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Monday, August 31, 2015

Himalayan States a Reference Book

HIMALAYI RAJYA SANDARVA KOSH”

  ( Himalayan States a Reference Book).

I am pleased to introduce 2nd edition of my book  titled “HIMALAYI RAJYA SANDARVA KOSH”( Himalayan States a Reference Book). The book is redesigned and revamped to meet the requirements of candidates appearing in competitive examinations conducted by several State public Service Commissions and other agencies for the recruitments of different posts. I may, with full confidence assert that readers will find this book reliable and authentic reference to  wide ranging topics about all Himalayan states. The book also aims to apprise the people residing in other parts of country about Himalayas and its people.
 
Informations  in the book have been gathered with special efforts extracting the vital inputs of Directorates of economics and statistics of all Himalayan states, Census Report 2011, web portals of various state governments, various publications of  state Government departments, books on history and culture and  various publication of Union Government etc. I am thankful to the Uttarakhand’s Directorate of Economic and Statistics that extended all possible assistance in the collection of data. All the material collected from different sources was carefully researched to prepare effective and trustworthy study material.

 The book has tried to provide maximum of information in best of concise manner.  Gathering information linked to entire Himalayan region was not an easy task and the region stretches from Jammu and Kashmir to seven sisters states in North East encompassing states of Himachal Pradesh, Uttarakhand, Arunachal Pradesh, Manipur, Mizoram, Meghalaya, Sikkim, Tripura and Assam and also including Darjeeling region of West Bengal. This will not be an exaggeration if we call this reference book as “Briefest Encyclopedia of Himalayan states. 

This is my fourth book in sequence and is second edition of my third book on Himalayan states. The first edition that was released by Uttarakhand Chief Minister Mr. Harish Rawat in Dehradun and Manipur Chief Minister Mr.Okram Ibobi Singh, who released it in Imphal in 2014. This is not only a book work but a real outcome of my experience of four decades as a journalist in different capacities.
Thanks and Regards

Jay Singh Rawat
E-11, Friends Enclave, Shahnagar,
Defence Colony Road,
Dehradun, UTTARAKHAND
09412324999
0135-2665384



Sunday, August 30, 2015

हिमालयी राज्य संदर्भ कोश"  का दूसरा संस्करण
महोदय,
पत्रकारिता और उत्तराखंड की जनजातियों के बाद मेरी पुस्तकहिमालयी राज्य संदर्भ कोश  का दूसरा संस्करण हमारी युवा पीढ़ी और सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है। इस पुस्तक में खास कर संघ लोक सेवा आयोग सहित विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आयोगों तथा अन्य संस्थानों की प्रतियोगी परीक्षाओं  को ध्यान में रखते हुये परीक्षाथियों के लिये कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक जानकारियां उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है। ये जानकारियों जनगणना रिपोर्ट 2011, विभिन्न राज्यों के अर्थ एवं सांख्यकी  निदेशालयों के प्रकाशनों तथा वेब पोर्टलोंहिमालयी राज्यों के वेब पोर्टलों, इतिहास की पुस्तकों, भारत सरकार के प्रकाशनों, कुछ उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों के इधर-उधर छपे अंशों आदि से जुटाई हैं और ऐसे ही दूसरे श्रोतों से उनकी पुष्टि की गयी   है। इस कार्य में उत्तराखण्ड के अर्थ एवं संख्या निदेशालय का विशेष सहयोग  मिला है। पुस्तक के इस संस्करण का लेआउट बदलने के साथ ही इसे और अधिक पाठकोपयोगी तथा परीक्षोपयोगी बनाने के उद्देश्य से इसमें नये अध्याय जोड़ने के साथ ही सभी हिमालयी राज्यों के बारे में काफी अतिरिक्त जानकारियां समाहित की गई हैं।
प्रथम संस्करण का विमोचन उत्तरखंड के मुख्यमंत्री माननीय हरीश रावत जी ने देहरादून में तथा मणिपुर के मुख्यमंत्री माननीय ओकराम इबोबी सिंह जी ने इम्फाल में  2014 में  किया था। मेरी अगली पुस्तक  “राष्ट्रीय आन्दोलन में उत्तराखंड की पत्रकारिता का योगदान” नाम की पुस्तक का लोकार्पण शीघ्र ही अपेक्षित है।   वह भी युवा पीढ़ी के लिए समर्पित है।  
हालांकि हिमालय से अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, तिब्बत जुड़े हुए हैं, लेकिन यहां केवल भारतीय हिमालय का उल्लेख हो रहा है। सच्चाई यह है कि पूरे हिमालय और उसके निवासियों का सम्पूर्ण संदर्भ कोश तैयार करना किसी एक व्यक्ति के बूते की बात नहीं है। इसलिये मैंने केवल भारतीय हिमालय की गोद में बसे राज्यों में से जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के अलावा असम के हिमालयी क्षेत्र कार्बी एन्लौंग और दिमा हसाओ तथा पश्चिम बंगाल के हिमालयी जिले दार्जिंलिंग के बारे में जानकारियां जुटा कर पाठकों के लिये परोसी हैं। मेरा प्रयास है कि इस पुस्तक के माध्यम से हिमालयी क्षेत्र के युवा पूरे क्षेत्र के बारे में अधिक से अधिक जानकारियां हासिल कर अपना उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित कर सकंे। मेरा यह भी प्रयास है कि इस पुस्तक के माध्यम से देश के अन्य हिस्सों के लोग भी हिमालय और हिमालयी राज्यों तथा यहां के लोगों के बारे में अधिक से अधिक वाकिफ हो सकें।
विदित ही है कि नगाधिराज हिमालय आकार में जितना विराट है, अपनी विशेषताओं के कारण उतना ही अद्भुत भी है। कल्पना कीजिये अगर हिमालय होता तो दुनिया और खासकर एशिया का राजनीतिक भूगोल क्या होता? एषिया का ऋतुचक्र क्या होता? किस तरह की जनसांख्यकी होती और किस तरह के शासनतंत्रों में बंधे कितने देश होते? विश्वविजय के जुनून में दुनिया के आक्रान्ता भारत को किस कदर रौंदते? गंगा होती, सिन्धु होती और ना ही ब्रह्मपुत्र जैसी महानदियां होतीं। अगर ये नदियां ही होती तो गंगा-जमुनी महान संस्कृतियां कहां से पैदा होती? फिर तो संसार की महानतम् संस्कृतियों में से एक सिन्धु घाटी की सभ्यता भी होती। उस हाल में गंगा-यमुना के मैदान का क्या हाल होता? दरअसल हिमालय हमारे भारत का भाल ही नहीं, अपितु हमारी ढाल भी है और यह केवल एशिया के मौसम का नियंत्रक है, बल्कि एक जल स्तम्भ भी है। यह रत्नों की खान भी है तो गंगा के मैदान की आर्थिकी को जीवन देने वाली उपजाऊ मिट्टी का श्रोत भी है। सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र या कराकोरम से लेकर अरुणाचल की पटकाइ पहाड़ियों तक की लगभग 2400 किúमीú लम्बी यह पर्वतमाला विलक्षण विविधताओं से भरपूर है। इस उच्च भूभाग में जितनी भौगोलिक विविधताएं हैं, उतनी ही जैविक और सांस्कृतिक विविधताएं भी हैं। देखा जाए तो यही वास्तविक भारत भाग्य विधाता है। हिमालयी राज्यों में सैकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी उपजातियां मौजूद हैं और इनमें से सभी का अपना अलग-अलग जीने का तरीका है। संविधान में इनके हितों, रिवाजों और पहचान को संरक्षण की गारण्टी दी गयी है।
पुस्तक के प्रकाशक श्री कीर्ति नवानी, “विन्सर पब्लिशिंग कंपनीके.सी सेंटर, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून हैं। उनका फोन नंबर-- 07055585559 है।

