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Sunday, February 10, 2013

RRAJ JAAT, A FUEDAL DRAMA


शुरू हो गई नंदा राजजात की तैयारियां
 --जयसिंह रावत 
नव वर्ष 2013 के आगमन के साथ ही चार सींगों वाले मेंढे ¼चैसिंग्या खाडू½ के नेतृत्व में चलने वाली दुनिया की दुर्गमतम्, जटिलतम और विषालतम् धर्मिक पैदल यात्राओं में सुमार नन्दा राजजात की तैयारियां एक बार पिफर शुरू हो गयी हैं। परम्परानुसार इसका आयोजन 12 सालों में एक बार होना चाहिये, मगर बेहद जोखिमपूर्ण और खर्चीली होने के कारण इसका क्रम अक्सर टूट जाता है। इस धर्मिक आयोजन में कभी नर बलि की भी प्रथा थी जो कि पशुबलि में बदलने के बाद अब नारियल बलि में तब्दील हो गयी है। बलि प्रथा के बाद अब इसके सामन्ती रश्मो-रिवाजों पर भी सवाल उठने लगे हैं।
अगस्त 2013 में प्रस्तावित विश्वविख्यात राजजात के लिये उत्तराखंड सरकार सहित राजजात आयोजन समिति और अन्य सम्बन्ध्ति पक्षों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। इसके साथ ही इस ऐतिहासिक यात्रा का नेतृत्व करने चैसिंग्या खाडू की तलाश भी शुरू हो गई है। यात्रा से पहले इस तरह का विचित्रा मेंढा कुरूड़ और नौटी के आस-पास की दशोली तथा चांदपुर पट्टियों के  गावांें में से कहीं भी जन्म लेता रहा है। समुद्रतल से 13200 पफुट की उफंचाई पर स्थित इस यात्रा के गंतव्य हेमकुण्ड के बाद रंग-बिरंगे वस्त्रों से लिपटा यह मेंढा अकेले ही कैलाश की अनन्त यात्रा के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है। यात्राी नन्दा और इस मेंढे़ को अंतिम विदाई देने के बाद वापस लौट आते हैं। यात्रा के दौरान पूरे 16वें पड़ाव तक यह खाडू या मेंढा नन्दा देवी की रिंगाल से बनी छंतोली ;छतरीद्ध के पास ही रखा जाता है। समुद्रतल से 3200 पफुट से लेकर 17500 पफुट की ऊंचाई के पहुंचने वाली यह 280 किमी. लंबी पदयात्रा 19 पड़ावों से गुजरती है। खतरनाक पहाड़ी रास्तों से गुजरने वाली यह दुर्गम यात्रा केवल पैदल तय करनी होती है, बल्कि 53 किमी. तक इसमें नंगे पांव भी चलना होता है। अंतिम गांव वाण में लाटू देवता का मन्दिर है, जिसे नन्दा देवी का धर्म भाई माना जाता है। वाण से आगे की यात्रा दुर्गम और निषेधात्मक भी हो जाती है। वाण से कुछ आगे रिणकीधार से चमड़े की वस्तुएं जैसे जूते, बेल्ट आदि तथा गाजे-बाजे निशि( हो जाते हैं। सन् 1987 से पहले स्त्रिायों और अनुसूचित जातियों के लोगों का प्रवेश भी यात्रा में निशि( था, लेकिन पिछली बार इसमें कुछ साहसी महिलाएं भी शामिल हुई, लेकिन उत्तराखंड सरकार के संरक्षण में चलने वाली राजजात आयोजन समिति अब भी अन्तज्य जातियों के बारे में मौन है। अन्तज्य का मतलब अछूत से है। राजगुरू के रूप में राज जात समिति के महामंत्राी रह चुके देवराम नौटियाल के एक लेख में वाण से आगे जाने के लिए वर्जित लोगों में स्त्रिायों, बच्चों, वैश्याओं के साथ ही अभक्ष्य जातियों का भी उल्लेख किया गया है। सामन्ती व्यवस्था में सामाजिक  कुरीतियों की कड़ी में  अनुसूचित जातियों को सदियों से इस श्रेणी में रखा जाता रहा है। परम्परानुसार अब से पहले दलितों ने कभी इस यात्रा में भाग नहीं लिया।
