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Tuesday, February 27, 2018

Investigation into NH 74 Scam is predestined to reach to the neck of Uttarakhand Congress

WEDNESDAY, 28 FEBRUARY 2018 | 09:17:41 AM
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STATE EDITIONS
WITH SIT, RAWAT SENDS CONG SCURRYING FOR COVER
Saturday, 24 February 2018 | Gajendra Singh Negi | Dehradun | in Dehradun
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In what is being considered as a political master stroke of Chief Minister Trivendra Singh Rawat, the Congress party which was hitherto targeting the State Government for dilly dallying on National Highway -74 scam has come under the radar of Special Investigation Team (SIT). Ever since SIT has questioned former Pradesh Congress Committee president Kishore Upadhyay on deposits allegedly made by beneficiaries of the scam in the official account of Congress party prior to the Assembly elections last year, uneasiness has set into the Congress camp. The salvo of SIT fired by the CM has not only sent the Congress party scurrying for cover but has also ensured widening of fissure lines within Congress. To the amusement of the BJP leaders, the Congress honchos have also started pointing fingers towards one another on the issue. Kishore Upadhyay reportedly told the SIT that since the matter relates to the official bank account of the party, the current PCC chief would be better placed to answer questions related to it. The SIT is now expected to grill the PCC president Pritam Singh, former Chief Minister Harish Rawat and his close aides in the matter.
Under the ambit of the SIT are the transactions into a State Bank of India (SBI) account (Nashvilla Road, Dehradun branch) during first two months of year 2017.  According to an estimate, deposits worth Rs 5.5 crore occurred during this period into this account and the withdrawals too were readily made. Interestingly both Kishore Upadhyay and the then treasurer of the party were not operating this account. The account under the scanner of SIT was being operated by OSD and close aide of then Chief Minister Harish Rawat, Kamal Singh Rawat and Mahavir Rangad.
Political commentator Jai Singh Rawat was of the view that in NH 74 scam investigation the BJP had planned to target Congress from the day one and it has now been proved with SIT taking its scope of investigation to the transactions into the Congress account before last year’s assembly elections. He however added that as per the State Government the senior officers of Udham Singh Nagar districts were aware of the scam but kept quiet under pressure of the Congress leaders and its government at that time. Jai Singh Rawat said that the role of these officers should also be investigated.
For widening of NH 74 in Udham Singh Nagar district large tracts of land were acquired by the State Government.
The scam estimated to be running into hundreds of crores of rupees occurred as corrupt officers allegedly provided compensation on commercial rates to the farmers for their agricultural land. It is alleged that some of the beneficiaries of the scam transferred the huge sums into the official account of Congress party just before the assembly elections last year. The SIT has so far arrested Provincial Civil Service officers B S Fonia, NS Naganyal, Anil Shukla and special land acquisition officer and prime accused DP Singh among others in the scam.


