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Wednesday, November 29, 2017

Uttarakhand Himalaya: UTTARAKHAND- A PREMATURE BABY WHO HAS SO MANY COMP...

Uttarakhand Himalaya: UTTARAKHAND- A PREMATURE BABY WHO HAS SO MANY COMP...: उत्तराखण्ड में सत्ता की छीना झपटी और संसाधनों की बंदरबांट हुयी

 - जयसिंह रावत

 राजनीतिक अस्थिरता , वित्तीय कुप्रबंधन औ...

UTTARAKHAND- A PREMATURE BABY WHO HAS SO MANY COMPLICATIONS


उत्तराखण्ड में सत्ता की छीना झपटी और संसाधनों की बंदरबांट हुयी
-जयसिंह रावत
राजनीतिक अस्थिरता, वित्तीय कुप्रबंधन और फिजूलखर्ची के बावजूद उत्तराखण्ड का अपने से 46 साल सीनियर हिमालयी पड़ोसी हिमाचल से प्रतिव्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद जैसे मामलों में आगे निकल जाना उसकी विकास की भारी संभावनाओं का स्पष्ट संकेतक तो है मगर जिस तरह वित्तीय कुप्रबंधन से नया राज्य कर्ज तले डूबा जा रहा है और आये दिन राजनीतिक प्रपंचों से लोगों का मोहभंग हो रहा है उसे देखते हुये आवाजें उठनें लगी हैं कि अगर यह राज्य हिमाचल की तरह शुरू में केन्द्र शासित प्रदेश बन गया होता या फिर मैदानी उत्तर प्रदेश या संयुक्त प्रान्त में मिलने के बजाय इसे शुरू में हिमाचल के साथ जोड़ दिया गया होता तो वह हिमालयी राज्यों के लिये विकास के एक रोल मॉडल के रूप में जरूर उभरता।
इधर उत्तराखण्ड में सत्ता की छीना झपटी और संसाधनों की ऐसी बंदरबांट शुरू हुयी कि प्रदेश कम आमदनी और ज्यादा खर्चों के कारण कर्ज के बोझ तले दबता चला गया। हिमाचल प्रदेश पर 46 सालों में केवल 38,568 करोड़ रु0 का कर्ज चढ़ा है जबकि नेताओं और नौकरशाही की फिजूलखर्ची के कारण उत्तराखण्ड मात्र 17 सालों में लगभग 45 हजार करोड़ का कर्ज से दब चुका है, जिसका ब्याज ही प्रति वर्ष लगभग 4500 करोड़ तक चुकाना पड़ रहा है। अगर दोनों राज्यों के चालू वित्त वर्ष के बजटों की तुलना करें तो हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस बार वेतन पर 26.91 प्रतिशत राशि, पेंशन पर 13.83 प्र00, कर्ज के ब्याज के लिये 9.78 प्रतिशत राशि रखी है। जबकि उत्तराखण्ड सरकार ने वेतन भत्तों पर 31.01 प्र00, पेंशन पर 10.71 प्र00 और ब्याज अदायगी के लिये 11.04 प्रतिशत धन का प्रावधान रखा है। विकास के लिये हिमाचल के बजट में 39.35 प्रतिशत तो उत्तराखण्ड के बजट में मात्र 13.23 प्रतिशत राशि का प्रावधान रखा गया है। वह भी तब खर्च होगी जबकि केन्द्र सरकार आर्थिक मदद मिलेगी। अन्यथा राज्य सरकार के पास