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Saturday, December 7, 2019

क्या हम अदालत के बजाय पुलिस का न्याय चाहते हैं ?



हैदराबाद पुलिस एन्काउंटर: कोर्ट की जरूरत नहीं रही?
-जयसिंह रावत
हैदराबाद में महिला डाक्टर के बलात्कार और हत्या के आरोपियों को पुलिस द्वारा एन्काउटर में मार गिराये जाने की घटना से देश में जिस तरह की प्रतिकृया हुयी उसे कानून के राज में जायज तो कतई नहीं कहा जा सकता, मगर इस प्रतिकृया ने हमारी अपराधिक न्यायिक प्रणाली पर जनता के असन्तोष को अवश्य ही प्रकट कर दिया है। इस घटना के बाद ऐसा लग रहा है मानो कि लोगों को अब तो न्यायपालिका की और ना ही कानून बनाने वाली विधायिका की जरूरत रह गयी है। मामला तब और भी गंभीर हो जाता है जबकि विधायिका मंे बैठे लॉ मेकर भी भीड़ की भाषा बोलने लगें और अदालत के न्याय के बजाय पुलिस के न्याय को बेहतर ठहराने लगें। अबर देश में ऐसे ही सड़कों पर बइले की भावना से न्याय होने लगे तो समझिये कि इटली के मैकियावेली, यूनानी दार्शनिक गॉडविन एवं जर्मनी के मैक्स स्टर्नर का अराजक राजनीतिक दर्शन हकीकत बनने की ओर अग्रसर है।
शील के साथ ही नारी के मौलिक अधिकार का भी हनन
हैदराबाद या देश के किसी भी हिस्से में होने वाले इस तरह के यौन अपराध केवल शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न नहीं बल्कि मानवीय गरिमा और एक स्त्री के शील यामॉडेस्टीके हरण का भी है। अगर एक स्त्री डर के मारे शाम ढलने के बाद पुरुषों की तरह कहीं भी स्वछन्द नहीं घूम फिर सकती है तो यह उसके स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन भी है। हैदराबाद या उन्नाव के जैसे बलात्कारी और हत्यारे पहले तो एक नारी की अस्मत लूट कर जघन्य अपराध करते हैं और ऊपर से पीड़िता को ही मार डाल कर दुहरा अपराध करने के साथ ही अपना अपने जघन्य अपराध छिपाने का तीसरा अपराध करते हैं तो इसे रेयरेस्ट और रेयर माना ही जाना चाहिये, जिसकी सजा मौत ही है। लेकिन सजा देने का अधिकार पुलिस को नहीं दिया जा सकता। अगर ऐसा हुआ तो फिर अदालतों की जरूरत ही नहीं रह जायेगी। हैदराबाद का एन्काउण्टर भी पुलिस की भूमिका परकई सवाल उठाता है। हैरानी का विषय है कि इस संदिग्ध एन्काउटर पर आम आदमी ही नहीं बल्किलॉ मेकरभी जश्न मना रहे हैं। लगता है कि इतने गम्भीर मामले में भी केवल मशखरी ही हो रही है।
सजा--मौत बलात्कारी के बजाय पीड़िता को
यूपीए सरकार द्वारा बलात्कार के 1860 के कानूनों को और अधिक कठोर बनाये जाने के बाद एनडीए सरकार ने क्रिमिनल लॉ (संशोधन) अध्यादेश 2018 के जरिये 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म के दोषी को कम से कम 20 साल और अधिकतम् मृत्यु दण्ड और 16 साल से कम उम्र की लड़की से दुष्कर्म पर 20 वर्ष या ताउम्र कारावास की सजा का प्रावधान किया गया। फिर भी बलात्कार की घटनाएं कम होने के बजाय बलात्कार के बाद हत्या की घटनाएं बढ़ गयी हैं। दरअसल अपराध का सबूत मिटाने के लिये अपराधी पीड़िता को ही मिटाने में अपना बचाव मान रहे हैं। हैदराबाद ही क्यों, कठुवा में भी यही हुआ और उन्नाव बलात्कार काण्ड में भी बलात्कारी पक्ष ने यही पटकथा लिखी हुयी थी।
मृत्यु दण्ड को नाजायज बताया था वर्मा कमेटी ने
