Search This Blog

Thursday, November 2, 2017

उत्तराखण्ड में अब चकबंदी पर राजनीतिक लफ्फाजी

उत्तराखण्ड में चकबंदी कितनी संभव ?

उत्तराखण्ड में  केवल 13 प्रतिशत जमीन कृषि योग्य है जो कि लगभग 7 लाख हैटेअर के आसपास बैठती है। इसमें से लगभग 80 हजार हेक्टेअर कृषि वाली जमीन से पिछले 17 सालों में पलायन के कारण खेती गायब हो गयी है। एक अनुमान के अनुसार कुल भूभाग में से लगभग 6 या 7 प्रतिशत पर ही खेती हो रही है या यूं कहें कि इतनी ही जमीन आबाद है शेष जमीन को लोगों ने त्याग दिया है। इतनी कम कृषि भूमि पर भी 70 प्रतिशत जोतें आधा हेक्टेअर से छोटे आकार की हैं। ऐसी स्थिति में पहाड़ों में खेती करना बहुत ही अलाभकर और बेहद श्रमसाध्य है। लोगों के एक खेत की दूसरे खेत से दूरी बहुत अधिक होती है इसलिये वहां भूमि सुधार की गुंजाइश भी नहीं रह गयी है। इसीलिये लोग बड़े पैमाने पर पलायन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगर चकबंदी होती है तो वह कई समस्याओं को हल कर सकती है लेकिन चकबंदी जितनी आसान समझी जा रही है उतनी आसान है नहीं। कई दशक पहले उत्तर प्रदेश के जमाने में पहाड़ों में सबसे पहले त्रिवेन्द्र सिंह रावज जी के जिले पौड़ी में ही चकबंदी कार्यालय खुला था लेकिन व्यवहारिक कठिनाइयों के कारण वहां एक इंच जमीन पर चकबंदी नहीं हो सकी। खटीमा में 1984 में चकबंदी कार्यालय खुला तो वहां भी एक इंच जमीन पर भी चकबंदी नहीं हो सकी। कारण यह था कि वहां ज्यादातर जमीन थारू और बोक्सा जनजातियों की थी जिस पर बाहरी लोगों ने कब्जा रखा है। इसलिये वहां जिसके नाम जमीन है उसके कब्जे में जमीन नहीं है। जिसके कब्जे में जमीन है उसके नाम जमीन नहीं है। भारत में पहला भूमि सुधार कानून उत्तर प्रदेश में 1950 में आया था। वह कानून उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 था जो कि 1960 में लागू हुआ। वह कानून पहाड़ों के लिये व्यवहारिक नहीं था इसलिये उत्तराखण्ड के लिये कूजा ऐक्ट बनाया गया। उस कानून के हिसाब से पहाड़ों में जोतें इतनी छोटी हो गयीं कि उनका विभाजन नहीं हो सकता। एक ही खाते में सौ से अधिक खतेदारों के नाम भी हैं। ये खातेदार पलायन के कारण कोई दिल्ली में है तो कोई कलकत्ता में है। उनसे उनके नाम की जमीन के बारे में सहमति कैसे लेंगे? एक ही गांव में कई किश्म की जमीन होती है। उनकी लोकेशन के हिसाब से भी उनकी कीमत और महत्व में अंतर होता है। कम उपजाऊ और दूर जंगल के निकट की जमीन को आप चकबंदी में किसे थमायेंगे? जनजातियों की जमीनें कैसे किसी अन्य को देंगे? गावों में कोई रह नहीं गया है, उनकी जमीनों का क्या करेंगे? अगर चकबंदी इतनी आसान होती तो इससे पहले जब त्रिवेन्द्र सिंह रावत कृषिमंत्री थे तो उन्होंने एक चकबंदी नीति बनायी थी। वह नीति लागू क्यों नहीं हो सकी? दरअसल चकबंदी की बात वो नेता कर रहे हैं जो कि अपने गांव छोड़ कर मैदानों में बस गये हैं। उन्होंने अपनी कई पीढ़ियों के लिये कमाई कर ली है और उनके लिये अब गांव की जमीन का कोई महत्व नहीं रह गया है। इसलिये उनकी बला से उनके गांव की जमीन का कुछ भी हो जाय।

No comments:

Post a Comment