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Saturday, May 26, 2012




मुख्यमंत्रियों का बोझ नहीं झेल पायेगा उत्तराखण्ड
-जयसिंह रावत-
पहाड़ों में कहावत है कि “ज्यादा खाने के लिये जोगी बना और पहली ही रात भूखा रह गया।“ उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद भी कुछ हद तक यही कहावत चरितार्थ हो रही है। दशकों की जद्दोजहद के बाद उत्तराखण्ड के लोगों के हिस्से की लोकतांत्रिक सरकार लखनऊ से चल कर देहरादून तो पहुंच गयी मगर क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण इस नये प्रदेश की सरकारें प्रदेश के संसाधनों पर भारी पड़ रही हैं। अगर नेता अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे की कुर्सी हथियाने के लिये इसी तरह संसाधनों को लूटते और लुटवाते रहे तो उस ज्यादा खाने की अभिलाषा रखने वाले जोगी की तरह इस प्रदेश की फाकापरस्ती भी दूर नहीं रह जायेगी।
देश के सबसे अनुभवी नेताओं में से एक नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में बनी प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार के स्थायित्व के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री को सेकड़ों की संख्या में लालबत्तियां बांटनी पड़ी। उस समय मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष की खैरात प्रदेश और देश की सीमाओं को लंाघ कर नेपाल तक गयी। प्रदेश के संसाधनों की इस लूट को चुनावी मुद्दा बना कर 2007 में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के नेतृत्व में भाजपा सरकार सत्ता में आयी तो उन्हें भी अपनी कुर्सी बचाने के लिये न केवल लालबत्तियों का पिटारा खोलना पड़ा बल्कि जिन लालबत्ती धारकों को मात्र 2500 मानदेय मिलता था उसे बढ़ा कर उन्होंने 8 हजार और 10 हजार करने के साथ ही उनकी पट्रोल फूंकने की सीमा को असीमित कर दिया। इस प्रकार वह अपनी बात से मुकरने के साथ ही तिवारी से ज्यादा खर्चीले साबित हुये। यह बात दीगर है कि प्रदेश के संसाधनों को लुटवाने के बाद भी खण्डूड़ी कुर्सी नहीं बचा सके। ये वही आदर्शवादी मर्यादा पुरुषोत्तम भुवन चन्द्र खण्डूड़ी थे जिनकी सरकार ने मंत्रियों के जैसे ठाठबाट वाले इन बेहद खर्चीले 51 पद विधानसभा के जरिये लाभ की श्रेणी से बाहर निकलवा दिये थे। उससे पहले तिवारी सरकार ने अपने विधायकों में सत्ता और राजसुख की बांट के लिये 26 पद लाभ की श्रेणी से बाहर निकाल दिये थे। उसके बाद कुर्सी बचाने के लिये सरकारी कोष की जर्जर स्थिति देखने के बाद भी एक के बाद एक सेकड़ों घोषणाऐं और तीन रुपये किलो गंेहू और 6 रुपये किलो चावल देने की जैसी घोषणाऐं करने के बाद भी रमेश चन्द्र पोखरियाल निशंक अपनी कुर्सी नहीं बचा पाये और अपने ही पुराने आका भुवनचन्द्र खण्डूड़ी के हाथों मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवा बैठे। चूंकि जब खण्डूड़ी का दुबारा राज्याभिषेक हुआ उस समय चुनाव तैयारियां शुरू हो गयी थीं, इसलिये कुर्सी सम्भालते ही खण्डुड़ी ने दुबारा ताबड़तोड़ घोषणाऐं शुरू कर दीं जबकि हकीकत यह थीं कि धनावभाव के कारण तिवारी के जमाने से लेकर अब तक मुख्यमंत्रियों की केवल आधी घोषणाओं पर ही अमल किया जा सका था।
