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Wednesday, May 16, 2018

First time in the history of Uttarakhand Cabinet meeting chaired by the Chief Minister Trivendra Singh Rawat was held at Tehri Lake on floating marina boat on Wednesday.

 टिहरी झील में हुई उत्तराखण्ड कैबिनेट की बैठक
टिहरी झील मंे पहली बार आयोजित फ्लोटिंग मरीना (झील के ऊपर तैरता हुए रेस्तरांमें मंत्री परिषद की बैठक आयोजि की गई। बैठक में वर्ष 2018 को रोजगार वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। बैठक में कुल 13 बिंदु प्रस्तावित थे जिनमें से 12 बिंदुओं पर सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया।
बुधवार को टिहरी झील के ऊपर फ्लोटिंग मरीना में राज्य कैबिनेट की बैठक ठीक 11 बजे मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अध्यक्षता में शुरू हुई। राज्य के इतिहास में यह पहला अवसर है जब झील के ऊपर बैठक हुई। सीएम और मंत्रियों ने लाईफ जैकेट पहनकर राज्य हित में 12 बिंदुओं पर निर्णय लिए।
बैठक समाप्त होने के बाद शहरी विकास मंत्री और सरकार के प्रवक्ता मदन कोशिक ने बैठक में जो निर्णय लिए गए उनकी जानकारी दी। राज्य की मंत्री परिषद की बैठक में यह निर्णय लिए गए-
1. 13 डिस्ट्रिक्ट 13 डेस्टिनेशन के तहत सभी जिलों में एक-एक नए पर्यटक क्षेत्र को विकसित कर उसे नया पर्यटक गंतव्य बनाया जाएगा। इनमें टिहरी जिले में टिहरी बांध की विशालकाय 42 वर्ग किमी झील को पूर्ण रूप से विकसित कर नया अंतराष्ट्रीय पर्यटक स्थल बनाना शामिल है। इसके अतिरिक्त अल्मोड़ा में कटारमल का सूर्य मंदिर, नैनीताल में मुक्तेश्वर धाम, पौड़ी में सतपुली और खैरासैण, चमोली में गैरसैण और भराड़ीसैण, देहरादून में महाभारत सर्किट के रूप में लाखामंडल, हरिद्वार में पावन भूमि शक्तिपीठ, उत्तरकाशी में मोरी हरकीदून, रूद्रप्रयाग में चिरबटिया, ऊद्यमसिंहनगर में गुलरभोज, चंपावत में देवीधुरा, बागेश्वर में गरूण वैली और पिथौरागढ़ में मोस्टमानो शामिल है।
2. पंडित दीनदयाल सामाजिक सुरक्षा योजना के तहत गरीब असहाय महिलाओं को विभिन्न रोजगार के लिए एक लाख रूपए तक का ऋण एक प्रतिशत ब्याज पर जिला सहकारी बैंकों से दिया जाएगा।
3. एससी/एसीटी/ओबीसी आरक्षण गणना में 1.5 से ऊपर को डबल माना जाएगा।
4. उत्तराखंड राज्य अधिनस्थ सेवा वयैक्तिक सहायक की पदोन्नति और सीधी भर्ती का हरी झंडी।
5. प्रदेश में एमएसएमआई (सूक्ष्म, मध्यम एवं लघु उद्योग ) की क्रय-विक्रय नीति में संसोधन करते हुए पर्यटन को उद्योग का दर्जा देने का निर्णय लिया गया। आयुर्वेद, पंचकर्म, यूनानी चिकित्सा, नेचुरलोपैथी, योगा, होम्योपैथी, स्पॉ, पॉवर वोट, स्किल गेम, वोटर स्कीईंग, राफ्टिंग को पर्यटन के क्षेत्र में उद्योग का दर्जा दिया गया।
6. एमएसआई (भारतीय चिकित्सा परिषद) के ढांचे का पुनर्गठन करते हुए आठ नए पदों का सृजन किया गया। पूर्व में इसके लिए सात पद स्वीकृत थे। नए पदों में आशुलिपिक, चतुर्थ श्रेणी, कनिष्ठ सहायक कम डाटा एंट्री ऑपरेटर आदि पदो को मंजूरी दी गई।
7. मेथा प्रजाति को मंडी परिषद से अलग किया गया।
8. वीरचंद्र सिंह गढ़वाल योजना का दायार बढ़ाते हुए कुल 19 उद्योगों के लिए ऋण मुहैय्या करवाया जाएगा। पूर्व में 8 बिंदुओं पर ऋण दिया जाता था। नए बिंदुओं में साहसिक खेलों को वरीयता देते हु कयाकिंग, कैरा वैन, एंकलिंग, स्टार डैसिंग, लॉंड्री, बैकरी, म्यूजियम, स्मारिका, उत्पादन एवं विक्रय केंद्र और ट्रेकिंग उपकरणांे के लिए ऋण दिया जाएगा।
9. मेगा इंडस्ट्रीज इन्वेस्टमेंट नीति में संसोधन करते हुए लार्ज, मेगा और अल्ट्रा मेगा उद्योगों को बढ़ावा दिया जाएगा। इसके तहत सी-प्लेन, आयुष, वैलनेश, रोपवे, पॉवर वोट, वंचिंग जंपिंग, कयाकिंग सहित 22 बिंदु में समाहित किए गए हैं।
10. रूद्रप्रयाग जिले के बेला कोटेश्वर में स्थित ज्योतिष पीठाश्वर जगतगुरू स्वामी माधवाश्रम के चिकित्सालय को राजकीय चिकित्सालय का दर्जा दिया गया। इसमें कार्यरत कर्मियों को भी समायोजित करने का मंत्री परिषद ने निर्णय लिया।
11. पीरूल के लिए पहली बार स्पष्ट नीति बनाते हुए इसे रोजगार से जोड़ा गया हैं पीरूल से बिजली, तारपिन, बयो फ्यूल बनाया जाएगा। बायो फ्यूल के लिए देहरादून में भूमि आवंटन किया गया है।
इसके अलावा दो बिंदुओं पर ब्रीफिंग नहीं की गई, क्योंकि निकाय चुनाव की आचार संहिता चल रही है। इसके चलते सरकारी प्रवक्ता मदन कौशिक ने दो बिंदुओं की घोषणा नहीं की।

