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Thursday, May 12, 2016

ARSON BY BJP IN CONGRESS HOUSE

 उत्तराखण्ड:
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सत्ता की भूख और अवसरवाद का नंगा नाच
कांग्रेस में आगजनी कर अपने हाथ जलाये भाजपा ने
बागी न घर के रहे न घाट के
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में पूरे 54 दिनों तक चला राजनीति का भद्दा खेल जहां से शुरू हुआ था वहीं पर खत्म भी हो गया। कुर्सी का यह खेल 18 मार्च को जब शुरू हुआ था उस समय भी हरीश रावत मुख्यमंत्री थे और जब किसी के लिये सुखान्त और किसी के लिये इस भद्दे नाटक का पटाक्षेप हुआ तो भी हरीश रावत ही मुख्यमंत्री थे। यह राजनीतिक चक्र जहां से शुरू हुआ उसे अगर वहीं पर आकर अटकना था तो फिर इसे शुरू ही क्यों किया गया और इसमें इतनी ऊर्जा, समय और धन का अपव्यय क्यों किया गया? 54 दिनों के इस सियासी संकट के नाटक का हासिल कुछ भी नहीं हुआ। नाटक का हर किरदार घाटे में रहा। साथ ही उत्तराखंड को भी इसका भारी नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन हर तरफ राजनीतिक तबाही के बावजूद यह नाटक भविष्य के लिये नजीर अवश्य बन गया।
कुल 54 दिन तक चले इस राजनीतिक बबंडर के दौरान उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि सारे देश को कई विचित्र अनुभवों से गुजरना पड़ा। देश में पहली बार किसी अदालत ने राष्ट्रपति शासन को खारिज कर निर्वाचित सरकार को बहाल कर दिया। देश में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में किसी सरकार का ’फ्लोर टेस्ट’ हुआ।पहली बार अदालत ने किसी राज्य में दो घंटे के लिये राष्ट्रपति शासन हटवाया। देश में पहली बार एक नेता को दो साल के अन्तराल में चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्भालनी पड़ी। 1 फरबरी 2014 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकी उत्तराखण्ड की कमान संभालने वाले हरीश रावत को जब 18 मार्च 2016 को राष्ट्रपति शासन के तहत बर्खास्त किया गया तो वह हाइकोर्ट की दखल के बाद 21 अप्रैल को एक दिन के लिये मुख्यमंत्री बन गये। सुप्रीमकोर्ट ने जब 10 मई को फ्लोर टेस्ट कराने के लिये दो घंटे के लिये राष्ट्रपति शासन हटवाया तो रावत भी दो घंटे के मुख्यमंत्री बन गये। उसके बाद बहुमत सिद्ध करने पर वह 12 मई को पुनः मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गये।
18 मार्च 2016 की सायं बागी नेता हरक सिंह रावत के विभागों समेत सभी विभागों के बजटों के ध्वनिमत से पारित होने के बाद अन्ततः विनियोग विधेयक को लेकर शुरू हुआ यह सत्ता संघर्ष राजभवन से होता हुआ वाया हाइकोर्ट सीधे सुप्रीम कार्ट तक पहुंचा और देशभर में सुर्खियां बटोरने के बाद आखिरकार 10 मई को फिर विधानसभा के पटल पर ही आकर ठहर गया। जिसका ऐतिहासिक फैसला 11 मई को आ गया। राजनीति के इस युद्धविराम के समय 18 मार्च की जैसी यथास्थिति तो लौटी मगर वे 9 बागी नहीं लौटे जिन्होंने अपनी पदलोलुपता और अवसरवादिता के लिये राज्य की राजनीति में यह आग लगायी थी। उनके लिये ’न खुदा ही मिला न बिसाले सनम’। वे न इधर के रहे और न उधर के। उनकी सदस्यता भी गयी और मकसद भी बुरी तरह फ्लाप हो गया। उन्हें केवल “संविधान के पापी” और दलबदलू की डिग्री ही मिली। उनको यह ’टाइटिल’ किसी और ने नहीं बल्कि नैनीताल हाइकोर्ट की डबल बेंच ने दिया।
