Search This Blog

Friday, December 19, 2014

जय और उदय------------
---------------
दो बाल सखा
एक कलम का मजदूर---------------
और दूसरा
ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र विश्व विद्यालय का कुलपति
------------------------------------------------------------------
राजभवन देहरादून में 16 दिसम्बर 2014 को श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्व विद्यालय की पुस्तक "उत्तराखंड- डिसआस्टर” का विमोचन राज्यपाल डा0 अजीज कुरैशी, कैबिनेट मंत्री डा0 इंदिरा हृदयेश, डा0 हरक सिंह रावत और दिनेश धनै द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। विमोचन समारोह में प्रदेश के सभी विश्व विद्यालयों के कुलपतियों, विभिन्न कालेजों के प्रोफेसरों एवं अन्य विशेषज्ञों तथा बुद्धिजीवियों ने भाग लिया। इस अवसर पर श्रीदेव सुमन विश्व विद्यालय की ओर से शिक्षा जगत की हस्तियों के साथ ही विषय विशेषज्ञों को सम्मानित किया गया। कुलपति डा0 उदय सिंह रावत ने बड़प्पन का परिचय देते हुये अपने बाल सखा और एक अदने से पत्रकार जयसिंह रावत का भी मान बढ़ा दिया। जय को अपने बचपन के मित्र उदय के हाथों सम्मानित होने का सौभाग्य पहले भी मिला था।

Monday, November 17, 2014

Development, a distant dream

रोटी-बेटी के रिश्ते से भी महरूम पर्वतवासी
-जयसिंह रावत
एक समाचार के अनुसार उत्तरकाशी के कलाप गांव में अन्य गावों के लोग अपनी बेटियां नहीं ब्याहते। कारण यह कि सड़क और बिजली जैसी सुविधाओं के अभाव में इस गांव के लोग अब भी आदिम युगीन जिंदगी जी रहे हैं। इस गांव के 50 लोग दुल्हनों की प्रतीक्षा में बूढ़े हो गये और कई ने तो गांव में ही रक्त संबंधियों से वैवाहिक संबंध बना लिये जिस कारण वहां अनुवांशिकी संबंधी समस्याएं खड़ी हो गयी हैं। कलाप का नाम उठते ही टिहरी के गंगी गांव और चमोली के डुमक, कलगोठ और किमाणा जैसे दर्जनों गाव भी मुद्दा--बहस हो गये। ऐसे गावों की चर्चा हो भी तो क्यों नहीं आखिर राज्य गठन के 14 साल बाद भी इन दुर्गम गावों के आदिम युगीन जिन्दगी जीने वाले लोगों से सुगम गावों के लोग रोटी-बेटी का रिश्ता करना पसंद नहीं करते।
वास्तव में कलाप, कलगोठ और गंगी जैसे सेकड़ों गांव उत्तराखण्ड राज्य के जीवनकाल की अब तक की सच्ची कहानी बयां करते हैं। उत्तराखंड के अपने शासन तंत्र को लखनऊ से देहरादून पहुंचे हुये भले ही 14 साल गुजर गये हों मगर देहरादून से विकास की गाड़ी अब भी पहाड़ों पर नहीं चढ़ पायी है। राजनीतिक अस्थिरता, कार्यसंस्कृति में अराजकता और राजनीतिक नेतृत्व में दृढ़ इच्छा शक्ति तथा ईमानदार प्रयासों के अभाव में विकास की गाड़ी पहाड़ों पर चढ़ने से पहले ही हांफ रही है। बिजली, पानी, सड़क, स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाओं की तलाश में लाखों लोग पहाड़ छोड़ कर मैदान में गये हैं। जब वोटर ही पलायन कर रहे हों तो नेताओं का पलायन भी स्वाभाविक ही है। उत्तरकाशी के कलाप गांव के लोगों को नमक तेल के लिये भी 25 किमी पैदल चलना होता है। सरकार ने वहां स्कूल तो खोला मगर वहां शिक्षक नहीं भेजे। आसपास कहीं अस्पताल खोला तो वहां डाक्टर नहीं गये। यही कहानी टिहरी के गंगी की है जहां लोगों को घुत्तू में सड़क तक पहुंचने के लिये 20 किमी की दूरी तय करनी होती है। चमोली के जोशीमठ ब्लाक के स्यौण, डुमक और कलगोठ के ग्रामीणों को हेलंग तक पहुंचने के लिये 25 किमी की पैदल दूरी तय करनी होती है। इन गावां के लोगों की रिश्तेदारियां भी आसपास तक ही समिट गयी हैं। उत्तरकाशी में ही भटवाड़ी ब्लाक में पिलंग और जौड़ाऊं गावों में आसपास के इलाकों के लोग आदिम युगीन रहन सहन के चलते बेटियां नहीं ब्याहते।
