Search This Blog

Thursday, May 26, 2016



दूरदर्शन पर Þस्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता पर चर्चा


मेरी पुस्तक Þस्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता पर दूरदर्शन केन्द्र देहरादून द्वारा एक परिचर्चा का आयेजन किया गया मेरे साथ डा0 योगेश धस्माना ने भी भाग लिया। परिचर्चा का संचालन पत्रकार जितेन्द्र अन्थवाल ने किया। चरिचर्चा का फोकस उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के गौरवमय इतिहास पर था। मेरी इस पुस्तक में पत्रकारिता के इतिहास के साथ ही उन तमाम पत्रकारों और पत्रों का विस्तृत उल्लेख है जिनकी स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भागीदरी रही। इस पुस्तक में ऐसे तथ्य उजागर किये गये हें जो कि अब तक ज्ञात नहीं थे। पुस्तक में राजा महेन्द्र प्रताप] मुंशीराम] स्वामी विचारानन्द] बी-डी- पाण्डे] विक्टर मोहन जोशी] गिरजा दत्त नैथाणी] अमीर चन्द बम्बवाल] भक्त दर्शन, रुद्रदत्त भट्ट] रामसिंह धौंनी] श्याम चन्द सिंह नेगी] हर्षदेव ओली] मनोहर पन्त और भैरवदत्त धूलिया जैसे 67 स्वतंत्रता सेनानी पत्रकारों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गयी है। इस आयोजन के लिये मैं कार्यक्रम अधिकारी पी-एस- रावत तथा उनके सहयोगी डा0 आम प्रकाश जमलोकी का आभारी हूं। यह पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी] प्रथम तल 8 के-सी- सिटी सेंटर] 4 डिस्पेंसरी रोड देहरादून में उपलब्ध है।
दूरभाष सम्पर्कः- कीर्ति नवानी] 9456372442 एवं 9412325979


Thursday, May 12, 2016

ARSON BY BJP IN CONGRESS HOUSE

 उत्तराखण्ड:
-------------------
सत्ता की भूख और अवसरवाद का नंगा नाच
कांग्रेस में आगजनी कर अपने हाथ जलाये भाजपा ने
बागी न घर के रहे न घाट के
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में पूरे 54 दिनों तक चला राजनीति का भद्दा खेल जहां से शुरू हुआ था वहीं पर खत्म भी हो गया। कुर्सी का यह खेल 18 मार्च को जब शुरू हुआ था उस समय भी हरीश रावत मुख्यमंत्री थे और जब किसी के लिये सुखान्त और किसी के लिये इस भद्दे नाटक का पटाक्षेप हुआ तो भी हरीश रावत ही मुख्यमंत्री थे। यह राजनीतिक चक्र जहां से शुरू हुआ उसे अगर वहीं पर आकर अटकना था तो फिर इसे शुरू ही क्यों किया गया और इसमें इतनी ऊर्जा, समय और धन का अपव्यय क्यों किया गया? 54 दिनों के इस सियासी संकट के नाटक का हासिल कुछ भी नहीं हुआ। नाटक का हर किरदार घाटे में रहा। साथ ही उत्तराखंड को भी इसका भारी नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन हर तरफ राजनीतिक तबाही के बावजूद यह नाटक भविष्य के लिये नजीर अवश्य बन गया।
कुल 54 दिन तक चले इस राजनीतिक बबंडर के दौरान उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि सारे देश को कई विचित्र अनुभवों से गुजरना पड़ा। देश में पहली बार किसी अदालत ने राष्ट्रपति शासन को खारिज कर निर्वाचित सरकार को बहाल कर दिया। देश में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में किसी सरकार का ’फ्लोर टेस्ट’ हुआ।पहली बार अदालत ने किसी राज्य में दो घंटे के लिये राष्ट्रपति शासन हटवाया। देश में पहली बार एक नेता को दो साल के अन्तराल में चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्भालनी पड़ी। 1 फरबरी 2014 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकी उत्तराखण्ड की कमान संभालने वाले हरीश रावत को जब 18 मार्च 2016 को राष्ट्रपति शासन के तहत बर्खास्त किया गया तो वह हाइकोर्ट की दखल के बाद 21 अप्रैल को एक दिन के लिये मुख्यमंत्री बन गये। सुप्रीमकोर्ट ने जब 10 मई को फ्लोर टेस्ट कराने के लिये दो घंटे के लिये राष्ट्रपति शासन हटवाया तो रावत भी दो घंटे के मुख्यमंत्री बन गये। उसके बाद बहुमत सिद्ध करने पर वह 12 मई को पुनः मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गये।