Wednesday, February 21, 2018

अब गैरसैण के लिए उत्तराखंड गर्जना

आसान नहीं है देहरादून से राजधानी का पांव हिलाना 
-जयसिंह रावत

Interview of Jay Singh Rawat as senior
 journalist and author  published by Amar Ujala
published on 22 Feb 2018
राजधानी का माला इतना आसान नहीं जितना कि राजनीतिक दल बता रहे हैं। यह मामला अगर इतना आसान होता तो राज्य के गठन के समय ही तत्कालीन बाजपेयी सरकार किसी भी स्थान को प्रदेश की राजधानी घोषित कर देती। वास्तव में राजधानी अंगद के पैर की तरह जब एक बार जम जाती है तो उसे उठाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। मोहम्मद तुगलक का जमाना लद गया, जो कि कभी दिल्ली तो कभी तुगलकाबाद राजधानी ले जाता था। अब राजधानी बार-बार इधर से उधर ले जाना आसान नहीं रह गया है। निकट अतीत में केवल असम की राजधानी को शिलॉंग से गुवाहाटी के निकट दिसपुर लाया गया था। उसके बाद राजधानी का स्थान बदले जाने के उदाहरण नहीं हैं। देहरादून में नये राजभवन और मुख्यमंत्री आवास समेत लगभग सभी प्रमुख संस्थानों के भवन बन चुके हैं। देहरादून शहर में जगह की तंगी को देखते हुये दीक्षित आयोग की शिफारिश के अनुसार रायपुर क्षेत्र में राजधानी के लिये स्थान का चयन किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में गैरसैण को केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी ही बनाया जा सकता है। मगर इस सच्चाई को बयां करने की स्थिति में स्वयं हरीश रावत सरकार भी नहीं है जो कि वहां विधानसभा भवन और सचिवालय समेत राजधानी के लिये पूरा ही आवश्यक ढांचा खड़ा कर रही है। गैरसैण को स्थाई या ग्रीष्मकालीन राजधानी की बात आती है तो मुख्यमंत्री हरीश रावत इतना तो कहते हैं कि हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं लेकिन वे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि वहां केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी ही बन रही है। अगर वह केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी नही ंतो फिर देहरादून के रायपुर क्षेत्र में विधानसभा और सचिवालय जैसा राजधानी का ढांचा क्यों खड़ा किया जा रहा है?
गैरसैंण केवल पहाड़ के लोगों की भावनाओं का प्रतीक नहीं बल्कि इस पहाड़ी राज्य की उम्मीदों का द्योतक भी है। गैरसैण में पलायन समेत पहाड़ की कई समस्याओं का निदान निहित है। स्वयं मुख्यमंत्री भी इसे अत्यंत भावनात्मक मामला बता चुके हैं। इसलिये केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा होती है तो नये सिरे से बवाल खड़ा हो सकता है। वैसे भी राजधानी के चयन के लिये गठित दीक्षित आयोग ने तो 2 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी उसमें गैरसैण को सीधे -सीधे ही रिजेक्ट कर दिया था। दीक्षित आयोग ने गैरसैण के साथ ही रामनगर तथा आइडीपीएल ऋषिकेश को द्वितीय चरण के अध्ययन के दौरान ही विचारण से बाहर कर दिया था और उसके बाद आयोग का ध्यान केवल देहरादून और काशीपुर पर केन्द्रित