Search This Blog

Sunday, April 30, 2017

LAND USE POLICY IS REQUIRED FOR SUSTAINABLE DEVELOPMENT

भूमि के महत्व को नहीं समझ रही सरकारें

-जयसिंह रावत-


महाभारत युद्ध को रोकने के अंतिम प्रयास के तौर पर जब श्रीकृष्ण कौरव पाण्डवों के बीच सुलह के लिये दुर्योधन के पास गये तो उस युद्धोन्मादी युवराज का कहना था कि ”सूचेकम मेव दस्यामि बिना युद्धेन केशवः“। मतलब यह कि हे केशव! बिना युद्ध के मैं पाण्डवों को सुई के नोक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा। जाहिर है कि पाण्डवों को उस समय थोड़ी सी जमीन अपने अस्तित्व के लिये मिल जाती तो उतने बड़े युद्ध से उतना महाविनाश नहीं होता। इस धरती पर जमीन वह प्राकृतिक संसाधन है जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि युगों-युगों से शक्तिशाली और असरदार लोग जमीनों पर अधिपत्य जमाते रहे और सर्वाधिक ताकतवर स्वयं को शासक घोषित करते रहे। लेकिन बिडम्बना यह है कि हमारी सरकारें भूमि के इस महत्व को समझ कर व्यवहारिक नीति बनाने के बजाय मुंह छिपाती रहीं हैं।
नन्दीग्राम, सिंगूर और भट्टा परसौल हो या ग्वालियर के भूमिहीन आदिवासियों से जमीन छीनने का सवाल। जब तक सरकार या धन्नासेठ विकास के नाम पर आम लोगों के पावों तले की जमीन को हड़पने की नीयत से गुरेज नहीं करेंगे तब तक जमीन के सहारे से वंचित लोगों का गुस्सा फूटता रहेगा। उत्तराखण्ड में भी तराई में बाहरी लोगों ने वहां के मूल निवासी थारू और बोक्सों की जमीनें हड़प कर उन्हें उन्हीं की जमीन पर कृषि मजदूर बना दिया है और पहाड़ों में विकास के नाम पर जमीन छीनी जा रही है। पहाड़ों में भूमि उपयोग और प्रबंधन की कोई नीति न होने के कारण पहाड़ जनविहीन हो रहे हैं।
उत्तराखण्ड जैसे राज्य जहां की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती किसानी पर निर्भर रही है, में सरकार की कोई भूमि सुधार और प्रबंधन नीति न होने के कारण बड़े पैमाने पर पलायन के चलते पहाड़ी क्षेत्र तेजी से जनविहीन हो रहे हैं। लोग अपनी पुस्तैनी जमीन छोड़ कर मैदानों में गुरुबत की जिन्दगी जीने का मजबूर हैं। एक सरकारी सर्वे के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य बनने के समय वर्ष 2001 में जहां प्रदेश में कृषि क्षेत्र 7 लाख 70 हजार हेक्टेयर था। जो 2007-08 में 7 लाख 55 हजार हेक्टेयर रह गया। 2008-09 में 7 लाख 53 हजार, 2009-10 में 7 लाख 41 हजार, 2010-11 में 7 लाख 23 हजार और 2011-12 में यह 7 लाख 14 हेक्टेयर रह गया। प्रदेश में हर वर्ष कृषि भूमि में कमी आ रही है। कृषि क्षेत्र सिमटने के साथ ही फसलों का बुवाई क्षेत्र में सिमट रहा है। वर्ष 2011-12 में 6 लाख 61 हजार हेक्टेयर में खरीफ की फसल की बुवाई की गयी थी। जोकि 2012-13 में 5 लाख 30 हजार हेक्टेयर रह गयी। जबकि 2013-14 में यह 4लाख 97 हजार हेक्टेयर ही रह गयी है। घटे कृषि क्षेत्र का मुख्य कारण पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन को माना जा रहा है। प्रदेश में 2010-11 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 9,12,650 कृषि जोतें थी, जिनमें से 8,29,468 जोतें लुघ एवं सीमान्त कृषकों की हैं, जो कुल जोतों का 91 प्रतिशत है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रांे में पलायन के कारण हजारों की संख्या में जोतों ही गायब हो चुकीे हैं। प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 56 प्रतिशत भाग पर्वतीय क्षेत्र मे अंतर्गत आता है। पर्वतीय क्षेत्रों में भोगौलिक कारणों से भी कृषि भूमि में कमी आ रही