-जयसिंह रावत
mobile number-09412324999

Sunday, August 23, 2015


हिमालय की खोपड़ी पर कदमताल
- जयसिंह रावत-
जब दुनियां की सबसे ऊंची चोटी ऐरेस्ट पर जबरदस्त ट्रैफिक जाम की स्थिति गयी हो और ऐवरेस्ट तथा फूलों की घाटी जैसे अति संवेदनशल क्षेत्रों में हजारों टन कूड़ा कचरा जमा हो रहा तो हिमालय और उसके आवरण ग्लेशियरों की सेहत की स्वतः ही कल्पना की जा सकती है। अब तो कांवडिय़ों का रेला भी गंगाजल के लिये सीधे गोमुख पहुंच रहा है जबकि लाखों की संख्या में छोटे बड़े वाहन गंगोत्री और सतोपन्थ जैसे ग्लेशियरों के करीब पहुंच गये हैं। हिमालय के इस संकट को दरकिनार कर अगर अब भी हमारे पर्यावरणप्रेमी ग्लोबल वार्मिंग पर सारा दोष थोप रहे हैं तो फिर वे सच्चाई से मुंह मोड़ रहे हैं।
एसोसियेटेड प्रेस (22 मई 2012) की एक रिपोर्ट के अनुसार पहली बार सन् 1953 में एडमण्ड हिलेरी और तेन्जिंग नोर्गे के चरण समुद्रतल से लगभग 8,850 मीटर की ऊंची ऐवरेस्ट की चोटी पर पड़ने के बाद अब तक 3000 से अधिक पर्वतारोही एवरेट की खोपड़ी पर झण्डे गाढ़ चुके हैं। हजारों अन्य चोटी के करीब पहुंच कर वापस लौट चुके हैं।इनके अलावा ऐवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान 225 लोग अपनी जानें गंवा चुके हैं। रिपोर्ट कहती है कि 22 मई 2012 के आसपास 200 पर्वतारोही और उनके पोर्टर ऐवरेस्ट पर चढ़ाई की तैयारियां कर रहे थे जबकि 208 अन्य बेस कैम्प के निकट अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे। काठमाण्डू से हिन्दुस्तान टाइम्स के संवादददाता उत्पल पाराशर द्वाराट्रैफिक जाम इन ऐवरेस्टशाीषक से छपे समाचार से तो दुनियां की आंख खुल ही जानी चाहिये। उस स्टोरी में उत्पल ने लिखा था कि ऐवरेस्ट के रूट पर इतनी भीड़ हो चुकी है कि नेपाल सरकार को उसे नियंत्रित करना कठिन हो रहा है तथा इस जाम के कारण बड़ी संख्या में पर्वतारोहयों को अपनी बारी का लम्बे समय तक इन्तजार करना पड़ रहा है। यही नहीं सन् 1965 में चीन के परमाणु परीक्षणों पर निगरानी के उद्ेश्य से नन्दा देवी चोटी पर पर स्थापित करने के लिये ले जाये जा रहे परमाणु उपकरणों के लापता हो जाने से स्थिति और भी गम्भीर हो गयी है।
आर.के.पचौरी की अध्यक्षता वाले संयुक्त राष्ट्र इन्टर गवर्नमेण्टल पैनल की सन् 2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के गायब होने की भविष्यवाणी की फजीहत होने के बाद स्वयं पचौरी ने क्षमा याचना के साथ ही सफाई भी दे दी है। फिर भी सच्चाई तो यही है कि ऐशिया महाद्वीप के मौसम को नियंत्रित करने वाले हिमालय के 38,000 वर्ग कि.मी.में फैले लगभग 9757 ग्लेशियरों में से ज्यादातर पीछे हट रहे हैं। जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रो0 आर.के गंजू के ताजा अध्ययन के अनुसार ग्लेशियरों के पिघलने का कारण ग्लेाबल वार्मिंग नहीं है। वह कहते हैं कि अगर यह वजह होती तो नार्थ वेस्ट में कम और नार्थ ईस्ट में ग्लेशियर ज्यादा नहीं पिघलते। कराकोरम रेंज में ग्लेशियरों के आगे बढ़ने के संकेत मिले हैं। वहां 114 ग्लेशियरों में से 35 जस के तस हैं और 30 आगे बढ़ रहे हैं, जबकि बाकी सिकुड रहे हैं। यदि ग्लोबल वार्मिंग होती तो ये सारे के सारे ग्लेशियर सिकुड़ रहे होते।
आइ.आइ.टी मुम्बई के प्रोफेसर आनन्द पटवर्धन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित भारत सरकार के वन और अन्तरिक्ष जैसे आधा दर्जन संस्थानों के विशेषज्ञों के अध्ययन दल ने पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को तो स्वीकार किया है मगर साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि उत्तर पश्चिमी भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में ठण्ड बढ़ रही है। दल की रिपोर्ट में पश्चिमी तट, मध्य भारत, अन्दरूनी प्रायद्वीप और उत्तरपूर्व में तापमान बढ़ने के संकेत की पुष्टि हुयी है। दल ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ते मानव दबाव के चलते हिमस्खलन, ऐवलांच और हिमझीलों के विस्फोट के खतरे बढ़ने की बात भी कही है। सिक्कम की तीस्ता नदी के बेसिन में 14 ब्यास, रावी, चेनाव और सतलज नदियों के बेसन में विस्फोट की सम्भावना वाली ऐसी 22 हिम झीलें बताई गयी है। दल के सदस्य एवं विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट का कहना है कि भागीरथी की तुलना में अलकनन्दा के श्रोत ग्लेशियर अधिक तेजी से गल रहे हैं, क्योंकि वहां मानवीय हस्तक्षेप अधिक है। सतोपन्थ ग्लेशियर 1962से लेकर 2005 तक 22.88 मीटर की गति से पीछे खिसका मगर इसकी पीछे खिसकने की गति 2005-06 में मात्र 6.5 मीटर प्रति वर्ष दर्ज हो पायी। सन् 2007 में भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार आर. चिदम्बरम् द्वारा गठित अध्ययन दल की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगोत्री ग्लेशियर सन् 1962 से लेकर 1991 तक के 26 सालों में लगभग 20 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे खिसका जबकि 1956 से लेकर 1971 तक 27 मीटर प्रति वर्ष और 2005 से लेकर 2007 के बीच मात्र 11.80 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ा। इसी रिपोर्ट में ओवेन आदि (1997)और नैनवाल आदि (2007)के अध्ययन का हवाला देते हुये कहा गया है कि भागीरथी जलसंभरण क्षेत्र के ही शिवलिंग और भोजवासा ग्लेशियर आगे बढ़ रहे हैं। इसी तरह हिमाचल की लाहौल घाटी में तीन ग्लेशियर जमाव और 2 ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गयी है। रिपोर्ट में ओवेन आदि (2006) के हवाले से लद्दाख क्षेत्र के 5 ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गयी है। जाहिर है कि हिमालय के सारे ग्लेशियर एक साथ नहीं सिकुड़ रहे हैं। सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों की पीछे खिसकने की गति भी एक जैसी नहीं है और ना ही एक ग्लेशियर की गति एक जैसी  रही है। अगर पिघलने का एकमात्र कारण ग्लोबल वार्मिंग होता तो यह गति घटती और बढ़ती नहीं। प्रख्यात ग्लेशियर विशेषज्ञ डा0 डी0पी0 डोभाल के अनुसार हिमालय में 70 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर 5 वर्ग कि.मी. से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। डोभाल भी अलग-अलग ग्लेशियर के पीछे हटने की अलग-अलग गति के लिये लोकल वार्मिंग को ही जिम्मेदार मानते हैं।
