ये सूचना विभाग है या षढ़यंत्र विभाग: महानिदेशक की पेशी
मुझे अत्यन्त खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि मेरे 4 दशक से अधिक पत्रकारिता के जीवन में मैंने किसी सरकारी विभाग को और खास कर सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग द्वारा किसी पत्रकार के खिलाफ ऐसी साजिशें न तो देखी और ना ही कभी सुनी। मेरी ये लड़ाई पेंशन से अधिक सूचना विभाग के चन्द अधिकारियों की धूर्त, कपटी, षढत्रयंत्रकारी मानसिकता के खिलाफ है। मेरे बच्चे मुझे सम्मान की जिन्दगी जीने का इंतजाम करने में सक्षम हैं। इस उम्र में भी मेरी लेखनी न तो रुकने के लिये और ना ही झुकने के लिये तैयार है। दुर्भाग्य से सारे राज्य में ही ऐसा घटिया माहौल बन गया है कि जो सरकार की चाटुकारिता और सत्ताधरियों के तलुवे चाटेगा वह तरक्की करेगा। जो लोग हरीश रावत जी के तलुवे चाटते थे वे आज त्रिवेन्द्र जी की चाकरी करते देखे जा सकते हैं। सूचना विभाग ने तो हद ही कर दी। अगर किसी ने विभाग के अफसरों के खिलाफ कुछ लिख दिया या कह दिया तो उसका विज्ञापन बन्द। इसीलिये आज बड़े-बड़े अखबार और चैनल सरकार और सूचना विभाग को अप्रिय लगने वाला एक शब्द बोलने या लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। चाटुकारिता ही पत्रकारिता हो गयी है। बड़े-बड़े स्वनामधन्य भी नतमस्तक नजर आ रहे हैं। पूछने पर कहते हैं कि हमें चैनल चलाना है, अखबार भी चलाना है और ज्यादातर तो कहते हैं कि नौकरी भी करनी है और बच्चे भी पालने हैं। मैं स्वयं भुक्तभागी हूं। 2016 में जब मैं शाह टाइम्स का स्थानीय सम्पादक था तो सूचना विभाग के एक बड़े अफसर ने अखबार के प्रबंधन को धमकी दी थी कि जब तक मैं अखबार का सम्पादक रहूंगा तब तक अखबार को सूचना विभाग से विज्ञापन नहीं मिलेंगे। प्रबंधन ने तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत जी से दो बार आदेश कराये मगर उक्त अफसर ने तो कसम खा रखी थी। हालांकि प्रबंधन ने यह बात मुझे नहीं बतायी, क्योंकि उनको मेरा टेम्परामेंट पता था। फिर भी जब एक सहयोगी जो कि चश्मदीद गवाह था, से मुझे सूचना विभाग के अफसर के उद्गार पता चले तो मैंने तत्काल नौकरी छोड़ने के लिये एक महीने का नोटिस दे दिया और महीने बाद घर बैठ गया। तब से मैं किसी अखबार में पूर्णकालिक काम नहीं कर रहा हूं और जब पेंशन की बात आयी तो उक्त अफसर फिर दुश्मनी पर उतर आया। जो आदमी तख्तोताज से भिड़ता रहा हो वह ऐसे पिद्दयों से भी निपट सकता था लेकिन जो आदमी मेरे खिलाफ इतने षढ़यंत्र करता रहा उसे मैं बार-बार इसलिये माफ करता रहा क्योंकि कभी उसके साथ बहुत अच्छे संबंध भी रहे और मैं उसे सदैव छोटे भाई की तरह अपनापन भी देता रहा। मैं एक बार उसके आफिस में जा कर समझा भी आया था कि तू मेरे छोटे भाई जैसा रहा है एक दिन रिटायर हो जायेगा और फिर हमारी ही जमात में यहीं देहरादून में रहेगा, फिर ऐसी हरकतें अब नहीं करना।