नन्दादेवी को पार्वती की बहन माना जाता है, परंतु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तराखण्ड में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्रा के रूप में देखा गया है। हालांकि सन् 2000 की राजजात यात्रा में कापफी परिवर्तन गए है। इतिहासकारों के अनुसार धर्मिक मनोरथ की पूर्ति और इस यात्रा को सपफल बनाने के लिए प्राचीनकाल में नरबलि की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 1831 में प्रतिबन्ध्ति कर दी गई। उसके बाद अष्टबलि की प्रथा कापफी समय तक चलती रही। इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल और डा. शिवराज सिंह रावत ;निसंगद्ध के अनुसार नरबलि के बाद इस यात्रा में 600 बकरियों और 25 भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही, मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया। प्रख्यात इतिहासकार डा.   शिवप्रसाद डबराल ने ;उत्तराखंड यात्रा दर्शनद्ध में लिखा है कि नन्दा महाजाति खसों की आराध्य देवी है। डबराल ने लिखा है किब्रिटिशकाल से पहले प्रति बारह वर्ष नन्दा को नरबलि देने की प्रथा थी। बाद में इस प्रथा को बन्द कर दिया गया, मगर दूधतोली प्रदेश में भ्रमण के दौरान मुझे सूचना मिली कि उत्तर गढ़वाल के कुछ गावों में अब नर बलि ने दूसरा रूप धरण कर लिया। प्रति 12 वर्ष में उन गावों के सयाने लोग एकत्रा होकर किसी अतिवृ( को नन्दा देवी को अर्पण करने के लिए चुनते हैं। उचित समय पर उसके केश, नाखून काट दिये जाते हैं। उसे स्नान करा कर तिलक लगाया जाता है, पिफर उसके सिर पर नन्दा के नाम से ज्यूंदाल ;चांवल, पुष्प, हल्दी और जल मिला करद्ध डाल देते हैं। उस दिन से वह अलग मकान में रहने लगता है और दिन में एक बार भोजन करता है। उसके परिवार वाले उसकी मृत्यु के बाद होने वाले सारे संस्कार पहले ही कर डालते हैं। वह एक वर्ष के अन्दर ही मर जाता है।
दशोली पट्टी के कुरूड़ और चांदपुर के नौटी गावों से चलने वाली यह हिमालयी धर्मिक यात्रा कभी हरे-भरे बुग्यालों और कभी घनघोर जंगलों से तो कभी ऊंची चोटियों और नाक की तरह सीध्ी पहाडि़यों पर तो कभी गहरी हिमालयी घाटियों से गुजरती है, जिसमें देश-विदेश के हजारों लोग भाग लेते हैं। विशेष कारीगरी से बनी रिंगाल की छंतोलियों, डोलियों और निशानों के साथ लगभग 200 स्थानीय देवी-देवता इस महायात्रा में शामिल होते हैं। यात्रा मार्ग पर पड़ने वाले गांव डोलियों और यात्रियों का स्वागत करते हैं। प्राचीन प्रथानुसार जहां भी यात्रा का पड़ाव होता है, उस गांव के लोग यात्रियों के लिए अपने घर खुले छोड़ कर स्वयं अन्यत्रा चले जाते हैं।
हिमालयी जिलों का गजेटियर लिखने वाले .टी. एटकिन्सन के साथ ही अन्य विद्वान एच.जी. वाल्टन, जी.आर.सी. विलियम्स के अलावा स्थानीय इतिहासकार . शिव प्रसाद डबराल, डा. शिवराज सिंह रावतनिसंग’, यमुना दत्त वैष्णव, पातीराम परमार एवं राहुल सांकृत्यायन आदि के अनुसार नन्दा यानि कि पार्वती हिमालय पुत्राी है और उसका ससुराल भी कैलाश माना जाता है। इसलिए वह खसों या खसियों की प्राचीनतम् आराध्य देवी है। पंवार वंश से पहले कत्यूरी वंश के  शासनकाल से इस यात्रा के प्रमाण हैं। डा. डबराल आदि के अनुसार रूपकुण्ड दुर्घटना सन् 1150 के आसपास हुई थी, जिसमें  राजजात