हिमालयी तीर्थ बद्रीनाथ, सतोपन्थ और भागीरथ खर्क ग्लेशियर समूह के काफी करीब है। सन् 1968 में जब पहली बार बद्रीनाथ बस पहुंची थी तो वहां तब तक लगभग 60 हजार यात्री तीर्थ यात्रा पर पहुंचते थे। लेकिन यह संख्या अब 10 लाख तक पहुंच गयी है। इतने अधिक तीर्थयात्री मात्र 6 माह में लगभग सवा लाख वाहनों में बद्रीनाथ पहुंचते हैं। समुद्रतल से लगभग 15210 फुट की उंचाई पर स्थित हेमकुण्ड लोकपाल में 1936 में एक छोटे से गुरुद्वारे की स्थापना की गयी। सन् 1977 में वहां केवल 26700 और 1997 में केवल 72 हजार सिख यात्री गये थे, लेकिन वर्ष 2011 में हेमकुण्ड जाने वाले यात्रियों की संख्या लगभग 6 लाख तक पहुंच गयी थी। इसी तरह 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी तो वहां तब तक लगभग 70 हजार यात्री पहुंचते थे। लेकिन गत वर्ष तक गंगोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या 3 लाख 75 हजार से उपर चली गयी। हालांकि यमुनोत्री के यात्रियों की संख्या भी 3 लाख 50 हजार तक पहुंच गयी है। समुद्रतल से 6714 मीटर की उंचाई पर स्थित कैलाश मानसरोवर भी अब प्रति वर्ष 500 यात्री पहुंचने लगे हैं। कुल मिला कर देखा जाय तो पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील उत्तराखण्ड हिमालय के इन तीर्थों पर प्रति वर्ष लगभग 20 लाख लोग पहुंच रहे हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ गंगंोत्री और यमुनात्री के लिये पैदल यात्रा की चट्टियों विशाल नगरों का रूप ले चुकी हैं।
वाहनों को प्रदूषण के मामले में सबसे आगे माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर चार गुना प्रदूषण करते हैं। मैदानों में प्रायः 60 किलोमीटर प्रति घण्टा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर से भी कम गति से चल पाते हैं। जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन केवल कई गुना अधिक काला दूषित धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं। समुद्रतल से 10 हजार की ऊंचाई के बाद वृक्ष पंक्ति या ट्री लाइन लुप्त हो जाती है। मतलब यह कि ये हजारों वाहन प्रतिदिन उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में कार्बनडाइ आक्साइड का उर्त्सजन तो कर रहे हैं मगर उसे चूसने वाले और हवा में आक्सीजन छोड़ने वोले वृक्ष वहां नहीं होते हैं। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड में डेढ दशक पहले तक मात्र लगभग 1 लाख चौपहिया वाहन पंजीकृत थे जिनकी संख्या अब 9 लाख पार कर गयी है। आज यात्रा सीजन में ऋषिेकश से लेकर चार धाम तक के लगभग 1325 कि.मी. लम्बे रास्ते में जहां तहां जाम मिलता है और वाहन खड़े करने की जगह ही बड़ी मुश्किल से मिलती है।
उत्तराखण्ड की चारधाम यात्रा ऋषिकेश से शुरू होती है, जो कि समुद्रतल से लगभग 300 मीटर की उंचाई पर स्थित है। वाहन यहां से शुरू हो कर समुद्रतल से 3042 मीटर की उंचाई पर स्थित गंगोत्री और 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बद्रीनाथ पहुंचते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक यात्रा सीजन में लगभग 30 हजार वाहन सीधे गंगोत्री पहुचंते हैं। इतने वाहन अगर गोमुख के इतने करीब पहुंचेंगे तो वाहनों की आवाजाही का सीधा असर गंगोत्री ग्लेशियर पर पड़ना स्वाभाविक ही है। पिछले एक दशक से हजारों कावड़ियेे जल भरने सीधे गोमुख जा रहे हैं। यही नहीं गंगोत्री और गोमुख के बीच कई जैनेरेटर भी लग गये हैं।
एक अनुमान के अनुसार बद्रीनाथ में प्रति सीजन लगभग सवा लाख छोटे बड़े वाहन पहुंचने लगे हैं। बद्रीनाथ से 10 कि.मी. पीछे हनुमान चट्टी से चढ़ाई और मोड़ दोनों ही शुरू हो जाते हैं और वहीं से सर्वाधिक प्रदूषण शुरू हो जाता है। बद्रीनाथ से कुछ दूरी से स्थाई हिम रेखा शुरू हो जाती है और फिर कुछ आगे सतोपन्थ आदि ग्लेशियर शुरू हो जाते हैं। लगभग यही स्थिति केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की भी है। गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक के अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित कालिन्दी पास और घस्तोली होते हुये ट्रैकिंग रूट पर भी भीड़ बढ़ने लगी है।
सांसद सतपाल महाराज ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर उन्हें याद दिलाया है कि 1965 में भारत सकार की अनुमति से चीन पर खुफिया नजर रखने के लिये एक प्लूटोनियम 238 इंधन वाला अत्याधुनिक और अत्यन्त शक्तिशाली जासूसी उपकरण नंदा देवी चोटी पर स्थापित करने के लिये सी.आइ.. ने भेजा था। शिखर पर चढ़ाई के समय अचानक तूफान जाने के कारण उस दल को अपना सारा सामान वहीं छोड़ कर वापस बेसकैम्प लौटना पड़ा। मौसम साफ होने पर जब पर्वतारोही दल उस स्थान पर गया तो वहां बाकी सामान तो मिल गया मगर वह आणविक जासूसी उपकरण नहीं मिला। सम्भवतः वह उपकरण वर्फ को पिघलाकर चट्टानों की किसी दरार में घुस गया।यह उपकरण 300 सालों तक सक्रिय रहने की क्षमता रखता है। इसलिये उतनी अवधि तक इससे प्रदूषण या रेडियोधर्मी विकीरण का खतरा बना रहेगा।