बैठक में यह मंत्री रहे मौजूद-
वित्त मंत्री प्रकाश पंत, पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज, वन मंत्री डा. हरक सिंह रावत, कृषि मंत्री सुबोध उनियाल, समाज कल्याण मंत्री यशपाल आर्य, शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय, शहरी विकास मंत्री सरकार के प्रवक्ता मदन कौशिक, बाल विकास राज्यमंत्री रेखा आर्य।

इस मौके पर टिहरी के विधायक धन सिंह नेगी, प्रतापनगर के विधायक विजय सिंह पंवार, घनसाली विधायक शक्तिलाल शाह, मुख्य सचिव उत्पल कुमार, प्रमुख सचिव राधा रतूड़ी, आयुक्त गढ़वाल मंडल दिलीप जावलकर, डीएम सोनिका, एसएसपी विमला गुंज्याल आदि मौजूद रहे।



Friday, May 11, 2018

नरम वामपंथ की हार चरम वामपंथ की जीत है


नरम वामपंथ की हार चरम वामपंथ की जीत है ?
-जयसिंह रावत
संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले भारतीय वामपंथ का पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी लाल किला ढह जाने के बाद देश की चारों वामपंथी पार्टियों को तो अपने भविष्य के प्रति चिन्तित और सजग होना ही है, लेकिन कम्युनिस्टों को पराजित कर उनके किले के परखचों पर अट्टाहस करने वालों और वामपंथ का नामोनिशान मिटाने के जज्बे के साथ त्रिपुरा के बेलोनिया और सबरूम में ब्लादिमिर लेनिन की प्रतिमाओं को जमींदोज करने वालों के प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थकों को भी सोचना होगा कि अगर यह वामपंथ सचमुच इतना बुरा है तो फिर उस चरम वामपंथ के बारे में क्या कहेंगे जिसकी हिंसा में सेकड़ों वीर जवानों सहित हजारों लोग अब तक मारे जा चुके हैं। अगर शाषित शोसितों की आवाज उठाने वाला लोकतांत्रिक वामपंथ देश के राजनीतिक नक्शे से मिट गया तो खून खराबे वाला चरम वामपंथ केवल मजबूत होगा अपितु चुनाव के जरिये सत्ता में आने वाले वामपंथ को पथभ्रष्ट और अदूरदर्शी साबित करने में भी सफल हो जायेगा। अतिवादी वामपंथी जिन कारणों से मुख्य धारा से अलग हुये थे उनमें सबसे प्रमुख कारण कम्युनिस्ट पार्टियों का क्रांति का मार्ग किनारे कर लोकतांत्रिक मार्ग से सत्ता तक पहुंचना ही मुख्य था।
अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी के समक्ष संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी का उदाहरण पेश करने तथा दुनिया की सबसे दीर्घजीवी लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार चला कर कीर्तिमान स्थापित करने वाले भारतीय कम्युनिस्ट अब केवल एक राज्य केरल तक ही सिमट कर रह गये हैं। सन् 1957 में इसी केरल ने ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार दी थी। यह अंतिम लाल किला भी कब तक सलामत रहेगा, यह आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन जिस तरह देश में चरम वामपंथ अपनी जड़ें जमा रहा है और नरम वामपंथ कमजोर हो रहा है, वह चिन्ता का विषय अवश्य है। डर है कि भारतीय वामपंथ की मुख्य धारा से भटक कर हथियार उठाने वाले चरमपंथी कहीं स्वयं को देश की शोषित -शासित जनता के समक्ष उसका असली रहनुमा साबित कर दे। वैसे भी नरम वामपंथियों का प्रभाव तो केवल तीन राज्यों में रहा है लेकिन गृह मंत्रालय के अनुसार चरम वामपंथी नक्सलियों का प्रभाव 10 राज्यों के 103 जिलों में हैं। इनमें से 30 जिले अति संवेदनशील श्रेणी में रखे गये हैं।
