अफीम की खेती पर दोहरे मानदंड
-जयसिंह रावत
अफीम की खेती के बारे में भारत सरकार के दोहरे मानदंडों के कारण जहां देश के कुछ हिस्सों में कास्तकार पोस्त की खेती से न केवल मालोमाल हो रहे हैं बल्कि सरकार के विदेशी मुद्रा के भंडार में भी श्रीवृद्धि कर रहे हैं, वहीं उत्तराखंड के जनजातीय क्षेत्रों सहित देश के अन्य हिस्सों के परंपरागत रूप से पोस्त उगाने वाले कास्तकार न केवल आजीविका बल्कि चैन की जिन्दगी जीने के लिये भी तरस रहे हैं। उनके खेतों पर कभी नारकोटिक्स कंट्रोल विभाग तो कभी राज्य पुलिस के छापों के कारण नैसर्गिक वातावरण में जीने के आदी इन लोगों का जीना दूभर हो जाता है। जबकि पोस्त एक औषधि पादप होता है जिससे नशा ही नहीं बल्कि जीवन रक्षक दवायें भी बनती हैं।
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भारत सरकार का नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और राज्य सरकारों की पुलिस जहां देशभर में पोस्त के खेतों को उजाड़ने के लिये हर साल विशेष अभियान चलाती हैं वहीं भरत सरकार को अफीम उत्पादन का कोटा भी पूरा करना होता है। अगर ऐसा नहीं किया जा सका तो न केवल देश की सेकड़ों ओषधि निर्माणियां बंद हो जायेंगी अपितु दुनियांभर के दर्द से तड़प रहे लोगों को मार्फीन और कोडीन जैसी दर्द निवारक दवाइयां नहीं मिल सकेंगी। क्योंकि भारत दुनियां का प्रमुख अफीम निर्यातक देश है।
हिमाचल प्रदेश सिरमौर जिले के खाटी जनजाति क्षेत्र से लेकर देहरादून के जौनसार बावर, टिहरी के जौनपुर और उत्तरकाशी के फतेहपर्वत तक के जनजातीय क्षेत्र में सदियों से पोस्त की खेती होती रही है। अगर ये लोग सचमुच काले बाजार में उसका व्यापार करते तो उनकी दशा आज भी इस तरह दयनीय नहीं होती। यहां लोग पोस्त का उपयोग तिल, अखरोट, और दूसरे मेवों की तरह करते हैं। बेटी अगर ससुराल जा रही है या बहू मायके जा रही है, तो लोग इसे भेंट के तौर पर देते रहे हैं। सरकार के दोहरे मापदंड के कारण ये लोग अब अफीम तस्करों के चंगुल में फंसने लगे हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखंड के जौनसार से लेकर रर्वाइं तक पोस्त की खेती अक्सर छापामार दलों द्वारा रौंदी जाती रही है। नारकोटिक्स ब्यूरो ने क्षेत्र के लगभग 72 गावों में सघन अभियान चला कर खेती नष्ट की मगर कानूनी कार्यवाही करने से विभाग ठिठक ही गया। क्योंकि भारत सरकार भी जानती है कि कई इलाकों में अफीम की खेती परंपरा का एक अंग है। यह मामला केवल उत्तराखंड के जौनसार बावर का नहीं है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन् 2008 से लेकर 2012 तक देश में अफीम की अवैध खेती के केवल 52 मामले पकड़े गये जिनमें केवल 305 किलो अवैध अफीम बरामद हुयी। इसी प्रकार इस 4 साल की अवधि में 4832 हेक्टेअर पर अफीम की खेती नष्ट की गयी। जबकि वास्तविकता यह है कि देश में लाखों हेक्टेअर भूमि पर अफीम की पोस्त उगाई जाती है। उत्तराखंड के अलावा जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब से लेकर उत्तर पूर्व के मणिपुर और अरुणांचल तक के राज्यों में भी अ़फीम की खेती बड़े पैमाने पर अवैध रूप से होती है। अगर तीन प्रदेशों की तरह देश के अन्य क्षेत्रों में भी किसानों को अफीम की खेती के लाइसेंस दिये जांय तो इससे सरकार का राजस्व बढ़ने के साथ किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी और बिचौलियों या तस्करों पर भी अंकुश लगेगा। जी.