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Monday, August 27, 2018

भाजपा ने अपनी सोशल मीडिया फ़ौज तैयार कर ली


मीडिया की स्वतंत्रता  के ज्वलंत सवाल
जयप्रकाश पंवार "जेपी"
पिछले कुछ सालों से हमारा देश एक अजीब दौर से गुजर रहा है. ऐसा लगता है कि बस अब जल्दी जनता के अच्छे दिन आने वाले हैं लेकिन आ ही नहीं रहे. जब तक एक नारा ख़त्म होता है, एक योजना आती है, तभी कुछ दिनों बाद कुछ और हो जाता है. जनता फिर पागलों की तरह उस फालतू की बहस में उलझ कर रह जाती है. हिटलर के पश्चात यानि लगभग 80 साल बाद एक बार फिर सत्ता का प्रोपेगेंडा मंत्रालय लोकतंत्र पर हावी नजर आता है. दुर्भाग्य की बात ये है की तब सब कुछ सरकार की और से होता था, आज सरकार तो कर ही रही है लेकिन सरकारों ने जनता के बीच प्रोपेगेंडा एजेंटो की गुप्त फ़ौज तैयार कर दी है. आधुनिक संचार प्रणाली का सत्ता हित में या विरोधियों को चित करने में बखूबी खुलकर प्रयोग किया जा रहा है.
जनता बेरोजगार ख़ाली हाथ बैठी है. पहले तास खेलकर वक़्त गुजरता था, अब सोशल मीडिया से मजेदार वक़्त कट रहा है. पहले मर्द बदनाम होते थे आज औरतें भी पीछे नहीं रही. पडोष के देश चीन के लोगों के पास काम करने से फुर्सत नहीं और अपने देश मे लोग बाबाओं के पीछे पागल हुए जा रहे, भजन कीर्तन, रेलिया, हड़ताल, तोड़ फोड़, गाय गणेश, हिन्दू मुसलमान आदि में अस्त ब्यस्त और मस्त हैं. देश की चिंता केवल सोशल मीडिया पर चल रही है. नेता एक बार चुनने के बाद सांड बन जाता है, कार्यपालिका फुल चोर बन जाती है और न्याय पालिका सरकार चलाने लगती है. ऐसे में जनता के पास सबसे बड़ा हथियार मीडिया होता है, जब यह भी दरबारी हो जाता है तो समझो लोकतंत्र अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. जिस तरह मीडिया प्रचार के जहाज पर बैठकर मोदी की सरकार सत्ता में आयी, उसी प्रकार यही मीडिया अति प्रचार के जहाज को धीरे धीरे रनवे पर उतरने लगी है. कम्युनिस्ट को दुनिया में और भारतीय कांग्रेस पार्टी को उतरने में लम्बा समय लगा, लेकिन इन्टरनेट के जमाने मे अब पांच साल का वक़्त बहुत बड़ा होता है.
खैर मीडिया की यह चर्चा इसलिए सामने आ गयी कि अपने पहाड़ी पड़ोसी नेपाल ने 19 अगस्त 2018 को आपराधिक संहिता कानून में गोपनीयता सुरक्षा के नाम पर कई नए अनुच्छेद मीडिया व पत्रकारों के लिये लागू कर दिये हैं. अनुच्छेद 293 किसी भी निजी बातचीत को बिना सहमती के रिकॉर्ड करने या सुनने पर प्रतिबन्ध लगाता है. अनुच्छेद 294 गोपनीय जानकारी साझा करने व अनुच्छेद 295 सार्वजनिक स्थलों के अलावा कहीं पर भी बिना पूर्व अनुमति के फोटोग्राफी पर प्रतिबन्ध लगाता है. इसी प्रकार अनुच्छेद 306.2 सी में ब्यंग को बैयक्तिक अनादर मानने का भी प्रावधान है. उपरोक्त कानून नेपाल की मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है. कई तरह की समीक्षाएं हो रही है. कानून में जेल तक का प्रावधान तक है कहा जा रहा हैं कि इससे प्रेस की आजादी पर खतरा सुरु हो गया है खासकर खोजी पत्रकारों के लिए काम करना मुस्किल होने की संभावना ब्यक्त की जा रही है. अभी कुछ महिने पहले ही विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार नेपाल 180 देशों में 106 स्थान पर था जबकि भारत 138, पाकिस्तान 139, बांग्लादेश 146 व चीन 176 स्थान पर था. उलेखनीय है की नेपाल को राजशाही से मुक्त करवाने में वहां की प्रेस ने बड़ी भूमिका निभाई थी.
नेपाल के उपरोक्त नये कानून भारत के लिये एक नयी नजीर लेकर आया है. अपने देश में भी ऐसे प्रतिबंधों के कई प्रयास हुए लेकिन वह विफल साबित हुए है. सोशल मीडिया पर बैन लगाने का सरकारी एजेंडा था, लेकिन सरकार हिम्मत नहीं कर पायी. आज देश के प्रमुख और जाने माने पत्रकारों ने मुख्यधारा के पत्रों व चैनलों को छोड़कर सोशल मीडिया जिसे स्वतंत्र मीडिया कहा जा रहा है उसे अपना लिया हैं. सरकारों के लिये यह मूव न उगलते बन रहा न थूकते बन रहा. इसीलिये अब हर पार्टी ने अपनी सोशल मीडिया फ़ौज तैयार कर ली है. भाजपा इस काम मैं सबसे आगे चल रही है. नेपाल में अब इन कानूनों को लेकर क्या होने वाला है यह तो वक़्त बतायेगा, लेकिन भारत की सत्ताधारी पार्टी के सामने एक नया उपाय तो आ ही गया है. मुझे नहीं लगता मोदी जी इस बर्र के छत्ते से चुनावी साल में छेड़ाखानी करेंगे, लेकिन अगर वह पुनः सत्ता में वापस लौटते हैं तो नेपाल जैसा ही कानून वे लागू कर सकते है, जिसके लिये वे काफी समय से छटपटा भी रहे है क्यूंकि सोशल मीडिया मुखर होकर मोदी की नीतियों पर देश भर में नयी बहस छेड़ चुका है और यह बहस अगले कुछ दिनों में बहुत तेजी से बढने वाली है. संयोग देखिये कि जिस सोशल मीडिया ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की भूमिका रची वही आज उनके लिये सबसे बड़ी खतरे की घंटी बनने जा रही है. जिस तरह भाजपा का सोशल मीडिया विंग हर बात पर अनावश्यक अति सक्रियता दिखा रहा है उससे जनता में उल्टा सन्देश जा रहा हैं और  सरकार के अच्छे कार्य भी अनावश्यक प्रचार में दब जा रहे है. भाजपा के मीडिया विशेषग्यो को पता ही होगा कि सरकारी योजनाओं का अधिकांस प्रचार आकाशवाणी व दूरदर्शन के माध्यम से होता रहा है, वो तो भला हो जो मोदी जी ने अपने मन की बात से रेडियो को लोकप्रिय बनाने का बड़ा काम किया. सोशल मीडिया के जमाने में फिर भी कितने लोग इन्हें देख सुन रहे हैं. अखबार, पत्रिकाएं, होर्डिंग्स व सोशल मीडिया पोर्टल ही है जो थोड़ा बहुत योजनाओं को जनता तक पंहुचा पा रहा होगा. लेकिन आज सोशल मीडिया से बड़ा प्रचार तंत्र फिलहाल कोई नहीं है वहाँ सही मायने में सरकार की नीतियों, योजनाओं पर चर्चा परिचर्चा के बजाय कुछ और ही तस्वीर नजर आ रही है. भाजपा के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं की राजनीती अपने बड़े नेताओं के साथ सेल्फी पोस्ट करने तक सिमित हो चुकी है, कार्यकर्त्ता जनता के साथ कहीं खड़े नज़र नहीं आ रहे, न वे सरकार की योजनाओं से सम्बंधित कोई पोस्ट शेयर कर रहे है, हाँ वे कुछ तो जरुर कर रहे हैं? लेकिन उससे नुक्सान ज्यादा फायदा कम हो रहा है. यही हाल अन्य पार्टियों के भी हैं. आज जनता को कांग्रेस, भाजपा या किसी अन्य दलों में कोई अंतर नहीं दिख रहा है.
अमेरिका से एक खबर है कि प्रेस की आजादी को लेकर वहां की प्रेस ने एक साथ एक दिन 300 से भी ज्यादा सम्पादकीय लिखे. यह ट्रंप के साथ मोदी के लिये भी चिंता की बात होगी. फिलहाल आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर रणनीतिक चुप्पी ओढ़ी हुयी है यह एक नया रहस्य लग रहा है. विशेषकर कांग्रेस
जयप्रकाश पंवार "जेपी"                            