है। बादल फटने, अतिवृष्टि और भू-स्खलन से भी कृषि क्षेत्र प्रभावित हो रहा है। बादल फटने से किसानों की पूरी की पूरी जोत ही खत्म हो जाती है। जिसके कारण भी पर्वतीय किसान कृषि से मुंह मोड़ रहे हैं। भौगोलिक कारणों से एक बार फसल चौपट हो जाने के कारण किसान की कमर टूट जाती है फिर वह दोबारा खेती करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है और पलायन कर जाता है। वहीं मैदानी क्षेत्रों में औद्योगीकरण और लगातार आसमान छूते ज़मीन के भाव के कारण लोग खेती करने के बजाय खेत बेचने में फायदा मान रहे हैं। उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में जहां लोग स्वेच्छा से भी भूमिहीन हो रहे हैं वहीं मैदानी और जनजातीय इलाकों में लोगों की जमीनों पर न केवल सरकार बल्कि धन्नासेठों और आक्रामक बाहरी लोगों की गिद्धदृष्टि लगी हुयी है।
दुनियां में अफ्रीका के बाद आदिवासियों की सर्वाधिक आबादी भारत में है। भारत में इनकी आबादी लगभग 8 प्रतिशत आंकी गयी है, लेकिन इस उपमहाद्वीप के ये सबसे प्राचीन या मूल निवासी ज्यादातर भूमिहीन हैं। भूमिहीन होने का प्रमुख कारण इनका आखेटक-संग्रहक और घुमन्तु स्वभाव रहा ही है, लेकिन स्वयं को मुख्यधारा के सभ्य कहलाने वाले साधन सम्पन्न लोग भी इनकी जमीनें हड़पने में पीछे नहीं रहे। जिस मानव समुदाय के पावों तले जमीन न हो, उसकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति की कल्पना स्वतः ही की जा सकती है। देखा जाय तो यह भूमिहीन मानव समुदाय भविष्य का एक बारूद का ढेर ही है। भारत सरकार तथा कई राज्य सरकारें आज घरेलू मोर्चे पर नक्सलवाद के सबसे भयावह मोर्चे पर जूझी हुयी हैं। नक्सलवाद की जड़ें 9 राज्यों के 170 जिलों तक काफी गहराई तक पहुंच चुकी हैं। आदिवासी एवं भूमिहीन लोग नक्सलियों के कैडर का सबसे अहम् हिस्सा होते हैं। कॉम्पैक्ट रिवोल्यूशनरी ज़ोन (सीआरजेड) के नाम से मशहूर रेड कॉरिडोर नेपाल से शुरू होकर भारत के कुछ सबसे पिछड़े इलाक़ों तक फैला हुआ है। इसमें बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और महाराष्ट्र के कुछ इलाके शामिल हैं।
इतिहास गवाह है कि कि सत्ताधरियों ने जब भी इन भोले भाले लोगों पर ज्यादतियां कीं, इन्होंने पूरी ताकत से उसका जबाब दिया है। सन् 1817 में भीलों ने खान देश पर आक्रमण किया और वह आंदोलन 1824 में सतारा और 1831 में मालवा तक चला गया। सन् 1846 में जाकर अंग्रेज इस विद्रोह पर काबू पा सके। डूंगरपूर में ललोठिया तथा बांसवाड़ा, पंचमहाल (गुजरात) में गोबिंद गिरी ने धार्मिक आंदोलन चलाए। सन् 1812 में गोबिंद गिरी को अंगेजों ने गिरफ्तार कर लिया। उड़ीसा में ‘मल का गिरी’ का कोया विद्रोह सन् 1871-80 में हुआ। फूलबाने का खांडे विद्रोह (1850) में तथा साओरा का विद्रोह (1810-1940) में हुआ। ये विद्रोह आर्थिक शोषण के कारण हुए। सन् 1853 में संथाल-विद्रोह हुआ। सन् 1895 में मुंडा विद्रोह हुआ। सन् 1914 में उंरावों का ताना-मगत विद्रोह हुआ। मिजो आंदोलन लंबे समय तक चला और लालडेंगा मुख्यमंत्री बने। तराई में बाहरी दबंगों ने जनजातियों की जमीनें कब्जा रखी हैं और मूल निवासी अपने ही खेतों पर मजदूरी करने को विवश हैं। खटीमा के फुलैया गांव में जमीनों को लेकर 2011 में हिंसा की शुरुआत हो चुकी है। इन जनजातीय क्षेत्रों में धुर वाम पन्थियों या माओवादियों की सक्रियता की सम्भावनाऐं बढ़ती जा रही हैं। सन् 1967 में नक्सलवाद की बुनियाद पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव में संथाल आदिवासी किसानों के सशस्त्र विद्रोह से पड़ी थी।