क्या रखा है नाम में
-जयसिंह रावत
अपने बहुचर्चित नाटकजूलियट और रोमियोके संवादों में  अंग्रेजी नाटककार विलियम शैक्सपीयर ने कहा था किनाम में क्या रखा है।जाहिर है कि इस कालजयी संवाद के पीछे इस महान नाटककार का अभिप्राय यह था कि आदमी का नाम महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उसका काम महत्वपूर्ण होता है। लेकिन राजनीतिक दलों को शैक्सपीयर की यह सीख समझ नहीं रही है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने नाम पविर्तन की जो शुरुआत की वह उत्तराखण्ड तक भी पहुंच गयी।
अखिलेश यादव सरकार द्वारा उत्तर पदेश में छत्रपति शाहूजी महाराज नगर जिले का नाम गौरीगंज, पंचशील नगर का नाम बदलकर हापुड़, ज्योतिबा फूले नगर का नाम अमरोहा, महामाया नगर का नाम हाथरस, कांशीराम नगर का नाम कासगंज, रमाबाई नगर का नाम कानपुर देहात, प्रबुद्ध नगर का नाम शामली और भीमनगर का नाम बदलकर बहजोई रखे जाने के बाद अब उत्तराखण्ड में राजनीतिक दलों के अपने-अपने महापुरुषों के नामों को लेकर घमासान शुरू हो गयी है। राज्य मंत्रिमण्डल की ताजा बैठक में राजीव गांधी नवोदय विद्यालय के पैटर्न पर स्थापित किए गए पांच श्यामा प्रसाद मुखर्जी विद्यालयों का नाम बदलने का निर्णय ले लिया है। यही नहीं मंत्रिमण्डल ने दीनदयाल उपाध्याय एफिलिएटिंग विश्वविद्यालय का नाम बदलने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दे दी है। अब इस विश्वविद्यालय का नाम श्रीदेव सुमन एफिलिएटिंग विश्वविद्यालय होगा। इसके बाद अब 108 आपातकालीन एम्बुलेस सेवा के वाहनों से पण्डित दनदयाल उपाध्याय के नाम को हटाने की बारी है। इससे पहले निशंक सरकार द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहार बाजपेयी के नाम से शुरू की गयी अटल खाद्यान्न योजना को ही ठण्डे बस्ते में डालने की कबायद शुरू हो गयी थी। पिछली भाजपा सरकार ने अपने भगोया ऐजेण्डे के तहत जहां भी खाली जगह देखी वहां आरएसएस के महापुरुषों के नाम के नाम पटल लटका दिये। जो भी नयी संस्था या कार्यक्रम शुरू हुआ उसका नाम आरएएस के संस्थापकों के नाम पर रख दिया। अब कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने भगोया नाम पट्टिकायें हटानी शुरू कर दीं। अपने भगोया ऐजेण्डे के तहत उत्तराखण्ड की पिछली भाजपा सरकारों ने पार्कों से लेकर शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों और यहां तक कि रोगी ढोने वाली एम्बुलेंसों का नामकरण दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि के नाम पर कर दिया था।