दिल्ली के निर्भया काण्ड के बाद डा0 मनमोहन सरकार द्वारा गठित पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति की सिफारिशों के बाद वर्ष 2013 में बलात्कार के मामलों को और गंभीरता से लेते हुये सजा की अवधि 20 साल से लेकर ताउम्र तक करने का प्रावधान किया गया। जस्टिस वर्मा, जस्टिस लीला सेठ और गोपाल सुब्रमण्यम वाली कमेटी ने भादंसं की धारा 376 (1), 376(2), 376(3) और 376 (सी) के तहत दोषी को ताउम्र जेल में रखने की सिफारिश करने के साथ ही एक नयी धारा 376 (एफ) जोड़ने का भी सुझाव दिया था। कमेटी ने 375, 376, एवं 509 के तहत दोषी की सजा 7 साल से बढ़ा कर 20 साल करने का सुझाव भी दिया था। लेकिन कमेटी ने मृत्यु दण्ड के प्रावधान की मांग का अनुचित ठहराया था।
75 प्रतिशत बलात्कारी बच निकलते हैं
अपराधियों में कानून का भय अवश्य होना चाहिये। लेकिन यह भय कानून कठोर बनाने से नहीं बल्कि अपराधी को सजा सुनिश्चित किये जाने से ही पैदा हो सकता है जो कि हो नहीं रहा है। हैरानी का विषय है कि सड़क से लेकर संसद तक केवल कठोर कानून बनाने की मांग तो उठ रही है और सरकारें भी अपनी बला टालने के लिये कठोरतम् कानून बनाने का भरोसा देती रही हैं, मगर अपराधियों के आगे कानून की लाचारी पर सवाल नहीं उठ रहे हैं। देश की अदालतों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों सहित 3.4 करोड़ मुकदमांे का बोझ है और इतने अधिक मुकदमों को निपटाने के लिये पूरे जज नहीं हैं। भारत में कुल अपराधों में वर्तमान सजा की दर 47 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि 53 प्रतिशत मामलों में अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती। महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में तो सजा का प्रतिशत फिलहाल 19 से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016 में देश की अदालतों में बलात्कार के कुल 1,52,165 मामले विचाराधीन थे, जिनमें से केवल 4,739 याने कि 25.5 प्रतिशत मामलों में ही बलात्कारियों को सजा हुई। इसी तरह महिलाओं पर हिंसक हमलों के 7,25,027 मामलों में से केवल 13,804 याने कि 26.7 मामलों में ही दोषियों को सजा मिल पायी। इससे पहले 2010 के शुरू में भी देश की अदालतें बलात्कार के मामलों में मात्र 26.55 प्रतिशत में सजा दे पायी और 73.44 प्रतिशत मामलों में आरोपी दोष मुक्त हो कर छूट गये।
पुलिस भी गंभीर नहीं होती बलात्कार के मामलों में
हैदराबाद पुलिस ने इस बार चाहे जिस मंशा से एन्काउण्टर में तत्परता दिखाई हो, मगर सामान्यतः बलात्कार पीड़िताओं को पुलिस स्टेशनों में ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार देश में वर्ष 2016 में कुल 55,071 बलात्कार के मामले दर्ज हुये जिनमें से पुलिस केवल 87.6 मामलों में ही चार्जशीट अदालत में दाखिल कर पायी। उसी वर्ष 16,500 मामले जांच के लिये लंबित थे, जिनमें 84 प्रतिशत मामले मणिपुर और 62 प्रतिशत मामले देश की राजधानी दिल्ली के थे।  वर्ष 2010 के आंकड़े भी देखें तो विभिन्न प्रदेशों और संघ शाषित प्रदेशांे की पुलिस के पास जनवरी 2010 में बलात्कार के कुल 33,436 मामले विवेचनाधीन थे। इनमें से 18,654 मामलों में ही पुलिस अदालत में बलात्कारियों पर चार्जशीट दाखिल कर सकी। साल के अन्त में पुलिस के पास 11,980 मामले लम्बित पड़े थे या आरोपियों के खिलाफ पूरे सालभर तक कोई कार्यवाही नहीं हो सकी थी। जाहिर है कि बलात्कार के मामलों की पहले तो समय से जांच नहीं हो पाती और जिन मामलों में जांच होती भी है उनके अभियोजन की लुंजपुंज कहानी अदालत में वकीलों की जबरदस्त जिरह के आगे टिक नहीं पाती। ऐसी स्थिति में मृत्यु दण्ड वाला या कोई भी कठोर कानून क्या करेगा?  