आर.सी. विलियम्स की पुस्तक “मेम्वॉयर आफ देहरादून” (सन् 1874) में छपी रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 1871-72 में जहां देहरादून के प्रशासन को आबकारी मद में देशी और विदेशी ब्रांड की मदिरा से कुल 36,009 रुपये का राजस्व हासिल हुआ वहीं अकेली अफीम से प्रशासन को 9,600 रुपये का राजस्व हासिल हुआ।
भारत में अफीम की खेती स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ नियमावली 1985 (एनडीपीएस एक्ट 1985) की धारा 8 के तहत प्रतिबंधित है। केवल केन्द्रीय नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा इस अधिनियम की धारा 5 के उपबंधों के तहत जारी लाइसेंसों के तहत ही पोस्त की खेती की जा सकती है। वर्तमान में परंपरागत रूप से पोस्त की खेती वाले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में ही वैध रूप से पोस्त की खेती की जा रही है। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा 8 अक्टूबर 2014 को जारी एक अधिसूचना के तहत मध्य प्रदेश के मंदसौर, नीमच, और रतलाम जिलों की 20 तहसीलों में कास्तकारों को तथा एक कृषि विश्वविद्यालय को पोस्त की खेती के लाइसेंस जारी किये गये। इसी प्रकार राजस्थान के कोटा, बारां, झालाबाड़, चितौड़गढ़, प्रतापगढ़, उदयपुर और भीलवाड़ा जिलों की 32 तहसीलों के कास्तकारों तथा राजस्थान कालेज ऑफ एग्रीकल्चर उदयपुर को पोस्त की खेती के लाइसेंस जारी हुये। उत्तर प्रदेश में बाराबंकी, लखनऊ फैजाबाद, शाहजहांपुर, बदायूं तथा बरेली जिलों में कास्तकारों को स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ नियमावली 1985 के नियम 5 के अनुसरण में लाइसेंस जारी हुये हैं।
देखा जाय तो सरकार की ढुलमुल नीति और अफीम के दुरुयोग का रोकने के लिये सरकार के कठोर नियमों के चलते भारत में अफीम की वैध खेती का दायरा भी सिमटता जा रहा है। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 1994-95 में जहां 1,04,215 काश्तकारों को 25,216 हैक्टेअर पर पोश्त की खेती के लाइसेंस जारी हुये वहीं वर्ष 2013-14 में केवल 44,348 कास्तकारों को ही 5893 हैक्टेअर क्षेत्र पर खेती के लिये लाइसेंस जारी हुये। ये तो सिर्फ वे आंकड़े हैं, जो सरकारी दस्ताव़ेजों में दर्ज हैं।
अफीम की खेती केवल केन्द्र सरकार के नियंत्रण में की जा सकती है। किसानों द्वारा उत्पादित सारी अफीम को नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो खरीद लेता है और इसे ’गवर्नमेंट ओपियम एंड अल्कालॉयड वर्क्स (जीओएडब्लू) को अंतरित कर देता है। जीओएडब्लू अफीम को सुखाता है और इसका निर्यात करने के साथ ही इसकी कुछ मात्रा राज्य सरकारों को देता है। राज्य सरकारें इसकी कुछ मात्रा आयुर्वेदिक दवा कंपनियों को देती हैं और शेष मात्रा को वे अपने अल्कालॉयड योजनाओं के लिये रखती हैं। ताकि इससे अल्कालॉयड का निष्कर्षण किया जा सके। जीओएडब्लू अल्कलॉयड का विनिर्माण मार्फीन, कोडीन, थेबाइन, नोसकैपाइन, पेपावेरीन, हाइड्रोकोडोन, आक्सीकोडोन, फोलकोडीन आदि के रूप में कई तरह से करता है। इसके बाद इन उत्पादों की लगभग 150 टन से लेकर 200 टन तक की मात्रा दवा कंपनियों को उपलब्ध