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Thursday, January 28, 2021

लाचार व्यवस्था के सामने लाल किले पर कब्जा

 

लाचार व्यवस्था के सामने लाल किले पर कब्जा

-जयसिंह रावत

गणतंत्र दिवस की पावन बेला पर भारतीय गणतंत्र की सम्प्रभुता और अखण्डता के प्रतीक एवं सदियों तक भारत की हुकूमत के केन्द्र रहे लाल किले पर हुये अराजक तत्वों के बेहद शर्मनाक हमले के बाद इस राष्ट्र विरोधी हरकत के लिये सम्बन्धित पक्ष एक दूसरे पर दोष मढ़ कर स्वयं को पाक साफ साबित करने का प्रयास कर तो रहे हैं लेकिन देखा जाय तो राष्ट्र को शर्मसार करने वाली इस घटना के लिये हमलावर तो अपराधी हैं ही, लेकिन इसके लिये किसान नेतृत्व, पुलिस तथा खुफिया ऐजेंसियां और स्वयं सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते।

भारत की राजनीति के कई उतार और चढ़ावों का गवाह रहे इस किले में शाहजहां से लेकर बहादुर शाह जफर तक 15 बादशाहों का आवास ही नहीं बल्कि हिन्दुस्तान की हुकूमत का केन्द्र भी रहा। मुगल सुल्तान शाह आलम को हराने के बाद 11 मार्च 1783 में बाबा बघेल सिंह ने अपनी फौज सहित दिल्ली के लाल किले पर केसरिया झंडा लहराया था। उससेे पहले लाल किले को सन् 1747 में ईरान के बादशाह नादिर शाह ने लूटा। सत्ता और वैभव के लिये इस किले पर कभी नादिर शाह, कभी सिखों के तो कभी मराठों के हमले होते रहे और इसके काहिनूर समेत बहुमूल्य रत्न जड़ित मयूर सिंहासन (तख्त--ताउस ) आदि वैभव लुटते रहे। अंत में अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के बाद इस किले को केवल सत्ताविहीन किया बल्कि कोहिनूर को भी लूट कर ले गये। गदर को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने लाल किले को अपनी सेना के बैरकों में बदल दिया था। अन्ततः यह किला देश की आजादी के साथ ही 1947 में आजाद हुआ। इसी लाल किले की प्राचीर से 1911 में जार्ज पंचम और महारानी मैरी ने भारत की जनता को संबोधित किया था। 16 अगस्त 1947 से लेकर 15 अगस्त 2020 तक जिस लाल किले की प्राचीर से हमारे 12 प्रधानमंत्री 21 तोपों की सलामी के साथ देश की शान तिरंगा फहराते रहे और देश के भविष्य का एजेंडा घोषित करने के साथ ही सारी दुनियां के समक्ष अपनी सम्प्रभुता का जयघोष करते रहे उसी प्राचीर और राष्ट्रीय ध्वज पर अराजक और उन्मादी भीड़ का कब्जा बहुत ही गंभीर बात है।

जिन लोगों ने लाल किले की प्राचीर की गरिमा और महिमा का अतिक्रमण किया उनके खिलाफ तो कानून अपने हिसाब से कार्यवाही रूर करेगा लेकिन इस महापाप से वे किसान नेता कैसे बच सकते हैं, जिन्होंने पुलिस को शांतिपूर्ण ढंग से ट्रैक्टर रैली निकालने का वचन दिया था। भीड़ का तो कोई चेहरा होता है और ना ही चरित्र। लेकिन इस आन्दोलन में 40 नेताओं का समूह स्वयं ही भीड़ साबित हो गया। जो किसान आन्दोलन मंजिल के करीब पहुंच गया था वह आसमान से गिर कर खजूर पर अटकने जैसी स्थिति में गया। देशवासियों की जो भावनाएं किसानों के प्रति थीं वे लालकिले पर हमले के बाद पलटती नजर रही हैं।

भारत सरकार भी इस हादसे की जिम्मेदारियों से नहीं बच सकती है। किसान नेताओं द्वारा दिये गये शांति और अनुशासन के वायदे के बावजूद कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी किसान नेतृत्व की नहीं बल्कि सरकार की थी। सरकार की ओर से कहा गया था कि किसान आन्दोलन में गड़बड़ी और अराजकता फैलाने के लिये पाकिस्तान में 3 सौ से ज्यादा ट्विटर हैंडलर सक्रिय हैं। पुलिस इस खतरे से आन्दोलनकारियों को तो आगाह कर रही थी, मगर स्वयं खुफिया ऐजेंसियों सतर्क नहीं थंी। खुफिया तंत्र और सरकार का जानकर भी अनजान बनना भी हैरत की बात है।

आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के साथ ही देश की एकता और अखण्डता की जिम्मेदारी सरकार की होती है। अन्य राज्यों में तो आन्तरिक सुरक्षा या कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है लेकिन दिल्ली के लिये यह जिम्मेदारी केवल भारत सरकार की है। यह विशेष व्यवस्था राजधानी क्षेत्र की अति संवेदनशील स्थिति को देखते हुये की गयी है। क्या गृहमंत्रालय को पता नहीं था कि भीड़ का कोई चेहरा और चरित्र नहीं  होता है? क्या गृह मंत्रालय को पता नहीं था कि किसानों के 40 नेताओं की भीड़ कुण्ठाओं के साथ ही धार्मिक उन्माद से प्रभावित लाखों लोगों की उत्तेजित भीड़ को संभालने की स्थिति में नहीं है। इस तर्क में भी दम नहीं कि अगर चुप नहीं रहते तो खून खराबा हो जाता। कल अगर कोई कहे कि हमें संसद भवन को कब्जाने दो अन्यथा बहुत खून खराबा हो जायेगा, तो क्या सरकार खून खराबे के डर से उत्पातियों को खुली छूट दे देगी? संसद भवन पर 13 दिसम्बर 2001 को आतंकी हमला हो चुका है। इससे पहले 22 दिसम्बर 2000 को लालकिले पर लस्कर--तोइबा का हमला हो चुका था। जाहिर है कि ये अति महत्वपूर्ण इमारतें राष्ट्र विरोधियों के निशाने पर पहले से ही हैं। ऐसी स्थिति का फायदा देश के दुश्मन भी उठा सकते हैं इसलिये भी देश के नेतृत्व का 26 जनवरी के दिन की तरह बेबस, कमजोर और लाचार दिखना भी खतरनाक साबित हो सकता है।

लाल किले की प्राचीर से जिस तरह निशानयुक्त धार्मिक झण्डा फहरा कर जयघोष किया गया वह भविष्य के लिये खतरे की घण्टी है। सरकार को नहीं भूलना चाहिये कि मुश्किल से खालिस्तानी आतंकवाद पर काबू पाया जा सका था। यह सही है कि किसान आन्दोलन का लाभ खालिस्तान समर्थक उठाना चाहते हैं। लेकिन किसान आन्दोलन को बदनाम करने के लिये सारे किसानों को खालिस्तान समर्थक साबित करने का प्रयास भी बेहद खतरनाक हो सकता है। इसी प्रकार नागरिकता कानून के विरोध में शाहीनबाग के आन्दोलन को पाकिस्तान समर्थक साबित करने का प्रयास हुआ था। इन जहरीली बातों को भले ही नेता उगलें मगर उनके समर्थक खुले आम सोशियल मीडिया पर इस तरह का अभियान चलाते रहते हैं। देश की राजनीति का जिस तरह साम्प्रदायीकण किया जा रहा है वह भी अपने आप में आग से खेलने जैसा ही है। अगर राजनीतिक सत्ता पर धर्म के आधार पर कब्जा करने की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा तो भविष्य में लालकिले पर धार्मिक निशान वाले झण्डों को फहराने की होड़ लग जायेगी।

जयसिंह रावत

-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर

डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

 

 

Saturday, January 23, 2021

नेता जी की गुमसुदगी : गुप्त फाइलों को बेपर्दा  करने का असली मकसद नेहरू को बेपर्दा करना ही था 




सुभाष चंद्र बोस जयंती 2021: एक साहसी और विराट जीवन


 



जयसिंह रावत  Updated Sat, 23 Jan 2021 10:52 AM IST



नेताजी सुभाष चंद्र बोस (फाइल फोटो): जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार - फोटो : Twitter

जापान के ताइपेइ में कथित विमान दुर्घटना को 77 साल हो गए। इन सात दशकों में तीन जांच आयोग इस मुद्दे को किसी निष्कर्ष पर पहुंचाने में नाकाम रहे और पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक देश के हर प्रधानमंत्री ने यह गुत्थी अपने उत्तराधिकारी को सौंपी जिसे सुलझाने का प्रयास नरेन्द्र मोदी ने अवश्य किया मगर पहेली अब भी जहा की तहां है। स्वयं अंग्रेजों ने भी जाते-जाते अपने तरीके से नेताजी की स्थिति की गोपनीय जांच कराई। इस विषय को लेकर काफी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी हुए और शोधकर्ताओं में काफी परस्पर तकरारें भी हुईंं। लेकिन भारत के राजनीतिक इतिहास की इस सबसे बड़ी पहेली को कोई भी प्रमाणिक तौर पर नहीं सुलझा सका। यहां तक कि 7 दशकों तक अत्यन्त गुप्त रखी गई फाइलों को भी सार्वजनिक कर दिया गया फिर भी रहस्य जहां का तहां पड़ा रहा। मातृभूमि की आजादी की खातिर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के विपरीत जापान से जा मिलने और भारत सरकार के खिलाफ युद्ध शुरू करने पर उन्हें अंग्रेजों ने युद्ध अपराधी घोषित कर दिया था। इसलिए भी नेताजी गुमशुदगी का रहस्य गहराता गया।गौर करने वाली बात यह है कि अगर गुप्त फाइलों से नेताजी की गुमशुदगी में जवाहर लाल नेहरू का कोई हाथ मालूम पड़ता तो मोदी सरकार नेहरू को कब्र में भी नहीं छोड़ती। यह बात छिपी नहीं है कि  नेहरू विरोधी और खास कर भाजपा के लोग  नेताजी की गुमशुदगी के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं 

जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार

जापान ने सबसे पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा की थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गई। लेकिन टोकिया और टहैकू के विरोधाभासी बयानों पर संदेह उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 3 दिसम्बर 1955 को 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करने की घोषणा की जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एन.एन. मैत्रा शामिल थे। इस कमेटी के शाहनवाज खान और मैत्रा ने नेताजी के निधन की जापान की घोषणा को सही ठहराया तो सुरेश चन्द्र बोस ने असहमति प्रकट की। इसलिए विवाद बरकार रहा। इसके बाद 11 जुलाई 1970 को जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बैठाया गया तो आयोग ने विमान दुर्घटना वाले पक्ष को सही माना, मगर नेताजी के परिजनों, जिनमें समर गुहा भी थे, ने इसे अविश्वसनीय करार दिया। इसी दौरान कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी मामले की गहनता से जांच करने का आदेश भारत सरकार को दिया तो 1999 में वाजपेयी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बिठाया गया। 7 वर्ष की जांंच के बाद 6 मई 2006 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें आयोग ने पाया कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी। लेकिन मुखर्जी आयोग ने यह भी माना कि नेताजी अब जीवित नहीं हैं, परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में ताईपेई में किसी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ताईवान ने कहा-18 अगस्त, 1945 को कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और रेनकोजी मंदिर (टोक्यो) में रखीं अस्थियां नेताजी की नहीं हैं। आयोग की जांच में यह भी पाया गया कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत नहीं। नेताजी के परिवार के दो सदस्यों ने नेताजी की रहस्यमय मौत की जांच के लिए बने मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे। 



क्या देहरादून के साधु नेताजी थे?

आयोग ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित शोलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदा नन्द को भी नेताजी होने की पुष्टि नहीं की। आयोग के समक्ष दावा किया गया था कि फकाता कूच बिहार की तर्ज पर ही शोलमारी आश्रम बना हुआ है। आयोग के समक्ष कहा गया कि इस आश्रम की स्थापना 1959 के आसपास उक्त साधुु ने की थी जिसका विस्तार बाद में 100 एकड़ में किया गया और वहां लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे। आश्रम में सशस्त्र गार्ड भी रखे गए जिससे स्थानीय लोग आशंकित हुए। 


देहरादून के 194  राजपुर रोड स्थित उस साधू बाबा का भवन जिनको कई लोग सुभाष चंद्र बोस  मानते थे. मुखर्जी आयोग ने इस दावे की भी जाँच की थी। 

सन् 1962 में नेताजी के एक साथी मेजर सत्य गुप्ता आश्रम में पहुंच कर साधु से बात की और वापस कलकत्ता लौटने पर उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर साधुु को नेताजी होने का दावा किया जो कि 13 फरवरी 1962 के अखबारों में छपा। यह मामला संसद में भी उठा। उक्त साधु की 1977 में मृत्य हो गई जांच आयोग ने कुल 12 लोगों के बयान शपथ पत्र के माध्यम से लिए जिनमें से 8 ने साधुु को नेताजी बताया मगर एक वकील निखिल चन्द्र घटक, जो कि साधु के कानूनी मामले भी देखते थे आयोग के समक्ष कहा कि साधुु स्वयं कई बार स्पष्ट कर चुके थे कि वह सुभाष चन्द्र बोस नहीं हैं और उनके पिता जानकी नाथ बोस और माता विभावती बोस नहीं बल्कि वह पूर्वी बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्में हैं। आयोग नेताजी के देहरादून में रहने की पुष्टि नहीं कर सका। इसी तरह आयोग के समक्ष शेवपुर कलां मध्य प्रदेश और फैजाबाद के साधुओं के नेताजी होने के दावे किए गए जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया।

 