               

Tuesday, August 21, 2018

Slow pace of development in Uttrakhand: Resulting hardship of people

K.C. Kulish award for Dawn scribe
New Delhi, March 12
Journalists from Pakistan’s Dawn and the Hindustan Times were jointly conferred the first K.C. Kulish International Award at a function here this evening. Afshan Subohi of The Dawn and Nilesh Mishra of the Hindustan Times received the award.
While Subohi and her team received the honour for the series “Why does corporate Pakistan detest democracy”, Mishra and his team got the award for “The new Muslim series: from Masjid to market a journey”. The award, carrying the prize money of $ 11,000 and instituted by the Rajasthan Patrika group of newspapers in the memory of its founder Karpoor Chandra Kulish, acknowledges the contribution of journalists whose news stories influence change in the lives of people. Former President A.P.J. Abdul Kalam presented the awards to the winners.
The function, attended by union ministers Ram Vilas Paswan, Raghuvansh Prasad Singh, Speaker Somnath Chatterjee, BJP leaders Ravi Shankar Prasad, Murli Manohar Joshi and Madan Lal Khurana, at least 187 entries were recieved for the award from around 12 countries on the theme human development.
The jury included editor-in-chief, Hindu Group, N. Ram, former IIM director Bakul Dhokalakia, Mr Piyush Pandey, CEO of O&M, and editor of the Rajasthan Patrika Gulalab Kothari.
Ten other works have been selected for the merit award. One of which went to Tony Carnie and his team for “South Africa’s poisonous work places” for The Mercury, South Africa, but he was not present at the function.
Jay Singh Rawat of Uttar Ujala, Dehra Dun, will get the merit award for his work “