यही नहीं जब प्रदेश स्तर पर पत्रकारिता पुरस्कार की बात आई तो उस समय भी उक्त अधिकारी अपनी हरकत से बाज नहीं आया। पहले तो मेरी प्रवृष्टि ही गायब करा दी गयी ताकि मैं दौड़ से बाहर हो जाऊं और अपने चहेतों/भाईबरन्धवों को उपकृत किया जा सके। मुझे जब साजिश का पता चला तो मैं फौरन सूचना विभाग गया और प्रवृष्टि की पावती दिखाने पर मजबूरन मेरी प्रवृष्टि भी प्रकृया में रखी गयी। वहां भी खेल किया गया लेकिन चयन समिति के अध्यक्ष मुख्य सचिव और डीजी को भनक लग गयी और साजिशकर्ताओं के इरादों पर पानी फिर गया। लेकिन उस मामले में भी फिर कभी बैठक ही नहीं कराई गयी। अब इस बार फिर विज्ञापन छपाया गया है। जब पुरस्कार चयन के लिये पहली बार कमेटी का गठन किया गया था तो मुझे प्रिंट मीडिया की ओर से वरिष्ठतम श्रमजीवी पत्रकार होने के नाते सदस्य मनोनीत किया गया था। मेरे साथ लीलाधर जगूड़ी जैसी हस्ती सदस्य के रूप में थी। लेकिन बाद में नियम इस तरह बनाये गये और उन व्यक्तिगत सहूलियत के नियमों से कमेटियां के लिये सदस्यों का चयन किया गया ताकि बैठकों में केवल सहमति के लिये हाथ खड़े करते रहें। इस बारे में मैंने एक बार तत्कालीन डीजी से पूछा भी कि अगर एक आइएएस डीएम की योग्यता का आंकलन पटवारी-कानूनगो से कराया जायेगा तो फिर क्या होगा? पत्रकार कल्याण कोश के मामले में भी तो ऐसा ही हुआ। बैठक में कुछ हुआ और सदस्यों से बाद में कुछ और पर ही दस्तखत करा लिये गये। नहीं करते तो विज्ञापन बंद।
अब जरा पेंशन प्रकरण पर पत्रकार कल्याण कोष कमेटी की भी चर्चा की जाय।
- उत्तराखण्ड सरकार द्वारा शासनादेश संख्या 630/गगपपध्2010-6(2) 2011 दिनांक 31 अगस्त 2013 एवं शासनादेश संख्या 223/गगपप/16-53 (सूचना)222 दिनांक 29 अगस्त 2016 में निहित व्यवस्था के तहत श्रमजीवी पत्रकार पेंशन योजना शुरू की गयी है।
-यह योजना श्रमजीवी पत्रकारों को वृद्धावस्था में सम्मानजनक जीवन जीने में सहायता के उदे्श्य से पत्रकार कल्याण कोष से की गयी है। लेकिन सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों की पात्र पत्रकारों के कल्याण में अरुचि तथा दुराग्रह के कारण यह नीति पत्रकार कल्याण के बजाय पत्रकार उत्पीड़न नीति साबित हो रही है।
- शुरू में यह योजना के केवल श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा शर्त) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम 1955 के अनुसार केवल समाचार पत्रों में संवाददाता और सब एडिटर से लेकर सम्पादक के रूप में वेतनभोगी पत्रकारों के लिये ही थी। लेकिन बाद में कैबिनेट से नियम बदलवाये गये जिसका हमने समर्थन किया क्योंकि छोटे साप्ताहिक पत्रों का पत्रकारिता और समाज के लिये योगदान कम नहीं है और उनके कई यशस्वी सम्पादक वास्तव में सम्मान पेंशन के पात्र थे। चूंकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम में पार्ट टाइम या स्टिंगरों का भी उल्लेख है इसलिये उनको भी पेंशन लाजिमी ही थी। लेकिन इसका मतलब ये नहीं था कि चार पन्ने के अखबार के चालीस स्टिंगर रख दो और पेशन का दावा कर लो। विज्ञापन प्रतिनिधि भी इस श्रेणी में नहीं आते हैं।
