का रूप धारण कर चुका है, जो हमारे लोकतंत्र के प्राण तत्वों को अंदर ही अंदर खाये जा रहा है।दलबदल रोकने के प्रयासों के तहत गठित चह्वाण समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया था किश्रेष्ठ से श्रेष्ठ विधायी अथवा संवैधानिक उपाय तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि विभिन्न राजनीतिक दल इनके अनुरूप मूल राजनीतिक नैतिकता की आवश्यकता को स्वीकार करें, सार्वजनिक जीवन के कुछ औचित्यों और शालीनताओं का पालन स्व्ीकार करें, और एक दूसरे के प्रति, और अंतिम विश्लेषण में इस देश के नागरिकों के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों को स्वीकार करें चह्वाण की वह आशंका आज सही साबित हो रही है।
विभिन्न दलों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुये सबसे पहले दलबदल के खिलाफ 8 दिसम्बर 1967 को एक संकल्प पारित हुआ और उसके बाद 11 अगस्त 1968 को लोकसभा में पी.वैंकट सुबैय्या द्वारा एक गैर सरकारी संकल्प पेश किया गया जो कि 8 दिसम्बर 1968 को पारित हुआ। उसी संकल्प के आधार पर तत्कालीन गृहमंत्री चह्वाण की अध्यक्षता में 19 सदस्यीय समिति का गठन किया गया जिसमें अटल विहारी बाजपेयी और जयप्रकाश नारायण जैसे धुरंधर नेता भी शामिल थे। इस समिति के समक्ष रखे गये प्रस्तावों पर सदस्यों में ही तीब्र मतभेद रहे। उसके बाद 1971 में गठित भागवत सहाय समिति की रिपोर्ट के आधार पर 16 मई 1973 को लोकसभा में 32वां संविधान संशोधन रखा गया जो कि सदस्यों के तीब्र विरोध के चलते पारित हो सका।
कांग्रेस के बाद जनता पार्टी नेे 15 महीनों की तैयारी के बाद 48वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया जो कि लोक सभा में कुछ घंटे भी नहीं टिक पाया। उसके बाद विपक्षी दलों के सहयोग से राजीव गांधी ने लोकसभा में 52वां संविधान संशोधन पेश किया जो कि जनवरी 1985 में पास हो गया। इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 102 और 191 में संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया गया कि 10वीं अनुसूची के अधीन निर्याेग्य घोषित हुआ व्यक्ति संसद तथा विधान मण्डल की सदस्यता के लिये अयोग्य होगा। इस विधेयक के द्वारा संविधान में 10 वीं अनुसूची अन्तःस्थापित की गयी। लेकिन अवसरवादियों ने इसमें भी छेद तलाश लिये। इसके प्रावधानों के अनुसार कम से कम एक तिहाई सदस्यों द्वारा दल छोड़ने पर ही दल का विभाजन माना जाता था और इस पैमाने पर हुये विभाजन के बाद ही मूल दल छोड़ने पर संसद या विधानमंडल की सदस्यता बच सकती थी। राजीव सरकार द्वारा लाये गये 1985 के कानून को अपर्याप्त मान कर सन् 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में संविधान का 91 वां संशोधन पारित हुआ जिसमें मूल दल से अलग होने की स्थिति में कम से कम दो तिहाई सदस्यों का अलग होना अनिवार्य बना दिया। अब लोग टिकट मिलने पर ठीक चुनाव के दौरान दलबदल रहे हैं जो कि दलबदल कानून के दायरे से बाहर है। इस कानून का भी सरकार गिराने या सरकार बचाने में काफी दुरुपयोग हो रहा है जिसमें स्पीकर भी पद का दुरुपयोग कर रहे हैं। उत्तराखण्ड के स्पीकर के निर्णय का मामला सुप्रीमकोर्ट में काफी समय से चल रहा है। जब तक निर्णय आयेगा तब तक नयी विधानसभा का गठन हो जायेगा और उस निर्णय का कोई औचित्य ही नहीं रह जायेगा। दरअसल दलबदल कानून के दायरे में केवल दलबदलुओं को ही रखना काफी नहीं है। जब तक इसकी सजा के दायरे में दलबदल कराने वाले दलों को नहीं लाया जाता तब तक कानून कारगर नहीं रहेगा।

-जयसिंह रावत
-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव
शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
मोबाइल 9412324999



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