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Tuesday, November 14, 2017

Political immaturity and oppotunism is a major hurdle in the way of Development of Uttarakhand

अगर उत्तराखण्ड भी हिमाचल के साथ होता !
-जयसिंह रावत
राजनीतिक अस्थिरता, वित्तीय कुप्रबंधन और फिजूलखर्ची के बावजूद उत्तराखण्ड का अपने से 46 साल सीनियर हिमालयी पड़ोसी हिमाचल से प्रतिव्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद जैसे मामलों में आगे निकल जाना उसकी विकास की भारी संभावनाओं का स्पष्ट संकेतक तो है मगर जिस तरह वित्तीय कुप्रबंधन से नया राज्य कर्ज तले डूबा जा रहा है और आये दिन राजनीतिक प्रपंचों से लोगों का मोहभंग हो रहा है उसे देखते हुये आवाजें उठनें लगी हैं कि अगर यह राज्य हिमाचल की तरह शुरू में केन्द्र शासित प्रदेश बन गया होता या फिर मैदानी उत्तर प्रदेश या संयुक्त प्रान्त में मिलने के बजाय इसे शुरू में हिमाचल के साथ जोड़ दिया गया होता तो वह हिमालयी राज्यों के लिये विकास के एक रोल मॉडल के रूप में जरूर उभरता।
सन् 2000 के नवम्बर महीने में जन्में छत्तीसगढ़ (1नवम्बर), उत्तराखण्ड (9नवम्बर) और झारखण्ड (15 नवम्बर) में से उत्तराखण्ड  अन्य दो राज्यों में से केवल प्रति व्यक्ति आय में बल्कि कई अन्य मामलों में आगे निकल गया है। प्रति व्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद के मामले में इस नये राज्य ने अपने से 46 साल सीनियर हिमाचल प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है। इन 17 सालों में छत्तीसगढ़ में राजनीतिक स्थायित्व के बावजूद प्रति व्यति आय 91,772 रुपये तथा सकल घरेलू उत्पाद 2,90,140 करोड़ तक पहुंचा है। उत्तराखण्ड की ही तरह राजनीतिक झंझावात झेल रहे झारखण्ड की हालत तो इतनी खराब है कि बकौल राष्ट्रीय विकास परिषद उस राज्य को प्रति व्यक्ति आय के मामले में राष्ट्रीय औसत छूने में अभी और 17 साल लगेंगे। उसकी प्रति व्यति आय अभी 59,114 रुपये तक ही पहुंची है। नये राज्य ही क्यों? 25 जनवरी 1971 को अस्तित्व में आये हिमाचल प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 1,30,067 और राज्य सकल घरेलू उत्पाद 1,24,570 करोड़ ही पहुंच पाया है। जबकि उत्तराखण्ड में प्रति व्यक्ति आय 151219 रुपये और सकल घरेलू उत्पाद चालू भावों पर राज्य के जीएसडीपी का 1,84,091 करोड़ तक पहुंच गया है।
इधर उत्तराखण्ड में सत्ता की छीना झपटी और संसाधनों की ऐसी बंदरबांट शुरू हुयी कि प्रदेश कम आमदनी और ज्यादा खर्चों के कारण कर्ज के बोझ तले दबता चला गया। हिमाचल प्रदेश पर 46 सालों में केवल 38,568 करोड़ रु0 का कर्ज चढ़ा है जबकि नेताओं और नौकरशाही की फिजूलखर्ची के कारण उत्तराखण्ड मात्र 17 सालों में लगभग 45 हजार करोड़ का कर्ज से दब चुका है, जिसका ब्याज ही प्रति वर्ष लगभग 4500 करोड़ तक चुकाना पड़ रहा है। अगर दोनों राज्यों के चालू वित्त वर्ष के बजटों की तुलना करें तो हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस बार वेतन पर 26.91 प्रतिशत राशि, पेंशन पर 13.83 प्र00, कर्ज के ब्याज के लिये 9.78 प्रतिशत राशि रखी है। जबकि उत्तराखण्ड सरकार ने वेतन भत्तों पर 31.01 प्र00, पेंशन पर 10.71 प्र00 और ब्याज अदायगी के लिये 11.04 प्रतिशत धन का प्रावधान रखा है। विकास के लिये हिमाचल के बजट में 39.35 प्रतिशत तो उत्तराखण्ड के बजट में मात्र 13.23 प्रतिशत राशि का प्रावधान रखा गया है। वह भी तब खर्च होगी जबकि केन्द्र सरकार आर्थिक मदद मिलेगी। अन्यथा राज्य सरकार के पास विकास के लिये एक पैसा भी नहीं है। वर्तमान बजट में राज्य के करों और करेत्तर राजस्व के साथ केन्द्रीय करों से मिले राज्यांश को मिला कर उत्तराखण्ड का कुल राजस्व लगभग 21 हजार करोड़ है और अब तक इतनी ही राशि उसे वेतन, पेंशन, ब्याज और अन्य खर्चों पर व्यय करनी पड़ रही है। लेकिन सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद चार्च इतना बढ़ गया कि राज्य को हर माह वेतन आदि के लिये लगभग 300 करोड़ रुपये प्रति माह कर्ज लेना पड़ रहा है।