प्रदेश के इस हाइ बोल्टेज नाटक के घटनाक्रम पर अगर नजर दोड़ाई जाय तो खुद ही पता चल जाता है कि इसके कुल तीन किरदारों की भूमिका कहां क्या रही! इसमें पहला किरदार 9 बागी कांग्रेसियों का था जिनको भाजपा ने उकसा कर हरीश रावत के खिलाफ हथियार बनाने का प्रयास किया। दूसरा किरदार भाजपा का था जो हारी हुयी लड़ाई को निरन्तर लड़े जा रही थी और दूसरे के घर की आग से अपना हाथ झुलसाये जा रही थी। तीसरा किरदार स्वयं मुख्यमंत्री हरीश रावत ने निभाया जिनके साथ न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि निर्दलीय, बसपा और यूकेडी सदस्यों का पीडीएफ खड़ा रहा। इस दौरान अपनी सरकार बचाने के लिये रावत को वह सब करना पड़ा जो कि अब तक खुफिया कैमरों में कैद नहीं हुआ करता था। एक तरह से संविधान के इन कुंठित 9 पापियों ने सत्ता के इस खेल को ’महाभारत’ में बदल डाला। इसके परिणाम पर सारे देश की नजर टिकी रही और शिव सेना से लेकर कम्युनिस्टों तक ने इसमें अपनी भावनाऐं जरूर झौंकी। हैरानी का विषय यह रहा कि जिस भाजपा ने इस महाभारत का शंख फूंका था वह राजनीति के इस कुरुक्षेत्र में तन्हा नजर आयी। उसे हर मोर्चे पर मुंह की खानी पड़ी। यहां तक कि उसकी स्वाभाविक सहयोगी शिवसेना ने तक उसे धिक्कारने में देरी नहीं की।
गत 18 मार्च से लेकर 11 मई 2016 तक चले देश की भावी राजनीति को नसीहत देने वाले इस राजनीतिक घटनाक्रम पर सिलसिलेवार गौर करना जरूरी है। जब 18 मार्च को पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कांग्रेस के 8 विधायकों ने भाजपा से सांठगांठ कर अपनी ही सरकार का विनियोग विधेयक गिराने का प्रयास किया तो वहीं से एक राजनीतिक बबंडर शुरू हुआ। हरीश रावत बनाम भाजपा-बागी के बीच यह ऐसी रार थी जिससे नुकसान तो बहुत कुछ हुआ लेकिन इस नुकसान की कीमत पर संविधान के अन्दर निहित लोकतंत्र की भावना पर लगा धुंधलका अवश्य ही साफ हो गया। स्पीकर ने कहा विधेयक ध्वनिमत से पास हो गया जबकि बहुगुणा समेत 9 बागियों और भाजपा सदस्यों ने मत विभाजन की मांग उठा कर विधेयक के गिर जाने का शोर मचाना शुरू कर दिया। इस शोर शराबे के कुछ ही समय पहले स्वयं बागी नेता हरक सिंह रावत ने कृषि, चिकित्सा शिक्षा और सैनिक कल्याण विभाग के मंत्री के रूप अपने विभागों के तीन बजट ध्वनिमत से पास कराये थे। अपने बजट रखते हुये हरक सिंह ने अपनी सरकार की उपलब्धियां भी गिनायीं थी। देश की जनता ने पहली बार विधानसभा के पटल पर एक मंत्री को इस तरह गिरगिट जैसा रंग बदलते देखा। अपने बजट पास कराने के बाद मनी बिल के पेश होते ही उनके सिर पर जैसे भूत सवार हो गया। वह सदन के वेल में कूद पड़े और चिल्लाने लगे कि बिल गिर गया............बिल गिर गया .........