चुनावी हकीकत यह है कि कोठी बंगले वाले लोग मतदान के लिये कम ही बाहर निकलते हैं, जबकि मलिन बस्तियों और निम्नमध्यम वर्ग की कालोनियों के मतदाता चुनाव में निर्णयक होते हैं। इस हकीकत से बहुत गहराई तक वाकिफ भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने ठीक विधानसभा चुनाव 2012 से पहले प्रदेश की 582 मलिन बस्तियों को नियमित कर सभी अतिक्रमणों में अतिक्रमणकारियों को अवैध कब्जों का मालिकाना हक दे दिया। खण्डूड़ी मंत्रिमण्डल ने इन सभी बस्तियों के 7,71,585 निवासियों को पहचान पत्र उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। बस्ती वालों को 10 साल के ही पट्टे देने का निर्णय लिये जिन्हें उसके बाद भूखण्ड फ्रीहोल्ड किया जाना है। प्रदेश में ऊधमसिंह नगर में सर्वाधिक 2,45,280 और राजधानी देहरादून में 2,14,368 मलिन बस्ती आबादी है। देहरादून में सबसे अधिक 162 बस्तियां हैं। हरिद्वार में 1,81,210 स्लम आबादी रहती है, जबकि नैनीताल जिले में 76,830 स्लम आबादी रहती है। खण्डूड़ी के लिये ये 7 लाख इंसान से अधिक वोटर ही थे। इन मलिन बस्तियों में देहरादून की रिस्पना और बिण्डाल नदियों के किनारे की बस्तियां भी शामिल हैं जहां के लिये एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री नरायण दत्त तिवारी ने नदी सौन्दर्यीकरण योजना बनाई थी, लेकिन बस्तियों के इस वोट बैंक को देखते हुये उस सरकार को भी इरादा बदलना पड़ा।
मलिन बस्तियों को नियमित कर सरकारी जमीन पर अवैध कब्जाधारकों के कब्जे नियमित करने के पीछे भुवन चन्द्र खण्डूड़ी की निगाह उन 7 लाख वोटरों पर थी जो बाद में उनकी पार्टी के काम आने थे। लेकिन उनके ममेरे भाई विजय बहुगुणा ने तो महज अपनी कुर्सी पक्की करने के लिये हजारों करोड़ मूल्य की सरकारी जमीन खैरात की तरह बांट दी। बहुगुणा मुख्यमंत्री रहते हैं या नहीं या कांग्रेस की सरकार टिकती है या नहीं, इससे राज्य को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। मगर हजारों करोड़ मूल्य की सरकारी जमीन पर सरकार का कब्जा बरकरार रहना राज्य के भविष्य से जुड़ा हुआ है। बहुगुणा के फुफेरे भाई भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने अपनी सरकार के स्थायित्व के लिये भविष्य की राजनीतिक अस्थिरता के जो बीज बोये थे उस परम्परा को आगे बढ़ा कर ममेरे भाई ने एक तरह से अस्थिरता और अवसरवादिता की फसल को सींचने के साथ ही एक नयी परम्परा भी शुरू कर दी है। अब तक इस नये प्रदेश में विधायकों की नकद खरीद फरोख्त विरासत में मिलने की बात होती थी लेकिन अब विजय बहुगुणा ने सरकारी जमीन को कीमत के रूप में चुकाने की नयी परम्परा शुरू कर दी है। अब तक विधायकों की राजनीतिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक विचारधारा के साथ ही उनके जमीर को नकद या पद देकर खरीदा जाता था मगर अब तो बहुगुणा जी ने जमीन से जमीर खरीदने का नयी परम्परा चला दी है।