हो गया था। हालांकि दीक्षित आयोग ने गैरसैण के विपक्ष में और देहरादून के समर्थन में केवल कुतर्क ही दिये थे। जैसे कि उसने गैरसैण का भूकंपीय जोन में और देहरादून को सुरक्षित जोन में बताने के साथ ही गैरसैंण में पेयजल का संभावित संकट बताया था। आयोग ने मानकों की वरीयता के आधार पर चमोली के गैरसैंण को केवल 5 नम्बर और देहरादून को 18 नंबर दिये थे। यही नहीं आयोग ने देहरादून के नथुवावाला-बालावाला स्थल के पक्ष में 21 तथ्य और विपक्ष में केवल दो तथ्य बताये थे, जबकि गैरसैण के पक्ष में 4 और विपक्ष में 17 तथ्य गिनाये गये थे। फिर भी आयोग ने जनमत को गैरसैण के पक्ष में और देहरादून के विपक्ष में बताया था। लेकिन पहाड़ों से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारण प्रदेश का राजनीतिक संतुलन जिस तरह गड़बड़ा़ रहा है उसे देखते हुये प्रदेश की सत्ता के प्रमुख दावेदार कांग्रेस और भाजपा भी गैरसैण को लेकर केवल नूरा कुश्ती कर रहे है। 
सन् 2002 में जब उत्तराखंड विधानसभा का पहला चुनाव हुआ था तो उस समय 40 सीटें पहाड़ से और 30 सीटें मैदान से थीं। इसलिये सत्ता का संतुलन पहाड़ के पक्ष में होने के कारण पहाड़ी जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैण को भी देहरादून से अधिक जनमत हासिल था। सन् 2006 में हुये परिसीमन के तहत पहाड़ की 40 सीटों में से 6 सीटें जनसंख्या घटने के कारण घट गयीं और मैदान की 30 सीटें बढ़ कर 36 हो गयीं। जबकि पहाड़ में 9 जिले हैं और मैदान में देहरादून समेत केवल चार ही जिले हैं। अगर यही हाल रहा तो सन् 2026 के परिसीमन में पहाड़ में 27 और मैदान में 43 सीटें हो जायेंगी। पहाड़ से वोटर ही नहीं बल्कि नेता भी पलायन कर रहे हैं। राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव लड़ने मैदान में गये हैं।
गैरसैण या भराड़ीसैंण का भविष्य चाहे जो भी हो मगर वहां एक नये पहाड़ी नगर की आधारशिला तो पड़़ ही गयी है। अगर वहां ग्रीष्मकालीन राजधानी भी बनती है तो भी वह नवजात शहर स्वतः ही देहरादून के बाद सत्ता का दूसरा केन्द्र बन जायेगा, जो कि कुमाऊं मंडल के काफी करीब होगा। मुख्यमंत्री रावत वहां अपना कैंप आफिस खोलने की घोषणा भी कर चुके हैं। इसलिये वह प्रदेश का दूसरा महत्वपूर्ण नगर बनेगा। सत्ता के इस वैकल्पिक केन्द्र में स्वतः ही नामी स्कूल और बड़े अस्पताल आदि जनसंख्या को आकर्षित करने वाले प्रतिष्ठान जुटने लग जायेंगे। पहाड़ों में शिक्षा और चिकित्सा के लिये सबसे अधिक पलायन हो रहा है। गैरसैण से प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति में बदलाव आयेगा। पहाड़ का जो धन मैदान की ओर रहा है वह वहीं स्थानीय आर्थिकी का हिस्सा बनेगा। प्रदेश के हर कोने से जब गैरसैण जुड़ेगा तो इन संपर्क मार्गों पर छोटे-छोटे कस्बे उगेंगे और उससे नया अर्थतंत्र विकसित होगा। मैदान की मुद्रा पहाड़ पर चढ़ने लगेगी।
-जयसिंह रावत
पत्रकार
-11  फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
jaysinghrawat@hotmail.com

