Article Of Jay Singh Rawat on Lipulekh controversy published in Rashtriya Sahara on 24 July 2020 |
अंग्रेजों ने खारिज कर दिया था लिपुलेख पर नेपाल का दावा
-जयसिंह रावत
नेपाल में के.पी. शर्मा
ओली के नेतृत्व
वाली सरकार लिम्पियाधुरा-लिपुलेख-कालापानी को
लेकर चाहे जो
भी दावे करें
लेकिन इस विवाद
में भारत के
पक्ष में इतिहास
खड़ा है। दरअसल
ऐसा ही दावा
1817 में नेपाल दरबार ने
ईस्ट इंडिया कंपनी
के समक्ष किया
था लेकिन
गवर्नर जनरल के
तत्कालीन ऐजेंट एवं कुमाऊं
के कमिश्नर ने
छानबीन के बाद
कूटी यांग्ती को
काली नदी मानने
से साफ इंकार
करते हुये नेपाल
का दावा उसी
समय खारिज कर
दिया था। इसलिये
आज पुनः यह
दावा करना इतिहास
और तथ्यों के
साथ मजाक है।
नेपाल नरेश विक्रमशाह
बहादुर शमशेर जंग के
प्रतिनिधि राजगुरू गजराज मिश्र
और चन्द्रशेखर उपाध्याय
तथा कंपनी की
ओर से ले0
कर्नल ब्रैडशॉ द्वारा
सुगोली में 2 दिसम्बर 1815 को
हस्ताक्षरित संधि के
अनुसार सतलज से
लेकर घाघरा और
मेची के बीच
का सारा भूभाग
अंग्रेजों के अधीन
आ गया था
लेकिन काली नदी
को सीमा मानने
वाली इस संधि
का अनुमोदन नेपाल
नरेश ने 4 मार्च
1816 को तब किया
जबकि अंग्रेज सेना
जनरल ओक्टरलोनी के
नेतृत्व में काठमाण्डू
पर कब्जे के
लिये उससे मात्र
20 मील की दूरी
पर मकवानपुर पहुंच
गयी थी। वहां
पर 28 फरबरी 1816 को
हुयी झड़प में
नेपाली सेना के
परास्त होने के
बाद नेपाल नरेश
के पास संधि
को अनुमोदित करने
के अलावा कोई
विकल्प नहीं था।
भारत और नेपाल
के बीच यह
सीमांकन कुमाऊं के प्रथम
कमिश्नर एवं नेपाल
में प्रथम ब्रिटिश
रेजिडेंट ई0 गार्डनर
की देखरेख में
हुआ था और
उन्होंने ही नेपाल
का दावा खारिज
भी कर दिया
था। दरअसल संधि
के समय 203 साल
पहले उस क्षेत्र
का कोई नक्शा
ही नहीं था।
इस दुर्गम और
हिमाच्छादित क्षेत्र से शासकों
को राजस्व की
कोई उम्मीद ही
नहीं थी। हिमालयन
गजेटियर ( सन् 1884: वाल्यूम-2 पार्ट-2:
679-680) में ई.टी.