उत्तराखंड सरकार के अर्थ एवं सांख्या निदेशालय द्वारा जारी ताजा आंकड़े बताते हैं कि राज्य गठन के बाद सरकार ने भले ही सेकड़ों नये स्कूल खेले हों मगर 2080 गावों के हजारों  स्कूली बच्चें को आज भी 1 से लेकर 5 किमी तक और 239 गावों के स्कूली बच्चों को स्कूल तक पहुंचने के लिये 5 किमी से लंबी पहाड़ी पगडंडियां पार करनी होती है। इतना ही फासला इन मासूम बच्चों को घर लौटने में पार करना होता है। इसी तरह मिडिल या आठवीं तक के स्कूलों तक पहुंचने के लिये 6089 गावों की बच्चियों को 5 किमी तक और 7949 गावों की बच्चियों को 5 किमी से अधिक की दूरी पैदल नापनी होती है। उन्हें कुल मिला कर हर रोज 10 किमी से अधिक पैदल चलना होता है। इसी तरह 5727 गावों के लिये प्राथमिक अस्पताल या स्वास्थ्य केन्द्र 5 किमी तक और 8595 गावों के लिये 5 किमी से दूर है। यह बात दीगर है कि इन अस्पतालों में डाक्टर तो रहा दूर वहां फार्मासिस्ट तक नहीं होता है और सफाई कर्मचारी या वार्ड ब्वाय ही ग्रामीणों का इलाज करते हैं।
इन चौदह सालों में कभी इस राज्य को ऊर्जा प्रदेश तो कभी जड़ी बूटी और कभी पर्यटन प्रदेश बनाने के जुमले गढ़े जाते रहे। लेकिन इनमें से किसी भी तरह का प्रदेश उत्तराखंडवासियों के हाथ नहीं लग सका। बिजली की बढ़ती मांग पूरी करने के लिये पावर कारपोरेशन को जल विद्युत निगम, सेंट्रल पूल एवं हिमाचल जैसे बाहरी प्रदेशों से लगभग 2990 करोड़ की बिजली प्रति वर्ष खरीदनी पड़ रही है। उर्जा उत्पादन के क्षेत्र में सरकार 304 मेगावाट की मनेरी भाली द्वितीय के अलावा एक मेगावाट की भी उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ा पायी। जबकि प्रदेश की बिजली खपत  प्रतिदिन 9 मिलियन यूनिट से 36 मिलियन यूनिट तक पहुंच गयी। पहाड़ के 1,67,311 तो मैदान के 91,582 परिवार बिजली की सुविधा से दूर हैं। मनेरी भाली द्वितीय का भी 40 प्रतिशत काम नब्बे के दशक में ही पूरा हो रखा था। बाकी परियोजनाओं के आगे कभी एनजीओ तो कभी जीडी अग्रवाल जैसे लोग आड़े गये। पिछले साल राज्य में जो दैवी आपदा आयी उसके लिये भी स्वयंभू पर्यावरणविदों ने बिजली परियोजनाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जबकि उत्तराखंड से दुगुने से अधिक लगभग 7 हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता  हिमाचल प्रदेश हासिल कर चुका है, फिर भी वहां इतनी बड़ी आपदाएं कभी नहीं आयीं। केन्द्र, राज्य और निजी क्षेत्र की तमाम परियोजनाओं को मिला कर भी उत्तराखंड की बिजली उत्पादन क्षमता 3500 मेगावाट तक भी नहीं पहुंच पायी है। राज्य गठन के समय प्रदेश की कुल संभावना 20 हजार मेगावाट की बताई गयी थी। उसके बाद 2007 में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी द्वारा 40 हजार मेगावाट की क्षमता बतायी गयी थी। लेकिन इसके विपरीत ज्ीडी अग्रवाल के दबाव में खण्डूड़ी ने ही भैरोंघाटी तथा पाला मनेरी बंद करा कर केन्द्र सरकार को भी लोहारी नागपाला बंद कराने के लिये मजबूर कर दिया।