में शामिल होने के लिए पहुंचे कन्नौज नरेश जसध्वल या यशोध्वल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा समेत सारा लाव-लस्का मर गया था। इनके कंकाल आज भी रूपकुण्ड में बिखरे हुए हैं, लेकिन दूसरी ओर कांसुवा गांव के कुंवर जाति के लोगों और नौटी गांव स्थित उनके कुल  पुरोहित नौटियालों का दावा है कि यह यात्रा पंवार वंशीय चांदपुर नरेश शालीपाल ने शुरू की थी, जिसे उसके वंशज अजयपाल ने जारी रखा। बाद में राजधनी चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ और पिफर श्रीनगर गढ़वाल गई, लेकिन राजा का छोटा भाई कांसुवा गांव में ही रह गया। उसके बाद कांसुवा गांव के कंुवर राजजात यात्रा का संचालन करने लगे। नौटी में राजजात के सन् 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968 एवं 1987 में आयोजित होने के अभिलेख उपलब्ध् हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रचलित मान्यतानुसार यह यात्रा हर 12 साल में नहीं निकलती रही है। कुरूड़ से प्राप्त अभिेलेखों में 1845 तथा 1865 की राजजातों का विवरण है। कुरूड़ के पुजारी और शिव प्रसाद डबराल तथा राहुल सांकृत्यायन जैसे प्रख्यात इतिहासकार नन्दाजात को पंवारों या  कुवरों की नहीं, बल्कि खसों की प्राचीनतम तीर्थयात्रा मानते हैं।
इस रोमांचकारी यात्रा में उच्च हिमालय की ओर चढ़ाई चढ़ते जाने के साथ ही यात्रियों का रोमांच और कौतूहल भी बढ़ता जाता है। इसका पहला पड़ाव 10 किमी. पर ईड़ा बधणी है। उसके बाद दो पड़ाव नौटी में होते हैं। नौटी के बाद सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़्ियूं, नन्दकेशरी, पफल्दिया गांव, मुन्दोली, वाण, गैरोलीपातल, पातरनचैणियां होते हुए यात्रा शिला समुद्र होते हुए अपने गन्तव्य होमकुण्ड पहुंचती है। इस कुण्ड में कुवरों के पुरखों को तर्पण देने और पूजा-अर्चना के बाद चैसिंग्या खाडू को हिमालय की चोटियों की ओर विदा करने के बाद यात्राी नीचे उतरने लगते हैं। उसके बाद यात्रा सुतोल, घाट और नौटी लौट आती है। इस यात्रा के दौरान लोहाजंग ऐसा पड़ाव है, जहां आज भी बड़े पत्थरों और पेड़ों पर लोहे के तीर चुभे हुए हैं। कुछ तीर संग्रहालयों के लिए निकाल लिए गए हैं। इस स्थान पर कभी भयंकर यु( होने का अनुमान लगाया जाता है। इसी मार्ग पर 17500 पफुट की ऊंचाई पर ज्यूंरागली भी है जिसे पार करना बहुत ही जोखिम का काम है।   इतिहासकार मानते हैं कि कभी लोग स्वर्गारोहण की चाह में इसी स्थान से महाप्रयाण के लिए नीचे रूपकुण्ड की ओर छलांग लगाते थे। यमुना दत्त वैष्णव ने इसे मृत्यु गली की संज्ञा दी है। यहां से नीचे छलांग लगाने वालों के साथ ही दुर्घटना में मारे गये सैकड़ों यात्रियों के कंकाल नीचे रूपकुण्ड में मिले हैं, जिनकी पुष्टि डीएनए से हुई है। इसके बाद यात्रा शिला समुद्र की ओर नीचे उतरती है। शिला समुद्र का सूर्योदय का दृष्य आलोकिक होता है। वहां से सामने की नन्दा घंुघटी चोटी पर सूर्य की लाॅ दिखने के साथ ही तीन दीपकों की लाॅ आलोकिक दृश्य पेश करती है। राजजात के मार्ग में हिमाच्छादित शिखरों से घिरी रूपकुण्ड झील है, जिसके रहस्यों को सुलझाने के लिये भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिक दशकों से अध्ययन