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Sunday, December 29, 2019

नागरिकता का सवाल - कई मुंह वाली सरकार  पहली बार 


पिछले दरवाजे से एनआरसी की तैयारी
-जयसिंह रावत
नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 को लेकर देशभर में फैली आशंकाओं का कोहरा अभी थमा भी नहीं कि केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का खाता भी खोल दिया। ऊपर से सरकार की ओर से रहे विरोधाभासी बयानों ने स्थितियों को स्पष्ट करने के बजाय आशंकाओं की धंुंध को और अधिक गहरा दिया। जानकारों का मानना है कि एनपीआर अपने आप में एनआरसी का पिछला दरवाजा ही है जिसे एनआरआइसी कहा जा रहा है।
Jay Singh Rawat Journalist and Author
एनआरसी पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के परस्पर विरोधी बयान
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर या एनपीआर कोई पहली बार नहीं हो रहा है मगर इस बार नागरिकता संशोधन कानून के तत्काल बाद यह कार्य शुरू कराने एवं गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के परस्पर विरोधी बयानों के कारण भी स्थिति और अधिक अस्पष्ट एवं भ्रामक हो गयी है। प्रधानमंत्री ने 22 दिसम्बर को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित जनसभा को संबोधित करते हुये नागरिकता कानून के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर करने के लिये स्पष्ट रूप से कहा कि, ‘‘मैं 130 करोड़ देशवासियों को कहना चाहता हूं कि कहीं पर भी एनआरसी शब्द पर कोई चर्चा नहीं हुयी, काई बात नहीं हुयी। सिर्फ जब सुप्रीमकोर्ट ने कहा तो आसाम के लिये करना पड़ा।’’ जबकि गृृहमंत्री अमित शाह ने नवम्बर में ही लोकसभा में कहा था कि ‘‘एनआरसी की प्रकृया देशभर में शुरू होगी और उस समय असाम में भी यह प्रकृया फिर से की जायेगी। .....इन सारे लोगों को एनआरसी में समाहित करने की व्यवस्था है ही है।’’ राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने भी 20 जून 2019 को संसद में अपने अभिभाषण में कहा था कि, ‘‘मेरी सरकार ने तय किया है कि घुसपैठ की समस्या से जूझ रहे क्षेत्रों में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस की प्रकृया को  प्राथमिकता के आधार पर अमल में लाया जायेगा। ’’ राष्ट्रपति का अभिभाषण कैबिनेट द्वारा ही अनुमोदित किया जाता है। पिछले ही महीने नवम्बर में झारखण्ड की चुनावी सभाओं में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि देश में एनआरसी लागू कर चुन-चुन कर विदेशी घुसपैठियों को बाहर कर दिया जायेगा। इसी माह 4 दिसम्बर को अमित शाह के आफिशियल ट्विटर पर भी कहा गया था कि, ‘‘हम सम्पूर्ण देश में एनआरसी का कृयान्वयन सुनिश्चित कर बौद्ध, हिन्दू और सिखों के अलावा बाकी एक-एक घुसपैठियों को बाहर करेंगे।’’ नागरिकता कानून पर बबाल मचने के बाद इस ट्वीट को 19 दिसम्बर को हटा दिया गया। यही नहीं इसी साल लोकसभा चुनाव में भाजपा के घोषणापत्र में भी देशभर में चरणबद्ध तरीके से एनआरसी लागू करने का वायदा किया गया था।
सीएए के बाद एनपीआर