-मैं पूर्णकालिक श्रमजीवी पत्रकार के तौर पर संवाददाता और सब एडिटर से लेकर सम्पादक के पद तक 43 साल से अधिक समय तक समाज और देश को अपनी सेवाएं दे चुका हूं। स्वतंत्र पत्रकार के रूप में भी मेरा लेखन देश विदेश के अखबारों में स्थान पा चुका है। यही नहीं मैं पत्रकारिता पढ़ाने के साथ ही पत्रकारिता पर तीन पुस्तकें लिख चुका हॅूं जो कि प्रदेश की पत्रकारिता के लिये एक महत्वपूर्ण दस्तावेजीकरण है जो कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों और शोधार्थियों के काम आ रही हैं। मेरे द्वारा लिखी गयीं और कुछ सम्पादित की गयी पुस्तकें राज्य लोक सेवा से लेकर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में युवाओं के काम आ रही हैं। राजस्थान पत्रिका जैसे प्रकाशनों/संस्थाओं की ओर से सम्मानित होने का अवसर भी मिला है।
- पेंशन संबंधी आवेदनों पर विचार के लिये पत्रकार कल्याण कोष समिति की बैठक 15 सितम्बर 2017 को हुयी थी। उसके बाद 14 नवम्बर 2019 तक बैठक नहीं कराई गयी। बैठक न होने से जिन पत्रकारों को सालभर पहले पेंशन मिलनी थी वे सूचना विभाग के लापरवाही और अफसरों के पूर्वाग्रहों के कारण पेंशन से वंचित रह गये। उनको जो आर्थिक नुकसान हुआ तथा जरूरतमंदों को जो आर्थिक सहायता नहीं मिल पायी।
- 15 सितम्बर 2017 की बैठक में 18 लोगों के आवेदन अस्वीकार किये गये और मात्र तीन या चार प्रकरण स्वीकार हुये जबकि मेरा पेंशन का प्रकरण एक तरह से सशर्त स्वीकृत ही था और उसमें केवल मूल निवास और आय प्रमाणपत्र जमा करने थे। वैसे मैंने पहले ही आला अफसर को बता दिया था कि पटवारी ने ऑन लाइन आवेदन करने पर प्रमाणपत्र नहीं दिया इसलिये मैं केवल शपथपत्र के जरिये अपनी आय का प्रमाण दे रहा हूं। कमेटी ने मुझसे ये दस्तावेज मांगे थे मगर इसकी जानकारी जानबूझ कर मुझे नहीं दी गयी ताकि मैं समय रहते बाकी दस्तावेज जमा न कर सकूं। इस बैठक में एक तथाकथित श्रमजीवी पत्रकार नेता ने भी मेरे प्रकरण का विरोध किया। पूछने पर उसने बताया कि ऐसा करने के लिये सूचना विभाग के अधिकारी ने ही उसे कहा था।
-लगभग डेढ माह बाद जब मैंने अपने प्रकरण की अधिकृत जानकारी के लिये अपर निदेशक/ सदस्य सचिव को पत्र लिखा तो मेरा पत्र मिलते ही उन्होंने तत्काल उसी दिन अपने पत्र संख्या 543/सू.एवं.लो.सं.वि(प्रेस)16/2015 दिनांक 27 अक्टूबर 2017 द्वारा मुझे सूचित किया कि समिति ने मेरे मामले में आय प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाण पत्र एवं आयकर रिटर्न मागा है। पत्र मिलने पर मैंने 25 नवम्बर तक ये तीनों कागजात विभाग में जमा कर दिये ताकि पेंशन स्वीकृति की शेष औपचारिकता पूरी हो जाय। उसी दिन विभाग ने एक विज्ञापन भी इस संबंध में जारी कर दिया ताकि कोई अन्य भी पेंशन चाहें तो उसके मामले में भी विचार हो सके।