इंस्टीट्यूट फॉर कान्फलिक्ट मैनेजमेंट द्वारा जारी आंकणों के अनुसार सन् 2005 से लेकर 2018 तक देश के 15 राज्यों में माओवादी या चरम वामपंथी हिंसा में 7763 लोग मारे जा चुके हैं। इनमें 3092 सिविलियन, 1952 सुरक्षा बलों के जवान एवं 2719 माओवादी उग्रवादी शामिल हैं। माओवादी हिंसा में 739 आन्ध्र्र प्रदेश में, 4 असम, 678 बिहार, 2765 छत्तीसगढ़, 1539 झारखण्ड, 31 कर्नाटक, 3 केरल, 5 मध्य प्रदेश, 498 महाराष्ट्र, 765 उड़ीसा, 1 तमिलनाडू, 22 तेलंगाना, 15 उत्तर पद्रेश एवं 699 लोग पश्चिम बंगाल में मारे गये। माओवादियों की 13 राज्यों में राज्य कमेटियां स्थापित हैं और इनके अलावा 2 स्पेशल एरिया कमेटियां और 3 स्पेशल जोनल कमेटियां भी कार्यरत् हैं। गृह मंत्रालय के आकणों के अनुसार 1999 से लेकर 2016 तक माओवादी हिंसा की 26511 वारदातों में 7615 नागरिक, 2585 सुरक्षा बलों के कार्मिक एवं 3019 नक्सली मारे जा चुके हैं।
लोकतंत्र में राजनीतिक दल चुनाव जीतते और हारते रहते हैं। इस व्यवस्था में किसी भी एक दल या गठबंधन का स्थाई शासन तो संभव है और ना ही उचित है। जनता को अपनी पसंद की सरकार के लिये किसी भी राजनीतिक दल का चयन करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। वामपंथी भी त्रिपुरा में 25 साल और पश्चिम बंगाल में लगभग 34 साल तक राज करने के बाद चुनाव हार गये तो लोकतंत्र में यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं है। लेकिन दुनिया में इस अन्तर्राष्ट्रीय विचारधारा की जो स्थिति है और भारत में जिस तरह राजनीति मजहब, जात-बिरादरी, क्षेत्र, भाषा और धन बल पर केन्द्रित होती जा रही है और जनवाद कमजोर हो रहा है, उससे वामपंथ के एक बार फिर उठ खड़े होने की संभावना धंुधली होती जा रही है। यह भारतीय वामपंथ ही था जिसने पश्चिम बंगाल में 34 साल तक लगातार शासन कर सबसे दीघार्यु लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट शासन का विश्व रिकार्ड बनाया था। यह मार्क्सवादी पार्टी ही थी जिसने केन्द्र में दो बार सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की मगर देश के प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव ठुकरा दिया। फिलहाल भारत के वामपंथ के उस स्वर्णिम काल के लौटने की संभावना कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं रही है। लेकिन समाज में जब तक गैरबराबरी, अन्याय, उत्पीड़न और शोषण रहेगा तब तक पीड़ितों और उपेक्षितों का गुस्सा किसी किसी रूप में जरूर प्रकट जरूर होगा।
सवाल केवल चुनाव हारने या जीतने तक नहीं है। सवाल दुनिया के कम्युनिस्टों को बुलेट की जगह बैलेट का रास्ता दिखाने वाले वामपंथ के अवसान का और अन्य कम्युनिस्टों की तरह सशस्त्र क्रांति के द्वारा बुर्जुवा शासक वर्ग से सत्ता छीन कर सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करने वाली उस विचारधारा के पनपने का है जो कि दुनियां में ही अंतिम सांसें ले रही है। चरमपंथी वामपंथ आज भारत की सत्ता के लिये सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है। आप बाहरी दुश्मन को सीमा पर खदेड़ सकते हैं और अगर वह अंदर घुस गया तो उसका चुन-चुन कर सफाया कर सकते हैं, मगर जो शत्रु रक्त के साथ ही शरीर में घुस गया हो उसे मारना आसान नहीं है। वैसे भी आप वामपंथी को तो मार सकते हैं मगर किसी के दिमाग में घुस कर उसके वामपंथी विचार को नहीं मार सकते। भारत के नरम और चरम वामपंथ के रास्ते भले ही अलग-अलग हों मगर दोनों का लक्ष्य एक ही है और वह लक्ष्य शोषित-शासित की सत्ता स्थापित करना है।