Slow pace of development in Uttrakhand: Resulting hardship of people”
“India besieges series: One in every six Indians lives under insurgency” by Yashwant Raj and “War torn: A series on the plight of war martyr families” by Kuldeep Maan and his team (Chandigarh), both from from Hindustan Times, “Save the girl child” by Radha Sharma and her team, the Times of India, Ahmedabad, “HIV/Aids awareness campaign” by Lakhyajit Gohain and his team for Dainik Janambhumi, Guwahati, “Badhal Bundelkhand” by Pratap Samvanshi and his team of Amar Ujala, Kanpur and The Statesman’s “The ugly truth in Nandigram” by Sukumar Mitra are among others who would get the merit awards.

. — UNI

TRADITIONAL FOREST DWELLERS ARE BENIGN DENIED OF THEIR RIGHTS


TRADITIONAL FOREST DWELLERS ARE  DENIED OF THEIR RIGHTS

Senior journalist and Writer Jay Singh Rawat addressing\
 Forest dwellers Gujjarars
More than 50 Van Gujjars met at the RLEK Auditorium to discuss and request the implementation of The Scheduled Tribes and other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006 which clearly says that any Traditional Forest Dweller who is living in the forest area since last 3 generations or 75 years are entitled to remain in the forest area and may be allotted 4 hectares of land in the same place as per Section4 of the Act. Not only that, Section2 of the Act, says that the forest land for which rights are recognized for tribals and forest dwellers include unclassified forests, un-demarcated forests, existing or deemed forests, Protected Forests, Reserved Forests, Sanctuaries and National Parks. Critical wildlife habitat have been defined under this section and these are required to be kept as inviolated for the purpose of wildlife conservation under this Act.”
The meeting started with a brief introduction by A.K. Sharma, who invited Chairperson, RLEK to address the meeting, followed by Van Gujjars. Speaking on the occasion Padmashri Avdhash Kaushal spoke about the Act and also about his experiences and observations while working with the Van Gujjars. He appreciated the entire community saying, “This is the best community he has ever seen, inspite of being Muslims, they are pure vegetarian, and they are animal lovers. They don’t consume alchohol and the best thing is that they contribute to the protection and conservation of the forests in which they dwell. The forest areas in which they dwell are greener and have more animals than those areas where they do not reside. No court can ignore the Recognition of Forest Rights 2006. In the Supreme Court, bench headed by Mr.Justice Madan B. Lokur also commented that this Act has not been fully implemented and there are some people who are stopping the implementation of this Act. These people need to be identified.”
Padma Shri Avdhas Kaushal assuring van Gujjars all possible
legal help in a meeting held in RLEK office
The meeting proceeded with opinions from Van Gujjars like- Noorjamal, from Shivalik hills had put his views in the meeting on behalf of all Van Gujjars from Shivalik Range saying people from the army are practicing firing in the forest areas where they live just to remove them from forest.  He said they have nothing except a permit to live in forest where we do animal rearing since ages which is our only source of livelihood. They believe in Gandhian philosophy of fulfilling the need, not greed. Further he added, that forest officials are also not allowing us to stay inside forest because of which they are also harassing and beating us because of this our life is in danger. He said this is my request to RLEK to help us in getting our legal rights as per Recognition of Forest Rights Act, 2006 and if needed in approaching the Supreme Court.
Addressing the Gujjars, Senior. Journalist and writer The Scheduled Tribes and other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006”. He said that forest bureaucracy is misleading the court in this matter and they should be penalized for this deliberate offence. Jay Singh Rawat said that more than 25 crore population of India is living in and around the forest and forests are the part of their life and culture. These forest dwellers like van Gujjars can not be separated from the forest.