विश्व की कुल उपलब्ध जमीन का मात्र 2.3 प्रतिशत हिस्सा ही भारत के पास है जिस पर दुनियां की 18 प्रतिशत आबादी का भार है। नेशनल ब्यूरो आफ सोयल सर्वे एण्ड प्लानिंग के एक अनुमान के अनुसार भारत की कुल जमीन में से 146.5 मिलियन हैक्टेअर अवक्रमित या डिग्रेडेड है। आजादी के बाद भूमि संसाधन के बारे में विचार करने के लिये जे.सी. कुमारप्पा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। समिति की रिपोर्ट में व्यापक कृषि सुधार के उपायों की सिफारिशें की गयीं थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा था कि देश में जमीन कुछ शरमायेदारों के हाथों में कैद है, और वे उस जमीन को जोतने वालों का शोषण करते हैं। यही नहीं समिति ने जमीन के रिकार्ड बेहद खराब हैं जिनकी दुर्दशा पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चिन्ता जताई है। रिकार्ड ठीक न होने और कुप्रबन्धन के कारण लोगों का ज्यादातर समय और शक्ति मुकदमेबाजी पर बर्बाद हो रहा है।  तब से लेकर आज तक न तो भूमि के रिकार्ड सही हुये और ना ही प्रबन्धन के कारगर तरीके इजाद किये जा सके। उत्तराखण्ड का तराई क्षेत्र इसका उदाहरण है जहां बाहरी लोगों ने मूल निवासी थारू और बोक्सा की जमीनें हड़प ली हैं और राज्य सरकार जमीनें हड़पने वालों को पूरा संरक्षण दे रही है।

भारत में भूराजस्व वसूली के लिये भूप्रबन्धन की शुरूआत अकबर बादशाह के जमाने में राजा टोडरमल ने की थी। मुगलों के बाद अंग्रेज और उनके अधीन रहे नबाब और रियासती राजा भी राजस्व वसूली के लिये ही भूमि रिकार्ड रखते थे। बहरहाल आजादी के बाद लोकोपयोगी भूप्रबन्धन की बारी आयी। स्वतंत्र भारत का पहला भूमि सुधार कानून 1950 में उत्तर प्रदेश में बना जिसका नाम उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम आया। इस अधिनियम के बाद सदियों से कुण्डली मारे बैठे पुराने जमींदारों की जमींदारी तो कुछ हद तक जमींदोज हो गयी, मगर उनकी जगह नेताओं, नौकरशाहों, नव धनाड्यों उद्योग घरानों और फिर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नयी जमींदारियां शुरू हो गयी। बिहार जैसे राज्यों में जमींदारी बचाने के लिये रणवीर सेना जैसी निजी सेनाओं का भी उदय हुआ तो अन्य राज्यों में भूमाफिया, राजनेताओं और भूव्यवसाइयों ने गुण्डों की फौज खड़ी करनी शुरू कर दी। नेताओ, गुण्डों नौकरशाहों और पुलिस के गठजोड़ के कारण आज माफिया, प्रोपर्टी डीलर या रियल एस्टेट और सरकार में फर्क करना मुश्किल हो गया है।

देश भर में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ जो आंदोलन चलते रहे हैं उनका समाधान भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के बगैर नहीं किया जा सकता है, और ऐसा कानून बिना भूमि की वास्तविक स्थिति जाने सम्भव नहीं है। इस मामले में हरियाणा के अलावा अन्य राज्यों में अंग्रेजों द्वारा 1894 में बनाये गये भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जमीनें हासिल की जा रही हैं। अगर किसान की जमीन हासिल करने में जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें अंग्रेजों शासकों की तरह व्यवहार करे तो फिर किसान आग बबूला क्यों नहीं होगा। जमीन अधिग्रहण को लेकर हरियाणा सरकार के फार्मूले को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। इस फार्मूले के तहत औद्योगिक या बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए जो जमीन ली जाती है उसके लिए बाजार भाव पर मुआवजा दिया जाता है। किसानों को पूरी राशि एक बार में नहीं दी जाती, बल्कि हर वर्ष उन्हें रायल्टी दी जाती है। इसके साथ ही रोजगार की गारंटी मिलती है। पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट कई बार उत्तराखण्ड सरकार से हरियाणा के फार्मूले को लागू करने की लिखित और मौखिक सलाह दे चुके हैं, मगर उनकी सलाह भी नक्कारखाने में चली जाती है।