कर रहे हैं। मान्यता है कि जब गौरा यानि कि पार्वती अपने ससुराल कैलाश जा रही थी तो इस कुण्ड में पानी पीते समय उसने पानी में अपनी प्रतिछाया देखी, तब उसे अपने अतीव सौन्दर्य का पता चला। कोई रोक-टोक होने के कारण समुद्रतल से 16200 पफुट की उफंचाई पर स्थित रूपकुण्ड झील से देश-विदेश के वैज्ञानिक बोरों में भर कर अतीत के रहस्यों का खजाना समेटे हुए ये नर कंकाल और अन्य अवशेष उठा कर ले गये हैं। अब भी इस झील के किनारे कई कंकाल पड़े हैं। वहां कंकालों के साथ ही आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी, के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूडि़यां आदि सामग्री बिखरी पड़ी है। इन सैकड़ों कंकालों का पता सबसे पहले 1942 में एक वन रेंजर ने लगाया था। इस झील के कंकालों पर सबसे पहले 1957 में अमरीकी विज्ञानी डा. जेम्स ग्रेपिफन ने अध्ययन किया था। उस समय उसने इन कंकालों की उम्र लगभग 650 साल बताई थी। सन् 2004 में नेशनल जियोग्रापिफक चैनल द्वारा ब्रिटेन और जर्मनी की प्रयोगशालाओं में कराए गये इन कंकालों के परीक्षण में ये कंकाल 9वीं सदी के तथा ये लगभग सभी एक ही समय में मरे हुए लोगों के पाए गए हैं। इनमें स्थानीय लोगों के कंकाल बहुत कम हैं। बाकी लगभग सभी एक ही प्रजाति के हैं। इनमें दो खोपडि़यां ऐसी भी मिली हैं जो कि महाराष्ट्र की एक खास ब्राह्मण जाति के डीएनए तथा सिर के कंकाल की बनावट से मिलते हैं। चैनल इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये कंकाल यशोध्वल, उसकी रानियों, नर्तकियों, सैनिकों, सेवादारों या  कहारों और साथ में चल रहे दो ब्राह्मणों के रहे होंगे।
सन् 1947 में भारत के आजाद होने के तत्काल बाद 500 से अध्कि रजवाड़े लोकतंत्रा की मुख्य धरा में विलीन हो गये। गढ़वाल नरेश मानवेन्द्र शाह की बची-खुची टिहरी रियासत भी 1949 में भारत संघ में विलीन हो गयी। राजशाही के जमाने से चल रही सामन्ती व्यवस्था के थोकदार, पदान, सयाणे और कमीण आदि भी उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधर अध्निियम 1950 के सन् 1960 में लागू हो जाने और नई पंचायतीराज व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद अप्रासंगिक हो गए, मगर उत्तराखंड में इस धर्मिक आयोजन के बहाने पुरानी सामंती व्यवस्था को जिन्दा रखने पर सवाल खड़े होने लगे हैं। क्षेत्रा के लोगों को एक गांव के ठाकुरों के पुरखों का तर्पण इस यात्रा के दौरान कराने पर भी आपत्तियां हंै। शिवराज सिंह रावत आदि इतिहासकारों के अनुसार राजजात का मतलब राजा की यात्रा होकर राजराजेश्वरी की यात्रा से है। इस क्षेत्रा में नन्दा देवी को राजराजेश्वरी के नाम से भी पुकारा जाता है। उत्तराखंड के गढ़वाल मण्डल में नन्दा देवी के कम से कम 41 और कुमायूं में 21 विख्यात     प्राचीन मन्दिर हैं।