सवाल उठता है कि अगर पिछली भाजपा सरकार द्वारा अपने नेताओं के नाम पर किये गये नामकरण गलत थे तो अब कांग्रेस की सरकार के नये नमकरण कैसे ठहराये जा सकते है। यह तो एक तरह से बलात कब्जाये हुये मकान का ताला तोड़ कर अपना ताला ठोकने जैसी ही बात हो गयी।अगर संस्थाओं या सरकारी कार्यक्रमों का नाम राजनीतिक नेताओं के नाम पर ही होना है तो फिर दीन दयाल उपाध्याय या श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम में क्या बुराई है और राजीव गांधी या उनके किसी अन्य परिजन के नाम पर कौन सा शहद लगा हुआ है। देखा जाय तो इस तरह के राजनीतिक नामकरण उत्तराखण्ड के महापुरुषों की अनदेखी और उनका अपमान ही है। इस छोटेे से राज्य में श्रीदेव सुमन, पेशावर काण्ड के हीरो वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, माधोसिंह भण्डारी, पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त, पण्डित नैनसिंह,भक्त दर्शन, बछेन्द्री पाल, गौरा देवी, महावीर त्यागी आदि महापुरुषों की एक लम्बी फेहरिश्त है। इनके अलावा वे हजारों जांबाज सैनिक इस प्रदेश में हैं जिन्होंने मातृभूमि की आन-बान और शान के लिये प्राएाों की आहुति दे दी। अकेले 1971 के युद्ध में इस प्रदेश के 255 सैनिक शहीद हुये और 68 को परम वीर चक्र सहित कई वीरता अलंकार मिले। आज भी उत्तराखण्ड में दो पद्मभूषण और एक दर्जन पद्मश्री समाज सेवा में जुटे हैं।
उत्तराखण्ड के मामले में नामों लूट नयी नही है। जिससे साफ जाहिर होता है कि जिन लोगों के कन्धों पर अत्यन्त विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले इस पिछड़े राज्य की कायाकल्प करने की जिम्मेदारी थी उनका ध्यान इसके भविष्य को संवारने पर नहीं बल्कि केवल नाम लूटने पर केन्द्रित रहा। इससे पहले सन् 2000 में जब इस राज्य का गठन हुआ तो केन्द्र में सत्तासीन भाजपा की सरकार ने जनभावनाओं के विपरीत इसका नाम उत्तराखण्ड की बजाय उत्तरांचल रख दिया। जबकि नब्बे के दशक पृथक राज्य के लिये चला अभूतपूर्व आन्दोलन उत्तराखण्ड के नाम पर चला था। आन्दोलन के दौरान ही भाजपा ने समानान्तर उत्तरांचल आन्दोलन की ढपली बजानी शुरू कर दी थी, जिसे जनता ने ठुकरा दिया। बाद में जब भाजपा केन्द्र की सत्ता में आई तो उसने श्रेय लूटने के लिये नये प्रदेश का नाम उत्तरांचल रख दिया।
देखा जाय तो भाजपा को उत्तराखण्ड शब्द से पहले से ही खुजली थी। उत्तरप्रदेश में चन्द्रभानु गुप्ता के जमाने में प्रदेश के इस पहाड़ी क्षेत्र के विकास के लिये पर्वतीय विकास विभाग का गठन किया गया था। दिसम्बर 1989 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जब उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार आयी तो  उन्होंने इस विभाग का नाम उत्तराखण्ड विकास विभाग रख दिया। लेकिन जब जून 1991 में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने कमान सम्भाली तो इस विभाग से उत्तराखण्ड का बोर्ड उतार कर उसे उत्तरांचल विकास विभाग का नाम दे दिया गया। उत्तर प्रदेश में फिर दिसम्बर 1993 में सत्ता परिवर्तन के बाद मुलायम ने कमान सम्भाली तो उन्होंने एक बार फिर इस विभाग का पुराना नाम बहाल करते हुये इसे उत्तराखण्ड विभाग बना दिया। सत्ता तो आती जाती रहती है। लेकिन इस विभाग का नाम भी सत्तारियों के साथ ही बदलता रहा और जून 1995 में भाजपा के साथ मायावती की सरकार आई तो उत्तराखण्ड विकास विभाग फिर उत्तरांचल के आंचल में लिपटा दिया गया। उसके बाद मायावती, कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्त और फिर राजनाथ सिंह की सत्ता आई तो उत्तरांचल नाम काफी दिनों तक चलता रहा। बाद में 9 नवम्बर 2000 को नया राज्य अस्तित्व में आया तो भाजपा ने उस पर भी अपना उत्तरांचल नाम थोप दिया जिसे केन्द्र की मानमोहन संह सरकार ने एक संविधान संशोधन के जरिये 2006 में उतार फेंक दिया।
शैक्सपीयर चाहे जो भी कहें मगर सच्चई यह है कि नाम वह शब्द होता है जिससे किसी को भी सम्बोधित किया जाता है। व्याकरण में नाम को ही संज्ञा कहते हैं और किसी को भी कोई संज्ञा देना या संज्ञा पाना कोई मामूली बात नहीं होती है। यह संज्ञा किसी के भी पहचान के लिये दी जाती है। इसीलिये राजनीति लोग भले ही राम नाम की लूट में शामिल हों मगर इस तरह के नामों की लूट में वे जी जान लगा देते हैं। उत्तराखण्ड ही क्यों? यह लूट तो उत्तरप्रदेश में भी चलती रही है। वहां भी हाल ही में जिलों के नाम बदल दिये गये हैं।