जमीन, मिट्टी का टीला नहीं बल्कि धरती का हिस्सा होती है। इस धरती पर जमीन ही जीवन का सबसे बड़ा आधार है। जमीन के बिना आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसीलिये जमीन और आधार या बुनियाद को पर्यायवाची माना जाता है। जमीन धरती का हिस्सा है और धरती जीवन की जननी है। हम इसी धरती में पैदा होते हैं और इसी धरती में विलीन हो जाते हैं। ऐलेक्जेण्डर द ग्रेट या हिटलर से लेकर सद्दाम हुसैन तक सब आ कर चले गये मगर जमीन यहीं की यहीं रह गयी। इतने महत्वपूर्ण संसाधन के लिये अगर किसी देश के पास कोई सुविचारित नीति और प्रबन्धन का व्यवहारिक नजरिया नहीं है, तो समझो कि उसके पास कुछ भी नहीं है। भूमि प्रबन्धन के आधार पर दुनियां की सभ्यताऐं बनती और बिगड़ती रही हैं। एक किसान के पास उसकी जो जमीन होती है और वह धरोहर आगे की कई पीढ़ियों तक चलती है। उस जमीन को बेच कर हासिल किये गये रुपये जल्दी ही खर्च हो जाते हैं। अतः हमें समझ लेना चाहिये कि अगर आप किसी किसान की जमीन खरीद या हड़प रहे हैं तो उसकी भावी पीढ़ियों के जीने का सहारा छीन रहे हैं। भूमि वह संसाधन है जिसे खींच तान कर बढ़ाया नहीं जा सकता।

जयसिंह रावत,
ई-11फ्रेंण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
jaysinghrawat@gmail.com






Friday, April 28, 2017

Mawsynram Beats Record of Cherrapunji

सबसे नम मावसीरम

वायु, स्थान विशेष की मिट्टी का प्रकार, भूतल की परतें, परतों में भी चट्टानी परत की उपस्थिति-अनुपस्थिति, स्थान विशेष में होने वाली औसत वर्षा, वर्षा जल संचयन के ढांचे तथा जल संचयन जलनिकासी की वस्तुस्थिति आदि मिलकर तय करते हैं कि किसी स्थान की पानी सोखने की क्षमता कितनी होगी। पानी सोखने की क्षमता तय करती है कि कौन सी भूमि कितनी नम होगी। झील तालाब, नदियां तो एक तरह से नमभूमि क्षेत्र होती ही हैं। लगातार सोखे पानी के कारण कोई भूमि भी नमभूमि में परिवर्तित हो सकती है। किसी बांध के कारण बनी कृत्रिम झील भी नमभूमि का निर्माण कर सकती है। ऐसी नमभूमियों को अंग्रेजी भाषा मेंवेटलैण्डभी कहते हैं। 

भारत में अनेक नमभूमि क्षेत्र है। अधिक नमभूमि क्षेत्रों की सूची भी काफी लंबी है: तमिलनाडु का चिन्ना केल्लर, केरल का नरीमंगलम, महाराष्ट्र का महाबलेश्वर, अम्बोली, उत्तराखण्ड का सितारगंज, उड़ीसा का चांदबाली, कर्नाटक का अगुम्बे आदि अदि। भारत के कई नमभूमि क्षेत्रों के अस्तित्व पर संकट लगातार गहरा रहा है। वर्षा का असमान होता वितरण और कई इलाकों में  घटती वर्षा तो इस गहराते संकट का कारण हैं ही, कई स्थानीय कारण भी हैं। जल दोहन ज्यादा है और जल संचयन कम। नमभूमि क्षेत्रों पर बढ़ता अतिक्रमण तथा आसपास क्षेत्रों में वनस्पति का नाश भी इसके अन्य कारण हैं। ऐसे कई प्रमुख नमभूमि क्षेत्रों को रामसर अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत् संरक्षित किया गया है। इसके रामसर समझौते के तहत् संरक्षित ऐसे नमभूमि क्षेत्रों कोरामसर साइट्स’ कहते हैं। रामसर समझौते की सूची में अब तक भारत के 26 नमभूमि क्षेत्रों को शामिल किया गया है, जिनकी सूची हम इस लेख के आखिर में दे रहे हैं। आइये, अब चर्चा करें, सबसे अधिक नमभूमि क्षेत्र की।