18 मार्च 2016 की सायं बागी नेता हरक सिंह रावत के विभागों समेत सभी विभागों के बजटों के ध्वनिमत से पारित होने के बाद अन्ततः विनियोग विधेयक को लेकर शुरू हुआ यह सत्ता संघर्ष राजभवन से होता हुआ वाया हाइकोर्ट सीधे सुप्रीम कार्ट तक पहुंचा और देशभर में सुर्खियां बटोरने के बाद आखिरकार 10 मई को फिर विधानसभा के पटल पर ही आकर ठहर गया। जिसका ऐतिहासिक फैसला 11 मई को आ गया। राजनीति के इस युद्धविराम के समय 18 मार्च की जैसी यथास्थिति तो लौटी मगर वे 9 बागी नहीं लौटे जिन्होंने अपनी पदलोलुपता और अवसरवादिता के लिये राज्य की राजनीति में यह आग लगायी थी। उनके लिये ’न खुदा ही मिला न बिसाले सनम’। वे न इधर के रहे और न उधर के। उनकी सदस्यता भी गयी और मकसद भी बुरी तरह फ्लाप हो गया। उन्हें केवल “संविधान के पापी” और दलबदलू की डिग्री ही मिली। उनको यह ’टाइटिल’ किसी और ने नहीं बल्कि नैनीताल हाइकोर्ट की डबल बेंच ने दिया।
प्रदेश के इस हाइ बोल्टेज नाटक के घटनाक्रम पर अगर नजर दोड़ाई जाय तो खुद ही पता चल जाता है कि इसके कुल तीन किरदारों की भूमिका कहां क्या रही! इसमें पहला किरदार 9 बागी कांग्रेसियों का था जिनको भाजपा ने उकसा कर हरीश रावत के खिलाफ हथियार बनाने का प्रयास किया। दूसरा किरदार भाजपा का था जो हारी हुयी लड़ाई को निरन्तर लड़े जा रही थी और दूसरे के घर की आग से अपना हाथ झुलसाये जा रही थी। तीसरा किरदार स्वयं मुख्यमंत्री हरीश रावत ने निभाया जिनके साथ न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि निर्दलीय, बसपा और यूकेडी सदस्यों का पीडीएफ खड़ा रहा। इस दौरान अपनी सरकार बचाने के लिये रावत को वह सब करना पड़ा जो कि अब तक खुफिया कैमरों में कैद नहीं हुआ करता था। एक तरह से संविधान के इन कुंठित 9 पापियों ने सत्ता के इस खेल को ’महाभारत’ में बदल डाला। इसके परिणाम पर सारे देश की नजर टिकी रही और शिव सेना से लेकर कम्युनिस्टों तक ने इसमें अपनी भावनाऐं जरूर झौंकी। हैरानी का विषय यह रहा कि जिस भाजपा ने इस महाभारत का शंख फूंका था वह राजनीति के इस कुरुक्षेत्र में तन्हा नजर आयी। उसे हर मोर्चे पर मुंह की खानी पड़ी। यहां तक कि उसकी स्वाभाविक सहयोगी शिवसेना ने तक उसे धिक्कारने में देरी नहीं की।
गत 18 मार्च से लेकर 11 मई 2016 तक चले देश की भावी राजनीति को नसीहत देने वाले इस राजनीतिक घटनाक्रम पर सिलसिलेवार गौर करना जरूरी है। जब 18 मार्च को पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कांग्रेस के 8 विधायकों ने भाजपा से सांठगांठ कर अपनी ही सरकार का विनियोग विधेयक गिराने का प्रयास किया तो वहीं से एक राजनीतिक बबंडर शुरू हुआ। हरीश रावत बनाम भाजपा-बागी के बीच यह ऐसी रार थी जिससे नुकसान तो बहुत कुछ हुआ लेकिन इस नुकसान की कीमत पर संविधान के अन्दर निहित लोकतंत्र की भावना पर लगा धुंधलका अवश्य ही साफ हो गया। स्पीकर ने कहा विधेयक ध्वनिमत से पास हो गया जबकि बहुगुणा समेत 9 बागियों और भाजपा सदस्यों ने मत विभाजन की मांग उठा कर विधेयक के गिर जाने का शोर मचाना शुरू कर दिया। इस शोर शराबे के कुछ ही समय पहले स्वयं बागी नेता हरक सिंह रावत ने कृषि, चिकित्सा शिक्षा और सैनिक कल्याण विभाग के मंत्री के रूप अपने विभागों के तीन बजट ध्वनिमत से पास कराये थे। अपने बजट रखते हुये हरक सिंह ने अपनी सरकार की उपलब्धियां भी गिनायीं थी। देश की जनता ने पहली बार विधानसभा के पटल पर एक मंत्री को इस तरह गिरगिट जैसा रंग बदलते देखा। अपने बजट पास कराने के बाद मनी बिल के पेश होते ही उनके सिर पर जैसे भूत सवार हो गया। वह सदन के वेल में कूद पड़े और चिल्लाने लगे कि बिल गिर गया............