रहस्य और रोमांच से भरी है नन्दा राजजात
- जयसिंह रावत-
चार सींगों वाले मेंढे (चौसिंग्या खाडू) के नेतृत्व में चलने वाली दुनियां की दुर्गमतम्, जटिलतम और विशालतम् धार्मिक पैदल यात्राओं में सुमार नन्दा राजजात की तैयारियां एक बार फिर शुरू हो गयी हैं। परम्परानुसार इसका आयोजन 12 सालों में एक बार होना चाहिये मगर बेहद जोखिमपूर्ण और खर्चीली होने के कारण इसका क्रम अक्सर टूट जाता है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में रहस्यमय रूपकुण्ड से हो कर गुजरने के कारण यह यात्रा दुनियांभर के जिज्ञासुओं का भी आकर्षण का केन्द्र रही है।
अगस्त 2013 में प्रस्तावित विश्वविख्यात राजजात के लिये उत्तराखण्ड सरकार सहित आयोजन समिति और अन्य सम्बन्धित पक्षों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। इसके साथ ही इस ऐतिहासिक यात्रा का नेतृत्व करने चौसिंग्या खाडू की तलाश भी शुरू हो गयी है। यात्रा से पहले इस तरह का विचित्र मेंढा कुरूड़ और नौटी के आसपास की दशोली तथा चांदपुर पट्टियों के गावों में से कहीं भी जन्म लेता रहा है। समुद्रतल से 13200 फुट की उंचाई पर स्थित इस यात्रा के गन्तव्य होमकुण्ड के बाद रंग बिरंगे वस्त्रों से लिपटा यह मेंढा अकेले ही कैलाश की अनन्त यात्रा पर निकल पड़ता है। यात्री नन्दा और इस मेंढे को अन्तिम विदाई देने के बाद वापस लौट आते हैं। यात्रा के दौरान पूरे सोलहवें पड़ाव तक यह खाडू या मेंढा नन्दा देवी की रिंगाल से बनी छंतोली (छतरी) के पास ही रहता है। समुद्रतल से 3200 फुट से लेकर 17500 फुट की ऊंचाई पहुंचने वाली यह 280 किमी लम्बी पदयात्रा 19 पड़ावों से गुजरती है। खतरनाक पहाड़ी रास्तों से गुजरने वाली यह दुर्गम यात्रा केवल पैदल तय करनी होती है बल्कि 53 किमी तक इसमें नंगे पांव भी चलना होता है। अन्तिम गाँव वाण में लाटू देवता का मन्दिर है जिसे नन्दा देवी का धर्म भाई माना जाता है। वाण से आगे की यात्रा दुर्गम और निषेधात्मक भी हो जाती है। वाण से कुछ आगे रिणकीधार से चमड़े की वस्तुएँ जैसे जूते, बेल्ट आदि तथा गाजे-बाजे निषिद्ध हो जाते हैं। सन् 1987 से पहले स्त्रियों और अनुसूचित जातियों के लोगों का प्रवेश भी यात्रा में निषिद्ध था लेकिन पिछली बार इसमें कुछ साहसी महिलाऐं भी शामिल हुयी।
नन्दादेवी को पार्वती की बहन माना जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रुप माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तराखण्ड में समान रुप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रुप में देखा गया है। हालांकि सन् 2000 की राजजात यात्रा में काफी परिवर्तन गये है। इतिहासकारों के अनुसार धार्मिक मनोरथ की पूर्ति और इस यात्रा को सफल बनाने के लिये प्राचीनकाल में नरबलि की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 1831 में प्रतिबन्धित कर दी गयी। उसके बाद अष्टबलि की प्रथा काफी समय तक चलती रही। इतिहासकार डा0 शिवप्रसाद डबराल और डा0 शिवराज संह रावतनिसंगके अनुसार नरबलि के बाद इस यात्रा में 600 बकरियों और 25 भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया। प्रख्यात इतिहासकार डा0 शिप्रसाद डबराल नेउत्तराखण्ड यात्रा दर्शनमें लिखा है कि नन्दा महाजाति खसों की आराध्य देवी है। डबराल ने लिखा है किब्रिटिश काल से पहले प्रति बारह वर्ष नन्दा को नरबलि देने की प्रथा थी। बाद में इस प्रथा को बन्द कर दिया गया, मगर दूधातोली प्रदेश में भ्रमण के दौरान मुझे सूचना मिली कि उत्तर गढ़वाल के कुछ गावों में अब नर बलि ने दूसरा रूप धारण कर लिया। प्रति 12 वर्ष में उन गावों के सयाने लोग एकत्र हो कर किसी अतिवृद्ध को नन्दा देवी को अर्पण करने के लिये चुनते हैं। उचित समय पर उसके केश, नाखून काट दिये जाते हैं। उसे स्नान करा कर तिलक लगाया जाता है, फिर उसके सिर पर नन्दा के नाम से ज्यूंदाल (चांवल, पुष्प, हल्दी और जल मिला कर) डाल देते हैं। उस दिन से वह अलग मकान में रहने लगता है और दिन में एक बार भोजन करता है। उसके परिवार वाले उसकी मृत्यु के बाद होने वाले सारे संस्कार पहले ही कर डालते हैं। वह एक वर्ष के अन्दर ही मर जाता है।
दशोली पट्टी के कुरूड़ और चांदपुर के नौटी गावों से चलने वाली यह हिमालयी धार्मिक यात्रा कभी हरे-भरे बुग्यालों और कभी घनघोर जंगलों से तो कभी ऊंची चोटियों और नाक की तरह सीधी पहाड़ियों पर तो कभी गहरी हिमालयी घाटियों से गुजरती है जिसमें देश विदेश के हजारों लोग भाग लेते हैं। विशेष कारीगरी से बनीं रिंगाल की छंतोलियों, डोलियों और निशानों के साथ लगभग 200 स्थानीय देवी देवता इस महायात्रा में शामिल होते हैं। यात्रा मार्ग पर पड़ने वाले गांव डोलियों और यात्रियों का स्वागत करते हैं। प्राचीन प्रथानुसार जहां भी यात्रा का पड़ाव होता है उस गांव के लोग यात्रियों के लिये अपने घर खुले छोड़ कर स्वयं अन्यत्र चले जाते हैं।
