बदरीनाथ और केदारनाथ भी आ गये निशाने पर
-जयसिंह रावत
अपने छिपे हुये धार्मिक ऐजेण्डे के तहत वर्ग विशेष पर लक्षित विवादास्पद निर्णयों से देश में अशांति और अविश्वास के बीज बोने के बाद भाजपा के निशाने पर करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था के केन्द्र बदरीनाथ और केदारनाथ भी आ गये हैं। उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार ने मोदी-शाह के पद्चिह्नों पर चलते हुये सड़क से सदन तक भारी विरोध और जनभावनाओं की परवाह किये बिना देवभूमि उत्तराखण्ड के विश्व विख्यात मंदिरों को अपने नियंत्रण में लेने के लिये ‘‘उत्तराखण्ड चारधाम देवस्थानम् विधेयक’’ तो पारित करा दिया, मगर कपोल कल्पनाओं पर आधारित यह कानून और उससे उपजने वाला देवस्थान प्रबंधन बोर्ड के हकीकत बनने की संभावना कम ही नजर आ रही है। अगर यह बोर्ड बन भी गया तो भी वह देश विदेश के तीर्थ यात्रियों को सुविधा दे या न दे मगर हक हुकूक धारियों और स्थानीय बनता के लिये जी का जंजाल जरूर बनेगा। प्रस्तावित देवस्थान बोर्ड 1939 से चल रही बदरी-केदार मंदिर समिति को भंग कर बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री सहित 56 मंदिरों के प्रबंधन के लिये बनना है।
त्रिवेद्र सरकार ने राज्य की विशिष्ट परिस्थितियों, पूजा पद्धतियों और जनभावनाओं को ध्यान में रखे बिना अपने अधकचरे सलाहकारों की सलाह से वैष्णोदेवी और तिरुमाला तिरुपति की तर्ज पर बदरी-केदार मंदिर समित के 1939 के उत्तर प्रदेश के एक्ट संख्या 7 की जगह ‘चारधाम देवस्थानम् बोर्ड’ का हवाई अधिनियम तो बनवा दिया, लेकिन असली चुनौती तो अब उस अधिनियम को लागू करने के लिये उपनियम या बाइलॉज बनाने और श्राइन बोर्ड या देवस्थानम् बोर्ड के अव्यवहारिक ढांचे को धरती पर उतारने की है। बदरी-केदार सहित 56 मंदिरों की पूजा पद्धतियां, परम्पराएं, हकहुकधारी और भौगोलिक परिस्थितियां इतनी भिन्न हैं कि एक-एक के लिये उपनियम बनाना व्यवहारिक नहीं है। सरकारने विधानसभा में ‘चारधाम श्राइन प्रबंधन बोर्ड‘ के ‘‘श्राइन’’ शब्द हटा कर उसकी जगह ‘‘देवस्थानम’’ जोड़ तो दिया मगर अब भी यह नाम देश विदेश के लोगों के लिये भ्रामक है। सरकार को पता होना चाहिये था कि आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन घर्म की रक्षा के लिये देश के चार कोनों में स्थापित चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से केवल एक पीठ ज्येतिर्पीठ ही उत्तराखण्ड के बदरीनाथ में है। शेष पीठों में से पूरब में जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) पश्चिम में द्वारका (गुजरात) और दक्षिण में रामेश्वरम् (तमिलनाडू) में हैं।
त्रिवेन्द्र सरकार की कपोल कल्पनाओं के देवस्थानम् बोर्ड के कानून में ‘जम्मू-कश्मीर श्रीमाता वैष्णो देवी श्राइन एक्ट 1988’ एवं तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् एक्ट 1932 (संशोधन 2006) की तरह श्राइन क्षेत्र की बात भी कही गयी है। यह वह क्षेत्र होगा जिस पर देवस्थानम् बोर्ड यात्री सुविधाएं विकसित करने के साथ ही मंदिरों का प्रबंधन करेगा। इसके लिये तिरुपति और वैष्णोदेवी की तरह एक निश्चित क्षेत्र बोर्ड के नियंत्रण में देने के लिये अधिसूचना सरकार द्वारा जारी की जायेगी। वैष्णोदेवी में कटरा से लेकर गुफा तक और आसपास की पहाड़ियों को भी अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। इसी तरह तिरुपति का अधिसूचित क्षेत्र तिरुमाला से शुरू होता है। उत्तराखण्ड के 56 मंदिरों में बोर्ड द्वारा प्रबंधन के लिये क्षेत्र अधिसूचित करना तो लगभग नामुमकिन ही है, लेकिन केवल बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में भी सरकार श्राइन क्षेत्र अधिसूचित करने की सोचेगी भी कैसे? बदरीनाथ में हनुमान चट्टी से मंदिर तक क्षेत्र अधिसूचित किया गया तो स्थानीय लोग उनके गौचर-पनघट पर अतिक्रमण से बबाल मचा देंगे। केदारनाथ मंदिर स्वयं केदारनाथ वन्यजीव विहार के अन्तर्गत है और वन्यजीवों के लिये संरक्षित क्षेत्र का असानी से डिनोटिफिकेशन नहीं होता। यमुनोत्री के लिये खरसाली से और गंगोत्री के लिये मुखवा गांव से लेकर इन मंदिरों तक श्राइन क्षेत्र घोषित करने होंगे और अगर ऐसा किया गया तो सरकार को जनता के असली आक्रोश का सामना तब करना पड़ेगा। गंगोत्री क्षेत्र के लोग पहले ही इको सेंसिटिव जोन से परेशान हैं। उत्तराखण्ड में ‘‘जितने कंकर उतने शंकर’’ वाली कहावत प्रसिद्ध है। मतलब यह कि यहां पगपग पर प्राचीन मंदिर हैं। सरकार उनके लिये कहां से और कितने श्राइन क्षेत्र अधिसूचित करेगी? और नहीं करेगी तो देवस्थानम् बोर्ड का क्या मतलब रह जायेगा?