उर्जा का जैसा ही हाल कृषि का भी रहा। राज्य गठन के बाद नलकूपों, नहरों, और तालाबों की संख्या में कई गुना वृद्धि हो गयीमगर अरबों रुपये खर्च करने के बाद राज्य का सिंचित क्षेत्र घट गया। राज्य सरकार के अर्थ और सांख्यकी विभाग द्वारा 2001-02 में जारी किये गये आंकड़ों और 2012-13 में जारी आंकड़ों की तुलना की जाय तो हकीकत सामने जाती है। कृषि के लिए सबसे बड़ी जरूरत सिंचाई सुविधा के नाम पर करीब हर साल 1000 करोड़ रुपये का बजट बनता है, इसके बावजूद वंजर खेतों का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। शुरू में राज्य में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र 1,01,867 हैक्टेअर था, जोकि 2011-12 में घट कर 95,548 हैक्टेअर ही रह गया। राज्य गठन के समय सभी साधनों से कुल सिंचित क्षेत्र 3,43,407 हैक्टेअर था जो कि 2013 में 3,39,397 हैक्टेअर ही रह गया। 14 साल पहले राज्य में शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल 7,84,000 हैक्टेअर था जो कि 2013 तक 7,14,190 हैक्टेअर रह गया। स्वयं कृषि मंत्री स्वीकार करते हैं कि राज्य गठन के बाद प्रदेश में लगभग 50 हजार हैक्टेअर कृषि क्षेत्र घट गया है। सरकारी रिकार्ड में भी राज्य गठन के समय शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल 14.1 प्रतिशत था जो कि 2013 तक 12.6 प्रतिशत रह गया। एक अनुमान के अनुसार राज्य के लगभग 1065 गांवों में करीब 3.67 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि वंजर हो गई। इसका सीधा असर पशुपालन पर भी पड़ा।
राज्य गठन के बाद प्रदेश में 1700 से अधिक नये हाईस्कूल एवं इंटरमीडिएट कालेज खुले हैं। प्राइमरी जूनियर हाईस्कूलों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुयी है, मगर शिक्षा का स्तर सुधरने के बजाय गिरता चला गया। राज्य गठन के समय प्रदेश में सरकारी प्राइमरी स्कूलों की संख्या 12791 और छात्रों की संख्या 11,20,218 थी। सन् 2013 तक सरकारी प्राइमरी स्कूलों की संख्या बढ़ कर 15,945 तक तो पहुंच गयी मगर छात्र संख्या घट कर 8,22,344 रह गयी। इसी तरह सीनियर बेसिक स्कूल या आठवीं तक के मिडिल स्कूलों की ंसख्या इस अवधि में 2,970 से बढ़ कर 4,546 तक तो पहुंच गयी मगर छात्र-छात्राओं की संख्या 5,47,009 से घट कर 2013 तक 3,53,813 ही रह गयी। एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार प्रदेश के कुल 24 हजार प्राइमरी शिक्षकों के केवल 1617 बच्चे ही प्राइमरी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। अगर एक शिक्षक के औसत दो बच्चे माने जाएं तो यह संख्या 48 हजार नहीं तो उसके आस पास तो होनी ही चाहिए थी, लेकिन शिक्षकों का महज 3 प्रतिशत हिस्सा ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने भेज रहा है। शिक्षा का स्तर घटने के साथ ही पहाड़ों में मास्टरों की संख्या घटती जा रही है। प्रदेश में 4459 पद एलटी में 4384 पद लेक्चरर में 737 पद प्रधानाचार्य तथा 107 पद हेडमास्टरों के रिक्त चल रहे हैं। इनके अलावा जूनियर हाइस्कूलों में प्रधानाध्यापक के 563 पद, सहायक शिक्षकों के 513 पद तथा प्राइमरी स्कूलों में प्रधानाध्यापक के 1136 पद तथा सहायक शिक्षक के 5397 पद खाली पड़े हैं।