बिल गिर गया .........और सरकार भी गिर गयी.....। उनके साथ ही उनके बागी सहयोगी भी वेल में आ गये और पूर्व नियोजित रणनीति के अनुसार भाजपाई सदस्य भी मैदान में कूद गये। तब तक स्पीकर के साथ ही सरकारी पक्ष भी सदन छोड़ चुका था। पूर्व नियोजित रणनीति के तहत इस नोटंकी के बाद विधानसभा के बाहर चार्टर बसंे खड़ी थीं और भाजपा के नेता इन 9 बागियों सहित कुल 35 विधायकों को लेकर राजभवन पहुंच गये। जहां विनियोग विधेयक के गिरने के साथ ही सरकार के गिरने का दावा उन्होंने कर डाला। राज्यपाल को भाजपा और बागी विधायकों का साझा ज्ञापन भी सौंपा गया और आखिरकार यह उतावलापन भाजपा और बागियों की हार का कारण बना। उसी रात भाजपा के रणनीतिकार (फ्लाप) अपने और बागी विधायकों को चार्टर प्लेन से दिल्ली ले गये जहां उन्हें आलीशान होटलों में ठहरा कर उनकी मिजाजपुर्सी की गयी। दूसरे दिन 19 मार्च को सुबह मुख्यमंत्री हरीश रावत अपनी सहयोगी और संसदीय कार्यमंत्री इंदिरा हृदयेश को लेकर राज्यपाल से मिले और उन्होंने भी वहां अपना पक्ष रखा। उसी दिन विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने भी राज्यपाल को विधानसभा में हुयी कार्यवाही की ब्रीफिंग कर दी। चूंकि बीच में होली की छुट्टियां थीं इसलिये राज्यपाल ने मुख्यमंत्री हरीश रावत को छुट्टियों के बाद 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने के आदेश जारी कर दिये। राज्यपाल के इस फैसले को लेकर भाजपा में जलजला पैदा हो गया और फिर स्टिंग के बाद राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। इसके बाद भाजपा और बागी दल के विधायक कहां-कहां आलीशान होटलों और सैरगाहों में पर्यटन का आनन्द लेते रहे, वह सारे देश ने देखा। बहती गंगा में कांग्रेसियों और पीडीएफ विधायकों ने भी खूब हाथ धोये। इस दौरान जो स्टिंग आये उनमें भी विधायकों की मण्डी के अश्लील दृष्य भी सारी दुनियां ने देखे। यही नहीं एक नयी पत्रकारिता का एक भद्दा चेहरा भी स्टिंग के लवादे में सभी ने देखा। बहरहाल हरीश रावत के फ्लोर टेस्ट’ की घड़ी 28 मार्च आने से एक दिन पहले ही केन्द्र सरकार ने हरीश सरकार को बर्खास्त कर धारा 356(1) के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। उसी दौरान विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने भी अपनी असीमित शक्तियों का प्रयोग करते हुये 9 बागियों की सदस्यता समाप्त कर दी। केन्द्र सरकार जानती थी कि स्पीकर कुंजवाल ऐन मौके पर 9 बागियों की सदस्यता समाप्त कर देंगे और हरीश रावत आसानी से विश्वासमत हासिल कर लेंगे। हालांकि स्पीकर को राजनीति से ऊपर उठ कर पंच परमेश्वर की भूमिका अदा करनी चाहिये। मगर व्यवहार में होता ठीक इसके विपरीत है। हर जगह स्पीकर सत्ताधारी दल का होता है और उसके मन में सदैव ही अपने दल की सरकार की दीर्घायु की कामना होती है। लेकिन उत्तराखण्ड के स्पीकर कुंजवाल अपने आचरण से इससे भी काफी आगे निकलते रहे हैं। इसलिये उनके हर कदम की निष्पक्षता पर संदेह और सवाल उठने लाजिमी ही थे। इसीलिये हरीश रावत सरकार को सत्ताच्युत कर अपनी भगोया सरकार स्थापित करने की ठान चुकी केन्द्र सरकार ने कुंजवाल और कांग्रेस की मंशा पर पानी फेरने के लिये ’’फ्लोर टेस्ट” की नौबत आने ही नहीं दी और ठीक एक दिन पहले 27 मार्च को ही विधानसभा को निलंबित कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया।