Friday, February 16, 2018

Hell like jails in Uttarakhand

 

नर्क से बदतर हैं उत्तराखण्ड की जेलें
       जय सिंह रावत
February 8, 2018
उन्हें न तो पेट भर कर भोजन मिलता है और न ही व्याधि की स्थिति में उनकी तकलीफों या पीड़ा को कम करने की कोई व्यवस्था है। सजायाफ्ता कैदियों के साथ ऐसे कैदियों को भी रखा जाता है जिनके मामले विचाराधीन हैं। ऐसा करना जेल मेनुअल का खुला उल्लंघन है।

गौतम बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक सभी महापुरुषों ने समाज को सीख दी थी कि पाप से घृणा करो मगर पापी से नहीं। केवल गौतम बुद्ध और गांधी ही नहीं बल्कि विश्व के सभी पंथों के ग्रंथों में कहा गया है कि मनुष्य को क्षमाशील होना चाहिए। लेकिन जब हम जेलों की हालत देखते हैं तो लगता है कि गौतम बुद्ध और गांधी के इस नीति वाक्य की गूंज स्वतंत्र भारत की लोक कल्याणकारी सरकारों के कानों तक नहीं पहुंची है। जेलों में सजायाफ्ता हो या फिर विचाराधीन, दोनों तरह के बंदियों को भेड़ बकरियों की तरह ठूंसा तो जा ही रहा है, लेकिन साथ ही उन्हें न तो पेट भर कर भोजन मिलता है और न ही व्याधि की स्थिति में उनकी तकलीफों या पीड़ा को कम करने की कोई व्यवस्था है। सजायाफ्ता कैदियों के साथ ऐसे कैदियों को भी रखा जाता है जिनके मामले विचाराधीन हैं। ऐसा करना जेल मेनुअल का खुला उल्लंघन है। मानवाधिकारों का यह खुल्लमखुल्ला उल्लंघन उन पुराने राज्यों की जेलों में तो हो ही रहा है जहां जेलें और जेल व्यवस्था उपनिवेशवादी अंग्रेजी शासन से विरासत में मिलीं थीं लेकिन जेलों की स्थिति उत्तराखण्ड जैसे उन राज्यों में भी मानवीय गरिमा और संवेदनाओं के अनुकूल नहीं है जिनका अस्तित्व स्वतंत्र भारत में मानवाधिकारों की चेतना के इस वैश्विक युग में हुआ है।
उत्तराखण्ड में कुल 13 जिले हैं मगर राज्य में अब तक केवल 7 ही जिला जेलें हैं। इनके अलावा 2 उप कारागार और एक खुली जेल है। महिलाओं के लिये अलग जेल और जेल सुधार के तहत अन्य तरह की जेलों की कल्पना फिलहाल कल्पनातीत ही है। जाहिर है कि 13 जिलों के बंदियों को 7 जिलों में ठूंसेंगे तो जेलों में उपलब्ध मानवीय सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ेगा ही। कितनी बड़ी विडम्बना है कि टिहरी रियासत का 1949 में भारत संघ में विलय हो गया और 1960 में बने उत्तरकाशी जिले के बंदियों को अब भी टिहरी जेल में ठूंसा जाता है। नब्बे के दशक में बने रुद्रप्रयाग, चम्पावत और बागेश्वर के बंदी भी पड़ोस की जिला जेलों में ठूंसे जाते हैं। सूचना के अधिकार के तहत मिली एक जानकारी के अनुसार उत्तराखंड की कुल 11 जेलों में 4815 कैदी बंद हैं, जबकि स्वीकृत क्षमता केवल 3378 बन्दियों की है। हल्द्वानी उपकारागार में 260 कैदियों की क्षमता है लेकिन उससे तिगुने से अधिक 804 बंदीजन बंद है। इसमें केवल तीन जेलों को छोड़कर सभी जेलों में स्वीकृत क्षमता से अधिक कैदी बंद है। उपकारागार हल्द्वानी में तो स्वीकृत क्षमता 260 से तिगुने से भी अधिक 804 कैदी बंद है जबकि जिला कारागार देहरादून में स्वीकृत क्षमता 580 के दुगने से अधिक 1169 कैदी बंद है। हरिद्वार जिला जेल में 840 की स्वीकृत  क्षमता की तुलना में 1190 कैदी बंद है। 150 कैदियों की क्षमता वाली जिला कारागार पौड़ी में 153 कैदी बंद है जबकि 71 कैदियों की क्षमता वाली जिला कारागार नैनीताल में 113 कैदी, 102 क्षमता वाली जिला कारागार अल्मोड़ा में 152 कैदी तथा 244 क्षमता वाली उपकारागार रूड़की में 364 कैदी बंद है। 512 कैदियों की क्षमता वाली उत्तराखंड की केन्द्रीय कारागार सितारगंज में 638 कैदी बंद है।