केन्द्र सरकार ने नागरिकता संबंधी 1955 के कानून में संशोधन कराने के तत्काल बाद एनपीआर की घोषणा भी कर डाली। इस योजना के तहत 1 अप्रैल से लेकर 30 सितम्बर 2020 तक देश में रह रहे प्रत्येक व्यक्ति का डाटा तैयार किया जाना है।  पहली बार एनपीआर 2011 की जनगणना के दौरान तैयार किया गया था जिसे 2015 में अपडेट किया गया। अब इसे 2021 की जनगणना के लिए इसे अद्यतन किया जाना है। पिछली बार की तुलना में इस बार कुछ अतिरिक्त जानकारियां भी मांगी जा रही हैं। जिस कारण देश में कई तरह की आशंकाएं उभर रही हैं। जनसंख्या गणना का यह काम दो चरणों में किया जाएगा। पहले चरण के तहत अप्रैल-सितंबर 2020 तक प्रत्येक घर और उसमें रहने वाले व्यक्तियों की सूची बनाई जाएगी। असम को छोड़कर देश के अन्य  हिस्सों में एनपीआर रजिस्टर के अद्यतन का काम भी इसके साथ किया जाएगा। जबकि दूसरे चरण में 9 फरवरी से 28 फरवरी 2021 तक पूरी जनसंख्या की गणना का काम होगा। जनगणना प्रक्रिया पर 8754.23 करोड़ रूपए तथा एनपीआर के अद्यतन पर 3941.35 करोड़ रूपए का खर्च आएगा। इस काम को पूरा करने के लिए 30 लाख कर्मियों को देश के विभिन्न हिस्सों में भेजा जाएगा। जनगणना 2011 के दौरान ऐसे कर्मियों की संख्या 28 लाख थी। सरकार का कहना है कि जनसंख्या से जुड़े सभी आंकड़े मंत्रालयों, विभागों, राज्य सरकारों और अनुसंधान संगठनों सहित सभी हितधारकों और उपयोगकर्ताओं के लिए उपलब्ध कराए जाएंगे।
पिछले दरवाजे से एनआरसी लाने की तैयारी
एनपीआर पर भी संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं। 31 जुलाई, 2019 के ऑफिशियल गजट नोटिफिकेशन के अनुसार असम मेंसिटीजनशिप रूल्स 2003 (रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजन्स एण्ड इश्यू ऑफ नेशनल आइडेंटिटी कार्ड्स) का नियम 3 ‘नेशनल रजिस्टर फॉर इंडियन सिटीजन्स (एनआरआइसी) की अवधारणा के बारे में है। वहीं इसका उप-नियम 4 ‘नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटीजन्स की तैयारीकी बात कहता है। अभी तक भले ही आफिशियली एनआरसी की घोषणा नहीं हुयी हो मगर एनआरआइसी की तैयारी तो शुरू हो ही गयी। अंतर यह है कि इसे एनआरसी के बजाय एनआरआइसी कहा जा रहा है। एनआरसी अभी तक असम के लिए ही सीमित रहा है जो 1985 के असम समझौते के तहत ही लाया गया था। गजट नोटिफिकेशन में कहा गया है कि एनआरआइसी की तैयारी की दिशा में पहला कदमपॉपुलेशन रजिस्टरहोगा। वर्ष 2003 के नागरिकता संशोधन अधिनियम के नियम 3 का उप-नियम (5) कहता है, ‘भारतीय नागरिकों के स्थानीय रजिस्टर में जनसंख्या रजिस्टर से उपयुक्त वेरिफिकेशन के बाद लोगों का विवरण शामिल होगा। एनआरआइसी को चार हिस्सों में बांटा जाएगारू () भारतीय नागरिकों का स्टेट रजिस्टर () भारतीय नागरिकों का डिस्ट्रिक्ट रजिस्टर () भारतीय नागरिकों का सब-डिस्ट्रिक्ट रजिस्टर () भारतीय नागरिकों का स्थानीय रजिस्टर।इसमें वे विवरण होंगे जो केंद्र सरकार रजिस्ट्रार जनरल ऑफ सिटीजन्स रजिस्ट्रेशन की सलाह से निर्धारित करेगी। 
अतिरिक्त पूछताछ पर भी सवाल