लगता है कि त्रिवेन्द्र रावत ने अमित शाह के नक्शे कदम पर चलने के लिये ऐसा बेतुका निर्णय तो ले लिया लेकिन नौकरशाही ने भी अपने राजनीतिक मालिकों की अज्ञानता का लाभ उठाते हुये अपने लिये एक और चारागाह तलाश लिया है। वैष्णो देवी में उपराज्यपाल की अध्यक्षता वाले बोर्ड में केवल एक मुख्य कार्यकारी के अलावा कोई अन्य आइएएस नहीं है। अध्यक्ष सहित कुल 10 सदस्य हैं, जो कि उपराज्यपाल द्वारा धर्म, संस्कृति और समाज सेवा सहित विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियां हैं। इनमें 3 सदस्य तो विधि, न्याय और प्रशासन क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। इसी प्रकार तिरुपति बोर्ड में भी गिने चुने ही नौकरशाह हैं। उसमें जनप्रतिनिधि विधायक और सांसद ज्यादा है। लेकिन त्रिवेन्द्र रावत का बोर्ड अपने आप में पूरी सरकार है, जिसके 8 पदेन सदस्यों में से 6 आइएएस हैं। इस बोर्ड में पदेन सदस्यों के अलावा 18 मनोनीत सदस्य हैं। मतलब यह कि भाजपा के लोगों को पुनर्वासित करने के लिये पर्याप्त गुजाइश रखी गयी है। इनके अलावा उच्च प्रबंध समिति में मुख्य कार्याधिकारी सहित कुल 15 आइएएस रखे गये हैं, जिनमें 11 प्रमुख सचिव स्तर के हैं। अफसरों की इतनी बड़ी फौज से कैसे उम्मीद की जायेगी कि वे अफसरी कम और तीर्थसेवा ज्यादा करेंगे? वे केवल परिवार समेत बदरी-केदार के दर्शन करने के बाद देहरादून में बैठ कर ही चारधाम यात्रा का प्रबंधन करेंगे।
तिरुपति
और वैष्णो देवी की तुलना उत्तराखण्ड के धामों और तीर्थों से करना भी अपने आप में अज्ञानता का प्रतीक है। तिरुपति और वैष्णो देवी में सालभर पूजा होती है, जबकि उत्तराखण्ड के हिमालयी तीर्थ साल में केवल 6 माह के लिये खुलते हैं। वैष्णो देवी और तिरुपति में वंशानुगत पुजारी होते हैं। जबकि बदरीनाथ में केरल का नम्बूदरीपाद ब्राह्मण रावल और केदारनाथ में कर्नाटक का वीर शैव जंगम लिंगायत रावल होता है। केदारनाथ का रावल प्रमुख धार्मिक हस्ती तो है मगर पुजारी नहीं है। बदरीनाथ का पुनरुद्धार स्वयं आदि गुरू शंकराचार्य ने 8वीं सदी में किया था जो कि देश के चार सर्वोच्च धामों में से एक है। जबकि भगवान शिव के द्वादस शिवलिंगों में से एक पंाचवें (इसे ग्यारहवां भी माना जाता है) शिवलिंग की स्थापना केदारनाथ में पाण्डवों ने स्वर्गारोहण के दौरान की थी। बदरीनाथ में गर्भगृह से लेकर तप्तकुण्ड और नजदीक के मंदिरों में पुजारी और हकहुकूकधारी अलग-अलग हैं। मसलन गभगृह के लिये रावल वेतनभागी मुख्य पुजारी है। डिमरी लोग वंशानुगत पुजारी हैं तो वेदपाठी और धार्माधिकारी मंदिर समित के वेतनभागी हैं। तप्तकुण्ड के निकट देवप्रयाग के पण्डे पूजा करते हैं। बदरीनाथ धाम ही नहीं एक तीर्थ भी है जहां ब्रह्मकपाल में देश विदेश के लोग अपने पित्रों का पिण्डदान करते हैं और इसीलिये इसे मोक्षधाम भी कहा जाता है। पंचबदरी (पांच बदरीनाथ) एवं पंचकेदार (पांच केदार) नाम से इनकी अपनी ऋंखला है। इनके अलावा यहां सेकड़ों की संख्या में शिव और उतने ही शक्तिस्वरूपा भगवती के मंदिर विभिन्न नामों से हैं। इनके अलावा भी हर गांव और समुदाय के अपने कुल देवता और ग्राम देवता होते हैं। सरकार द्वारा भी राज्य के प्रमुख मंदिरों को 5 श्रेणियों या अनुसूचियों में बांटा हुआ है। पहली अनुसूची में बदरीनाथ सहित 30 मंदिर, दूसरी में केदारनाथ समेत 17 मंदिर, तीसरी अनुसूची में यमुनोत्री और आसपा के मंदिर, चौथी अनुसूची में गंगोत्री और पांचवी अनुसूची में टिहरी के चन्द्रबदनी और रघुनाथ मंदिर तथा पौड़ी जिले का राजराजेश्वरी मंदिर रखा गया है। वर्ष 2004 में भी ऐसा ही बोर्ड बनाने का प्रयास किया गया था जो कि भरी जनाक्रोश के कारण विफल रहा। दरअसल तिरुपति में 1987 में परम्परागत हकहुकूक समाप्त कर दिये गये थे जो कि भारी विरोध के बाद 2006 में बहाल हो सकेे। एसा ही भय उत्तराखण्ड के 56 मंदिरों के हकहुकूकधारियों में भी है।
-जयसिंह
रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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