हिमालयी जिलों का गजेटियर लिखने वाले .टी. एटकिन्सन, के साथ ही अन्य विद्वान एच.जी.वाल्टन, जी.आर.सी.विलियम्स, के साथ ही स्थानीय इतिहासकार 0 शिव प्रसाद डबराल, डा0 शिवराज सिंह रावतनिसंग“, यमुना दत्त वैष्णव, पातीराम परमार एवं राहुल सांकृत्यायन आदि के अनुसार नन्दा याने कि पार्वती हिमालय पुत्री है और उसका ससुराल भी कैलाश माना जाता है। इसलिये वह खसों या खसियों की प्राचीनतम् आराध्य देवी है। पंवार वंश से पहले कत्यूरी वंश के शासनकाल से इस यात्रा के प्रमाण हैं। डा0 डबराल आदि के अनुसार रूपकुण्ड दुर्घटना सन् 1150 के आसपास हुयी थी, जिसमें राजजात में शामिल होने के लिये पहुंचे कन्नौज नरेश जसधवल या यशोधवल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा समेत सारा लाव लस्का मार गया था। इनके कंकाल आज भी रूप कुण्ड में बिखरे हुये हैं। लेकिन दूसरी ओर कांसुवा गांव के कुंवर जाति के लोगों और नौटी गांव स्थित उनके कुल पुरोहित नौटियालों का दावा है कि यह यात्रा पंवार वंशीय चांदपुर नेरश शालीपाल ने शुरू की थी जिसे उसके वंशज अजयपाल ने जारी रखा। बाद में राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ और फिर श्रीनगर गढ़वाल गयी। लेकिन राजा का छोटा भाई कासुवा गांव में ही रह गया। उसके बाद कांसुवा गांव के कंुवर राजजात यात्रा का संचालन करने लगे। नौटी में राजजात के सन् 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968 एवं 1987 में आयोजित होने के अभिलेख उपलब्ध हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रचलित मान्यतानुसार यह यात्रा हर 12 साल में नहीं निकलती रही है। कुरूड़ से प्राप्त अभिेलेखों में 1845 तथा 1865 की राजजातों का विवरण है। कुरूड़ के पुजारी और अधिकांश इतिहासकार नन्दाजात को पंवारों या कुवरों की नहीं बल्कि खसों की प्राचीनतम तीर्थयात्रा मानते हैं।
इस रोमांचकारी यात्रा में उच्च हिमालय की ओर चढ़ाई चढ़ते जाने के साथ ही यात्रियों का रोमांच और कोतूहल भी बढ़ता जाता है। इसका पहला पड़ाव 10 किमी. पर ईड़ा बधाणी है। उसके बाद दो पड़ाव नौटी में होते हैं। नौटी के बाद सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़ियूं, नन्दकेशरी, फल्दिया गांव, मुन्दोली, वाण, गैरोलीपातल, पातरनचौणियां होते हुये यात्रा शिलासमुद्र होते हुये अपने गन्तव्य होमकुण्ड पहुंचती है। इस कुण्ड में कुवरों के पुरखों को तर्पण देने और पूजा अर्चना के बाद चौसिंग्या खाडू को हिमालय की चोटियों की ओर विदा करने के बाद यात्री नीचे उतरने लगते हैं। उसके बाद यात्रा सुतोल, घाट और नौटी लौट आती है। इस यात्रा के दौरान लोहाजंग ऐसा पड़ाव है जहां आज भी बड़े पत्थरों और पेड़ों पर लोहे के तीर चुभे हुये हैं। कुछ तीर संग्रहालयों के लिये निकाल लिये गये हैं। इस स्थान पर कभी भयंकर युद्ध होने का अनुमान लगाया जाता है। इसी मार्ग पर 17500 फुट की ऊंचाई पर ज्यूंरागली भी है जिसे पार करना बहुत ही जोखिम का काम है। इतिहासकार मानते हैं कि कभी लोग स्वर्गारोहण की चाह में इसी स्थान से महाप्रयाण के लिये नीचे रूपकुण्ड की ओर छलांग लगाते थे। यमुना दत्त वैष्णव ने इसे मृत्यु गली की संज्ञा दी है। यहां से नीचे छलांग लगाने वालों के साथ ही दुर्घटना में मारे गये सेकड़ों यात्रियों के कंकाल नीचे रूपकुण्ड में मिले हैं जिनकी पुष्टि डीएनए से हुयी है। इसके बाद यात्रा शिला समुद्र की ओर नीचे उतरती है। शिला समुद्र का सूर्योदय का दृष्य आलोकिक होता है। वहां से सामने की नन्दाघंुघटी चोटी पर सूर्य की लौ दिखने के साथ ही तीन दीपकों की लौ आलोकिक दृष्य पेश करती है। राजजात के मार्ग में हिमाच्छादित शिखरों से घिरी रूपकुण्ड झील है जिसके रहस्यों को सुलझाने के लिये भारत ही नहीें बल्कि दुनियां के कई देशों के वैज्ञानिक दशकों से अध्ययन कर रहे हैं। मान्यता है कि जब गौरा याने कि पार्वती अपने ससुराल कैलाश जा रही थी तो इस कुण्ड में पानी पीते समय उसने पानी में अपनी प्रतिछाया देखी तो तब उसे अपने अतीव सौन्दर्य का पता चला। कोई रोक टोक होने के कारण समुद्रतल से 16200 फुट की उंचाई पर स्थित रूपकुण्ड झील से देश विदेश के वैज्ञानिक बोरों में भर कर अतीत के रहस्यों का खजाना समेटे हुये ये नर कंकाल और अन्य अवशेष उठा कर ले गये हैं। अब भी इस झील के किनारे कई कंकाल पड़े हैं। वहां कंकालों के साथ ही आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी, के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूड़ियां आदि सामग्री बिखरी पड़ी है। इन सेकड़ों कंकालों का पता सबसे