राज्य गठन से पहले भी प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में डाक्टरों का अभाव था जो आज भी बना हुआ है। सरकार लाख कोशिशों के बावजूद पहाड़ पर डाक्टरों को नहीं चढ़ा पा रही है। हालत ये हैं कि प्रदेश के ऐलोपैथिक चिकित्सालयों में चिकित्सकों के 2,365 पद स्वीकृत हैं लेकिन कार्यरत केवल 1000 चिकित्सक ही हैं, इन एक हजार चिकित्सकों में 150 संविदा चिकित्सक भी शामिल हैं, चिकित्सकों के शेष पद रिक्त पड़े हुए हैं। पहाड़ के 4,82,703 तो मैदान के 200804 परिवारों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है। आज भी करीब साढ़े आठ लाख परिवारों के घरों तक पेयजल की सुविधा नहीं पहुंची है। राज्य गठन के समय प्रदेश के सेवायोजन कार्यालयों में लगभग 3 लाख बेरोजगार पंजीकृत थे जिनकी संख्या आज 8 लाख पार कर गयी है।   
जिला मुख्यालय पौड़ी से लगभग 40 किमी दूर स्थित कल्जीखाल ब्लाक में चौंडली गांव में एक दशक पूर्व तक 50 से अधिक परिवार रहते थे, लेकिन आज वह गांव पूरी तरह जनसंख्या शून्य हो गया। श्रीनगर गढ़वाल के निकट चलणस्यूं पट्टी के सुजगांव में रह रहा अन्तिम निवासी एक वृद्ध पिछले साल चल बसा और उसकी मौत के साथ ही वह गांव जनसंख्या विहीन ही गया। आबादी के पलायन की यह कहानी अकेले सुजगांव, चौंडली या किमगड़ी की नहीं हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार अकेले पौड़ी गढ़वाल में सन् 2005 तक 313 गांव लगभग खाली हो चुके थे। इनमें से सबसे अधिक आबादीविहीन 48 गांव अकेले कोट ब्लाक के थे। आज उत्तराखंड के गांवों में 2,57,825 तो शहरों में 78,584 मकान खाली पड़े हैं। मजेदार बात तो यह है कि जिन गांवों में अब कोई नहीं रहता वहां सरकारी विकासकर्मियों के दौरे अब भी जारी हैं। सन्  2011 की जनगणना में जहां देश के अन्य हिस्सों में जनसंख्या वृ़द्ध दर्ज हुयी है वहीं उत्तराखण्ड के पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में जनसंख्या घट गयी। 2001 की जनगणना की तुलना में राज्य के पहाड़ी जिलों में 2011 में 32 राजस्व गांव कम हो गये हैं। हजारों गावों की आवादी आधा रह गयी है, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ के सीमांत जनजाति क्षेत्रों में तो स्थिति और भी गंभीर हो गयी है जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये भी खतरा उत्पन्न हो गया है। जबकि मैदानी और नगरीय क्षेत्रों की अबादी में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गयी है। राज्य सरकार के संख्या एवं अर्थ विभाग द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार बच्चों को बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये भी लोग पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं। इसके अलावा बेहतर इलाज और रोजगार के लिये भी यहां पलायन हो रहा है।