भौगोलिक समानता और सम्बद्धता के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता के कारण उत्तराखण्ड के लिये उत्तर प्रदेश के बजाय हिमाचल प्रदेश का साथ ज्यादा अनुकूल था। हिमाचल और गढ़वाल के सदियों से रोटी-बेटी के सम्बन्ध रहे हैं। गोरखा आक्रमण के बाद टिहरी राज्य के पुनर्संस्थापक महाराजा सुदर्शन शाह की आधा दर्जन से अधिक रानियां और उपरानियां हिमाचल के सिरमौर, कटौच और कांगड़ा आदि रियासतों की थीं। टिहरी समेत इस हिमालयी क्षेत्र के राजा-महाराजाओं, राणाओं और अन्य सामन्तों के एक दूसरे राज्य से वैवाहिक सम्बन्ध प्राचीन काल से चले रहे थे। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जबकि टिहरी नरेश की ओर से गुलेर, क्योंथल, सिरमौर आदि नरेशों को आर्थिक सहायतार्थ ऋण दिया गया। गोरखा आधिपत्य से पूर्व रामीगढ़ (राईंगढ़) मैलीगढ़ और डोडाक्वांरा की जागीरें गढ़ नरेश के अधीन थीं। देहरादून जिले का जौनसार बावर इलाका कभी सिरमौर का हिस्सा था। रियासतों के प्रजामण्डलों के मार्गदर्शन और समन्वय के लिये कांग्रेस के ही अनुसांगिक संगठन अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के अधीन टिहरी समेत जिन 35 हिमालयी रियासतों के प्रजामण्डलों के संगठन हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल कांउसिल के अध्यक्ष पद पर टिहरी के परिपूर्णानन्द भी 1947 में चुने गये थे। कांउसिल एक तरह से रियासती कांग्रेस ही थी जिसके चुनाव में पैन्यूली ने डा0 यशवन्त सिंह परमार को हराया था। इस चुनाव के बाद के काउंसिल में बिघटन शुरू हुआ और डा0 परमार एवं पद्मदेव आदि ने सत्यदेव बुशहरी और पैन्यूली गुट के खिलाफ समानान्तर संगठन, शिमला हिल स्टेट्स सब रिजनल काउंसिल का गठन कर लिया। चूंकि टिहरी के नेता राज्य के भविष्य के बारे में बंटे हुये थे। ज्यादा नेताओं पर गोविन्द बल्लभ पन्त का प्रभाव था। कुछ प्रमुख नेताओं की नजर स्टेट एसेम्बली की मेंबरी पर भी थी। इसलिये 1 अगस्त 1949 को टिहरी गढ़वाल अन्ततः संयुक्त प्रान्त का हो गया।
 विकास की तमाम संभावनाओं को धरातल पर उतारने वाला राजनीतिक नेतृत्व सक्षम हो तो संभावनाएं व्यर्थ चली जाती हैं। उत्तराखण्ड हो या फिर झारखण्ड, इन नये राज्यों में देश के कुछ अन्य छोटे राज्यों की तरह अवसरवादिता और पदलोलुपता के कारण राजनीतिक अस्थिरता चलती रही। अवसरवादी राजनीतिक जीव एक सांस में राहुल-सोनियां का राग अलापते तो दूसरी सांस मेंनमो नादनिकालते रहे। नेताओं का ध्यान विकास पर नहीं बल्कि केवल कुर्सी पर टिका रहा। 25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्व में आये हिमाचल में इन 46 सालों में आधुनिक हिमाचल के निर्माता डा0 यशवन्त सिंह परमार सहित कुल 5 नेता मुख्यमंत्री बने। इनमें डा0 परमार, रामलाल, शान्ता कुमार और प्रो0 प्रेम कुमार धूमल दो-दो बार मुख्यमंत्री रहे जबकि राजा वीरभद्रसिंह को 5 बार राज्य का नेतृत्व करने का अवसर मिला। इधर उत्तराखण्ड में मात्र 17 सालों में नित्यानन्द स्वामी, भगतसिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, भुवनचन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियालनिशंक’, विजय बहुगुणा, हरीश रावत और त्रिवेन्द्र सिंह रावत सहित 8 मुख्यमंत्री नवीं बार गये। इनमें तिवारी के अलावा किसी ने भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया और आज यहां जो तरक्की दिखाई भी दे रही है वह तिवारी के ही कार्यकाल की देन है। मार्च