पहले 1942 में एक वन रेंजर ने लगाया था। इस झील के कंकालों पर सबसे पहले 1957 में अमरीकी विज्ञानी डा0 जेम्स ग्रेफिन ने अध्ययन किया था। उस समय उसने इन कंकालों की उम्र लगभग 650 बताई थी। सन् 2004 में नेशनल जियोग्राफिक चैनल द्वारा ब्रिटेन और जर्मनी की प्रयोगशालाओं में कराये गये इन कंकालों के परीक्षण में ये कंकाल 9वीं सदी के तथा ये लगभग सभी एक ही समय में मरे हुये लोगों के पाये गये हैं। इनमें स्थानीय लोगों के कंकाल बहुत कम हैं। बाकी लगभग सभी एक ही प्रजाति के हैं। इनमें दो खोपड़ियां ऐसी भी मिली हैं जो कि महाराष्ट्र की एक खास ब्राह्मण जाति के डीएनए तथा सिर के कंकाल की बनावट से मिलते हैं। चैनल इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये कंकाल यशोधवल, उसकी रानियों, नर्तकियों, सैनिकों, सेवादारों या कहारों और साथ में चल रहे दो ब्राह्मणों के रहे होंगे।
सन् 1947 में भारत के आजाद होने के तत्काल बाद 500 से अधिक रजवाड़े लोकतंत्र की मुख्य धारा में विलीन हो गये। गढ़वाल नरेश मानवेन्द्र शाह की बची खुची टिहरी रियासत भी 1949 में भारत संघ में विलीन हो गयी। राजशाही के जमाने से चल रही सामन्ती व्यवस्था के थोकदार, पदान, सयाणे और कमीण आदि भी उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के सन् 1960 में लागू हो जाने और नयी पंचायती राज व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद अप्रासंगिक हो गये। मगर उत्तराखण्ड में इस धार्मिक आयोजन के बहाने पुरानी सामन्ती व्यवस्था को जिन्दा रखने पर सवाल खड़े हाने लगे हैं। क्षेत्र के लोगों को कांसुवा के कुंवरों के पुरखों का तर्पण इस यात्रा के दौरान कराने पर भी आपत्तियां हैं। शिवराज सिंह रावत आदि इतिहासकारों के अनुसार राजजात का मतलब राजा की यात्रा हो कर राजराजेश्वरी की यात्रा से है। इस क्षेत्र में नन्दा देवी को राजराजेश्वरी के नाम से भी पुकारा जाता है। उत्तराखण्ड के गढ़वाल में नन्दा देवी के कम से कम 41 और कुमायूं में 21 विख्यात प्राचीन मन्दिर हैं।
सामन्ती परम्परा के समर्थकों का दावा है कि तत्कालीन गढ़वाल नरेश अजय पाल ने जब चांदपुर गढ़ी से राजधानी बदल दी तो कांसुवा में रहने वाला उसका छोटा भाई वहीं रह गया। इतिहासवेत्ता कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के अनुसार पंवार वंशीय राजाओं की कड़ी में अजयपाल 37 वां राजा था। 0 हरिकृष्ण रतूड़ी द्वारा लिखे गये गढ़वाल के इतिहास के अनुसार अजयपाल  अपनी राजधानी सन् 1512 में चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ लाया था। उत्तराखण्ड के कई बुद्धिजीवी लगभग 500 साल पहले के किसी राजा के भाई के बंशजों द्वारा अब भी स्वयं को राजकुंवर बताये जाने को अतार्किक बताते हैं। उनका मानना है कि अजयपाल से लेकर अन्तिम राजा मानवेन्द्र शाह तक हजारों राजकुमार पैदा हुये होंगे और अब तक उनके वंशजों की संख्या लाखों में हो गयी होगी। मगर उनमें से कोई भी स्वयं को राजकुंवर नहीं कहलाता और ना ही क्षेत्र के अन्य लोगों से राजा की तरह बरताव करता है। हिमालयी जिलों के गजेटियर में ईटी एटकिंसन ने कुछ विद्वानों द्वारा संकलित गढ़वाल नरेशों की सूचियां दी है। इनमें हार्डविक की 61 राजाओं की सूची में अजयपाल का नाम कहीं नहीं है। हार्डविक ने कुछ सूरत सिंह, रामदेव, मंगलसेन, चिनमन, रामनारायण, प्रेमनाथ  रामरू और फतेह शाह जैसे कई नाम दिये हैं जिससे यह पता नहीं चलता कि इन राजाओं का सम्बन्ध एक ही वंश से रहा होगा। बेकट की प्रद्युम्न शाह तक की 54 नामों वाली सूची में अजयपाल का नाम 37वें स्थान पर है। विलियम्स द्वारा संकलित सूची में अजयपाल का नाम 35 वें स्थान पर है। ऐटकिंन्सन द्वारा अल्मोड़ा के एक पण्डित से हासिल सूची में अजयपाल का नाम 36 वें स्थान पर है। स्वयं एटकिंसन ने कहा है कि ये वे राजा थे जिन्होंने कुछ प्रसिद्धि हासिल की या कुछ खास बातों के लिये इतिहास में दर्ज हो गये। अतः उस दौरान गढ़वाल में इनके अलावा भी कई अन्य राजा हुये होंगे।
राजजात को सामन्ती स्वरूप देने और स्वयं को अब भी राजा और राजगुरू मान कर इस धार्मिक आयोजन पर बर्चस्व के खिलाफ कुरूड़ के पुजारी इन दिनों आन्दोलित हैं। इससे पहले  पूरे 19 साल बाद सन् 1987 में आयोजित राजजात में भी कांसुवा और नौटी की नन्दा देवी की जात तथा कुरूड़ की नन्दा देवी की जात अलग-अलग चली है। उस समय भी नौटी और कांसुवा वालों की राजजात सरकार द्वारा वित्त पोषित थी और उसके पीछे चल रही कुरूड़ की जात परम्पराओं और आस्थाओं द्वारा पोषित थी। यह प्राचीन धार्मिक आयोजन के सामन्तवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद में फंस जाने के कारण यात्रा की सफलता पर आशंकाऐं खड़ी होने लगी हैं।