विकास के लिये एक पैसा भी नहीं है। वर्तमान बजट में राज्य के करों और करेत्तर राजस्व के साथ केन्द्रीय करों से मिले राज्यांश को मिला कर उत्तराखण्ड का कुल राजस्व लगभग 21 हजार करोड़ है और अब तक इतनी ही राशि उसे वेतन, पेंशन, ब्याज और अन्य खर्चों पर व्यय करनी पड़ रही है। लेकिन सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद चार्च इतना बढ़ गया कि राज्य को हर माह वेतन आदि के लिये लगभग 300 करोड़ रुपये प्रति माह कर्ज लेना पड़ रहा है।
विकास की तमाम संभावनाओं को धरातल पर उतारने वाला राजनीतिक नेतृत्व सक्षम हो तो संभावनाएं व्यर्थ चली जाती हैं। उत्तराखण्ड हो या फिर झारखण्ड, इन नये राज्यों में देश के कुछ अन्य छोटे राज्यों की तरह अवसरवादिता और पदलोलुपता के कारण राजनीतिक अस्थिरता चलती रही। अवसरवादी राजनीतिक जीव एक सांस में राहुल-सोनियां का राग अलापते तो दूसरी सांस मेंनमो नादनिकालते रहे। नेताओं का ध्यान विकास पर नहीं बल्कि केवल कुर्सी पर टिका रहा। 25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्व में आये हिमाचल में इन 46 सालों में आधुनिक हिमाचल के निर्माता डा0 यशवन्त सिंह परमार सहित कुल 5 नेता मुख्यमंत्री बने। इनमें डा0 परमार, रामलाल, शान्ता कुमार और प्रो0 प्रेम कुमार धूमल दो-दो बार मुख्यमंत्री रहे जबकि राजा वीरभद्रसिंह को 5 बार राज्य का नेतृत्व करने का अवसर मिला। इधर उत्तराखण्ड में मात्र 17 सालों में नित्यानन्द स्वामी, भगतसिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, भुवनचन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियालनिशंक, विजय बहुगुणा, हरीश रावत और त्रिवेन्द्र सिंह रावत सहित 8 मुख्यमंत्री नवीं बार गये। इनमें तिवारी के अलावा किसी ने भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया और आज यहां जो तरक्की दिखाई भी दे रही है वह तिवारी के ही कार्यकाल की देन है। मार्च से लेकर मई 2016 तक उत्तराखण्ड में राजनीति का जो नंगा नाच चला वह सारी दुनियां ने देखा। भारत में पहली बार अदालत ने 27 मार्च 2016 को जारी राष्ट्रपति शासन के आदेश को असंवैधानिक घोषित कर केन्द्र सरकार द्वारा गिरायी गयी राज्य सरकार बहाल की तथा हाइकोर्ट के फैसले को जायज ठहराते हुये सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार अपनी देखरेख में राज्य विधानसभा में बहुमत का फैसला करा कर केन्द्र के सत्ताधारियों के मुंह पर चपत दे मारी।
जयसिंह रावत
पत्रकार
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com         