राष्ट्रपति शासन लगने के तत्काल बाद राज्य में कानूनी युद्ध छिड़ गया। हरीश रावत भी 28 मार्च को नैनीताल हाइकोर्ट की सिंगल बेंच में न्याय के लिये चले गये।  उसके अगले दिन 29 मार्च को बागी विधायक भी हाइकोर्ट पहुंच गये। अगले दिन 30 मार्च को जस्टिस उमेश चन्द्र ध्यानी की बेंच ने 18 मार्च की स्थिति को बहाल करने के साथ ही हरीश रावत को ’फ्लोर टेस्ट’ में बहुमत साबित करने का आदेश दे दिया। इसमें बागियों समेत सभी 71 विधायकों को भाग लेना था। लेकिन शर्त यह थी कि बागी अपना वोट जरूर डालेंगे मगर उनके वोट अलग से गिने जायेंगे और बाद में न्याय तथा संविधान की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही उनके वोटों का आंकलन किया जायेगा। यह एक अनोखा फैसला था। परोक्ष रूप से इसका मतलब सीधे-सीधे राष्ट्रपति शासन को खारिज करना ही था। दरअसल यह 1994 के एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन आफ इंण्डिया के ऐतिहासिक फैसले के आलोक में फ्लोर टेस्ट ही सरकार का बहुमत साबित करने के लिये अंतिम उपाय होने की पुष्टि करने के साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा लगाये गये राष्ट्रपति शासन को नकारने वाला था। इससे पहले किसी अदालत ने राष्ट्रपति शासन को नकार कर सदन में बहुमत साबित करने का फैसला नहीं दिया था। इस फैसले से भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार के साथ ही 9 बागियों का भौंचक्का रह जाना तो स्वाभाविक ही था लेकिन कानूनी जगत भी इसे अप्रत्याशित मान रहा था। नतीजतन केन्द्र सरकार उसी हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोजेफ और जस्टिस बे.के.बिष्ट की डबल बेंच में सिंगल बेंच के फॅैसले के खिलाफ चली गयी। डबल बेंच ने 7 अप्रैल को सिंगल बेंच के ’फ्लोर टेस्ट’ के फैसले को 18 अप्रैल तक स्थगित कर दिया। डबल बेंच में न केवल केन्द्र सरकार और बागियों की फजीहत हो गयी बल्कि बेंच ने राष्ट्रपति के निर्णय पर ही सवाल उठाते हुये साफ कह दिया कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति कोई राजा नहीं होता। इसका मतलब साफ था कि राष्ट्रपति भी संविधान से ऊपर नहीं है और अगर राष्ट्रपति भवन से गलत आदेश आता है तो उसकी न्यायिक समीक्षा अवश्य हो सकती है। हाइकोर्ट की इस बेंच ने 21 अप्रैल को एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि विधिक जगत में फिर खबली मच गयी। ( हालांकि इस ऐतिहासिक फैसले को सुनाने वाले मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जोजफ को तबादले के रूप में इसका उपहार दिया गया) उसने 21 अप्रैल के अपने फैसले में राष्ट्रपति शासन समाप्त कर 29 अप्रैल को ’फ्लोर टेस्ट’ का आदेश दे दिया। यही नहीं इस डबल बेंच ने कांग्रेस के 9 बागियों को “संविधान के पापी” तक कह डाला। इस बेंच ने भी सवाल उठाये कि अगर राज्यपाल ने बहुमत साबित करने का आदेश दे दिया था तो इस संवैधानिक प्रकृया में राष्ट्रपति शासन का रोड़ा क्यों अटकाया गया? खास बात यह रही कि डबल बेंच ने भी बागियों को सदन में बहुमत साबित करते समय मतदान का अधिकार नहीं दिया। नैनीताल उच्च न्यायालय के आदेश के बाद हरीश रावत 21 अप्रैल को कुछ घंटों के लिए मुख्यमंत्री बने तो केन्द्र सरकार हाइकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गयी। लेकिन उसी दिन केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गयी और इस सर्वोच्च अदालत ने हाइकोर्ट के फैसले पर 27 अप्रैल तक रोक लगा दी और उत्तराखण्ड में पुनः राष्ट्रपति शासन बहाल हो गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के ’फ्लोर टेस्ट’ के आदेश को स्टे करने के बजाय उसकी तिथि 29 अप्रैल कर दी। उस दिन तक भी कोई निष्कर्स न निकलने पर सर्वोच्च