Jay Singh Rawat said, “It is regrettable that the Forest minister of the state also has no knowledge of the
Van Gujjar Roshandeen from Gaindikhata Hill Range said, “They have been provided with a land for them to reside but they are not allowed to do agriculture or even do not have the right to sell their piece of land. They cannot even take loan from bank. This policy of depriving them to enjoy their rights fully is not correct. He insisted that Gaindikhata should  be declared as Revenue Village and all the rights and other facilities should be given to them or should be allowed to return to Rajaji National Park as per the 2006 Act. Safi Lodha from Gaindikhata added that they are living in darkness as they are deprived of all the facilities which every citizen enjoys. Their ration cards too have been confiscated. We want that The Scheduled Tribes and other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006 should be followed in letter and spirit”.
 Nazakat Chechi from Shyampur Range added, that Van Gujjars are used  just for political benefits and considered as Vote Banks but he makes an appeal to the government to consider their rights and should too be favoured. Irshad Kasana, Chilawali Range further added, we have been residing in forests for more than 150 years but the courts surprisingly blamed us for encroachment, therefore there is a need to put forth correct facts in front of the High Court.
While Ghulam Ali shared that they have been blamed unnecessarily that they kill animals and sell skins, but it is not true. It has been ages we have been residing in the jungle, we don’t eat meat as we are vegetarians. We have domesticated wild buffaloes. He said that slaughter is being done by someone else, but the Van Gujjars are being defamed blamed and killed for this. And Babu Khatana from Gaindikhata further shared that there are 1390 Van Gujjars are residing in Rajaji National Park of Uttarakhand. The forest department is harassing the Van Gujjars.
Unfortunately Uttarakhand Government is neither following the Recognition of Forest Rights Act, 2006 but also misrepresenting it in the High Court. As a result the High Court is passing orders to remove Gujjars from the forest area ignoring the Act.