करा दी जाती है। कच्चे या अशोधित अफीम की काफी मात्रा निर्यात कर दी जाती है, जिससे देश को विदेशी मुद्रा हासिल होती है। अफीम को बेशक एक जानलेवा नशा के रूप में पहचाना जाता हो, लेकिन विदेशों में कैंसर पीड़ित मरीजों के इलाज के लिए इसे दवा के रूप में उपयोग किया जाता है। माना जा रहा है कि, कैंसर के दर्द से परेशान 75 से 85 फीसदी रोगियों का उपचार अफीम के जरिए कारगर ढंग से किया जा सकता है। प्राचीन काल में जब भारत में एलोपैथी का प्रवेश नहीं के बराबर था, बड़े-बुजुर्गों को उम्र की वजह से होने वाली तकलीफों, जैसे-जोड़ों के दर्द आदि से राहत के लिए थोड़ी सी अफीम दी जाती थी।
पोस्त मूलतः एक औषधि पादप है जिसका युगों-युगों से मानव द्वारा सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों ही होता रहा है। इसमें कई तरह के अल्कालॉयड या उपक्षार विद्यमान होते हैं, जिनका उपयोग आधुनिक औषधिशास्त्र में दर्द निवारक, कासरोधी या खांसी रोकने वाला एवं ऐंठनरोधी के तौर पर किया जाता है। अंग्रेजी का ’ओपियम’ शब्द ग्रीक भाषा के ’ओपीयन’ से निकला है। अरबी में इसे ’यापीन’ और पारसी में ’अफियम’ कहते हैं जबकि संस्कृत या प्राचीन इंण्डो-आर्यन भाषा में अफीम को ’आहि फेन’ (सर्प विष) के नाम से पुकारा जाता था। उत्तर पूर्व भारत में लोग इसे ’कनि’ या ’कणि’ के नाम से जानते हैं।
दुनियां में भारत अकेला देश है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने ( 1961) पोश्त से गोंद के रूप में अफीम निकालने के लिये अधिकृत किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 के प्रावधानों का सम्मान करते हुये भारत को यह छूट दी है। इस संवैधानिक प्रावधान के तहत चिकित्सा और वैज्ञानिक उद्देश्य को छोड़ कर अन्य किसी उद्देश्य के लिये नशीली दवाओं और स्वापक पदार्थों के विनिर्माण, उत्पादन, व्यापार आदि पर रोक है। बाकी अन्य 11 देशों में से आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, फ्रांस, चीन, हंगरी, नीदरलैंड्स, पोलैंड, स्लोवेनिया, स्पैन, टर्की और चैक गणराज्य को भी पोश्त के खेती से अफीम निकालने की अनुमति है, मगर वे पोस्त के कंद की गांेद से नहीं बल्कि उसके 8 इंच के डंठल सहित कंद (बल्ब) को काट कर उसकी प्रोसेसिंग कर उससे अफीम निकालते हैं। भारत से अमेरिका, जापान, हंगरी, ब्रिटेन, फ्रांस और थाइलैंड का अफीम का निर्यात किया जाता है।
ज्ञात इतिहास के अनुसार अफीम की खेती भारत में 10वीं शताब्दी से हो रही है। दसवीं शताब्दी के धन्वंतरि के औषधिग्रंथ में अफीम से कई रोगों के निदान का उल्लेख हुआ है। मुगल काल में सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में भी तत्कालीन शासकों के नियंत्रण में भारत में व्यापक रूप से अफीम की खेती की जाती थी। ऐतिहासिक दस्तावेज, ’आईन-ए-अकबरी’ (1556 से 1605 ई) में भी अफीम का जिक्र है, जिसमें कहा गया है कि इसकी खेती उत्तर भारत के कई सूबों में लगभग एक लाख वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में की जाती थी। मुगल शासन के अंत के बाद सन् 1873 से अफीम की खेती पर ब्रिटिश शासकों का नियंत्रण हो गया।
-- जयसिंह
रावत--
ई- 11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
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