उत्तराखण्ड से लगी भारत और नेपाल की लगभग 600 कि.मी. से लम्बी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा है। नेपाल के माओवाद का असर तो उत्तराखण्ड पर दिखने भी लगा है। पिथौरागढ़ जिले में तिब्बत से लगी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़ी ब्यांस,दारमा और चौंदास घाटियों में 1991 और 2001 के बीच बड़े पैमाने पर पलायन दर्ज हुआ है। उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्य सचिव नृपसिंह नपलच्याल ब्यांस घाटी के नपल्च्यू गांव के मूल निवासी हैं जहां की आबादी 2001 में मात्र 58 रह गयी थी। आज की स्थित तो और भी चिन्ताजनक हैं। आखिर सूबे पर शासन चलाने वाले नृपसिंह क्यों अपने गांव नपल्च्यू जायेंगे। इस ब्यांस घाटी में उक्त अवधि में आबादी 1161 से घट कर 1018 रह गयी है। दारमा घाटी में भी जनसख्या 1541 से घटक 1210 रह गयी है। इन घाटियों के नाबी, रौंगकौंग, गुंजी, गर्ब्यांग, बूंदी, सीपू, मार्छा, तिदांग, गो मे, दांतू मे, दुग्तू, बोन मे, बालिंग, चल मे, नांग्लिंग मे और सेला जैसे सीमान्त गांवों के खाली होने का एक कारण यह भी है कि यहां के जागरूक जनजाति लोगों ने आरक्षण का भरपूर लाभ उठाया और वे आइ..एस. और आइ.पी.एस. जैसे पदों पर चले गये। लेकिन पहाड़ के बाकी गांवों में मजबूरी ने लोगों को गांवों से उठा लिया। पिथौरागढ़ की ही तरह सीमान्त जिला चमोली की नीती माणा घाटियों की भी कहानी है। 1991 में सीमान्त गांव माणा में 199 परिवार थे जो कि 2001 तक 188 ही रह गये। देश के इस अन्तिम गांव की जनसंख्या 1991 में 942 थी जो 2001 तक 594 रह गयी। 1991 की जनगणना की तुलना में 2001 में नीती घाटी के नीती गांव में जनसंख्या 123 से 98, गमसाली में 208 से 147,बम्पा में 97 से 74,मलारी में 554 से 434,जेलम में 409 से 315,जुम्मा में  214 से 98 और गरपक में जनसख्या 49 से घट कर 33 रह गयी। इन गावों के जनजाति लोगों को भी आरक्षण का भरपूर लाभ मिला मगर गावों के हाथ बीरानगी के अलावा कुछ नहीं लगा। पहाड़ों से अबादी के पलायन का सीधा असर मैदानी नगरों के नगर नियोजन और नागरिक सुविधाओं पर पड़ रहा है। अकेले देहरादून की बिन्दाल और रिस्पना नदियों के किनारे बसी मलिन बस्तियों में लगभग 2 लाख लोग रह रहे हैं। जिनमें बांग्लादेशियों के साथ ही पहाड़ के प्रवासी भी हैं। सत्ता में बैठे लोग चांद तारों की बात करते हैं मगर उन्हें इस पलायन की चिन्ता नही है।
प्रदेश में राजनीतिक अराजकता भी राज्यवासियों के सपनों का उत्तराखंड बनने में बाधक रही है। जिन लोगों को अगले सौ या पचास साल की प्लानिंग करनी थी, उनका अपना ही भविष्य अनिश्चित रहा है। चौदह सालों में 8 मुख्यमंत्रियों का आना राजनीतिक अस्थिरता का ही नमूना है। दरअसल यहां अपने ऊपर कोई किसी को सहन नहीं करता। इन चौदह सालों में एक पार्टी की सरकार को विपक्ष से नहीं बल्कि उसी पार्टी के लोगों से खतरा बना रहा है। राजनीतिक नेतृत्व के कमजोर होने से प्रदेश में अराजकता की स्थिति बनी रही। आज प्रदेश का बजट 25 हजार करोड़ तक पहुंच गया जिसमें से राज्य के विकास पर 5 हजार करोड़ भी खर्च नहीं हो रहे हैं, जबकि 20 हजार करोड़ से अधिक की रकम नौकरशाही और राजनीतिक पदाधिकारियों पर ही खर्च हो रही है। इसके बाद भी कोई संतुष्ट नहीं है। इस हाल में उत्तराखंड ऊर्जा प्रदेश, आयुष प्रदेश, पर्यटन प्रदेश या फल प्रदेश तो बन नहीं पाया मगर हड़ताल प्रदेश और लूट प्रदेश अवश्य बन गया।

- जयसिंह रावत
-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
jaysinghrawat@gmail.com