अदालत ने ’फ्लोर टेस्ट’ की तारीख 6 मई तक आगे खिसका दी और फिर 6 मई को सुप्रीम कोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला भी आ गया जो कि भविष्य के लिये धारा 356 का दुरुपयोग करने वालों के लिये नजीर बनेगा। सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने प्रमुख सचिव विधायी कार्य की देखरेख में 10 मई को ’फ्लोर टेस्ट’ का आदेश दे ही दिया जिससे बागियों को तमाम दलीलों के बावजूद दूर ही रखा गया। आखिर 10 मई को ’फ्लोर टेस्ट’ और 11 मई को सुप्रीम कोर्ट द्वारा इम्तिहान के नतीजे की घोषणा के साथ ही हरीश रावत की सरकार बहाल हो गयी। हरीश रावत के पक्ष में 33 और विपक्ष में केवल 28 मत पड़े थे। इनमें भाजपा के भीमलाल ने हरीश रावत को वोट दिया जबकि कांग्रेस की रेखा आर्य ने भाजपा के साथ रावत के खिलाफ मतदान किया।
इस पूरे नाटक के बाद बागी कांग्रेसी विधायक सबसे अधिक नुकसान में रहे। उनको ’न खुदा ही मिला न बिसाले सनम’। वे न घर के रहे और ना ही घाट के रह सके। उनकी इस हरकत के लिये अदालत ने उन्हें संविधान के पापी तक कह डाला। किसी भी अदालत ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया। अदालत के फ्लोर टेस्ट के फैसले से बागी विधायकों की सारी रणनीति पूरी तरह फ्लाप रही। उनका ख्याल था कि विरोध के स्वर बुलंद करते ही हाई कमान नेतृत्व बदलेगा या फिर भाजपा की मदद से वह सत्ता में आ जाएंगे। राजनीतिक पंण्डितों का कहना है कि इस खेल में भाजपा ने अपनी किरकिरी ही करवा डाली। आने वाले विधानसभा चुनाव के लिये भी भाजपा ने अपनी राह धुंधली कर ली। इसमें भाजपा के रणनीतिकार बुरी तरह फ्लाप रहे। लोग तो यहां तक कहते हैं कि इस मिशन को श्याम जाजू और विजयबर्गीय के बजाय रमेश पोखरियाल निशंक जैसे प्रदेश के नेताओं को सौंपा जाता तो ऐसी शर्मनाक स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। देखा जाय तो भाजपा ने दूसरे के घर आगजनी करने की कुचेष्टा में अपने ही हाथ बुरी तरह जला दिये। विजय बर्गीय और जाजू की रणनीति इस कदर विफल रही कि उन्होंने हरीश रावत पर कालिख पोतने के बजाय भाजपा का चेहरा ही बिगाड़ दिया और हरीश रावत का कद और अधिक बढ़ा दिया।
इस घटनाक्रम पर भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री मोहनसिंह रावत गांववासी की प्रतिक्रिया भी काबिलेगौर है। उन्होंने क्षुब्ध हो कर यहां तक बयान दे दिया कि भाजपा के इन रणनीतिकारों को दंण्डित किया जाना चाहिये। अपने बयान में गांववासी ने कहा कि अपने चंद स्वार्थों की पूर्ति न होने पर धोखेबाज कांग्रेस बागियों को साथ लेकर गलबहियां करने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए। जो बागी अपने न हुए वे आपके क्या होंगे? उन्होंने दावा किया है कि कांग्रेस से बगावत कर भाजपा की गोद में बैठा एक भी बागी विश्वसनीय नहीं है। इससे पार्टी को नुक्सान हुआ है और आगे यह समीकरण मटियामेट कर देगा। उनके अनुसार “भाजपा को कांग्रेस की फ़ूट का दूर रहकर मज़ा लेना चाहिए था। जो लोग आज तक भाजपा और आरएसएस को कोसते रहे उनके साथ ये कैसी प्रेम की पेंगे बढ़ाई जा रही हैं? सत्ता की भूख इतनी प्यारी है क्या? भाजपा विचारधारा की पार्टी है न कि अवसरवादिता की पार्टी। कांग्रेस की बी टीम खड़ी नहीं होनी चाहिए।” दरअसल भाजपा उन्हीं बागी नेताओं के साथ खड़ी हुयी जिन पर वह अपदा राहत घोटाला, जमीन घोटाला, पटवारी घोटाला, पॉलीहाउस घोटाला, खनन घोटाला, मंत्री के आवास पर गोलीकाण्ड, मगरमच्छ हत्याकांड जैसे कई आरोप लगाती रही है।पूर्व में इन बागियों पर आरोप लगा कर भाजपा ने विधानसभा के कई सत्र नहीं चलने दिये। इनको गले लगा कर भाजपा ने उनके सारे पाप अपने सिर ले लिये। भाजपा की लीडरशिप अगर राजभवन के लिए फैसले को मान लेती और एक बिगड़ैल बच्चे की तरह अपनी जिद पर नहीं अड़ी रहती तो दो माह तक प्रदेश में सियासी उठापटक के साथ अपनी सियासी फजीहत से भी बच जाती। दो माह की खींचतान के बाद भाजपा को मिली सियासी हार से कांग्रेस को फ्लोर ही नहीं, बल्कि अगले चुनावी रण में भी लाभ मिलने की संभावना रहेगी।