Monday, November 27, 2017

स्वच्छ भारत अभियान : चश्मा गांधी का और नजर मोदी की



चश्मा गांधी का और नजर मोदी की
-जयसिंह रावत
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान में गांधी जी के चश्मे को लेकर काफी वाद विवाद चल रहा है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के एक शीर्ष प्रतिनिधि ने भी इस अभियान में गांधी जी के चश्मे के उपयोग पर व्यंग्यात्मक और नकारात्मक टिप्पणी की है। सुप्रीमकोर्ट ने तो शौचालयों आदि स्थानों पर गांधी के प्रतीक के रूप में उनके चश्मे के ढांचे के उपयोग को निषिद्ध कर दिया है। आलोचनाओं को दरकिनार कर देखा जाय तो इस अभियान में गांधी के चश्मे के उपयोग में बुराई नहीं बल्कि अभियान के कृयान्वयन और लक्ष्य में कमी है। वह भी इसलिये कि इसमें भले ही चश्मा गांधी का हो मगर उसमें नजर मोदी की ही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकप्रिय अभियानस्वच्छ भारत अभियानके बारे में संयुक्त राष्ट्र के विशेष अधिकारी (यूएनएसआर) लियो हेल्लर ने अपने प्रारम्भिक दौरे की रिपोर्ट में टिप्पणी की है कि वह जहां भी गये उन्होंने स्वच्छ भारत मिशन का लोगो (महात्मा गांधी के चश्मे) को देखा। मिशन लागू होने के तीसरे साल में, अब यह जरूरी हो गया है कि उन चश्मों को मानव अधिकारों के लेंस से बदला जाए। हेल्लर ने मानवाधिकार का सवाल भी उठाया है। उठाते भी क्यों नहीं? संसद ने मैला ढोने वालों के रूप में रोजगार पर रोक और उनके पुनर्वास हेतु सितम्बर 2013 में बनाया और यह दिसम्बर 2014 में अमल में आया। इसका उद्देश्य मैला ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करना और पहचाने गए मैला ढोने वालों का विस्तृत पुनर्वास करना है। लेकिन देश में इस कुप्रथा पर अब तक पूरी तरह रोक नहीं लग सकी।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वर्ष 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 1992 से लेकर 2005 के बीच देश में कुल 7,70,338 हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों की पहचान हुयी थी जिनमें से 4,27,870 कर्मियों का पुनर्वास कर लिया गया था। इसके बाद 3,42,468 हाथ से मैला उठाने वाले कार्मिक रह गये थे। मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ऐसे स्वच्छाकारों की पहचान के लिये 2007 में फिर अभियान चला तो उसमें 1.18 लाख कर्मियों की पहचान हुयी। इनमें से 78,941 सफाई कर्मियों को अन्य व्यवसाय चलाने के लिये आर्थिक सहायता दी गयी। लेकिन उनमें से कितनों ने हाथ से मैला उठाने या सिर पर मैला ढोने का काम छोड़ा, इसका उल्लेख सरकारी रिपोर्ट में कहीं नहीं है। वैसे भी आर्थिक सहायता देने की औपचारिकता पूरी किये जाने का मतलब यह नहीं कि उन सभी ने हाथ से मैला उठाना छोड़ दिया होगा। हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों की संख्या में उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर तथा मध्यप्रदेश दूसरे, महाराष्ट्र तीसरे और गुजरात चौथे नम्बर पर है। इन कार्मियों में निजी तौर पर काम करने वाले या नगर निकायों में नियमित या अनियमित तौर पर सीवर लाइनों/सेप्टिक टैंकों पर काम करने वाले कार्मिक शामिल नहीं हैं। अगर महात्मा गांधी के चश्मे से उनकी ही नजर से देखा जाता तो सडक़ों पर झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाने के बजाय एक मानव को दूसरे मानव का मैला उठाने के कृत्य को सबसे अधिक गंभीरता से लिये जाता। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2014 में सफाई कर्मचारी आन्दोलन बनाम भारत सरकार एवं अन्य मामले में सभी राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों को मेन होलों और सेप्टिक टैंकों में सफाई के दौरान मरने वालों का आंकड़ा तैयार कर प्रति परिवार 10 लाख मुआवजा देने के आदेश दिये थे।
सन् 1901 में गांधीजी ने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में स्वयं अपना मैला साफ करने की पहल की थी। उन्होंने 1918 में साबरमती आश्रम शुरू किया तो उसमें पेशेवर सफाई कर्मी लगाने के बजाय आश्रमवासियों को अपना मैला साफ करने का नियम बनाया। श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1984 में लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान कहा था कि उन्होंने साबरमती आश्रम में स्वयं अपना मैला साफ किया था। आधुनिक शौचालयों के इस दौर में किसी से इंदिरागांधी की तरह अपना मैला स्वयं साफ करने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती है मगर यह सवाल जरूर उठाया जा सकता है कि कानूनन प्रतिबंध के बावजूद आज भी देश में लाखों लोग दूसरों का मैला अपने सिर पर क्यों ढो रहे हैं?
गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से पुनः 1915 में भारत लौटे तो उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर भारत यात्रा शुरू की। इसी क्रम में वह पहले रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने कलकत्ता गये और  फिर मुंशीराम से मिलने हरिद्वार चले आये। गांधीजी ने अपनी हस्तलिखित डायरी में कलकत्ता और हरिद्वार में मैला साफ करने के लिये गड्ढे खोदने और मल को स्वयं मिट्टी से ढकने का उल्लेख किया है। गांधीजी जी की हरिद्वार यात्रा के बारे में उनकी हस्तलिखित डायरी के विवरण पर गौर करना भी जरूरी ही है। गांधीजी ने डायरी में लिखा है कि.... ‘‘ऋषिकेश और लक्ष्मण झूले के प्राकृतिक दृष्य मुझे बहुत पसन्द आये। .........परन्तु दूसरी ओर मनुष्य की कृति को वहां देख चित्त को शांति हुयी। हरद्वार की तरह ऋषिकेश में भी लोग रास्तों को और गंगा के सुन्दर किनारों को गन्दा कर डालते थे। गंगा के पवित्र पानी को बिगाड़ते हुये उन्हें कुछ संकोच होता था। दिशा-जंगल जाने वाले आम जगह और रास्तों पर ही बैठ जाते थे, यह देख कर मेरे चित्त को बड़ी चोट पहुंची........
हरिद्वार जैसे धर्मस्थलों पर भौतिक और नैतिक गंदगी के बारे में गांधी जी ने डायरी में लिखा था कि....“निसंदेह यह सच है कि हरद्वार और दूसरे प्रसिद्ध तीर्थस्थान एक समय वस्तुतः पवित्र थे। ...... लेकिन मुझे कबूल करना पड़ता है कि हिन्दू धर्म के प्रति मेरे हृदय में गंभीर श्रद्धा और प्राचीन सभ्यता के लिये स्वाभाविक आदर होते हुये भी हरद्वार में इच्छा रहने पर भी मनुष्यकृत ऐसी एक भी वस्तु नहीं देख सका, जो मुझे मुग्ध कर सकती........पहली बार जब 1915 में मैं हरद्वार गया था, तब भारत-सेवक संघ समिति के कप्तान पं. हृदयनाथ कुंजरू के अधीन एक स्वयंसेवक बन कर पहुंचा था। इस कारण मैं सहज ही बहुतेरी बातें आखों देख सका था ....... लेकिन जहां एक ओर गंगा की निर्मल धारा ने और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों ने मुझे मोह लिया, वहां दूसरी ओर मनुष्य की करतूतों को देख मेरे हृदय को सख्त चोट पहुंची और हरद्वार की नैतिक तथा भौतिक मलिनता को देख कर मुझे अत्यंत दुख हुआ। इस बार की यात्रा में भी मैंने हरद्वार की इस दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं पाया। पहले की भांति आज भी धर्म के नाम पर गंगा की भव्य और निर्मल धार गंदली की जाती है। गंगा तट पर, जहां पर ईश्वर-दर्शन के लिये ध्यान लगा कर बैठना शोभा देता है, पाखाना-पेशाब करते हुये असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं। तमाम धर्म-शास्त्रों में नदियों की धारा, नदी-तट, आम सड़क और यातायात के दूसरे सब मार्गों को गंदा करने की मनाही है। विज्ञान शास्त्र हमें सिखाता है कि मनुष्य के मलमूत्रादि का नियमानुसार उपयोग करने से अच्छी से अच्छी खाद बनती है। आरोग्यशास्त्री कहते हैं कि उक्त स्थानों में मल-मूत्रादि का विसर्जन करना मानव-समाज की घोर अवज्ञा करना है। यह तो हुयी प्रमाद और अज्ञान के कारण फैलने वाली गंदगी की बात। धर्म के नाम पर जो गंगा-जल बिगाड़ा जाता है, सो तो जुदा ही है। ....विधिवत् पूजा करने के लिये मैं हरद्वार में एक नियत स्थान पर ले जाया गया। जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गयीं। जब मैंने इसका विरोध किया तो उत्तर मिला कि यह तो सनातन् से चली आयी एक प्रथा है। इसके सिवा मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदला पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है, जो कि एक बड़े से बड़ा अपराध है..... दरअसल गांधीजी के मन में मैले से खाद बनाने का विचार 1908 में तब आया था जब वह दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म पर रहते थे। वैसे भी यूरोपीय देशों में मलव्ययन में सफाईकर्मी की व्यवस्था तो थी मगरनाइट स्वायलके तौर पर उसका उपयोग खाद के रूप में करने का प्रचलन भी वहां था।
भारत को स्वच्छ बनाने के लिये केवल गांधी के चश्मे के ढांचे से काम चलने वाला नहीं है। इसके लिये गांधी की सोच पर सम्पूर्णता से विचार किये जाने की जरूरत है।
जयसिंह रावत
पत्रकार
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-09412324999

jaysinghrawat@hotmail.com