सबसे नम 

किसी एक माह के भीतर सबसे अधिक वर्षा के आधार पर मेघालय राज्य स्थित चेरापूंजी ( जुलाई, 1861 – 9300 मिलीमीटर ) भारत का सबसे अधिक वर्षा क्षेत्र है। वार्षिक वर्षा औसत के आधार पर देखें, तो मेघालय राज्य का ही मावसीरम अब भारत का वर्तमान सबसे अधिक वर्षा औसत क्षेत्र – (11,873 मिलीमीटर) बन गया है। वर्ष 1985 में 26,613 मिलीमीटर रिकाॅर्ड वाार्षिक वर्षा के आधार परगिन्नीज वल्र्ड बुक आॅफ रिकार्ड्सने मावसीरम को दुनिया का सबसे नमभूमि क्षेत्र भी घोषित किया है। हालांकि वार्षिक वर्षा औसत के आधार पर कोलम्बिया के लोरो नामक स्थान (1952 से 1989 तक का औसत – 12,717 मिलीमीटर ) ने मावसीरम के इस दर्जे को चुनौती दी है; बावजूद इसकेगिन्नीज वल्र्ड बुक आॅफ रिकार्डसमें मावसीरम का दर्जा कायम है। दर्जे की बात करें, तो भारत का चैथा सबसे ऊंचा (1034 फीट) झरनामावस्माईभी मावसीरम में ही स्थित है।

सहायक कारक

उपउष्ण कटिबंधीय जलवायु, दिसम्बर से फरवरी तक सूखे दिनों की छोटी अवधि, शेष वर्ष तेज धार वर्षा वाला अधिक लंबा मौसम, मानसून के दौरान बंगाल की खाड़ी से उठकर उत्तर की ओर चलने वाली गर्म आर्द्र हवायें, दूर से आने वाली हवाओं को अपने में समेट लेने की क्षमता वाला खासी पहाड़ियों का पूर्वी-पश्चिमी ढाल, जनवरी में 11 डिग्री से लेकर अगस्त में 20 डिग्री सेल्सियस का तापमान, वर्षा का अधिकतर सुबह के समय होना आदि पहलू मावसींरम को अधिक नमभूमि क्षेत्र बनाये में सहायक हुए हैं। मेघों का घर यानी मेघालय के ईस्ट खासी हिल्स ज़िले मेें मावसीरम की उपस्थिति, एक सहयोगी कारक है ही।

एक परिचय

मावसीरम, चेरापूंजी से 16 किलोमीटर दूर समुद्र से 4600 फीट की ऊंचाई पर ज़िला ईस्ट खासी हिल्स की पहाड़ियों के बीच स्थित एक गांव है। 237 घरों वाले मावसीरम की आबादी 1337 है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का घटता लिंग अनुपात भारत के कई राज्यों के लिए चिंता का विषय हो सकता है, किंतु मावसीरम में 702 महिलाओं के बीच मात्र 635 पुरुषों का आंकड़ा है। बच्चों की संख्या भी यहां सीमित ही है – 184 बच्चे यानी प्रति घर एक बच्चे से भी कम। मावसीरम का साक्षरता प्रतिशत (93.93) दिलचस्प रूप से मेघालय के औसत साक्षरता प्रतिशत (74.43) से बहुत अधिक है। 

नमभूमि, सीधे-सीधे स्थानीय भूजल के स्तर, उसकी गुणवत्ता, दुर्लभ जल पक्षी तथा जैवविविधता को प्रभावित करती है। अप्रत्यक्ष रूप से इसका संबंध आबादी की सेहत, रोज़गार, संस्कृति तथा अन्य सामाजिकआर्थिकपर्यावरण पहलुओं से भी है। इन विविध पहलुओं की दृष्टि से मावसीरम को जानने निकलें, तो इनकी जैविक दुनिया आपको काफी दिलचस्प और ज्ञानवर्धक लगेगी। वर्षभर बारिश हो, तो रहने का तरीका आप मावसीरम से सीख सकते हैं। इनके बांस के बने छाते, घर, खेती के तौर-तरीके, खान-पान, नमी में भी चमड़ी के रोगों से बचाव के गुर आदि कई बातें ये हमे-आपको काफी कुछ सिखा सकते हैं। क्या आप सीखना चाहेंगे ?