इस 54 दिनों के नाटक में मुख्यमंत्री हरीश रावत के पैरों में सीबीआई जांच की जंजीर पड़ गई। यह जांच आने वाले दिनों में उन्हें दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। खासतौर पर केंद्र सरकार के खिलाफ मुखर होते ही यह जंजीर कभी भी खिंच सकती है। हरीश रावत ने इम्तिहान की एक मुश्किल घड़ी तो बहादुरी से पार कर ली मगर आगे का सफर भी उनके लिये आसान रहने वाला नहीं है। कुर्सी संभालने के बाद हरीश रावत के लिए सबसे कठिन काम मंत्रिमंडल का विस्तार करना है। मंत्रिमण्डल का विस्तार ’यह एक अनार सौ बीमारों’ को सन्तुष्ट करने वाली बात है। अभी जो लोग चट्टान की तरह उनके साथ थे उनमें से अधिकांश के हाथ निराशा ही लगेगी। कांग्रेस के सम्मुख इस जीत के बाद एक और जीत भी सामने खड़ी नजर आ रही है। अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो हरीश रावत पार्टी को राज्यसभा की एक और सीट दिलवा सकते हैं। आगामी 4 जुलाइ को राज्यसभा सदस्य तरुण विजय का कार्यकाल पूरा हो रहा है। अगर हरीश के साथ खड़े रहे सभी 33 विधायक एकजुट रहे तो भाजपा की यह सीट कांग्रेस को मिल सकती है। इससे राज्यसभा में कांग्रेस की शक्ति में और इजाफा होगा। उत्तराखंड में राज्यसभा की तीन सीटें हैं। मौजूदा समय में इन सीटों पर भाजपा के तरुण विजय के अलावा कांग्रेस के महेंद्र सिंह माहरा और राज बब्बर काबिज हैं। बागियों को छोड़ कर राज्यसभा सीट के लिए विधानसभा के 61 सदस्य वोटिंग करेंगे। अगर भीमलाल आर्य और रेखा आर्य की सदस्यता दलबदल के तहत जाती है तो फिर 57 सदस्य मतदान करेंगे। तब भाजपा के पास केवल 27 ही मत रहेंगे। हालांकि उस समय भी क्रास वोटिंग की काफी गुंजाइश रहेगी और हरीश रावत के राजनीतिक कौशल को एक और अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा।

-जयसिंह रावत
पत्रकार
ई-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
09412324999

Monday, May 9, 2016


वन्यजीव संसार पर महाआपदा
-जयसिंह रावत
जैव विविधता की दृष्टि से विश्व के सम्पन्न क्षेत्रों में गिने जाने वाले उत्तराखण्ड में अगर जंगलों की आग पर काबू नहीं पाया गया तो अपने भरे पूरे वन्यजीव संसार के लिये विख्यात ये जंगल जल्दी ही जीवन विहीन हो जायेंगे। अब तक प्रदेश के जंगलों में लगी आग से कई लोग जिन्दा जल चुके हैं तथा कई अस्पतालों में तड़प रहे हैं। जबकि हजारों जीव और पादप प्रजातियों के करोड़ों छोटे बड़े जीवों को दावानल लील चुकी है। हैरानी का विषय तो यह है कि बात-बात पर विरोध का झण्डा उठाने वाले तथाकथित पर्यावरणवादियों की ओर से कहीं भी किसी कोने से चिन्ता का स्वर नहीं उठ रहा है।
जंगलों में भड़की आग से उत्पन्न बेकाबू हालात पर काबू पाने के लिये पहली बार केन्द्र और राज्य सरकार के आपदा प्रबंधन बलों के साथ ही सेना को भी दावानल का मुकाबला करने के लिये मोर्चे पर झौंक दिया गया है। लेकिन हैरानी का विषय यह है कि इंसानों और पेड़ों को बचाने के लिये तो हायतौबा हो रही है मगर कीट-पतंगों से लेकर स्तनपायी जीवों तक की हजारों प्रजातियों के करोड़ों जीवों के जलभुन जाने के महासंकट के बारे में किसी भी कोने से चिन्ता का स्वर नहीं सुनाई दे रहा है। खास कर पर्यावरण के वे ठकेदार कहीं नजर नहीं रहे हैं, जो कि बिजली प्रोजेक्ट जैसी परियोजना शुरू होने की भनक लगते ही विरोध का झण्डा लेकर मैदान में उतर आते हैं।