से लेकर मई 2016 तक उत्तराखण्ड में राजनीति का जो नंगा नाच चला वह सारी दुनियां ने देखा। भारत में पहली बार अदालत ने 27 मार्च 2016 को जारी राष्ट्रपति शासन के आदेश को असंवैधानिक घोषित कर केन्द्र सरकार द्वारा गिरायी गयी राज्य सरकार बहाल की तथा हाइकोर्ट के फैसले को जायज ठहराते हुये सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार अपनी देखरेख में राज्य विधानसभा में बहुमत का फैसला करा कर केन्द्र के सत्ताधारियों के मुंह पर चपत दे मारी। इस दौरान हरीश रावत ने एक दिन के लिये हाइकोर्ट के आदेश पर और बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधानसभा में 10 मई 2016 को कराये गये शक्ति परीक्षण के बाद दूसरी बार 11 मई को बिना शपथ के सत्ता हासिल की। देखा जाय तो उन्हें एक ही कार्यकाल में तीन बार कुर्सी पर चढ़ने का मौका मिला। अदालत ने राज्य में 45 दिन तक राष्ट्रपति शासन होने के बावजूद उन्हें बर्खास्त माना ही नहीं था। उत्तराखण्ड में चुनी हुयी सरकारों को विपक्ष से नहीं बल्कि सत्ताधारी दल के अपने लोगों से खतरा होता रहा है जो कि अवसरवाद और पदलोलुपता का एक जीता जागता उदाहरण है। जिन सत्ताधारियों का अपना ही भविष्य अनिश्चित हो उनसे प्रदेश के भविष्य के बारे में चिन्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है। पंजाब के नेता हिमाचल को पंजाब में मिलाना चाहते थे। इसके लिये डा0 परमार को मुख्यमंत्री पद की पेशकश भी की गयी मगर केवल परमार बल्कि समूचा राजनीतिक नेतृत्व और यहां तक कि ज्यादातर रियासतों के राजा भी इस पहाड़ी क्षेत्र के अलग प्रशासन के लिये एकताबद्ध और अडिग रहे। यही नहीं 1953 में जस्टिस फजल अली की अध्यक्षता में गठित पहले राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी बहुमत से हिमाचल को पंजाब में मिलाने की सिफारिश कर दी थी मगर डा0 परमार के अनुरोध पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिमाचल का अलग अस्तित्व बनाये रखने का निर्णय लिया। मजेदार बात तो यह रही कि जो पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त इस उत्तराखण्ड को हर हाल में मैदानी संयुक्त प्रान्त में जोड़े रखने के लिये जोर लगाते रहे, उन्होंने भी हिमाचलियों की अलग अस्तित्व बनाये रखने की मांग का समर्थन किया था।
उत्तराखण्ड के राजनीतिक हालात को देखते हुये अब यह विचार उभरने लगा है कि जिस तरह 15 अप्रैल 1948 को 30 हिमालयी रियासतों को मिला कर अलग केन्द्र शासित हिमाचल बनाया गया था उसी तरह इस उत्तराखण्ड को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में रखने के बजाय केन्द्र शासित क्षेत्र बना दिया गया होता या फिर हिमाचल की अन्य रियासतों के साथ ही इसे भी केन्द्रीय शासन में शामिल कर दिया गया होता तो आज इतने राजनीतिक जांेक इस राज्य को नहीं चूसते। जनवरी 1971 में देश के 18वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद डा0 परमार ने भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये प्रदेश के विकास की डगर बागवानी की ओर बढ़ाई उसके साथ ही पर्यटन और ऊर्जा उत्पादन पर भी जोर दिया गया तो आज हिमाचलभारत के फलों के कटोरेके रूप में विख्यात हो गया। इसे सेव राज्य या बगीचों का राज्य भी कहा जाने लगा जबकि उत्तराखण्ड के दिग्भ्रमित नीति नियंता कभी इसे ऊर्जा राज्य, कभी पर्यटन राज्य तो कभी जड़ीबूटी राज्य बनाने के नाम पर लोगों का दिल बहलाते रहे। हिमाचल जब केन्द्र शासन के अधीन गया तो पहली पंच वर्षीय योजना में उसके विकास की आधा रकम वहां सड़कों का जाल बिछाने पर खर्च की गयी। इस बीच वह पार्ट सी का राज्य भी रहा।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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