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Saturday, August 18, 2018

मीडिया की स्वतंत्रता के ज्वलंत सवाल


मीडिया की स्वतंत्रता  के ज्वलंत सवाल
जयप्रकाश पंवार "जेपी"
पिछले कुछ सालों से हमारा देश एक अजीब दौर से गुजर रहा है. ऐसा लगता है कि बस अब जल्दी जनता के अच्छे दिन आने वाले हैं लेकिन आ ही नहीं रहे. जब तक एक नारा ख़त्म होता है, एक योजना आती है, तभी कुछ दिनों बाद कुछ और हो जाता है. जनता फिर पागलों की तरह उस फालतू की बहस में उलझ कर रह जाती है. हिटलर के पश्चात यानि लगभग 80 साल बाद एक बार फिर सत्ता का प्रोपेगेंडा मंत्रालय लोकतंत्र पर हावी नजर आता है. दुर्भाग्य की बात ये है की तब सब कुछ सरकार की और से होता था, आज सरकार तो कर ही रही है लेकिन सरकारों ने जनता के बीच प्रोपेगेंडा एजेंटो की गुप्त फ़ौज तैयार कर दी है. आधुनिक संचार प्रणाली का सत्ता हित में या विरोधियों को चित करने में बखूबी खुलकर प्रयोग किया जा रहा है.
जनता बेरोजगार ख़ाली हाथ बैठी है. पहले तास खेलकर वक़्त गुजरता था, अब सोशल मीडिया से मजेदार वक़्त कट रहा है. पहले मर्द बदनाम होते थे आज औरतें भी पीछे नहीं रही. पडोष के देश चीन के लोगों के पास काम करने से फुर्सत नहीं और अपने देश मे लोग बाबाओं के पीछे पागल हुए जा रहे, भजन कीर्तन, रेलिया, हड़ताल, तोड़ फोड़, गाय गणेश, हिन्दू मुसलमान आदि में अस्त ब्यस्त और मस्त हैं. देश की चिंता केवल सोशल मीडिया पर चल रही है. नेता एक बार चुनने के बाद सांड बन जाता है, कार्यपालिका फुल चोर बन जाती है और न्याय पालिका सरकार चलाने लगती है. ऐसे में जनता के पास सबसे बड़ा हथियार मीडिया होता है, जब यह भी दरबारी हो जाता है तो समझो लोकतंत्र अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. जिस तरह मीडिया प्रचार के जहाज पर बैठकर मोदी की सरकार सत्ता में आयी, उसी प्रकार यही मीडिया अति प्रचार के जहाज को धीरे धीरे रनवे पर उतरने लगी है. कम्युनिस्ट को दुनिया में और भारतीय कांग्रेस पार्टी को उतरने में लम्बा समय लगा, लेकिन इन्टरनेट के जमाने मे अब पांच साल का वक़्त बहुत बड़ा होता है.
खैर मीडिया की यह चर्चा इसलिए सामने आ गयी कि अपने पहाड़ी पड़ोसी नेपाल ने 19 अगस्त 2018 को आपराधिक संहिता कानून में गोपनीयता सुरक्षा के नाम पर कई नए अनुच्छेद मीडिया व पत्रकारों के लिये लागू कर दिये हैं. अनुच्छेद 293 किसी भी निजी बातचीत को बिना सहमती के रिकॉर्ड करने या सुनने पर प्रतिबन्ध लगाता है. अनुच्छेद 294 गोपनीय जानकारी साझा करने व अनुच्छेद 295 सार्वजनिक स्थलों के अलावा कहीं पर भी बिना पूर्व अनुमति के फोटोग्राफी पर प्रतिबन्ध लगाता है. इसी प्रकार अनुच्छेद 306.2 सी में ब्यंग को बैयक्तिक अनादर मानने का भी प्रावधान है. उपरोक्त कानून नेपाल की मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है. कई तरह की समीक्षाएं हो रही है. कानून में जेल तक का प्रावधान तक है कहा जा रहा हैं कि इससे प्रेस की आजादी पर खतरा सुरु हो गया है खासकर खोजी पत्रकारों के लिए काम करना मुस्किल होने की संभावना ब्यक्त की जा रही है. अभी कुछ महिने पहले ही विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार नेपाल 180 देशों में 106 स्थान पर था जबकि भारत 138, पाकिस्तान 139, बांग्लादेश 146 व चीन 176 स्थान पर था. उलेखनीय है की नेपाल को राजशाही से मुक्त करवाने में वहां की प्रेस ने बड़ी भूमिका निभाई थी.
नेपाल के उपरोक्त नये कानून भारत के लिये एक नयी नजीर लेकर आया है. अपने देश में भी ऐसे प्रतिबंधों के कई प्रयास हुए लेकिन वह विफल साबित हुए है. सोशल मीडिया पर बैन लगाने का सरकारी एजेंडा था, लेकिन सरकार हिम्मत नहीं कर पायी. आज देश के प्रमुख और जाने माने पत्रकारों ने मुख्यधारा के पत्रों व चैनलों को छोड़कर सोशल मीडिया जिसे स्वतंत्र मीडिया कहा जा रहा है उसे अपना लिया हैं. सरकारों के लिये यह मूव न उगलते बन रहा न थूकते बन रहा. इसीलिये अब हर पार्टी ने अपनी सोशल मीडिया फ़ौज तैयार कर ली है. भाजपा इस काम मैं सबसे आगे चल रही है. नेपाल में अब इन कानूनों को लेकर क्या होने वाला है यह तो वक़्त बतायेगा, लेकिन भारत की सत्ताधारी पार्टी के सामने एक नया उपाय तो आ ही गया है. मुझे नहीं लगता मोदी जी इस बर्र के छत्ते से चुनावी साल में छेड़ाखानी करेंगे, लेकिन अगर वह पुनः सत्ता में वापस लौटते हैं तो नेपाल जैसा ही कानून वे लागू कर सकते है, जिसके लिये वे काफी समय से छटपटा भी रहे है क्यूंकि सोशल मीडिया मुखर होकर मोदी की नीतियों पर देश भर में नयी बहस छेड़ चुका है और यह बहस अगले कुछ दिनों में बहुत तेजी से बढने वाली है. संयोग देखिये कि जिस सोशल मीडिया ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की भूमिका रची वही आज उनके लिये सबसे बड़ी खतरे की घंटी बनने जा रही है. जिस तरह भाजपा का सोशल मीडिया विंग हर बात पर अनावश्यक अति सक्रियता दिखा रहा है उससे जनता में उल्टा सन्देश जा रहा हैं और  सरकार के अच्छे कार्य भी अनावश्यक प्रचार में दब जा रहे है. भाजपा के मीडिया विशेषग्यो को पता ही होगा कि सरकारी योजनाओं का अधिकांस प्रचार आकाशवाणी व दूरदर्शन के माध्यम से होता रहा है, वो तो भला हो जो मोदी जी ने अपने मन की बात से रेडियो को लोकप्रिय बनाने का बड़ा काम किया. सोशल मीडिया के जमाने में फिर भी कितने लोग इन्हें देख सुन रहे हैं. अखबार, पत्रिकाएं, होर्डिंग्स व सोशल मीडिया पोर्टल ही है जो थोड़ा बहुत योजनाओं को जनता तक पंहुचा पा रहा होगा. लेकिन आज सोशल मीडिया से बड़ा प्रचार तंत्र फिलहाल कोई नहीं है वहाँ सही मायने में सरकार की नीतियों, योजनाओं पर चर्चा परिचर्चा के बजाय कुछ और ही तस्वीर नजर आ रही है. भाजपा के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं की राजनीती अपने बड़े नेताओं के साथ सेल्फी पोस्ट करने तक सिमित हो चुकी है, कार्यकर्त्ता जनता के साथ कहीं खड़े नज़र नहीं आ रहे, न वे सरकार की योजनाओं से सम्बंधित कोई पोस्ट शेयर कर रहे है, हाँ वे कुछ तो जरुर कर रहे हैं? लेकिन उससे नुक्सान ज्यादा फायदा कम हो रहा है. यही हाल अन्य पार्टियों के भी हैं. आज जनता को कांग्रेस, भाजपा या किसी अन्य दलों में कोई अंतर नहीं दिख रहा है.
अमेरिका से एक खबर है कि प्रेस की आजादी को लेकर वहां की प्रेस ने एक साथ एक दिन 300 से भी ज्यादा सम्पादकीय लिखे. यह ट्रंप के साथ मोदी के लिये भी चिंता की बात होगी. फिलहाल आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर रणनीतिक चुप्पी ओढ़ी हुयी है यह एक नया रहस्य लग रहा है. विशेषकर कांग्रेस

-जयप्रकाश पंवार "जेपी"                            

               

Uttarakhand is Grateful to Bajpai ji in many ways.