अभी उत्तराखण्ड में आसमान से आग बरसनी भी शुरू नहीं हुयी कि तराई से लेकर तिब्बत सीमा से लगे नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व तक और काली तथा टोंस नदियों के बीच स्थित अस्कोट से लेकर आरोकोट तक के उत्तराखण्ड के जंगल धधकने लगे हैं। राज्य के शासन तंत्र की तन्द्रा तब टूटी जब कि राष्ट्रीय राजमार्गों पर चल रहे लोग भी जब जंगल की आग की चपेट में आने लगे। इस बनाग्नि पर काबू नहीं पाया गया तो इस साल की चारधाम यात्रा भी प्रभावित हो सकती है। इस भीषण आग का सामना करने के लिये सेना और पुलिस फोर्स तो भेजी गयी मगर उनको आग बुझाने के उपकरण नहीं दिये। इस मोर्चे पर सेना को तोप या बन्दूक नहीं बल्कि अग्नि शमन यत्रों की जरूरत होती है, जो कि उसे नहीं दिये गये हैं। अमेरिका जैसे देशों में हेलाकाप्टरों से भी जंगल की आग बुझाई जाती है लेकिन उत्तराखण्ड में नेताओं और अफसरों के सैरसपाटे से ही हैलीकाप्टरों को फुर्सत नहीं मिलती।
बनाग्नि की लम्बी अग्नि रेखा सब कुछ भस्म कर आगे बढ़ती है तो अपने पीछे केवल राख छोड़ती चली जाती है। वनाग्नि बड़े वृक्षों को छोड़ कर उसके आगे आने वाली हर वनस्पति और हर एक जीव का अस्तित्व राख में बदल कर चलती जाती है। इस आग की चपेट में अब तक हजारों हेक्टेअर वनक्षेत्र चुका , जिसमें वन्य जीवों के लिये संरक्षित राष्ट्रीय पार्क, वन्यजीव विहार और कर्न्वेशन रिजर्व भी शामिल है। बाघ और हिरन जैसे स्तनधारी वन्यजीव तो जान बचा कर सुरक्षित क्षेत्र की ओर भाग सकते हैं, मगर उन निरीह सरीसृपों और कीट-पतंगों का क्या हाल हुआ होगा जो कि दावानल की गति से भाग ही नहीं सकते। जीवों के पास तो भागने का विकल्प है मगर उन नाजुक वनस्पतियों के महाविनाश की कल्पना की जा सकती है जो कि अपने स्थान पर हिल तो सकती हैं मगर भाग नहीं सकती! तमाम वनस्पतियां और वन्यजीव एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। कुछ पादप या जीव भी नष्ट हो जायं तो एक दूसरे पर पराश्रय की वह श्रृंखला ही टूट जाती है। यहां तो सवाल एक दो जीवों या पदपों के लुप्त होने का नहीं बल्कि जंगलों के जीवन विहीन होने का है।
भारत दुनिया के 17 मेगाबायोडाइवर्सिटी (वृहद जैव विविधता) वाले राष्ट्रों में से एक गिना गया है। भारत में भी जैव विधिता के 4 हॉटस्पॉट में से एक हिमालय है और उत्तराखण्ड उसी हिमालय की गोद में स्थित है। उत्तराखण्ड का दो तिहाई भूभाग वनक्षेत्र है। इसकी 70 प्रतिशत आबादी वनों के अन्दर या वनों के नजदीक चारों ओर बसी हुयी है। इसलिये उत्तराखण्ड में जंगल और जीवन को अलग-अलग नजरिये से नहीं देखा जा सकता। अगर जंगल कष्ट में है तो समझिये कि उत्तराखण्ड का जनजीवन भी कष्ट में ही होगा। हर साल वनाग्नि तथा वन्यजीवों द्वारा भारी संख्या में लोगों का मारा जाना उत्तराखण्ड के लोगों का वनों से अटूट रिश्ते का खुलासा करता है। लोगों की रक्षा के लिये सरकार कभी-कभार सामने भी जाती है। लेकिन इस वन प्रदेश के भरपूर वन्यजीव संसार की सुरक्षा तो केवल कानून के तालों और डण्डों के सहारे चल रही है। वनों के असली रखवाले वे वनवासी गैर हो गये हैं जिनका जीवन सदियों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वनों पर निर्भर रहा है।