और सरकार भी गिर गयी.....। उनके साथ ही उनके बागी सहयोगी भी वेल में आ गये और पूर्व नियोजित रणनीति के अनुसार भाजपाई सदस्य भी मैदान में कूद गये। तब तक स्पीकर के साथ ही सरकारी पक्ष भी सदन छोड़ चुका था। पूर्व नियोजित रणनीति के तहत इस नोटंकी के बाद विधानसभा के बाहर चार्टर बसंे खड़ी थीं और भाजपा के नेता इन 9 बागियों सहित कुल 35 विधायकों को लेकर राजभवन पहुंच गये। जहां विनियोग विधेयक के गिरने के साथ ही सरकार के गिरने का दावा उन्होंने कर डाला। राज्यपाल को भाजपा और बागी विधायकों का साझा ज्ञापन भी सौंपा गया और आखिरकार यह उतावलापन भाजपा और बागियों की हार का कारण बना। उसी रात भाजपा के रणनीतिकार (फ्लाप) अपने और बागी विधायकों को चार्टर प्लेन से दिल्ली ले गये जहां उन्हें आलीशान होटलों में ठहरा कर उनकी मिजाजपुर्सी की गयी। दूसरे दिन 19 मार्च को सुबह मुख्यमंत्री हरीश रावत अपनी सहयोगी और संसदीय कार्यमंत्री इंदिरा हृदयेश को लेकर राज्यपाल से मिले और उन्होंने भी वहां अपना पक्ष रखा। उसी दिन विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने भी राज्यपाल को विधानसभा में हुयी कार्यवाही की ब्रीफिंग कर दी। चूंकि बीच में होली की छुट्टियां थीं इसलिये राज्यपाल ने मुख्यमंत्री हरीश रावत को छुट्टियों के बाद 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने के आदेश जारी कर दिये। राज्यपाल के इस फैसले को लेकर भाजपा में जलजला पैदा हो गया और फिर स्टिंग के बाद राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। इसके बाद भाजपा और बागी दल के विधायक कहां-कहां आलीशान होटलों और सैरगाहों में पर्यटन का आनन्द लेते रहे, वह सारे देश ने देखा। बहती गंगा में कांग्रेसियों और पीडीएफ विधायकों ने भी खूब हाथ धोये। इस दौरान जो स्टिंग आये उनमें भी विधायकों की मण्डी के अश्लील दृष्य भी सारी दुनियां ने देखे। यही नहीं एक नयी पत्रकारिता का एक भद्दा चेहरा भी स्टिंग के लवादे में सभी ने देखा। बहरहाल हरीश रावत के फ्लोर टेस्ट’ की घड़ी 28 मार्च आने से एक दिन पहले ही केन्द्र सरकार ने हरीश सरकार को बर्खास्त कर धारा 356(1) के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। उसी दौरान विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने भी अपनी असीमित शक्तियों का प्रयोग करते हुये 9 बागियों की सदस्यता समाप्त कर दी। केन्द्र सरकार जानती थी कि स्पीकर कुंजवाल ऐन मौके पर 9 बागियों की सदस्यता समाप्त कर देंगे और हरीश रावत आसानी से विश्वासमत हासिल कर लेंगे। हालांकि स्पीकर को राजनीति से ऊपर उठ कर पंच परमेश्वर की भूमिका अदा करनी चाहिये। मगर व्यवहार में होता ठीक इसके विपरीत है। हर जगह स्पीकर सत्ताधारी दल का होता है और उसके मन में सदैव ही अपने दल की सरकार की दीर्घायु की कामना होती है। लेकिन उत्तराखण्ड के स्पीकर कुंजवाल अपने आचरण से इससे भी काफी आगे निकलते रहे हैं। इसलिये उनके हर कदम की निष्पक्षता पर संदेह और सवाल उठने लाजिमी ही थे। इसीलिये हरीश रावत सरकार को सत्ताच्युत कर अपनी भगोया सरकार स्थापित करने की ठान चुकी केन्द्र सरकार ने कुंजवाल और कांग्रेस की मंशा पर पानी फेरने के लिये ’’फ्लोर टेस्ट” की नौबत आने ही नहीं दी और ठीक एक दिन पहले 27 मार्च को ही विधानसभा को निलंबित कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया।