एनपीआर 2020 में माता-पिता के जन्म स्थान की जो जानकारी मांगी गई है, वह 2003 नियम में नहीं थी। 2003 के नियम में जनसंख्या रजिस्टर में 12 तरह के विवरण मांगे गये थे जिनमें नाम, पिता का नाम, माता का नाम, लिंग, जन्म स्थान, जन्मतिथि, आवास का पता (स्थायी और अस्थायी), वैवाहिक स्थिति (यदि विवाहित हैं तो पति-पत्नी का नाम), शरीर पर पहचान का कोई चिह्न, नागरिक के रजिस्ट्रेशन की तिथि, रजिस्ट्रेशन का सीरियल नंबर और नियम 13 के तहत उपलब्ध राष्ट्रीय पहचान संख्या शामिल थी। लेकिन अब ऑफिस ऑफ रजिस्ट्रार जनरल एण्ड सेंसस कमिश्नर की वेबसाइट को अपडेट कर उसमें एनपीआर के बारे मेंराष्ट्रीयताजैसी 15 तरह की जानकारियों का उल्लेख है। केन्द्र सरकार द्वारा एनपीआर तैयार करने के लिये जिला अधिकारियों को भेजे गये दिशा निर्देश के पृष्ठ संख्या 2, कॉलम 3 में कहा गया है, ‘माता-पिता के जन्म का स्थान, यदि भारत में है तो राज्य और जिले का नाम लिखें और यदि भारत से बाहर का है, तो देश का नाम लिखें और जिले का कॉलम हाइफन (-) लगाकर खाली छोड़ें।
संदिग्धता की तलवार नागरिकों के सिर पर भी
2003 के नियम के अनुसार एनपीआर में जिन लोगों के नाम दर्ज होंगे, उन्हें संदिग्ध नागरिक माना जा सकता है, लेकिन नागरिकता पर बने 1955 के मुख्य कानून मेंसंदिग्ध नागरिककी परिभाषा नहीं है और 2003 के नियम में भीसंदिग्ध नागरिकताकी कोई परिभाषा नहीं है। दरअसल यह कानून स्थानीय अधिकारी को असीमित अधिकार देता है। इससे 2003 रूल्स के नियम 4 के अनुसार लोकल रजिस्ट्रार संदिग्ध नागरिकता तय करेगा। लेकिन इसका आधार क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है। इसका दुष्प्रभाव असम में कारगिल युद्ध में शामिल रहे सेना के रिटायर कैप्टन मोहम्मद सनाउल्लाह और पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के वंशजों पर देखा जा चुका है। सनाउल्लाह डिटेंशन कैंप में रह चुके हैं जो कि हाइकोर्ट के आदेश पर रिहा हुये हैं। जबकि सरकार कह रही है कि देश में डिटेंशन कैंप हैं ही नहीं।
जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9421324999

Saturday, December 21, 2019

अब उत्तराखंड के चारधामों से भी पंगा  article carried by Navjivan 22 December 2019




बदरीनाथ और केदारनाथ भी आ गये निशाने पर

-जयसिंह रावत
अपने छिपे हुये धार्मिक ऐजेण्डे के तहत वर्ग विशेष पर लक्षित विवादास्पद निर्णयों से देश में अशांति और अविश्वास के बीज बोने के बाद भाजपा के निशाने पर करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था के केन्द्र बदरीनाथ और केदारनाथ भी गये हैं। उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार ने मोदी-शाह के पद्चिह्नों पर चलते हुये सड़क से सदन तक भारी विरोध और जनभावनाओं की परवाह किये बिना देवभूमि उत्तराखण्ड के विश्व विख्यात मंदिरों को अपने नियंत्रण में लेने के लिये ‘‘उत्तराखण्ड चारधाम देवस्थानम् विधेयक’’ तो पारित करा दिया, मगर कपोल कल्पनाओं पर आधारित यह कानून और उससे उपजने वाला देवस्थान प्रबंधन बोर्ड के हकीकत बनने की संभावना कम ही नजर रही है। अगर यह बोर्ड बन भी गया तो भी वह देश विदेश के तीर्थ यात्रियों को सुविधा दे या दे मगर हक हुकूक धारियों और स्थानीय बनता के लिये जी का जंजाल जरूर बनेगा। प्रस्तावित देवस्थान बोर्ड 1939 से चल रही बदरी-केदार मंदिर समिति को भंग कर बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री सहित 56 मंदिरों के प्रबंधन के लिये बनना है।