अस्कोट कस्तूरा अभयारण्य से लेकर गोविंद राष्ट्रीय पार्क तक का यह क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से बहुत सम्पन्न माना जाता है। यहां मृदा, ढाल, जलवायु, शैल संरचना एवं उपयुक्तता के अनुरुप विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती है। कार्बेट टाइगर रिजर्व बाघों के घनत्व की दृष्टि से भारत में सबसे समृद्ध माना जाता है। बाघों का सर्वाधिक घनत्व वहीं हो सकता है, जहां उनके लिये जीव-जन्तुओं का पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो। इसलिये बाघों की आबादी का घनत्व वन्यजीवों की बहुतायत का प्रतीक माना जाता है। वन्यजीवों की विविधता और बहुलता पादपों की विधिता और बहुलता पर ही निर्भर करती है। जन्तु विज्ञानियों का मानना है कि देशभर में मिलने वाली पक्षियों की 1200 में से 687 प्रजातियां यहां मिलती हैं।
राज्य में लगभग 15 प्रतिशत भूभाग वन्यजीवों के लिये संरक्षित है। अकेले वन विभाग के अधीन 24273.53 वर्ग किमी आरक्षित वन क्षेत्र के सापेक्ष 30 प्रतिशत से अधिक संरक्षित क्षेत्र के रूप में है। इनके अलावा कुछ वन राजस्व विभाग और वन पंचायतों के प्रबंन्धन में भी हैं। यही नहीं, 1245.94 वर्ग किमी बफर जोन का प्रबंधन वन्यजीव परिरक्षण के जिम्मे है। राज्य में छह राष्ट्रीय उद्यान, सात अभयारण्य और तीन कंजर्वेशन रिजर्व हैं। नवीनतम् सर्वेक्षणों के अनुसार राज्य में स्तनपायियों 102, पक्षियों की 687, उभयचरों की 19, सरीसृपों की 70, मछलियों की 124 प्रजातियां हैं। दुर्लभ श्रेणी में बाघ, एशियाई हाथी, कस्तूरा मृग, हिम तेंदुआ, मोनाल समेत अन्य वन्यजीव हैं। उभयचर वर्ग (एंफ़िबिया) पृष्ठवंशीय प्राणियों का एक बहुत महत्वपूर्ण वर्ग है जो जीववैज्ञानिक वर्गीकरण के अनुसार मत्स्य और सरीसृप वर्गों के बीच की श्रेणी में आता है। इस वर्ग में लगभग 3000 प्रजातियां पाई जाती हैं। मेंढक इस वर्ग का एक प्रमुख प्राणी है। सरीसृप वर्ग के सदस्यों में साँप, छिपकली, घड़ियाल, मगरमच्छ, कछुआ आदि हैं। पतंगा या परवाना, तितली जैसा एक कीट होता है। जीवविज्ञान के हिसाब से तितलियाँ और पतंगों की 1.6 लाख से ज्यादा प्रजातियां ज्ञात हैं। दुनिया में कीट अर्थाेपोडा वर्ग की 10 लाख से अधिक जातियों का नामकरण हो चुका है। आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कीट में मधुमक्खी रेशम कीट, और रोग वाहक कीटों में, एनाफ्लीज, क्यूलेक्स तथा मच्छर, टिड्डी तथा किंग क्रेब आदि गिने जाते हैं। इनके अलावा बिच्छू की कई प्रजातियां भी उत्तराखण्ड में उपलब्ध हैं जो कि बड़ी संख्या में जलमर रहे हैं।
दिल्ली से लगभग 300 कि.मी. दूर  और 520 वर्ग .मी. में फैले कार्बेट नेशनल पार्क में 110 प्रजातियां वृक्षों की, 51 झाड़ियों की, और 33 प्रजातियां बांस की पाई जाती हैं।  समुद्रतल से 400 मीटर से लेकर 1210 मीटर की उंचाई तक फैले इस पार्क में स्तनपाइयों की 50 प्रजातियां,पक्षियों की 580 तथा सरीसृप की 25 प्रजातियां पाई जाती हैं। यह देश का पहला टाइगर रिजर्व भी है जिसकी स्थापना 1973 में की गयी। यहां बाघों की सर्वाधिक घनी आबादी  पाई गयी  है। राजाजी पार्क में सन् 2005 की गणना में 24 बाघ, 214 गुलदार, 416 हाथी, 3257 सांभर, 13372 चीतल, 952 काकड़, 527 घुरल, 1958 नीलगाय,10 स्लोथ बियर और 2032 जंगली सुअर पाये गये थे। इस पार्क में पक्षियों की 315 प्रजातियां हैं। यहां भी सरीसृप और उभयचर सर्वाधिक खतरे में हैं। वन विभाग द्वारा 28 अप्रैल को जारी किये गये वनाग्नि के आकड़ों के अनुसार उस तिथि तक कार्बेट टागर रिजर्व में 27, राजाजी नेशनल पार्क में 83, बिन्सर में 2 और केदारनाथ वन्यजीव विहार में 4 बड़े अग्निकांड हो चुकेे थे। वनों की यह विनाशकारी आग ऊंचाई वाले स्थानों तक पहुंच गयी है। लेकिन पर्यावरण के स्वयंभू पहरेदार कहीं चूं तक नहीं कर रहे हैं। क्योंकि भाड़ में जाने वाले ये जीव उन्हें तो पद्म पुरस्कार और ना ही डॉलर दिला सकते हैं।
-जयसिंह रावत
पत्रकार
-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
09412324999,