तराई के मूल निवासी  थारू और बोक्से मौरुसी और सिरदार रहते हुये ही भूमिहीन हो गये। वे ज्यादातर अपनी ही जमीनों पर बाहरी लोगों की मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन राजनीतिक हैसियत के कारण बाहरी लोग न केवल तराई के मालिक बन गये बल्कि देहरादून में बैठने वाली सरकार के भाग्य विधाता भी बन बैठे। तराई में मूलतः बोक्सा वनचर थे जिन्हें बाद में खेती के लिए वाध्य किया गया। ब्रिटिश काल में जहां अन्य क्षेत्रों का प्रशासन जिलों और प्रांतों को इकाइयां मान कर किया गया वहीं थारू बोक्सा बसागत वाले तराई क्षेत्र को सरकारी भूसम्पत्ति (गवर्नमेण्ट स्टेट) की श्रेणी में रखा गया। आजादी के बाद इस सरकारी भूसम्पदा को 7 प्रकार के गांवो में श्रेणीबद्ध किया गया।  तराई की सरकारी जमीन पर बसे जनजातियों के गांव इस प्रकार थे1-खाम गांवः-इन गांवों में भूस्वामित्व राज्य सरकार का था तथा इनमें उ0प्र0 टेनन्सी एक्ट लागू था। उस समय इन्हें अपने खेत के आसपास की खाली भूमि पर भी हल जोतने तथा उस पर खेती करने का अधिकार प्राप्त था। 2-बोक्सारी गांवः-राज्य सरकार ने इन गांव में उत्तर प्रदेश टेनन्सी एक्ट लागू नहीं किया। ऐसे क्षेत्रों में बोक्सा लोगों को स्थान बदलने वाली खेती (झूम खेती) की इजाजत थी, और वे स्थान बदल-बदल कर एक हिस्से से पेड़ांे तथा झाड़ियों को काट कर उसमें हल चलाकर खेती कर लेते थे और फिर भविष्य में उस टुकडे़ को छोड़कर नई जगह को तलाश लेते थे। उस समय बोक्सा के ऐसे 13 गांव कालोनी निर्माण के लिए ले लिए गए। जिससे उनके गांवों की संख्या घटकर 42 रह गई। इस प्रकार की जमीन खतौनी में 10 (ल) में दर्ज की गई। 3-हिस्सेदारी गांवः-इस तरह के गांव खाम गांव तथा बोक्सारी गांव के मध्यवर्ती दर्जे वाले गांव थे जिनमें कुछ नियम सामान्य थे।  4-ठेकेदारी गांवः-इस तरह के गांव 30 साल के लिए ठेके पर दिये गये थे। तीस साल के बाद पट्टों के नवीनीकरण की व्यवस्था थी। 5- मस्तगिरी गांवः-इस दर्जें के गांवों में जमीन को पुनः किराये पर देने, गिरवी रखने या दान में देने का अधिकार दिया गया था। लेकिन इसके लिए सरकार को एक निश्चित रकम शुल्क के रूप में अदा करनी होती थी। 6-कोलोनाइजेशन गांवः-ऐसे गांव पर उत्तर प्रदेश सरकार ने सम्पति का अधिकार लागू किया। जमीन पर वहां के बासिन्दों को वंशानुगत अधिकार था तथा वहां उत्तर प्रदेश टेनन्सी एक्ट लागू था। भूमि के पट्टों की शर्तो ने वहां सामुदायिक खेती को प्रोत्साहन दिया। 