सामन्ती परम्परा के समर्थकों का दावा है कि तत्कालीन गढ़वाल नरेश अजय पाल ने जब चांदपुर गढ़ी से राजधनी बदल दी तो कांसुवा में रहने वाला उसका छोटा भाई वहीं रह गया। इतिहासवेत्ता कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के अनुसार पंवार वंशीय राजाओं की कड़ी में अजयपाल 37वां राजा था। पं. हरिकृष्ण रतूड़ी द्वारा लिखे गए गढ़वाल के इतिहास के अनुसार अजयपाल अपनी राजधनी सन् 1512 में चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ लाया था। लोकतंत्रा में किसी भी नागरिक को अपनी जाति कुछ भी लिखने की छूट है। राजकुंवर ही क्यांे, कोई अपनी जाति महाराजा या बादशाह भी लिख सकता है, लेकिन लगभग 500 साल पहले के किसी राजा के भाई के कुछ वंशजों द्वारा अब भी स्वयं को राजा की तरह पेश आने और अन्य लोगों से उसी सामन्ती व्यवहार की अपेक्षा करना अतार्किक है। विद्वानों का मानना है कि अजयपाल से लेकर अन्तिम राजा मानवेन्द्र शाह तक हजारों राजकुमार पैदा हुए होंगे और अब तक उनके     वंशजों की संख्या लाखों में हो गई होगी, मगर उनमें से कोई भी स्वयं को राजकुंवर नहीं कहलाता और ही क्षेत्रा के अन्य लोगों से राजा की तरह बर्ताव की उम्मीद करता है। मानव विज्ञानियों के अनुसार सैकड़ों साल पुराने राजाओं के वंशजों में से किसी ने कालान्तर में अपनी उपजाति बर्तवाल रख दी तो कुछ पंवार, भण्डारी, बिष्ट, परमार तो कुछ रावत आदि उपजाति लिखने लगे। हिमालयी जिलों के गजेटियर में ईटी एटकिंसन ने कुछ विद्वानों द्वारा  संकलित गढ़वाल नरेशों की सूचियां दी है। इनमें हार्डविक की 61 राजाओं की सूची में अजयपाल का नाम कहीं नहीं है। हार्डविक ने कुछ सूरत सिंह, रामदेव, मंगलसेन, चिनमन, राम नारायण, प्रेमनाथ रामरू और पफतेह शाह जैसे कई नाम दिये हैं, जिससे यह पता नहीं चलता कि इन राजाओं का सम्बन्ध् एक ही वंश से रहा होगा। बेकट की प्रद्युम्न शाह तक की 54 नामों वाली सूची में अजयपाल का नाम 37वें स्थान पर है। विलियम्स द्वारा संकलित सूची में अजयपाल का नाम 35 वें स्थान पर है। ऐटकिंन्सन द्वारा अल्मोड़ा के एक पण्डित से हासिल सूची में अजयपाल का नाम 36 वें स्थान पर है। स्वयं एटकिंसन ने कहा है कि ये वे राजा थे, जिन्होंने कुछ प्रसि(ि हासिल की या कुछ खास बातों के लिए इतिहास में दर्ज हो गये। अतः उस दौरान गढ़वाल में इनके अलावा भी कई अन्य राजा हुए होंगे।
राजजात को सामन्ती स्वरूप देने और स्वयं को अब भी राजा और राजगुरू मान कर इस धर्मिक आयोजन पर वर्चस्व के खिलापफ कापफी पहले से आवाजें उठती रही हैं। इसी सामन्ती सोच के विरोध् स्वरूप इससे पहले पूरे 19 साल बाद सन् 1987 में आयोजित हुई राजजात में भी कांसुवा और नौटी की नन्दा देवी की सरकारी जात तथा कुरुड़ की नन्दा देवी की जात एक दिन के अन्तर से चलीं। उस समय भी नौटी और कांसुवा वालों की राजजात सरकार द्वारा वित्त पोषित थी और उसके पीछे चल रही कुरुड़ की जात परम्पराओं और आस्थाओं द्वारा पोषित थी। यह प्राचीन धर्मिक आयोजन के सामन्तवाद, जातिवाद और क्षेत्रावाद में पफंस जाने के कारण यात्रा की सपफलता पर आशंकाएं खड़ी होने लगी हैं। हालांकि कांसुवा में नन्दा देवी का कोई मंन्दिर नहीं है।
इस यात्रा में कुरुड़ मंदिर से ही देवी चलती है, पिफर भी इससे पहले कुरुड़ की देवी की यात्रा और बिना देवी वाली सरारी सामन्ती यात्रा एक दिन के अन्तर से चलीं थी। सरकारी राजकोष से इस यात्रा को मदद देने वाली उत्तराखंड सरकार से भी सवाल उठने लगे हैं कि क्या उसने भी सामन्तवाद को मान्यता दे दी और क्या उसे इस यात्रा में अनुसूचित ;अन्तज्यद्ध जातियों के प्रवेश पर रोक स्वीकार्य है