भारत में रामसर संरक्षित नमभूमि क्षेत्र 
1. वुलर झील ( नमभूमि क्षेत्रफल – 18,900 हेक्टेयर, राज्य-जम्मू-कश्मीर , अधिसूचना तिथि – 23.03.1990 )
2. सुरिनसर-मान्सर झील (क्षेत्रफल – 350 हेक्टेयर, राज्य-जम्मू-कश्मीर, अधिसूचना तिथि – 08.11.2005 )
3. सौमित्री ( क्षेत्रफल – 12,000 हेक्टेयर, राज्य-जम्मू-कश्मीर, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
4. होकेरा नमभूमि (क्षेत्रफल – 1,375 हेक्टेयर, राज्य-जम्मू-कश्मीर, अधिसूचना तिथि – 08.11.2005)
5. चन्द्रताल नमभूमि (क्षेत्रफल – 49 हेक्टेयर, राज्य-हिमाचल प्रदेश, अधिसूचना तिथि – 08.011.2005 )
6. पोंग बांध झील (क्षेत्रफल – 61,400 हेक्टेयर, राज्य-हिमाचल प्रदेश, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
7. रेणुका नमभूमि (क्षेत्रफल – 20 हेक्टेयर, राज्य-हिमाचल प्रदेश, अधिसूचना तिथि – 08.11.2002 )
8. हरिका झील (क्षेत्रफल – 4,100 हेक्टेयर, राज्य-पंजाब, अधिसूचना तिथि – 23.03.1990 )
9. कांजिली (क्षेत्रफल – 183 हेक्टेयर, राज्य-पंजाब, अधिसूचना तिथि – 22.01.2002)
10. रोपड़ (क्षेत्रफल – 1,365 हेक्टेयर, राज्य-पंजाब, अधिसूचना तिथि – 22.01.2002)
11. ऊपरी गंगा नदी ( क्षेत्रफल – 26,590 हेक्टेयर, राज्य-उत्तर प्रदेश, अधिसूचना तिथि – 08.11.2005)
12. केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (क्षेत्रफल – 2,873 हेक्टेयर, राज्य-राजस्थान, अधिसूचना तिथि – 01.10.1981)
13. सांभर झील (क्षेत्रफल – 24,000 हेक्टेयर, राज्य-राजस्थान, अधिसूचना तिथि – 23.03.1990)
14. भोजताल नमभूमि (क्षेत्रफल – 3,201 हेक्टेयर, राज्य-मध्य प्रदेश, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
15. नलसरोवर अभ्यारण्य (क्षेत्रफल – 12,000 हेक्टेयर, राज्य-गुजरात, अधिसूचना तिथि – 24.09.2012 )
16. चिल्का झील (क्षेत्रफल – 1,16,500 हेक्टेयर, राज्य-उड़ीसा, अधिसूचना तिथि – 01.10.1981 )
17. भितरकनिका मैंग्रेाव नमभूमि (क्षेत्रफल – 65,000 हेक्टेयर, राज्य-उड़ीसा, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
18. कौलुरू झील (क्षेत्रफल – 90,100 हेक्टेयर, राज्य-आंध्र प्रदेश, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
19. अष्टमुडी नमभूमि (क्षेत्रफल – 61,400 हेक्टेयर, राज्य-केरल, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
20. साथामुकोटा झील (क्षेत्रफल – 373 हेक्टेयर, राज्य-केरल, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
21. बेमनाड-कोल ( नमभूमि क्षेत्रफल – 1,51,250 हेक्टेयर, राज्य-केेरल, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
22. प्वांइट कैलीमर वन्यजीव अभ्यारण्य एवम् पक्षी विहार (क्षेत्रफल – 38,500 हेक्टेयर, राज्य-तमिलनाडु, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
23. पूर्वी कोलकोता नमभूमि (क्षेत्रफल – 12,500 हेक्टेयर, राज्य-पश्चिम बंगाल, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
24. डिपोल बिल (क्षेत्रफल – 4,000 हेक्टेयर, राज्य-असम, अधिसूचना तिथि – 19.08.2002 )
25. लोकटक झील (क्षेत्रफल – 26,600 हेक्टेयर, राज्य-मणिपुर, अधिसूचना तिथि – 23.03.1990)
26. रूद्रसागर झील (क्षेत्रफल – 240 हेक्टेयर, राज्य-त्रिपुरा, अधिसूचना तिथि – 08.11.2002 )