Search This Blog

Friday, July 31, 2020

एक बाघ पर 7 करोड़ का खर्च फिर भी असुरक्षित


हजारों करोड़ के सुरक्षा घेरे में भी असुरक्षित बाघ !

-जयसिंह रावत

बाघ या बड़ी बिल्ली परिवार का कोई भी सदस्य भरे-पूरे वन्यजीव संसार का संकेतक या मापक और स्वस्थ तथा संतुलित पर्यावारण का प्रतीक होता है, इसलिये भारत द्वारा 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में बाघों की संख्या दोगुनी करने वाले संकल्प को निर्धारित लक्ष्य वर्ष 2022 से बहुत पहले ही प्राप्त कर विश्व में सर्वाधिक बाघों वाला देश होने के नाते अपनी वैश्विक जिम्मेदारी का निर्वहन किया है। लेकिन इस सफलता पर इतराने के बजाय हमें बाघों के संहार पर ज्यादा संवेदनशीलता होना चाहिये कि आखिर एक-एक बाघ पर हर साल कई करोड़ रुपये खर्च करने पर भी हम बाघों को समुचित पर्यावास और सुरक्षा क्यों नहीं दे पा रहे हैं। पिछले लगभग एक दशक में देश में प्रतिवर्ष बाघों की मौतों का औसत 94 है, जिनमें से 40 प्रतिशत मौतें शिकारियों के हाथों हुयी हैं।

रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में 2010 में 21 से 24 नवम्बर तक चले बाघों की उपस्थिति वाले 13 देशों के सम्मेलन में बाघों की संख्या 2022 तक दोगुनी करने के संकल्प को भारत ने 3 साल पहले ही पूरा कर दुनियां में एक मिसाल अवश्य ही पेश कर दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गत वर्ष जारी बाघ गणना के परिणामों के अनुसार भारत में बाघों की संख्या 2,967 हो गयी है जबकि 2008 की गणना में 1411, वर्ष 2010 में 1,706 और 2014 की गणना में बाघों की संख्या 2,226, मानी गयी थी। इन वर्षों में बाघों की संख्या में लगभग 6 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी। इस अच्छी खबर के साथ ही बुरी खबर यह है कि  2012 से लेकर 2019 के बीच देश में 750 बाघों की मौत हुयी है और इनमें से 168 की मौत शिकारियों के हाथों हुयी, जबकि 70 मौतों का पता लगाना बाकी था। इनके अलावा 369 मौतें दुर्घटना, आपसी लड़ाई, अधिक उम्र और भूख आदि प्राकृतिक कारणों से हुयी है।

इस धरती पर सबसे बड़ा सत्य मृत्यु है। बाघ भी इस सत्य से परे नहीं है बशर्ते कि बाघ अपनी स्वभाविक मौत मेरे और उसके जन्म तथा मृत्यु का शेष जीव संसार से संतुलन बना रहे। अगर बाघ की असंतुलित वृद्धि हो जायेगी तो वह मांसाहारियों की नस्लें ही समाप्त कर देगा जिससे आहार श्रृंखला टूटने के साथ ही पादप जगत भी असंतुलित हो जायेगा। वैसे भी अकेले बाघ या मांसाहरी का अस्तित्व संभव नहीं है। इसलिये बाघों की प्राकृतिक मृत्यु भी जरूरी ही है। जंगल में दुर्घटनाओं और आपसी टेरिटोरियल फाइट में मौतें हो जाना भी अस्वाभाविक नहीं है। अक्सर हाथी या जंगली भैंसों जैसे बड़े जानवर और जंगली कुत्ते, ढोल आदि अन्य मांसाहारियों के हमलों में भी बाघ जान गंवा बैठते हैं। लेकिन बाघों के अस्तित्व के लिये असली खतरा आधुनिक हथियारों से लैस और चालाक आदमी से है। आदमी इन मांसाहरी जीवों को अपने ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने, वस्त्र बनाने, हड्डियों से औषधीय सामग्री बनाने, दांत और मूंछ आदि से टोने-टोटके करने आदि के लिये मार डालता है। इन बेकसूर जीवों को गेम या खेल के लिये मार डालना भी शाही शौक प्राचीन काल से चला रहा है। शेर या बाघ का शिकार करना बहादुरी का पैमाना रहा है। एक अनुमान के अनुसार मनुष्य ने बीसवीं सदी से लेकर अब तक विश्व में बाघों की 90 प्रतिशत आबादी को समाप्त कर दिया है। 