कैबिनेट सचिव अजीत सेठ कमेटी की सिफारिशें

10 अप्रैल, 2015 के अंक में इंडिया टुडे में खुफिया ब्यूरो द्वारा 20 साल तक नेताजी के परिजनों पर निगरानी की स्टोरी छपने के बाद मोदी सरकार ने अप्रैल 2015 में कैबिनेट सचिव अजीत सेठ की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसमें इसमें गृह मंत्रालय, आईबी, रॉ और प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े अधिकारी शामिल थे। इस कमेटी को आफिशियल सीक्रेट एक्ट के आलोक में यह देखना था कि क्या नेताजी से सम्बंधित गोपनीय फाइलों को अवर्गीकृत किया जा सकता है। यह एक्ट सूचना केअधिकार के दायरे से भी बाहर है। ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट ब्रिटिश काल से चला रहा है। एक्ट में स्पष्ट किया गया है कि कोई भी एक्शन जो देश के दुश्मनों को मदद दे, इस एक्ट के दायरे में आता है। इसमें यह भी कहा गया है कि कोई भी सरकार की ओर से प्रतिबंधित क्षेत्र, कागजात आदि को नहीं देख सकता और ना ही देखने की मांग कर सकता है। अजीत सेठ कमेटी की सिफारिश के बाद सरकार ने नेताजी से संबंधित फाइलों को अवर्गीकृत कर सार्वजानिक करने का निर्णय लिया था।



 

गोपनीय फाइलें: खोदा पहाड़ निकली चुहिया

नेेताजी से संबंधित लगभग 200 गोपनीय फाइलें सार्वजनिक होने पर भी नेता जी की मौत का रहस्य नहीं सुलझ पाया है। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में जब एनडीए की सरकार बनी थी तो आशा बंधी थी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ नई सरकार अपने चुनावी वायदे को पूरा कर जब नेताजी से सम्बंधित फाइलें सार्वजानिक करेगी तो नेताजी की मौत से सम्बधित रहस्य की परतें एक के बाद एक खुलती जाएंगी। यह चुनावी वायदा भी इसीलिए किया गया था ताकि देश की जनता अपने एक महानायक की मौत की सच्चाई जान सके। प्रधानमंत्री मोदी ने सचमुच अपने वायदे के अनुसार 14 अक्टूबर 2015 को वे फाइलें सार्वजानिक करने की घोषणा की और उस घोषणा के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय ने अवर्गीकृत 33 फाइलों की पहली खेप को 4 दिसम्बर 2015 को राष्ट्रीय अभिलेखागार के सुपुर्द कर दिया। इसके बाद गृह मंत्रालय ने 37 और विदेश मंत्रालय ने भी 25 फाइलों को पहली खेप के तौर पर राष्ट्रीय अभिलेखागार को सौंप दिया, ताकि शोधकर्ता उन फाइलों में छिपी सच्चाई को बाहर निकाल सकें। प्रधानमंत्री ने जनता की अपेक्षाओं के अनुकूल कदम उठाते हुए 23 जनवरी 2016 को स्वयं नेताजी से सम्बंधित 100 फाइलों की डिजिटल प्रतियां सार्वजनिक जानकारी के लिए जारी की जिनमें 15,000 से ज्यादा पन्ने हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार ने भी 29 मार्च 2016 को तथा 27 अप्रैल 2016 को दो किश्तों में नेता जी से सम्बंधित 75 अवर्गीकृत डिजिटल फाइलों की प्रतियां सार्वजनिक जानकारी के लिए जारी कीं। अभिलेखागार ने 27 मई 2016 को सर्वसाधारण के लिए 25 फाइलों की चौथी खेप जारी की जिसमें 5 फाइलें प्रधानमंत्री कार्यालय की, 4 फाइलें गृहमंत्रालय की और 16 फाइलें विदेश मंत्रालय की थीं। इसी प्रकार पश्चिम बगाल सरकार ने भी कुछ गोपनीय फाइलें राज्य अभिलेखागार को सौंपी। कोलकाता में राज्य सरकार ने 18 सितम्बर 2015 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी 64 फाइलों को सीडी के रूप में आम लोगों और नेताजी के परिजनों के बीच बांट दिया गया।

इन फाइलों से जुड़े 12744 पेज को डिजिटल रूप में बदला गया है। नेताजी से जुड़ी इन फाइलों को कोलकाता पुलिस म्यूजियम में ही सुरक्षति रखा गया है। लेकिन इतने साल गुजरने के बाद भी खोदा पहाड़ और निकली चुहिया वाली कहावत भी चरितार्थ नहीं पाई, क्योंकि इतनी बड़ी कसरत में चुहिया तक नहीं निकली। इस मामले में यह भी आरोप लगा कि मोदी सरकार का इन फाइलों को सार्वजनिक करने का मकसद नेताजी की मौत के सहस्य से पर्दा हटाना कम और जवाहरलाल नेहरू को फंसाना अधिक था, क्योंकि  पहले जनसंघ और फिर भाजपा और उसके  अनुसांगिक संगठनों लोग  भारत विभाजन से लेकर हर देश के अहित में जाने वाली घटनाओं के लिये जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराता रहा है।