The Times of India News 18 August 2018

Uttarakhand mourns demise of its ‘creator’ Vajpayee
Kautilya Sing.  TNN | Aug 17, 2018, 11.00 PM IST

DEHRADUN: Notwithstanding their differences, politicians and people from all walks of life in Uttarakhand mourned the death of former Prime Minister Atal Bihari Vajpayee, the creator of the hill state whose mortal remains were consigned to flames in Delhi on Friday. It was in Vajpayee’s tenure that three new states of Uttarakhand, Chhattisgarh and Jharkhand were formed in 2000.
Even though Congress formed the first elected government of the Himalayan state, Vajpayee gave industrial package to Uttarakhand and also accorded special category status to it. Vajpayee had a special liking for the Himalayan state and he was a frequent visitor to Uttarakhand, even when it was a part of Uttar Pradesh.

Political analyst Jay Singh Rawat told TOI, “Since 1996, he had taken up the issue of creating a new state. Despite strong opposition from some friends and political outfits, Vajpayee tabled the bill in Parliament for creation of Uttarakhand in 1998. However, his plans could not materlise then. However, when he became PM for full term, he again brought the bill, which was passed in the House with the support of Congress and three new states of Chhattisgarh, Uttarakhand and Jharkhand were carved out.”
Jay recalled that before and after creation of Uttarakhand, Vajpayee visited the region several times. “Because of his simple and down to earth nature, journalists, people and politicians had no problem in meeting him. People of Uttarakhand have a special liking for him,” he added. The analyst added that the former PM was mesmerized by the beauty of the region. Chief minister Trivendra Singh Rawat, who was in Delhi to attend the final rites, said: “He has left behind a vacuum which will be hard to fill. Vajpayee dedicated his life for the people of Uttarakhand. He made the country a nuclear power and a force to reckon with.” In his tweet, Rawat said that he was always in favor of smaller states and it was in his tenure that Uttarakhand was created. Recalling his experience, former chief minister Harish Rawat said: “He was an encyclopedia and I will always cherish the moments we spent together in Parliament.” In his tweet, the former CM said that his demise is a heart-breaking truth and “we have lost a person with overwhelming human values.”