राज्य सरकार के पास बंदीजनों के स्वास्थ्य और उनकी दैहिक तकलीफों के लिये कोई संवेदना नहीं है। राज्य सरकार की ओर से आज भी किसी भी जेल में कोई नियमित डाक्टर तैनात नहीं है। डाक्टर ही क्यों राज्य की जेलों में 15 स्वीकृत पदों में से केवल 7 फार्मासिस्ट तैनात हैं। सन् 2000 में राज्य के गठन के बाद  वर्ष 2016 तक के 16 सालों में राज्य की जेलों में 188 बंदी अपनी जानें गंवा चुके थे। हैरानी का विषय यह है कि इनमें से ज्यादातर कुपोषण के कारण ट्यूबर क्लोसिस (क्षय रोग) से मरे। राज्य की जेलों में टीबी के मरीजों के अलावा एड्स के मरीज भी मौजूद हैं। राज्य गठन के बाद 16 सालों के बाद हरिद्वार जेल में 67 बंदी मर गये। इसी तरह देहरादून की सुद्धोवाला तथा पुरानी जेल में 62, हल्द्वानी की जेल में 32, सितारगंज में 18 और रुड़की जेल में 7 बंदियों की मौत हुयी है।
प्रदेश की जेलों में भरपेट भोजन न मिलने से भी बंदीगण कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। जेल विभाग से मिली एक अन्य सूचना के अनुसार प्रदेश की जेलों में एक बंदी पर सुबह का नाश्ता, दिन का भोजन, चाय और रात के भाजन पर सरकार का 35 से लेकर 40 रुपये तक खर्च होता है। प्रत्येक माह एक बंदी को राशन के अलावा 100 ग्राम टूथपेस्ट कपड़े धोने के लिये 120 ग्राम वजन का साबुन तथा 75 ग्राम नहाने का साबुन दिया जाता है। जाहिर है कि साफ सफाई के प्रति घोर लापरवाही के कारण बंदियों के जीवन से भी खिलवाड़़ किया जा रहा है। हरीश रावत के मुख्यमंत्रित्व काल से सप्ताह में तीन दिन विचाराधीन बंदी को 55 ग्राम और सजायाफ्ता को 70 ग्राम वजन की मंडुवे की रोटी भी दी जाने लगी है।
ऐसी भी अधिकृत जानकारी मिली है कि जो जेलें जिला अदालतों से काफी दूर हैं वहां के विचाराधीन बंदियों को सुबह 10 बजे अदालत पहुँचाने के लिये सुबह 8 या 9 बजे ही गाड़ियों में बिठा दिया जाता है और फिर सायं ढले जेल पहुँचने पर ही उन्हें भोजन नसीब हो पाता है। टिहरी जेल से मिली एक आरटीआइ सूचना के अनुसार एक बंदी को प्रति दिन चाय के लिये 50 ग्राम, नाश्ते के लिये 40 ग्राम तथा दोनों वक्त के भोजन के लिये 525 ग्राम लकड़ी उपलब्ध करायी जाती है। सोमवार से लेकर रविवार तक बंदियों के लिये राशन तय है, जिसमें सेमवार को एक बंदी को 90 ग्राम वजन की पाव रोटी या बन और 45 ग्राम गुड़, भोजन में 45 ग्राम अरहर की दाल सायंकाल के भोजन के लिये भी 45 ग्राम उड़द की दाल दी जाती है। इस राशन में आधा ग्राम मिर्च, 2 ग्राम नमक, 1 ग्राम तेल और 2 ग्राम आमचूर भी दिया जाता है।
बेहद चिन्ता का विषय यह है कि इन मौतों में ज्यादातर क्षय रोगी शामिल हैं। जेलों में पेटभर भोजन और समय से भोजन न मिलने के कारण भी कुपोषण की समस्या खड़ी हो रही है। यही नहीं राज्य की जेलों में एड्स रोगी भी बंद हैं। इन बंदियों से संक्रमण होगा या नहीं, इस बारे में जेल प्रशासन मौन है। जेल प्रषासनों को भी पता नहीं कि बड़ी संख्या में बंद साँस रोगी या टी.बी रोगी कहीं एचआइबी से संक्रमित तो नहीं हैं! सूचना के अािकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार टिहरी जेल में एक कैदी एड्स संक्रमित है जबकि एक अन्य की ट्यूबरक्लोसिस (टीबी) के कारण फेफड़े के फट जाने से मौत हो चुकी है। टिहरी जेल में ही एक अन्य बंदी गंभीर सांस रोग से पीड़ित है। रुड़की जेल में ट्यूबर क्लोसिस से एक की मौत की पुष्टि हो गयी है और एक अन्य की लीवर सिरोसिस से मौत हुयी है। हल्द्वानी उप करागार में ट्यूबरक्लोसिस से दो कैदी पीड़ित हैं। चमोली के पुरसाड़ी कारागार में एक कैदी मिंटू चौधरी की मौत कैंसर से हुयी है। हरिद्वार जिला कारागार में 67 बंदियों की मौतों के बाद भी 2 कैदी ट्यूबर क्लोसिस से पीड़ित हैं। देहरादून की सिद्धोंवाला जेल में 6 कैदी गंभीर बीमार हैं जिन्हें मुक्त करने के लिये जेल प्रषासन ने भी षासन से मांग की है। सितारगंज स्थित सम्पूर्णानन्द खुली जेल में भी 2 कैदी ट्यूबर क्लोसिस से पीड़ित हैं।
Link:-
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Thursday, February 8, 2018