पूर्व केन्द्र्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री अनिल माधव दवे ने 10 अप्रैल 2017 को राज्यसभा में कहा था कि वर्ष 2014 से लेकर 2016 के बीच बाघों के शिकार की वारदातों में 63 प्रतिशत वृद्धि हुयी है। वर्ष 2014 में जहां बाघों की हत्या की 14 वारदातें दर्ज हुयीं थीं वहीं 2016 में ये वारदातें बढ़ कर 42 हो गयीं। स्वेच्छिक संगठनवाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडियाकी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में देश में 110 बाघों और 493 गुलदारों की मौतें हुयी हैं जिनमें से 38 बाघों और 128 गुलदारों की मौतें शिकारियों के हाथों हुयी हैं। शिकार की सर्वाधिक 29 वारदातें मध्य प्रदेश में, 22 महाराष्ट्र में तथा 12-12 उत्तराखण्ड और कर्नाटक में हुयीं। उससे पहले 2018 में शिकारियों के हाथों 34 बाघ मारे गये थे। गत वर्ष देश में शिकारियों द्वारा 128 गुलदार भी मारे गये जिनमें से सर्वाधिक 97 गुलदार अकेले महाराष्ट्र में मारे गये। वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2008 से लेकर 2018 के बीच देश में शिकारियों के द्वारा 429 बाघ मारे गये।

बाघ को जंगल का राजा इसलिये कहा जाता है, क्योंकि उसकी छत्रछाया में लाखों की संख्या में अन्य जीव प्रजातियां पनपती हैं। इसलिये बाघों का कुनबा बढ़ना तो खुशी की बात अवश्य है लेकिन इसके साथ ही हर साल अरबों रुपये खर्च करने पर भी इतने बड़े पैमाने पर उनकी हत्याएं होना खुशी को फीका कर जाता है। नवीनतम गणना के अनुसार देश में कुल 2,967 बाघ अनुमानित हैं जो कि बाघों की वैश्विक संख्या का 75 प्रतिशत है। नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथारिटी (एनटीसीए) द्वारा बाघों के संरक्षण के लिये वित्तीय वर्ष 2019-20 में देश के 17 राज्यों में स्थित 50 टाइगर रिजर्वाें को 49,067 करोड़ 79 लाख रुपये का बजट स्वीकृत किया गया। यह राशि टाइगर रिजर्वों से बाहर के लिये नहीं थी। इस प्रकार देखा जाय तो एक बाघ की सुरक्षा के लिय प्राधिकरण द्वारा लगभग 16.53 करोड़ रुपये का प्रवाधान रखा। चूंकि वन एवं वन्यजीव अब संविधान की समवर्ती सूची में हैं, इसलिये इस राशि में केद्रांश 28,565 करोड़ 36 रुपये लाख था और शेष राशि राज्य सरकारों को खर्च करनी थी। अगर केद्रांश पर ही गौर करें तो एक बाघ को बचाने के लिये पिछले साल केन्द्र सरकार ने अपनी ओर से 7.12 करोड़ रुपये रखे थे। केद्रांश का 2,986 करोड़ मध्य प्रदेश और 3709 करोड़ से अधिक महाराष्ट्र को गया जहां बाघों की सर्वाधिक हत्याएं हुयी हैं। केन्द्र से बाघ बचाने के लिये गत वर्ष 1,794 करोड़ उत्तराखण्ड को भी मिले फिर भी शिकारियों के हाथों राज्य सरकार 12 बाघों को नही बचा पायी।  देखा जाय तो उत्तराखण्ड के 442 बाघों को बचाने पर केवल केन्द्र सरकार की ओर से प्रति बाघ 4 करोड़ से अधिक की रकम राज्य सरकार को दी गयी। वन्यजीव जीवों से संबंधित अपराधों पर नियंत्रण के लिये 2006 में गठित वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो के खर्चों के लिये ही सरकार ने इस साल 14 करोड़ का बजट रखा है, जिसमें 7 करोड़ तो केवल वेतन के लिये और 20 लाख रुपये मुखबिरी के लिये रखा गया है।