Tuesday, August 14, 2018

जहां नेहरू को सबसे पहले सदारत का मौका मिला


स्वाधीनता आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र रहा देहरादून
-जयसिंह रावत
देहरादून जिला स्वतंत्रता आन्दोलनों के मामले में देश के अग्रणी जिलों में से एक रहा है। अपनी भौगोलिक संरचना, स्वास्थ्यवर्धक आवोहवा और बाग-बगीचों तथा उपजाऊ खेतों के चलते देहरादून केवल बाहरी आक्रमणकारियों को आकर्षित करता रहा अपितु राजनीतिक उथलपुथल का केन्द्र भी रहा। 1675 में सिक्खों के सातवें गुरू, हरराय के पुत्र राम राय ने यहाँ एक डेरा स्थापित किया था। यह भी माना जाता है कि देहरादून गुरू द्रोणाचार्य की तपस्थली थी। देहरादून से 50-60 किलोमीटर दूर कालसी में अशोक का शिलालेख इस पहाड़ी भूभाग तक ईसा पूर्व कुछ शताब्दियों पहले अशोक महान का साम्राज्य होने का गवाह है। इस देहरादून ने मुगलों, अफगानियों, सिखों, गुज्जरों और राजपूतों के हमले झेले तो गोरखों के हाथों सन् 1804 में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की शहादत और पराजय भी देखी और सन् 1914 में खलंगा के युद्ध में आतताई गोरखा शासन का अंत भी देखा। इस युद्ध को जीतने के बाद टिहरी रियासत को छोड़कर आधा गढ़वाल और पूरा कुमाऊं अंग्रेजों के अधीन हो गया था। इसी देहरादून ने 9 नवम्बर 2000 को भारत के 27वें राज्य उत्तरांचल का उदय भी देखा। सन् 1839 में जब अंग्रेजों और महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने संयुक्त रूप से अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर वहां के ब्राक्जाई वंश के शासक दोस्त मोहम्मद को सत्ताच्युत किया तो उसे निर्वासित कर कुछ समय के लिये मसूरी लाया गया। शिमला के बाद मसूरी में अंग्रेजों की तेजी से बसागत हुयी तो शिमला की तरह ही कम्पनी सरकार का सत्ता का एक अन्य केन्द्र मसूरी भी बन गया और मसूरी की निकटता के कारण दून घाटी का सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक आकर्षण भी बढ़ता गया।
मसूरी के सत्ता का एक केन्द्र बनने के साथ ही निकटवर्ती देहरादून का भी राजनीतिक महत्व बढ़ता गया। सन् 1857 की गदर के समय अंग्रेजों के लिये मसूरी सबसे सुरक्षित साबित होने के बाद तो केवल मसूरी बल्कि सम्पूर्ण दून घाटी की महत्ता अंग्रेजों के लिये बढ़ गयी। पहले स्वाधीनता संग्राम को बल और छल पूर्वक दबाने के बाद भारत में कुछ समय तक तो खोमशी रही मगर धीरे-धीरे देश में स्वाधीनता की चाह एक बार फिर कुम्हलाने लगी और देहरादून  एवं अल्मोड़ा जैसे नगरों में भी आजादी के आन्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी। वास्तव में यह जिला प्रशासन का मुख्य केन्द्र था और यहां पर फारेस्ट कालेज, मिलिट्री कालेज और सर्वे मुख्यालय जैसे प्रतिष्ठान होने के कारण राजनीतिक गतिविधियां भी यहीं केन्द्रित होने लगी थीं।
दरअसल पंजाब और तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के बीच में पड़ने के कारण देहरादून में जहां पेशावर और कश्मीर तक के राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्यकर्ता तथा क्रांतिकारियों का आना जाना रहता था वहीं उत्तराखण्ड पहाड़ी क्षेत्रों के रास्ते देहरादून और ऋषिकेश से ही गुजरते थे। गढ़वाल के भवानी सिंह रावत, बच्चूलाल भट्ट और दन्द्र सिंह गढ़वाली जैसे क्रांतिकारियों पर देहरादून के जनजागरण का असर था। जुलाइ 1930 में चन्द्रशोखर आजाद, विद्याभूषण, हरिकेण सिंह, हजारी लाल, विश्वम्भर दयाल और यशपाल ने दुगड्डा गढ़वाल के निकट अपने साथी भवानी सिंह रावत के साथ उनके गांव नाथूपुर कर वहां के जंगलों में पिस्तौल आदि हथियार चलाने का अभ्यास किया था। देहरादून देहरादून से केवल राष्ट्रीय आन्दोलन का अपितु टिहरी के लोकतांत्रिक आन्दोलन का भी संचालन होता था। टिहरी के प्रजामण्डल की स्थापना 1939 में देहरादून के खुड़बुड़ा में श्यामचन्द सिंह नेगी के आवास पर आयोजित एक बैठक में ही हुयी थी। कुम्भनगरी हरिद्वार का रास्ता भी लाहौर तक के लोगों के लिये देहरादून से ही गुजरता था। हरिद्वार में मुन्शी राम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द) जैसे महान समाज सुधारक, पत्रकार और स्वाधीनता सेनानी हुये जिन्हें मिल कर महात्मा गांधी ने स्वयं को धन्य माना था। गांधी जब पहली बार दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उन्होंने भारत में सबसे पहले रवीन्द्र नाथ टैगोर, एस.के. रूद्रा और मुंशी राम से मिलने की इच्छा प्रकट की थी।