एटकिन्सन लिखता है कि
संधि के अनुसार
टौंस से शारदा
तक पूरा क्षेत्र
ईस्ट इंडिया कंपनी
के नियंत्रण में
आ गया, मगर
उत्तर में केवल
एक छोटे तथा
महत्वहीन क्षेत्र पर विवाद
बना रहा। संधि
में काली को
सीमा माना गया
था। इसके साथ
ही संधि के
अनुसार ब्यांस परगना के
दो हिस्से हो
गये थे, जबकि
अब तक वह
कुमाऊं का अभिन्न
हिस्सा था। वैसे
भी यह नेपाल
के जुमला और
डोटी से अलग
क्षेत्र था। नेपाल
ने कुमांऊ के
कमिश्नर और नेपाल
के रेजिडेंट ई0
गार्डनर को 4 फरबरी
1817 को परगना ब्यांस में
काली के पूर्व
में पड़ने वाले
तिंकर और छांगरू
गावों पर अपना
दावा पेश किया
तो वे सचमुच
काली नदी के
पूरब में थे,
इसलिये उन्हें डोटी के
तत्कालीन सूबेदार बमशाह को
सौंपा गया। लेकिन
इससे भी नेपाल
सन्तुष्ट नहीं हुआ
और उसने कूटी
तथा नाभी की
भी मांग कर
दी। नेपाल का
तर्क था कि
काली नदी की
सहायिका कूटी यांग्ती
में अधिक पानी
है और वह
अधिक लम्बी भी
है, इसलिये उसे
ही काली नदी
माना जाना चाहिये।
गजेटियर अनुसार नेपाल के
रेजिडेंट एवं कमिश्नर
ने कैप्टन वेब
से इस दावे
की जांच कराई
तो उसने व्यापक
दौरे के बाद
11अगस्त और 20 अगस्त 1817 को
सौंपी गयी अपनी
रिपोर्ट में कहा
कि पवित्र कालापानी
चश्मे से निकलने
वाली, मगर कम
पानी वाली जलधारा
ही सदैव काली
की मुख्य शाखा
मानी जाती रही
है। कालापानी के
कारण ही उसका
नाम काली रखा
गया। इस नदी
का काली नाम
तब तक रहता
है जब तक
वह पहाड़ों में
बहती है और
मैदान में उतरने
पर वह शारदा
नदी हो जाती
है। इसलिये कंपनी
सरकार ने नेपाल
का दावा खारिज
कर नाभी और
कूटी गावों को
अपने पास ही
रखने का निर्णय
लिया और तब
से ये गांव
ब्रिटिश कुमाऊं के ही
हिस्से रहे। दरअसल
अब नेपाल द्वारा
हाल ही में
जारी किये गये
नक्शे में नाभी
और कूटी के
अलावा भारत का
गुंजी गांव भी
अपने क्षेत्र में
दिखाया गया। ब्यांस
घाटी के ये
सभी गांव रं
भोटिया जनजाति के हैं।
गंुजी, नाभी और
कूटी के एक
दर्जन से अधिक
आइएएस, आइपीएस, पीपीएस और
पीसीएस अधिकारी उत्तराखण्ड और
भारत सरकार की
सेवा में हैं।
हिमालयन गजेटियर के अनुसार
आंग्ल-नेपाल युद्ध
के बाद ईस्ट
इंडिया कंपनी के कब्जे
में आ गये
तराई के कुछ
क्षेत्र नेपाल के अनुरोध
पर सौहार्द बनाये
रखने के लिये
उसके पास ही
रहने दिया गये
ताकि उस जमीन
पर काबिज नेपाली
मुखियाओं को असुविधा
न हो। सुगौली
की संधि के
बाद अवध से
लगे क्षेत्र को
अवध के नवाब
को और मेची
तथा तीस्ता के
बीच की भूपट्टी
को सिक्किम के
राजा को सौंप
दिया गया।
भारत-नेपाल के भूभागों
का सीमांकन कराने
वाला ई0 गार्डनर
बंगाल सिविल सर्विस
का अधिकारी था,
जिसे 3 मई 1815 को कुमाऊं
का कमिश्नर एवं
गवर्नर जनरल का
एजेंट नियुक्त किया
गया। 15 मई 1815 को अमरसिंह
थापा द्वारा जनरल
ओक्टरलोनी के समक्ष
आत्मसमर्पण के बाद
टोंस से लेकर
सतलज तक का
भाग(वर्तमान हिमाचल
प्रदेश) गोरखों से मुक्त
हो कर अंग्रेजों
के कब्जे में
आ गया। देहरादून
के खलंगा युद्ध
में बलभद्र थापा
30 नवम्बर 1814 को दुर्ग
छोड़ बचे खुचे
साथियों के साथ
खिसक गया था।
इधर 14 मई 1815 को बमशाह
कुमाऊं को अंग्रेजों
के हवाले कर
सेना सहित काली
नदी पार कर
डोटी पहुंच गया
था। इस तरह
गोरखा सेना जहां
से आई थी
वहीं खदेड़ दी
गयी थी। इसलिये
विजेता ईस्ट इंडिया
कंपनी द्वारा तय
सीमा ही वास्तविक
नियंत्रण रेखा थी।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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