त्रिवेद्र सरकार ने राज्य की विशिष्ट परिस्थितियों, पूजा पद्धतियों और जनभावनाओं को ध्यान में रखे बिना अपने अधकचरे सलाहकारों की सलाह से वैष्णोदेवी और तिरुमाला तिरुपति की तर्ज पर बदरी-केदार मंदिर समित के 1939 के उत्तर प्रदेश के एक्ट संख्या 7 की जगहचारधाम देवस्थानम् बोर्डका हवाई अधिनियम तो बनवा दिया, लेकिन असली चुनौती तो अब उस अधिनियम को लागू करने के लिये उपनियम या बाइलॉज बनाने और श्राइन बोर्ड या देवस्थानम् बोर्ड के अव्यवहारिक ढांचे को धरती पर उतारने की है। बदरी-केदार सहित 56 मंदिरों की पूजा पद्धतियां, परम्पराएं, हकहुकधारी और भौगोलिक परिस्थितियां इतनी भिन्न हैं कि एक-एक के लिये उपनियम बनाना व्यवहारिक नहीं है। सरकारने विधानसभा मेंचारधाम श्राइन प्रबंधन बोर्डके ‘‘श्राइन’’ शब्द हटा कर उसकी जगह ‘‘देवस्थानम’’ जोड़ तो दिया मगर अब भी यह नाम देश विदेश के लोगों के लिये भ्रामक है। सरकार को पता होना चाहिये था कि आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन घर्म की रक्षा के लिये देश के चार कोनों में स्थापित चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से केवल एक पीठ ज्येतिर्पीठ ही उत्तराखण्ड के बदरीनाथ में है। शेष पीठों में से पूरब में जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) पश्चिम में द्वारका (गुजरात) और दक्षिण में रामेश्वरम् (तमिलनाडू) में हैं।
त्रिवेन्द्र सरकार की कपोल कल्पनाओं के देवस्थानम् बोर्ड के कानून मेंजम्मू-कश्मीर श्रीमाता वैष्णो देवी श्राइन एक्ट 1988’ एवं तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् एक्ट 1932 (संशोधन 2006) की तरह श्राइन क्षेत्र की बात भी कही गयी है। यह वह क्षेत्र होगा जिस पर देवस्थानम् बोर्ड यात्री सुविधाएं विकसित करने के साथ ही मंदिरों का प्रबंधन करेगा। इसके लिये तिरुपति और वैष्णोदेवी की तरह एक निश्चित क्षेत्र बोर्ड के नियंत्रण में देने के लिये अधिसूचना सरकार द्वारा जारी की जायेगी। वैष्णोदेवी में कटरा से लेकर गुफा तक और आसपास की पहाड़ियों को भी अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। इसी तरह तिरुपति का अधिसूचित क्षेत्र तिरुमाला से शुरू होता है। उत्तराखण्ड के 56 मंदिरों में बोर्ड द्वारा प्रबंधन के लिये क्षेत्र अधिसूचित करना तो लगभग नामुमकिन ही है, लेकिन केवल बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में भी सरकार श्राइन क्षेत्र अधिसूचित करने की सोचेगी भी कैसे? बदरीनाथ में हनुमान चट्टी से मंदिर तक क्षेत्र अधिसूचित किया गया तो स्थानीय लोग उनके गौचर-पनघट पर अतिक्रमण से बबाल मचा देंगे। केदारनाथ मंदिर स्वयं केदारनाथ वन्यजीव विहार के अन्तर्गत है और वन्यजीवों के लिये संरक्षित क्षेत्र का असानी से डिनोटिफिकेशन नहीं होता। यमुनोत्री के लिये खरसाली से और गंगोत्री के लिये मुखवा गांव से लेकर इन मंदिरों तक श्राइन क्षेत्र घोषित करने होंगे और अगर ऐसा किया गया तो सरकार को जनता के असली आक्रोश का सामना तब करना पड़ेगा। गंगोत्री क्षेत्र के लोग पहले ही इको सेंसिटिव जोन से परेशान हैं। उत्तराखण्ड में ‘‘जितने कंकर उतने शंकर’’ वाली कहावत प्रसिद्ध है। मतलब यह कि यहां पगपग पर प्राचीन मंदिर हैं। सरकार उनके लिये कहां से और कितने श्राइन क्षेत्र अधिसूचित करेगी? और नहीं करेगी तो देवस्थानम् बोर्ड का क्या मतलब रह जायेगा?