देहरादून और अल्मोड़ा जेल में देश के बड़े-बड़े नेता बंदी बना कर रखे गये। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देहरादून जेल की कोठरी में ही अपनी ‘‘आत्मकथा’’ के महत्वपूर्ण अंश लिखे थे। नेहरू परिवार का दून घाटी से सदैव करीबी सम्बन्ध रहा। मसूरी की माल रोड को अंग्रेज प्रशासकों ने हिन्दुस्तानियों और कुत्तों के लिये वर्जित किया था और मोतीलाल नेहरू जब भी मसूरी प्रवास पर होते थे तो हर सुबह अंग्रेज प्रशासकों के इस नियम का उल्लंघन कर उसका जुर्माना भरते थे। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह जैसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के क्रांतिकारी ने भी अपना निवास देहरादून को बनाया था और यहीं से उन्होंने ‘‘निर्बल सेवक’’ नाम का अखबार निकाला था। यहीं से महेन्द्र प्रताप चुपचाप अफगानिस्तान खिसक गये थे जहां उन्होंने आजाद हिन्दुस्तान की निर्वासित सरकार के गठन की घोषणा की थी। यहीं उन्होंने जीवन का शेष समय व्यतीत किया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस भी देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) में एक कर्मचारी थे और यहीं से उन्होंने अपने साथी बसंत कुमार आदि के साथ दिल्ली में 23 दिसम्बर 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने का षढ़यंत्र रचा था। इस कांड में जिन चार लोगों को फंासी हुयी उनमें बोस के देहरादून के साथी बसंत कुमार विश्वास भी एक थे। क्रांतिकारी तथा अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेता मानवेन्द्र नाथ राय ने रूस से लौटने के बाद देहरादून को ही अपना निवास बनाया था। यहीं से वह राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के साथ ही टिहरी के लोकतांत्रिक आन्दोलन को प्रश्रय देते रहे।
प्रसिद्ध समाजवादी और विद्वान नरदेश शास्त्री ने 1916 में महाराष्ट्र से आकर देहरादून को अपना कार्यक्षेत्र बना दिया था। महावीर त्यागी ने बिजनौर से 1921 में कर देहरादून को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। सन् 1920 में देहरादून में आयोजित कांग्रेस के राजनीतिक सम्मेलन का सभापतित्व पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद जवाहर लाल नेहरू का राजनीति में प्रवेश करने पर उनका पहला कार्यक्रम यही था। इस सम्मेलन में लाला लाजपत राय और सैफुद्दीन किचलू जैसे शीर्ष कांग्रेस नेता शामिल हुये थे। असहयोग आन्दोलन में भी देहरादून  और गढ़वाल-कुमाऊं के लोगों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया। उस आन्दोलन में जिला बोर्ड के कई शिक्षक अपनी नौकरियां छोड़ का आन्दोलन में कूद गये थे। सन् 1920 के राजनीतिक सम्मेलन की आशातीत सफलता के बाद कांग्रेस का दूसरा राजनीतिक सम्मेलन भी यहां सन् 1922 में हुआ। इस सम्मेलन का सभापतित्व भी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ही किया। इसमें बल्लभभाई पटेल तथा देश बन्धु चितरंजनदास जैसे राष्ट्रीय नेता शामिल हुये थे। महात्मा गांधी का देहरादून, हरिद्वार और उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों से विशेष लगाव रहा है।
गांधी जी महाकुम्भ में 5 अप्रैल 1915 को कस्तूरबा के साथ हरिद्वार पहुंचे और पुनः लगभग डेढ माह बाद 18 मार्च 1915 को फिर हरिद्वार चले आये। वहां गांधी जी 23 मार्च तक रहे और इस दौरान वह ज्यादातर गुरुकुल में ही रहे। मार्च 1927 में गांधीजी ुरुकुल कांगड़ी के रजत जयंती समारोह में शामिल होने हरिद्वार पहंुचे। गांधी जी 14 जून से 4 जुलाइ तक कुमाऊं की यात्रा की। वह लगभग 15 दिन अल्मोड़ा और कौसानी में रहे। गांधीजी ने अक्टूबर 1929 में उत्तराखण्ड के हरिद्वार, देहरादून और मसूरी का दौरा किया। वह  16 अक्टूबर को देहरादून और 18 अक्टूबर को मसूरी पहुंचे जहां वह मासान्त तक रहे। 14 मई 1931 को शिमला में नये वायसरॉय से मिलने के बाद गांधी जी शिमला से नैनीताल चले आये। वह 5 दिन तक नैनीताल में रहे और गवर्नर माल्कम हेली से मिलकर जनता की शिकायतों के विषय में उनसे बातें करते रहे। सन् 1946 के बसंत में मसूरी में वह बिड़ला हाउस में 15 दिन तक ठहरे और वह 10 जून 1946 को दिल्ली लौट गये।
इतिहास के पन्नों में अगर झांकें तो मालूम होता है कि चितरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू आदि की ‘‘इंडिपेंण्डेंट पार्टी’’ (स्वराज पार्टी) की नीव भी देहरादून में ही पड़ी थी। गया कांग्रेस में जाने से पहले ‘‘इंडिपेंडेंट पार्टी’’ के सभी प्रमुख नेता मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में देहरादून में ही मिले थे। स्वराज पार्टी की स्थापना दिसम्बर 1922 में हुयी थी। राजमाता विजयराजे सिंधिया (स्व0 माधव राव सिंधिया और बसुंन्धरा राजे की माता) के चाचा ठाकुर चन्दन सिंह जैसे स्वाधीनता सेनानी और पत्रकार भी देहरादून निवासी ही थे। क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के एक अप्रकाशित काव्य संग्रह ‘‘क्रांति गीतांजलि’’ का प्रकाशन प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी एवं पत्रकार हुलास वर्मा ने देहरादून में सन् 1929 में हिन्दी में तथा 1930 में उर्दू में किया और दोनों ही बार यह संकलन ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कर दिया गया। उसके बाद उनके पृत्र रणवीर वर्मा ने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कविता संग्रह ‘‘राष्ट्रीय गीतांजली’’ का प्रकाशन किया जिसे हुकूमत द्वारा जब्त कर वर्मा को दण्डित किया गया। देहरादून निवासी सोमेन्द्र मुकर्जी ने किसी क्रांतिकारी का काव्य संग्रह ‘‘क्रांति पुष्पांजलि’’ प्रकाशित कराया था। नमक आन्दोलन की सफलता के लिये देहरादून वासियों ने खाराखेत में नमक बना कर अपना योगदान दिया।  सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द सेना में लगभग 2600 गढ़वाली सेनिकों और अफसरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
जयसिंह रावत
पत्रकार/लेखक
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com