चरमपंथी संशस्त्र क्रांति के लिये शोषितों, उपेक्षितों और आदिवासियों को लामबंद कर रहे हैं। दशकों से जबकि नरमपंथी लक्ष्य हासिल करने के लिये संसदीय लोकतंत्र के मार्ग पर चल रहे हैं। अगर भारत में लोकतंत्र मार्गी वामपंथ का सफाया हो गया तो चरमपंथियों को यह साबित करने का मौका मिल जायेगा कि वही सही थे और चुनाव लड़ने वाले वामपंथी अवसरवादी और रास्ता भटके हुये थे।
कम्युनिस्ट आन्दोलन में नरम और गरम विचारों का टकराव शुरू से रहा। इसीलिये कम्युनिस्ट पार्टी के टुकड़े होते रहेे और उन टुकड़ों के भी टुकड़े होते चले गये। आजादी से पहले त्रिपुरा, तेलंगाना एवं ट्रावनकोर और कोचीन जैसे राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी ने वहां की राजशाहियों के खिलाफ शोषित-शासितों को लामबंद कर सशस्त्र संघर्ष भी चलाये। बी.टी. रणदिवे (बीटीआर) के महासचिव काल में हैराबाद के निजाम के खिलाफ भी सशस्त्र संघर्ष चला। उस समय हैदराबाद का एक हिस्सा कम्युनिस्टों के कब्जे में भी गया था। लेकिन बाद में निजामशाही ने इस विद्रोह को बुरी तरह कुचल दिया था। परिणाम स्वरूप बीटीआर को पद से हटना पड़ा। कम्युनिस्ट पार्टी का सन् 1964 का विभाजन भी गरम और नरम दल के वैचारिक टकराव का नतीजा ही था। चीनी आक्रमण के बाद एक गुट राष्ट्रवाद का पक्षधर था और भारतीय परिस्थितियों के अनुसार आगे बढ़ना चाहता था। लेकिन दूसरा गुट अन्तर्राष्ट्रीयवाद को महत्व देकर चीन को हमलावर मानने को तैयार नहीं था। गरम दल ने 1964 में अलग पार्टी कान्फ्रेंस आयोजित कर अपनी अलग ‘‘भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)’’ बना डाली जबकि राष्ट्रवाद पर जोर देने वाला नरम दल मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) में ही बना रहा। सीपीआइ विचारधारा लोकतांत्रिक प्रकृया से लक्ष्य प्राप्ति की पक्षधर थी जबकि सीपीआइएम या मार्क्सवादी पार्टी क्रांति के विकल्प को भी खुला रखने के पक्ष में थी। आगे चल कर सीपीआइ से श्रीपाद अमृत डांगे ने अलग कम्युनिस्ट पार्टी बना कर उसे कांग्रेस के साथ जोड़ दिया। हालांकि सीपीआइ भी 1970 से लेकर 77 तक कांग्रेस के सहयोगी के रूप मे ंरही और उसने आपातकाल का समर्थन भी किया। मगर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का शुरू से कांग्रेस विरोधी रुख रहा। यही नहीं हरिकिशन सिंह सुरजीत जैसे माकपाई देश की लोकतांत्रिक राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे। सन् 1967 में और अधिक चरमपंथी चारू मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में मार्क्सवादी पार्टी से भी अलग हो गये और उन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिवादी) पार्टी बना डाली। चारू मजूमदार नक्सलवाद के संस्थापक होने के साथ ही वामपन्थ के बहुत बड़े विचारक थे। उनकेऐतिहासिक आठ दस्तावेजों।को  नक्सल आन्दोलन की बाइबिल कहा जा सकता है। सन् 70 के दशक में नक्सलवाद लगभग बिखर गया था और उसके कम से कम 30 टुकड़े हो गये थे। लेकिन बाद में वे फिर संगठित होने लगे। कुछ ही वर्ष पहले वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिवादी जनशक्ति) के बैनर तले एकजुट हो गये। इन उग्र विचारों के संवाहक  और पोषक कोई देहाती खेतीहर मजदूर या आदिवासी नहीं बल्कि उच्च शिक्षित लोग हैं, जिनका मानना है कि सर्वहारा का राज बैलेट से नहीं बल्कि बुलेट से ही सकता है। इस तरह के विचार के श्रोत विश्वविद्यालय, इन्जिनीयरिंग और मेडिकल कालेजांे तथा अन्य उच्च शिक्षा केन्द्र हैं।

-जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
Mobile-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com