-लेकिन समिति की बैठक दो साल बाद 14 नवम्बर 2019 तक नहीं कराई गयी। और जब कराई भी गयी तो बैठक के नाम पर षढत्रयंत्र ही किया गया। मेरी शिकायत के मामले में सूचना विभाग ने 14 नवम्बर 2019 की बैठक का जो कार्यवृत भेजा है वह भी झूठ का पुलिन्दा और सरकारी विभाग द्वारा एक वरिष्ठ और वयोवृद्ध पत्रकार के खिलाफ घटिया साजिश की एक मिसाल ही है। जो पत्रकार सदस्य उस बैठक में थे और जिनसे बाद में दबाव बना कर कार्यवृत पर हस्ताक्षर कराये गये उन्होंने लिखित रूप से शिकायत की है कि जैसा लिखा गया वैसा तो कुछ हुआ ही नहीं था। मैंने जब आरटीआइ से 14 नवम्बर 2019 की बैठक का कार्यवृत मांगा तो मुझे जवाब मिला कि विभाग में कार्यवृत धारित नहीं है। मतलब मुझसे भी आवेदनों को अस्वीकृत कराने की बात छिपाई गयी। इनके सारे कारनामें हास्यास्पद ही हैं। सूचना विभाग का दस्तावेज अगर सूचना विभाग में नहीं है तो फिर कहां है? मुझे कह दिया कि उनके पास कोई जानकारी नहीं जबकि अन्य लोगों को वही जानकारी दे दी। वे एक झूठ को छिपाने के लिये सौ झूठ बोलने पर तुले हुये हैं। मगर अक्ल के दुश्मनों को पता नहीं कि इस तरह सच्चाई छिपाई नहीं जा सकती है और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में दूध का दूध और पानी का पानी हो रहा है। सूचना विभाग के महानिदेशक डा0 मेहरबानसिंह बिष्ट का मैं सदैव सम्मन करता रहा हूं। अपने अच्छे सम्बन्धों के नाते मैंने एक बार फोन कर उन्हें समझााने का प्रयास भी किया कि उनके कंधों पर बंदूक रख कर मुझे निशाना बनाया जा रहा है। मैंने उन्हें समझााने का प्रयास किया कि अगर कल कानूनी लड़ाई में कुछ ऊंच नीच हो गया तो बात डा0 बिष्ट को गुमराह करने वालों पर नहीं बल्कि स्वयं उन पर आयेगी। मेरी भावनाओं को समझने के बजाय मेहरबान सिंह जी दो टूक शब्दों में बोले कि देखा जायेगा, प्रेस काउंसिल को भी जवाब दे दिया जायेगा। जवाब देना ता रहा दूर आज नौबत काउंसिल में व्यक्तिगत पेशी और जवाब तलब की नौबत आ गयी। काउंसिल को समन का ही नहीं बल्कि सिविल कोर्ट की तरह वारंट के जरिये हाजिर कराने का भी अधिकार है।
मेरी लड़ाई पैसे के लिये हरगिज नहीं है। मेरी लड़ाई घटिया प्रवृतियों और पत्रकारिता का स्तर गिराने की मुहिम के खिलाफ है। अपने बारे में डींगें हांकने की आपनी आदत नहीं है फिर भी इतना तो जरूर कहूंगा कि धारा के विपरीत संघर्ष करते-करते उम्र ही गुजर गयी है। मेरी आवश्यकताएं भी इतनी सीमित हैं कि मुझे धन कमाने के लिये कहीं मुंह मारने की जरूरत नहीं है। मेरा परिवार भी मेरी कमाई पर निर्भर नहीं है। केवल दारू की बुरी आदत जरूर है लेकिन वह भी रोज नहीं। इसलिये मेरी ये सीमित आवश्यकताएं और विपरीत परिस्थितियों में भी जूझने की आदत मुझे शक्ति देती है।
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