यही नहीं 65.5 प्रतिशत हत्या के मामलों में किसी को भी सजा नहीं हो पाती। लाइवमिंट ऐजेंसी के सर्वे के अनुसार 99 प्रतिशत बलात्कार के मामले दर्ज भी नहीं हो पाते। दूसरी ओर समाज भी केवल दिल्ली और हैदराबाद जैसे महानगरों के मामलों में ही बौखलाता या कैडल ले कर सड़कों पर उतर आता है।
निर्भया काण्ड में भी फांसी का इंतजार
देश में बलात्कारियों को एक दिन की सजा तो हो नहीं पा रही है और मृत्युदण्ड सहित कानून को कठोरतम बनाने की बात हो रही है। पश्चिम बंगाल के धनंजय चटर्जी को बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या के मामले में 14 साल बाद 2004 में फांसी हुयी थी। उसके बाद कानून देश में अब तक इस तरह के मामलों में किसी को फांसी के तख्ते पर नहीं झुला पाया। दिल्ली के मुनेरिका क्षेत्र में 16 दिसम्बर 2012 की रात निर्भया की बहुत ही बहशियाना ढंग से बलात्कार के बाद हत्या करने वाले अपराधी अभी तक फांसी के तख्ते पर नहीं झूले। जबकि एक अपराधी ने जेल में ही आत्महत्या कर ली तो एक अन्य नाबालिग अपराधी जुबिनाइल जस्टिस सिस्टम की खामियों के कारण फांसी से बचने के बाद जेल से भी आजाद हो गया।
अदालतों में भी होती है लाज बेपर्दा
पुलिस स्टेशन से लेकर अदालतों में तक बलात्कार पीड़िताओं से पूछे जाने वाले सवाल किसी से छिपे नहीं हैं। इस मामले में समय के साथ कुछ सुधार अवश्य हुआ, क्योंकि अब महिला थाने भी खुल रहे हैं और पुलिस में महिला कर्मियों की संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। लेकिन अदालत में बलात्कार पीड़िता का सामना प्रायः पुरुष वकीलों से ही होता है। वचाव पक्ष का वकील भी पीड़िता की पूरी मदद तभी कर पायेगा जबकि उसे पीड़िता पूरी बात बताये। हालांकि अब बलात्कार के मामलों की सुनवाई खुली अदालत में नहीं होती फिर भी पुरुष जज के सामने उसे आपबीती तो बयान करनी ही होती है। एक साधारण महिला जो कभी पर्दानशीं होती थी, खुल कर अपने साथ हुये हादसे का विवरण या प्रतिपक्षी वकील के टेढ़े मेढ़े सवालों का बेहिचक जवाब नहीं दे पाती। अदालतों में ऐसे भी तर्क दिये जाते रहे हैं कि पीड़िता के शरीर पर चोट या खरोच का निशान होने का मतलब सहमति ही है। मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर प्रतिवादी पक्ष पीड़िता नाबालिग बच्ची को सेक्सुअली हैबिचुवल साबित करने का प्रयास भी करता है।
कानूनी पेशे में महिलाओं की कमी
हमारे देश में 1923 तक महिलाओं का कानूनी पेशे में आना वर्जित था। हालांकि कार्नेलिया सोराबजी ने इंग्लैण्ड में बैरिस्टरी पास करने के बाद 1921 महिलाओं को कानूनी सहायता देनी शुरू कर दी थी, लेकिन महिलाओं के वकील के रूप में कानूनी व्यवसाय अपनाने पर लगी रोक लीगल प्रैक्टिशनर (महिला) एक्ट संख्या 33 वर्ष 1923 के द्वारा हटायी गयी। इतने सालों के बाद आज भी वकालत के पेशे में पुरुषों की तुलना में महिलाएं काफी कम हैं। सुप्रीम कोर्ट बार में 420 सूचीबद्ध वरिष्ठ वकीलों में केवल 10 महिला वकीलों का होना कानूनी पेशे में महिलाओं