7-माफी गांवः-इस प्रकार के गांव हिस्सेदारी गांवों की तरह मध्यवर्ती कानूनी दर्जे के गांव थे इन गांवों में उत्तर प्रदेश राजस्व अधिनियम लागू था। सन् 1969 में उ0प्र0 जमीदारी उन्मूलन तथा भूमि सुधार एक्ट 1950 के लागू होने के बाद सरकारी भूसम्पदा (गवर्नमेन्ट एस्टेट) तथा भूमिधरी के 7 प्रकार के गांव की व्यवस्था समाप्त हो गई थी तथा उसके स्थान पर कास्तकारों को भूमिदार, सिरदार, आसामी और आदिवासी की चार श्रेणियों में रखा गया था। लेकिन आज अधिकतर भूमिधर और अन्य श्रेणियों के बोक्सा भूमिहीन हो गये। चूंकि आज जिसके नाम जमीन है, उसके पास जमीन नहीं है और जिसके पास जमीन है, उसके नाम वह जमीन नहीं हैै। सनवाल कमेटी (1969) की रिपोर्ट के अनुसार खाम गांवों में 711, बोक्सारी में 55, हिस्सेदारी में 85, ठेकेदारी में 35 मुस्तगिरी में 53, कालोनाइजेशन में 175 तथा मुआफी गांवों में 2 पूर्ण तथा 19 अंाशिक गांव थे। छल और बल से इन सभी गावों की जमीन खिसक कर बाहरी लोगों के पास चली गयी, मगर मूल निवासी भूमिधर नहीं बन सके। लेकिन किरन मण्डल ने एक झटके में सारे बाहरी पट्टेधारकों को भूमिधर बना दिया। तराई में 70 प्रतिशत से अधिक बोक्सा कर्जों के बोझ तले दबे हैं और इसमें से लगभग 75 प्रतिशत कर्ज साहुकार या महाजनों से लिये गये हैं। येसाहुकार या महाजन कोई और नहीं बल्कि बाहर से वहां जाकर बसे लोग हैं जिन्होंने बोक्सों की ऋण ग्रस्तता का लाभ उठा कर उनकी जमीनें हथियायी हैं
सनवाल कमेटी (1969) ने अपनी रिपोर्ट में 53 हजार एकड़ सरकारी जमीन पर बाहरी लोगों द्वारा कब्जे किये जाने की बात कही थी। उसके बाद इसके कई गुना अधिक जमीन अतिक्रमणकारियों के कब्जे में चली गयी। सरकार ने कब्जे हटाने के बजाय वोटों की कीमत पर लोगों को  उन जमीनों को पट्टे देने शुरू किये जिन पर पट्टाधारक खेती कर सकते थे मगर बेच नहीं सकते थे। अब मुख्यमंत्री की कुर्सी की कीमत के बदले वह हजारों करोड़ मूल्य की जमीन के मालिक बाहरी लोग हो गये।
सवाल केवल पट्टे नियमित करने का नहीं है। सवाल सरकारी जमीन से विधायकों का जमीर खरीदने का है। आज आप एक समुदाय को खुश करने के लिये इस हद तक जा सकते हैं फिर कल भी इसी तरह प्रदेश के संसाधनों को खुर्दबुर्द किया जा सकता है। सभी जानते हैं कि जल, जंगल और जमीन इस राज्य के मुख्य प्राकृतिक संसाधन हैं। इन्हीं तीनों की आधारशिला पर राज्य के भविष्य की इमारत खड़ी होनी है। इनमें से वन केन्द्र सरकार के हो गये। नदियों पर जलविद्युत परियोजनाऐं तक नहीं बनने दी जा रही हैं और शेष बची जमीन तो वह इस तरह खुर्दबुर्द हो रही है। जमीन वह संसाधन है जो घट तो सकता है मगर एक इंच भी बढ़ नहीं सकता। जबकि भविष्य के लिये जमीन की जरूरत बढ़ती ही जाती है। इसीलिये तिवारी सरकार ने एक भूमि बैंक की परिकल्पना भी की थी। जमीन वह चीज है जिसके लिये महाभारत जैसे युद्ध हुये और आज भी समाज में तनाव का एक मुख्य कारण जमीन के विवाद होते हैं। जमीन मिट्टी का टीला नहीं बल्कि एक आधार होती है। यह धरती पर जीवन का भी आधार है। बिना जमीन के विकास तो रहा दूर मानव जीवन भी सम्भव नहीं है। उस जमीन को इस तरह लुटाया जायेगा तो इससे बड़ी अदूरदर्शिता और क्षुद्र स्वार्थ और क्या हो सकता है।


-जयसिंह रावत
       पत्रकार
ई-11 फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
उत्तराखण्ड।
मोबाइल- 09412324999

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