राष्ट्रपति शासन लगने के तत्काल बाद राज्य में कानूनी युद्ध छिड़ गया। हरीश रावत भी 28 मार्च को नैनीताल हाइकोर्ट की सिंगल बेंच में न्याय के लिये चले गये।  उसके अगले दिन 29 मार्च को बागी विधायक भी हाइकोर्ट पहुंच गये। अगले दिन 30 मार्च को जस्टिस उमेश चन्द्र ध्यानी की बेंच ने 18 मार्च की स्थिति को बहाल करने के साथ ही हरीश रावत को ’फ्लोर टेस्ट’ में बहुमत साबित करने का आदेश दे दिया। इसमें बागियों समेत सभी 71 विधायकों को भाग लेना था। लेकिन शर्त यह थी कि बागी अपना वोट जरूर डालेंगे मगर उनके वोट अलग से गिने जायेंगे और बाद में न्याय तथा संविधान की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही उनके वोटों का आंकलन किया जायेगा। यह एक अनोखा फैसला था। परोक्ष रूप से इसका मतलब सीधे-सीधे राष्ट्रपति शासन को खारिज करना ही था। दरअसल यह 1994 के एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन आफ इंण्डिया के ऐतिहासिक फैसले के आलोक में फ्लोर टेस्ट ही सरकार का बहुमत साबित करने के लिये अंतिम उपाय होने की पुष्टि करने के साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा लगाये गये राष्ट्रपति शासन को नकारने वाला था। इससे पहले किसी अदालत ने राष्ट्रपति शासन को नकार कर सदन में बहुमत साबित करने का फैसला नहीं दिया था। इस फैसले से भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार के साथ ही 9 बागियों का भौंचक्का रह जाना तो स्वाभाविक ही था लेकिन कानूनी जगत भी इसे अप्रत्याशित मान रहा था। नतीजतन केन्द्र सरकार उसी हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोजेफ और जस्टिस बे.के.बिष्ट की डबल बेंच में सिंगल बेंच के फॅैसले के खिलाफ चली गयी। डबल बेंच ने 7 अप्रैल को सिंगल बेंच के ’फ्लोर टेस्ट’ के फैसले को 18 अप्रैल तक स्थगित कर दिया। डबल बेंच में न केवल केन्द्र सरकार और बागियों की फजीहत हो गयी बल्कि बेंच ने राष्ट्रपति के निर्णय पर ही सवाल उठाते हुये साफ कह दिया कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति कोई राजा नहीं होता। इसका मतलब साफ था कि राष्ट्रपति भी संविधान से ऊपर नहीं है और अगर राष्ट्रपति भवन से गलत आदेश आता है तो उसकी न्यायिक समीक्षा अवश्य हो सकती है। हाइकोर्ट की इस बेंच ने 21 अप्रैल को एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि विधिक जगत में फिर खबली मच गयी। ( हालांकि इस ऐतिहासिक फैसले को सुनाने वाले मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जोजफ को तबादले के रूप में इसका उपहार दिया गया) उसने 21 अप्रैल के अपने फैसले में राष्ट्रपति शासन समाप्त कर 29 अप्रैल को ’फ्लोर टेस्ट’ का आदेश दे दिया। यही नहीं इस डबल बेंच ने कांग्रेस के 9 बागियों को “संविधान के पापी” तक कह डाला। इस बेंच ने भी सवाल उठाये कि अगर राज्यपाल ने बहुमत साबित करने का आदेश दे दिया था तो इस संवैधानिक प्रकृया में राष्ट्रपति शासन का रोड़ा क्यों अटकाया गया? खास बात यह रही कि डबल बेंच ने भी बागियों को सदन में बहुमत साबित करते समय मतदान का अधिकार नहीं दिया। नैनीताल उच्च न्यायालय के आदेश के बाद हरीश रावत 21 अप्रैल को कुछ घंटों के लिए मुख्यमंत्री बने तो केन्द्र सरकार हाइकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गयी। लेकिन उसी दिन केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गयी