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस युग में अख़बारों की चाहत कम नहीं । ... फौजी का बेटा और पत्रकार का पोता आदित सिंह रावत


फौजी का बेटा और पत्रकार का पोता आदित सिंह रावत

Death Sentence to Unarmed Gandhi Police of Uttarakhand


गांधी पुलिस को सजा--मौत
-जयसिंह रावत
कहां तो गांधी पुलिस के नाम से भी पुकारी जाने वाली उत्तराखण्ड में भारत की एकमात्र निहत्थी राजस्व पुलिस को उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के मद्देनजर उसे विश्व धरोहर में शामिल किये जाने की अपेक्षा की जा रही थी और कहां उत्तराखण्ड सरकार की संवेदनहीनता और अदूरदर्शिता के चलते उसे नैनीताल हाइकोर्ट से सजा--मौत सुना दी गयी है। फांसी की सजा मुकर्रर होने के बाद पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड की विशिष्ट भौगोलिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की प्रतीक इस ग्राम मित्र पुलिस का 6 माह के अंदर अंतिम संस्कार किया जाना है। अब देखना यह है कि राज्य सरकार किस तरह अदालत के फैसले को लागू करती है और किस तरह पहाड़ी समाज अपने अंदर खाकी वर्दीधारी सिविल पुलिस को आत्मसात करती है।
पहाड़ों की रानी नैनीताल स्थित उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने दहेज हत्या से सम्बन्धित एक मामले में अपना फैसला सुनाते समय अंग्रेजों द्वारा पहाड़ों की विशेष भौगोलिक और सामाजिक व्यवस्था के अनुसार स्थापित राजस्व पुलिस के भाग्य का फैसला भी सुना दिया। हाइकोर्ट की न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खण्डपीठ ने पटवारियों और उनके अनुसेवकों के बल पर चल रही राजस्व पुलिस को समय की मांग के अनुसार अव्यवहारिक और अनुपयोगी बताते हुये 6 माह के अंदर इसे समाप्त कर इसके सभी क्षेत्र सिविल पुलिस के सुपुर्द करने के आदेश राज्य सरकार को दे दिये। वर्तमान में पहाड़ी कस्बों और चारधाम यात्रा मार्ग के अलावा बाकी 60 प्रतिशत भूभाग पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राजस्व पुलिस की है जिसका निर्वाह वह सदियों से कर रही है। हालांकि ब्रिटिश भारत में पुलिस अधिनियम 1861 में लागू हो गया थालेकिन ब्रिटिश कुमाऊं तक यह 30-8-1892 से राजाज्ञा संख्या 1254/टप्प्प्.228..81 के तहत विस्तारित किया गया। इसी दौरान सन् 1874 में जब अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 (शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्टआया तो फिर यहां रेगुलर पुलिस को लाने के बजाय रेवेन्यू पुलिस को ही पुलिस के अधिकार देने का अवसर मिल गया। इस एक्ट की धारा 6 का सहारा लेते हुये ब्रिटिश गढ़वाल समेत कुमाऊं कमिश्नरी की पहाड़ी पट्टियों के लिये “कुमाऊं पुलिस” कानून बनाया गया जिसे अधिसूचना संख्या 494/टप्प्प्ध्.418.16 दिनांक 07-03-1916 को गजट में प्रकाशित की गयी। इस अधिसूचना के प्रावधानों के तहत कुमाऊं पुलिस व्यवस्था में थोकदार-पदानोंसयाणों और कमीणों जैसे ग्राम मुखियाओं की परम्परागत भूमिका सीमित कर दी गयी और पटवारी की शक्तियां बढ़ा दी गयीं।