लगता है कि त्रिवेन्द्र रावत ने अमित शाह के नक्शे कदम पर चलने के लिये ऐसा बेतुका निर्णय तो ले लिया लेकिन नौकरशाही ने भी अपने राजनीतिक मालिकों की अज्ञानता का लाभ उठाते हुये अपने लिये एक और चारागाह तलाश लिया है। वैष्णो देवी में उपराज्यपाल की अध्यक्षता वाले बोर्ड में केवल एक मुख्य कार्यकारी के अलावा कोई अन्य आइएएस नहीं है। अध्यक्ष सहित कुल 10 सदस्य हैं, जो कि उपराज्यपाल द्वारा धर्म, संस्कृति और समाज सेवा सहित विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियां हैं। इनमें 3 सदस्य तो विधि, न्याय और प्रशासन क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। इसी प्रकार तिरुपति बोर्ड में भी गिने चुने ही नौकरशाह हैं। उसमें जनप्रतिनिधि विधायक और सांसद ज्यादा है। लेकिन त्रिवेन्द्र रावत का बोर्ड अपने आप में पूरी सरकार है, जिसके 8 पदेन सदस्यों में से 6 आइएएस हैं। इस बोर्ड में पदेन सदस्यों के अलावा 18 मनोनीत सदस्य हैं। मतलब यह कि भाजपा के लोगों को पुनर्वासित करने के लिये पर्याप्त गुजाइश रखी गयी है। इनके अलावा उच्च प्रबंध समिति में मुख्य कार्याधिकारी सहित कुल 15 आइएएस रखे गये हैं, जिनमें 11 प्रमुख सचिव स्तर के हैं। अफसरों की इतनी बड़ी फौज से कैसे उम्मीद की जायेगी कि वे अफसरी कम और तीर्थसेवा ज्यादा करेंगे? वे केवल परिवार समेत बदरी-केदार के दर्शन करने के बाद देहरादून में बैठ कर ही चारधाम यात्रा का प्रबंधन करेंगे।
तिरुपति और वैष्णो देवी की तुलना उत्तराखण्ड के धामों और तीर्थों से करना भी अपने आप में अज्ञानता का प्रतीक है। तिरुपति और वैष्णो देवी में सालभर पूजा होती है, जबकि उत्तराखण्ड के हिमालयी तीर्थ साल में केवल 6 माह के लिये खुलते हैं। वैष्णो देवी और तिरुपति में वंशानुगत पुजारी होते हैं। जबकि बदरीनाथ में केरल का नम्बूदरीपाद ब्राह्मण रावल और केदारनाथ में कर्नाटक का वीर शैव जंगम लिंगायत रावल होता है। केदारनाथ का रावल प्रमुख धार्मिक हस्ती तो है मगर पुजारी नहीं है। बदरीनाथ का पुनरुद्धार स्वयं आदि गुरू शंकराचार्य ने 8वीं सदी में किया था जो कि देश के चार सर्वोच्च धामों में से एक है। जबकि भगवान शिव के द्वादस शिवलिंगों में से एक पंाचवें (इसे ग्यारहवां भी माना जाता है) शिवलिंग की स्थापना केदारनाथ में पाण्डवों ने स्वर्गारोहण के दौरान की थी। बदरीनाथ में गर्भगृह से लेकर तप्तकुण्ड और नजदीक के मंदिरों में पुजारी और हकहुकूकधारी अलग-अलग हैं। मसलन गभगृह के लिये रावल वेतनभागी मुख्य पुजारी है। डिमरी लोग वंशानुगत पुजारी हैं तो वेदपाठी और धार्माधिकारी मंदिर समित के वेतनभागी हैं। तप्तकुण्ड के निकट देवप्रयाग के पण्डे पूजा करते हैं। बदरीनाथ धाम ही नहीं एक तीर्थ भी है जहां ब्रह्मकपाल में देश विदेश के लोग अपने पित्रों का पिण्डदान करते हैं और इसीलिये इसे मोक्षधाम भी कहा जाता है। पंचबदरी (पांच बदरीनाथ) एवं पंचकेदार (पांच केदार) नाम से इनकी अपनी ऋंखला है। इनके अलावा यहां सेकड़ों की संख्या में शिव और उतने ही शक्तिस्वरूपा भगवती के मंदिर विभिन्न नामों से हैं। इनके अलावा भी हर गांव और समुदाय के अपने कुल देवता और ग्राम देवता होते हैं। सरकार द्वारा भी राज्य के प्रमुख मंदिरों को 5 श्रेणियों या अनुसूचियों में बांटा हुआ है। पहली अनुसूची में बदरीनाथ सहित 30 मंदिर, दूसरी में केदारनाथ समेत 17 मंदिर, तीसरी अनुसूची में यमुनोत्री और आसपा के मंदिर, चौथी अनुसूची में गंगोत्री और पांचवी अनुसूची में टिहरी के चन्द्रबदनी और रघुनाथ मंदिर तथा पौड़ी जिले का राजराजेश्वरी मंदिर रखा गया है। वर्ष 2004 में भी ऐसा ही बोर्ड बनाने का प्रयास किया गया था जो कि भरी जनाक्रोश के कारण विफल रहा। दरअसल तिरुपति में 1987 में परम्परागत हकहुकूक समाप्त कर दिये गये थे जो कि भारी विरोध के बाद 2006 में बहाल हो सकेे। एसा ही भय उत्तराखण्ड के 56 मंदिरों के हकहुकूकधारियों में भी है।
-जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999