की बहुत कम संख्या होने का एक प्रमाण है। अगर देश में महिला वकीलों की संख्या पुरुषों के समान होती तो पीड़िताएं पुरुषों के बजाय महिला वकीलों की मदद लेतीं और उनसे खुल कर अपनी बात भी कह सकती थी। वकील ही क्यों? न्यायपालिका में अब भी पुरुषों का वर्चस्व है। प्रधान नयायाधीश समेत 34 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट में पहली बार 3 महिला जज शामिल हुयी हैं। अक्टूबर 1989 में सुप्रीम कोर्ट में  पहली महिला जज फातिमा बी की नियुक्ति के बाद केवल 7 महिला जज देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच पायी हैं। लीला सेठ 1978 में दिल्ली हाइकोर्ट में पहली महिला जज बनी थीं। देश के 24 हाइकोर्टों में कुल कार्यरत् 670 जजों में से केवल 73 जज महिलाएं हैं।
समाज अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता
नारी के सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार के साथ ही समाज की भी है। एडीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में 3 सांसदों और देश के 47 विधायकों पर बलात्कार और महिला उत्पीड़न के मुकदमें चल रहे हैं। इनमें से एक उन्नाव काण्ड का आरोपी विधायक भी है। देहरादून में भाजपा के संगठन महामंत्री संजय कुमार पर उसी पार्टी की एक कार्यकर्ता ने बलात्कार और ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया था। पीड़िता दिल्ली से देहरादून के चक्कर लगाती रही मगर सत्ताधारी दल ने आरोपी का बालबांका नहीं होने दिया। लोग अपने चहेते राजनीतिक दलों के बलात्कारियों को बलात्कारी नहीं मानते हैं। कुलदीप सिंह सेंगर से साक्षी महाराज की हमदर्दी छिपी नहीं है। बिडम्बना यह  कि बलात्कारी सफेद चोले के साथ ही सन्यास के भगवा चोले में भी घुस गये। आसाराम बापू, राम रहीम, नित्यानन्द, चिन्मयानन्द आदि की लिस्ट लम्बी होती जा रही है। खेद का विषय है कि समाज इन आरोपियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही की मांग नहीं करता। आधुनिकता और नंगई में भी अंतर नहीं समझे जाने के साथ ही मीडिया और इंटरनेट में बढ़ती अश्लीलता भी यौन अपराधों में वृद्धि का कारण है।
अराजकतावाद की ओर
हैदराबाद के एन्काउटर पर जिस तरह की अराजक प्रतिकृया हो रही है उससे यह सकेत मिल रहा है कि कहीं व्यवस्था से निराश जन विश्वास इटली के मैकियावेली, यूनानी दार्शनिक गॉडविन एवं जर्मनी के मैक्स स्टर्नर के अराजक राजनीतिक दर्शन की ओर तो नहीं बढ़ रहा? दरअसल अराजकतावाद राजनीति विज्ञान की वह विचारधारा है जिसमें राज्य अवांछनीय, अनावश्यक और हानिकारक है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी तरह की सरकार अवांछनीय है। यह दर्शन स्वैच्छिक संस्थानों पर आधारित स्वाभिशासित समाजों की वकालत करता है। इनका वर्णन अक्सर राज्यहीन समाजों के रूप में होता है, यद्यपि कई लेखकों ने इन्हें अधिक विशिष्टतापूर्वक अपदानुक्रमिक मुक्त संघों पर आधारित संस्थानों के रूप में परिभाषित किया हैं। अराजकतावादियों के मुताबिक ऐसा समाज बनाना कठिन नहीं है जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता अधिकतम होगी, भौतिक वस्तुओं का समान बँटवारा होगा। मैकियावेली भी कहा करता था कि कई बार केवल कानूनों के मुताबिक बात बनती।


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