देखा जाय तो उत्तराखण्ड की बेमिसाल पटवारी पुलिस व्यवस्था का श्रेय जी.डब्ल्यूट्रेल को ही दिया जा सकता है। टेª ने पटवारियों के 16 पद सृजित कर इन्हें पुलिसराजस्व कलेक्शनभू अभिलेख का काम दिया था। कंपनी सरकार के शासनकाल में पहाड़ी क्षेत्र के अल्मोड़ा में 1837 और रानीखेत में 1843 में थाना खोला था। कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि इस पहाड़ी क्षेत्र में अपराध केवल नाममात्र के ही हैं और यहां की भौगोलिकजनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये यहां अल्मोड़ा रानीखेत और नैनीताल जैसे कुछ नगरों को छोड़ कर बाकी पहाड़ी पट्टियों में रेगुलर पुलिस की आवश्यकता नहीं है।
राजस्व पुलिस को समाप्त करने के पीछे हाइकोर्ट का तर्क है कि पटवारियों को पुलिस की तरह प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और नही राजस्व पुलिस के पास विवेचना के लिये आधुनिक साधनकम्प्यूटरडीएनएरक्त परीक्षणफौरेंसिक जांच की व्यवस्थाफिंगर प्रिंट लेने जैसी मूलभूत सुविधायें भी नहीं हैं जिससे अपराध की समीक्षा में परेशानी होती है और अपराधियों को इस कमी का लाभ मिल जाता है। कोर्ट का यह भी कहना था कि समान पुलिस व्यवस्था नागरिकों का अधिकार है।
अदालत  भी साक्ष्यों गवाहों और ठोस तर्कों को कसौटी पर कस कर फैसला देते है और अगर दूसरा पक्ष कमजोर हो या पैरवी ही  करें तो उसमें अदालत का क्या दोषराज्य सरकार की ओर से अगर राजस्व पुलिस को लागू की जाने वाली सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों की पूरी जानकारी अदालत को दी जाती तो अदालत का आदेश रेवेन्यू पुलिस के प्रति संभवतः इतना कठोर नहीं होता। सरकार की ओर से राजस्व पुलिस के पक्ष में यह नहीं बताया गया कि इसके गठन से लेकर अब तक यह बेहद कम खर्चीली व्यवस्था प्रदेशवासियों के सामाजिकसांस्कृतिक एवं भौगोलिक ताने-बाने से सामंजस्य स्थापित कर चुकी है। वर्दीधारी पुलिसकर्मी से लोग दूरी बना कर रखते हैं और उनसे डरते भी हैं। जबकि पहाड़ी गावों में बिना वर्दी के राजस्व पुलिसकर्मी गांव वालों के साथ घुलमिल जाते हैं और जनता से सहयोग के कारण अपराधी कानून से बच नहीं पाते। अदालत में अगर सिवलि पुलिस और राजस्व पुलिस क्षेत्र के अपराध के तुलनात्मक आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति सपष्ट हो जाती। वर्ष 2015-16 में प्रदेश के 60 प्रतिशत भाग की कानून व्यवस्था संभालने वाली राजस्व पुलिस के क्षेत्र में केवल 449 अपराध दर्ज हुये जबकि सिविल पुलिस के 40 प्रतिशत