बाघों के पर्यावरणीय महत्व एवं उनकी बेतहासा मौतों को देखे हुये इंदिरा गांधी ने 1973 में 9 टाइगर रिजर्व स्थापित किये थे जिनकी संख्या आज 50 हो गयी है। उसी दौरान वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 बना जिसमें संशोधन होते रहे। फिर भी स्थानीय समुदाय को दुश्मन मानते हुये उनके हितों को दरकिनार कर शुरू किये गये प्रयास वन्यजीवों की सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सके।

जयसिंह रावत

-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर

डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

 jaysinghrawat@gmail.com

mobile-9412324999

 

 

 





Thursday, July 23, 2020

204  साल पहले भी मांगे थे  नेपाल ने भारत के 3  गांव 

Article Of Jay Singh Rawat on Lipulekh controversy published in Rashtriya Sahara on 24 July 2020

अंग्रेजों ने खारिज कर दिया था लिपुलेख पर नेपाल का दावा
-जयसिंह रावत
नेपाल में के.पी. शर्मा ओली के नेतृत्व वाली सरकार लिम्पियाधुरा-लिपुलेख-कालापानी को लेकर चाहे जो भी दावे करें लेकिन इस विवाद में भारत के पक्ष में इतिहास खड़ा है। दरअसल ऐसा ही दावा 1817 में नेपाल दरबार ने ईस्ट इंडिया कंपनी के समक्ष किया था  लेकिन गवर्नर जनरल के तत्कालीन ऐजेंट एवं कुमाऊं के कमिश्नर ने छानबीन के बाद कूटी यांग्ती को काली नदी मानने से साफ इंकार करते हुये नेपाल का दावा उसी समय खारिज कर दिया था। इसलिये आज पुनः यह दावा करना इतिहास और तथ्यों के साथ मजाक है।
नेपाल नरेश विक्रमशाह बहादुर शमशेर जंग के प्रतिनिधि राजगुरू गजराज मिश्र और चन्द्रशेखर उपाध्याय तथा कंपनी की ओर से ले0 कर्नल ब्रैडशॉ द्वारा सुगोली में 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्षरित संधि के अनुसार सतलज से लेकर घाघरा और मेची के बीच का सारा भूभाग अंग्रेजों के अधीन गया था लेकिन काली नदी को सीमा मानने वाली इस संधि का अनुमोदन नेपाल नरेश ने 4 मार्च 1816 को तब किया जबकि अंग्रेज सेना जनरल ओक्टरलोनी के नेतृत्व में काठमाण्डू पर कब्जे के लिये उससे मात्र 20 मील की दूरी पर मकवानपुर पहुंच गयी थी। वहां पर 28 फरबरी 1816 को हुयी झड़प में नेपाली सेना के परास्त होने के बाद नेपाल नरेश के पास संधि को अनुमोदित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
भारत और नेपाल के बीच यह सीमांकन कुमाऊं के प्रथम कमिश्नर एवं नेपाल में प्रथम ब्रिटिश रेजिडेंट 0 गार्डनर की देखरेख में हुआ था और उन्होंने ही नेपाल का दावा खारिज भी कर दिया था। दरअसल संधि के समय 203 साल पहले उस क्षेत्र का कोई नक्शा ही नहीं था। इस दुर्गम और हिमाच्छादित क्षेत्र से शासकों को राजस्व की कोई उम्मीद ही नहीं थी। हिमालयन गजेटियर ( सन् 1884: वाल्यूम-2 पार्ट-2: 679-680) में .