और इस सर्वोच्च अदालत ने हाइकोर्ट के फैसले पर 27 अप्रैल तक रोक लगा दी और उत्तराखण्ड में पुनः राष्ट्रपति शासन बहाल हो गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के ’फ्लोर टेस्ट’ के आदेश को स्टे करने के बजाय उसकी तिथि 29 अप्रैल कर दी। उस दिन तक भी कोई निष्कर्स न निकलने पर सर्वोच्च अदालत ने ’फ्लोर टेस्ट’ की तारीख 6 मई तक आगे खिसका दी और फिर 6 मई को सुप्रीम कोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला भी आ गया जो कि भविष्य के लिये धारा 356 का दुरुपयोग करने वालों के लिये नजीर बनेगा। सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने प्रमुख सचिव विधायी कार्य की देखरेख में 10 मई को ’फ्लोर टेस्ट’ का आदेश दे ही दिया जिससे बागियों को तमाम दलीलों के बावजूद दूर ही रखा गया। आखिर 10 मई को ’फ्लोर टेस्ट’ और 11 मई को सुप्रीम कोर्ट द्वारा इम्तिहान के नतीजे की घोषणा के साथ ही हरीश रावत की सरकार बहाल हो गयी। हरीश रावत के पक्ष में 33 और विपक्ष में केवल 28 मत पड़े थे। इनमें भाजपा के भीमलाल ने हरीश रावत को वोट दिया जबकि कांग्रेस की रेखा आर्य ने भाजपा के साथ रावत के खिलाफ मतदान किया।
इस पूरे नाटक के बाद बागी कांग्रेसी विधायक सबसे अधिक नुकसान में रहे। उनको ’न खुदा ही मिला न बिसाले सनम’। वे न घर के रहे और ना ही घाट के रह सके। उनकी इस हरकत के लिये अदालत ने उन्हें संविधान के पापी तक कह डाला। किसी भी अदालत ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया। अदालत के फ्लोर टेस्ट के फैसले से बागी विधायकों की सारी रणनीति पूरी तरह फ्लाप रही। उनका ख्याल था कि विरोध के स्वर बुलंद करते ही हाई कमान नेतृत्व बदलेगा या फिर भाजपा की मदद से वह सत्ता में आ जाएंगे। राजनीतिक पंण्डितों का कहना है कि इस खेल में भाजपा ने अपनी किरकिरी ही करवा डाली। आने वाले विधानसभा चुनाव के लिये भी भाजपा ने अपनी राह धुंधली कर ली। इसमें भाजपा के रणनीतिकार बुरी तरह फ्लाप रहे। लोग तो यहां तक कहते हैं कि इस मिशन को श्याम जाजू और विजयबर्गीय के बजाय रमेश पोखरियाल निशंक जैसे प्रदेश के नेताओं को सौंपा जाता तो ऐसी शर्मनाक स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। देखा जाय तो भाजपा ने दूसरे के घर आगजनी करने की कुचेष्टा में अपने ही हाथ बुरी तरह जला दिये। विजय बर्गीय और जाजू की रणनीति इस कदर विफल रही कि उन्होंने हरीश रावत पर कालिख पोतने के बजाय भाजपा का चेहरा ही बिगाड़ दिया और हरीश रावत का कद और अधिक बढ़ा दिया।
इस घटनाक्रम पर भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री मोहनसिंह रावत गांववासी की प्रतिक्रिया भी काबिलेगौर है। उन्होंने क्षुब्ध हो कर यहां तक बयान दे दिया कि भाजपा के इन रणनीतिकारों को दंण्डित किया जाना चाहिये। अपने बयान में गांववासी ने कहा कि अपने चंद स्वार्थों की पूर्ति न होने पर धोखेबाज कांग्रेस बागियों को साथ लेकर गलबहियां करने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए। जो बागी अपने न हुए वे आपके क्या होंगे? उन्होंने दावा किया है कि कांग्रेस से बगावत कर भाजपा की गोद में बैठा एक भी बागी विश्वसनीय नहीं