क्षेत्र में यह आंकड़ा 9 हजार पार कर गया। अदालतों में दाखिल मामलों में भी सिविल पुलिस कहीं भी राजस्व पुलिस के मुकाबले नहीं ठहरती। सिविल पुलिस द्वारा दाखिल हत्या के मामलों में औसतन 60 और बलात्कार के मामलों में लगभग 30 प्रतिशत को ही सजा हो पाती है और ज्यादातर अपराधी दोष मुक्त हो जाते हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य पुलिस द्वारा हत्या के मामलों में अनावरण या हत्यारोपियों की गिरफ्तारी का प्रतिशत मात्र 85 ही है। जाहिर है कि राज्य की पुलिस 15 प्रतिशत हत्यारों तक पहुंच भी नहीं पाती है। लेकिन रेवेन्यू पुलिस द्वारा दाखिल अपराधिक मामलों में सजा का प्रतिशत 90 प्रतिशत तक होता है। यह इसलिये कि राजस्व पुलिस के लोग समाज में पुलिसकर्मियों की तरह अलग नहीं दिखाई देते। जहां तक सवाल समय के साथ बदली परिस्थितियों में अपराधों के वैज्ञानिक विवेचन या जांच में अत्याधुनिक साधनों का सवाल है तो राज्य सरकार की ओर से अदालत में उत्तराखण्ड पुलिस एक्ट 2008 की धारा 40 का उल्लेख नहीं किया गया। इस धारा में कहा गया है कि ‘‘अपराधों के वैज्ञानिक अन्वेषणभीड़ का विनियमन और राहतराहत कार्य और ऐसे अन्य प्रबंधनजैसा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा आपवादिक परिस्थितियों में जिले के पुलिस अधीक्षक के माध्यम से निर्देश दिया जायेपुलिस बल और सशस्त्र पुलिस इकाइयों द्वारा ऐसी सहायता देना एवं अन्वेषण करनाजो राजस्व पुलिस में अपेक्षित हो विधि सम्मत होगा।’’ गंभीर अपराधों के ज्यादातर मामले राजस्व पुलिस से सिविल पुलिस को दिये जाते रह हैं। ऐसा नहीं कि सिविल पुलिस हर मामले को सुलझाने में सक्षम हो। अगर ऐसा होता तो थानों में दर्ज अपराधिक मामलों की जांच अक्सर सिविल पुलिस से सीआइडीएसआइटी और कभी-कभी सीबीआइ को क्यों सौंपे जातेसिवलि पुलिस व्यवस्था राजस्व पुलिस से बेहद खर्चीली भी है।
चूंकि अब अदालत का आदेश  चुका है और अगर सरकार का इरादा राजस्व पुलिस को कायम रखने का होता तो वह अदालत में सकारात्मक पक्ष रखती। अब देखना यह है कि राज्य सरकार 1225 पटवारी सर्किलों के लिये इतने थानों और हजारों पुलिसकर्मियों का इंतजाम 6 महीनों के अंदर कैसे करती है और कैसे पहाड़ी समाज वर्दीधारी पुलिसकर्मियों को गावों में सहन करती है।वैसे भी राजस्व का काम ही बहुत कम है। वैसे भी खेती की 70 प्रतिशत से अधिक जोतें आधा हेक्टेअर से कम हैं इसलिये ऐसी छोटी जोतों से सरकार को कोई राजस्व लाभ नहीं होता। अगर पुलिसिंग का दायित्व छिन जाता है तो समझो कि पहाड़ के पटवारी कानूनगो बिना काम के रह जायेंगे। इसके साथ ही अल्मोड़ा का पटवारी ट्रेनिंग कालेज और राजस्व पुलिस के आधुनिकीकरण पर लगाई गयी सरकारी रकम भी बेकार चली जायेगी।

जयसिंह रावत
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