टी. एटकिन्सन लिखता है कि संधि के अनुसार टौंस से शारदा तक पूरा क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में गया, मगर उत्तर में केवल एक छोटे तथा महत्वहीन क्षेत्र पर विवाद बना रहा। संधि में काली को सीमा माना गया था। इसके साथ ही संधि के अनुसार ब्यांस परगना के दो हिस्से हो गये थे, जबकि अब तक वह कुमाऊं का अभिन्न हिस्सा था। वैसे भी यह नेपाल के जुमला और डोटी से अलग क्षेत्र था। नेपाल ने कुमांऊ के कमिश्नर और नेपाल के रेजिडेंट 0 गार्डनर को 4 फरबरी 1817 को परगना ब्यांस में काली के पूर्व में पड़ने वाले तिंकर और छांगरू गावों पर अपना दावा पेश किया तो वे सचमुच काली नदी के पूरब में थे, इसलिये उन्हें डोटी के तत्कालीन सूबेदार बमशाह को सौंपा गया। लेकिन इससे भी नेपाल सन्तुष्ट नहीं हुआ और उसने कूटी तथा नाभी की भी मांग कर दी। नेपाल का तर्क था कि काली नदी की सहायिका कूटी यांग्ती में अधिक पानी है और वह अधिक लम्बी भी है, इसलिये उसे ही काली नदी माना जाना चाहिये। गजेटियर अनुसार नेपाल के रेजिडेंट एवं कमिश्नर ने कैप्टन वेब से इस दावे की जांच कराई तो उसने व्यापक दौरे के बाद 11अगस्त और 20 अगस्त 1817 को सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा कि पवित्र कालापानी चश्मे से निकलने वाली, मगर कम पानी वाली जलधारा ही सदैव काली की मुख्य शाखा मानी जाती रही है। कालापानी के कारण ही उसका नाम काली रखा गया। इस नदी का काली नाम तब तक रहता है जब तक वह पहाड़ों में बहती है और मैदान में उतरने पर वह शारदा नदी हो जाती है। इसलिये कंपनी सरकार ने नेपाल का दावा खारिज कर नाभी और कूटी गावों को अपने पास ही रखने का निर्णय लिया और तब से ये गांव ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्से रहे। दरअसल अब नेपाल द्वारा हाल ही में जारी किये गये नक्शे में नाभी और कूटी के अलावा भारत का गुंजी गांव भी अपने क्षेत्र में दिखाया गया। ब्यांस घाटी के ये सभी गांव रं भोटिया जनजाति के हैं। गंुजी, नाभी और कूटी के एक दर्जन से अधिक आइएएस, आइपीएस, पीपीएस और पीसीएस अधिकारी उत्तराखण्ड और भारत सरकार की सेवा में हैं।
हिमालयन गजेटियर के अनुसार आंग्ल-नेपाल युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में गये तराई के कुछ क्षेत्र नेपाल के अनुरोध पर सौहार्द बनाये रखने के लिये उसके पास ही रहने दिया गये ताकि उस जमीन पर काबिज नेपाली मुखियाओं को असुविधा हो। सुगौली की संधि के बाद अवध से लगे क्षेत्र को अवध के नवाब को और मेची तथा तीस्ता के बीच की भूपट्टी को सिक्किम के राजा को सौंप दिया गया।
भारत-नेपाल के भूभागों का सीमांकन कराने वाला 0 गार्डनर बंगाल सिविल सर्विस का अधिकारी था, जिसे 3 मई 1815 को कुमाऊं का कमिश्नर एवं गवर्नर जनरल का एजेंट नियुक्त किया गया। 15 मई 1815 को अमरसिंह थापा द्वारा जनरल ओक्टरलोनी के समक्ष आत्मसमर्पण के बाद टोंस से लेकर सतलज तक का भाग(वर्तमान हिमाचल प्रदेश) गोरखों से मुक्त हो कर अंग्रेजों के कब्जे में गया। देहरादून के खलंगा युद्ध में बलभद्र थापा 30 नवम्बर 1814 को दुर्ग छोड़ बचे खुचे साथियों के साथ खिसक गया था। इधर 14 मई 1815 को बमशाह कुमाऊं को अंग्रेजों के हवाले कर सेना सहित काली नदी पार कर डोटी पहुंच गया था। इस तरह गोरखा सेना जहां से आई थी वहीं खदेड़ दी गयी थी। इसलिये विजेता ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तय सीमा ही वास्तविक नियंत्रण रेखा थी।
जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999