है। इससे पार्टी को नुक्सान हुआ है और आगे यह समीकरण मटियामेट कर देगा। उनके अनुसार “भाजपा को कांग्रेस की फ़ूट का दूर रहकर मज़ा लेना चाहिए था। जो लोग आज तक भाजपा और आरएसएस को कोसते रहे उनके साथ ये कैसी प्रेम की पेंगे बढ़ाई जा रही हैं? सत्ता की भूख इतनी प्यारी है क्या? भाजपा विचारधारा की पार्टी है न कि अवसरवादिता की पार्टी। कांग्रेस की बी टीम खड़ी नहीं होनी चाहिए।” दरअसल भाजपा उन्हीं बागी नेताओं के साथ खड़ी हुयी जिन पर वह अपदा राहत घोटाला, जमीन घोटाला, पटवारी घोटाला, पॉलीहाउस घोटाला, खनन घोटाला, मंत्री के आवास पर गोलीकाण्ड, मगरमच्छ हत्याकांड जैसे कई आरोप लगाती रही है।पूर्व में इन बागियों पर आरोप लगा कर भाजपा ने विधानसभा के कई सत्र नहीं चलने दिये। इनको गले लगा कर भाजपा ने उनके सारे पाप अपने सिर ले लिये। भाजपा की लीडरशिप अगर राजभवन के लिए फैसले को मान लेती और एक बिगड़ैल बच्चे की तरह अपनी जिद पर नहीं अड़ी रहती तो दो माह तक प्रदेश में सियासी उठापटक के साथ अपनी सियासी फजीहत से भी बच जाती। दो माह की खींचतान के बाद भाजपा को मिली सियासी हार से कांग्रेस को फ्लोर ही नहीं, बल्कि अगले चुनावी रण में भी लाभ मिलने की संभावना रहेगी।
इस 54 दिनों के नाटक में मुख्यमंत्री हरीश रावत के पैरों में सीबीआई जांच की जंजीर पड़ गई। यह जांच आने वाले दिनों में उन्हें दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। खासतौर पर केंद्र सरकार के खिलाफ मुखर होते ही यह जंजीर कभी भी खिंच सकती है। हरीश रावत ने इम्तिहान की एक मुश्किल घड़ी तो बहादुरी से पार कर ली मगर आगे का सफर भी उनके लिये आसान रहने वाला नहीं है। कुर्सी संभालने के बाद हरीश रावत के लिए सबसे कठिन काम मंत्रिमंडल का विस्तार करना है। मंत्रिमण्डल का विस्तार ’यह एक अनार सौ बीमारों’ को सन्तुष्ट करने वाली बात है। अभी जो लोग चट्टान की तरह उनके साथ थे उनमें से अधिकांश के हाथ निराशा ही लगेगी। कांग्रेस के सम्मुख इस जीत के बाद एक और जीत भी सामने खड़ी नजर आ रही है। अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो हरीश रावत पार्टी को राज्यसभा की एक और सीट दिलवा सकते हैं। आगामी 4 जुलाइ को राज्यसभा सदस्य तरुण विजय का कार्यकाल पूरा हो रहा है। अगर हरीश के साथ खड़े रहे सभी 33 विधायक एकजुट रहे तो भाजपा की यह सीट कांग्रेस को मिल सकती है। इससे राज्यसभा में कांग्रेस की शक्ति में और इजाफा होगा। उत्तराखंड में राज्यसभा की तीन सीटें हैं। मौजूदा समय में इन सीटों पर भाजपा के तरुण विजय के अलावा कांग्रेस के महेंद्र सिंह माहरा और राज बब्बर काबिज हैं। बागियों को छोड़ कर राज्यसभा सीट के लिए विधानसभा के 61 सदस्य वोटिंग करेंगे। अगर भीमलाल आर्य और रेखा आर्य की सदस्यता दलबदल के तहत जाती है तो फिर 57 सदस्य मतदान करेंगे। तब भाजपा के पास केवल 27 ही मत रहेंगे। हालांकि उस समय भी क्रास वोटिंग की काफी गुंजाइश रहेगी और हरीश रावत के राजनीतिक कौशल को एक और अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा।

-जयसिंह रावत
पत्रकार
ई-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
09412324999

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