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Monday, July 31, 2017

चीन की घुसपैठ पर जनसत्ता के १२ जुलाई २०१७ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा अग्रलेख छपा था







चमोली में चीन की घुसपैठ नाकाम

15 और 25 जुलाई को भारतीय सीमा में आठ सौ मीटर तक घुसे थे चीन के सैनिक



नई दिल्ली: भारत ने चमोली में चीन की घुसपैठ नाकाम कर दी है। चीनी सैनिकों ने उत्तराखंड के बाड़ाहोती सेक्टर में इस माह दो बार घुसपैठ की। समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ने आइटीबीपी सूत्रों के हवाले से बताया है कि घुसपैठ की पहली घटना 15 जुलाई और दूसरी घटना 25 जुलाई को हुई। दोनों बार लगभग 15-20 सैनिक भारतीय इलाके में घुसे और विरोध जताने पर चले गए। चीनी सैनिकों ने पिछले साल भी जुलाई में घुसपैठ की थी।
गृह मंत्रलय के अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि 25 जुलाई को चीनी सैनिक चमोली जिले में 800 मीटर तक भारतीय सीमा में घुस आए। उन्होंने वहां मवेशी चरा रहे लोगों को डराया-धमकाया और वहां से चले जाने को कहा। इसी बीच, आइटीबीपी की अग्रिम चौकी रिमखिम पर तैनात जवानों से नियमित गश्त के दौरान उनका सामना हुआ। आइटीबीपी जवानों द्वारा विरोध किए जाने के बाद चीनी सैनिक लौट गए। इससे पहले लगभग दो घंटे तक वे भारतीय इलाके में रहे। अधिकारियों का कहना है कि इस इलाके में वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों देशों की अलग-अलग धारणाएं हैं। इसके चलते चीनी सैनिकों द्वारा घुसपैठ की घटनाएं होती रहती हैं। आइटीबीपी के एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि घुसपैठ का यह सिलसिला पिछले कई दशकों से चल रहा है। इसे नियमित तो हालांकि नहीं कहा जाएगा, लेकिन यह असामान्य बात भी नहीं है।
चीनी घुसपैठ के मायने
·        जुलाई को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ब्रिक्स देशों के एक सम्मेलन में भाग लेने बीजिंग जाने वाले थे।
·        इससे ठीक एक दिन पहले भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों के घुसपैठ करने का मकसद संभवत: भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाना था।
·        डोकलाम में भी दोनों देशों की सेनाएं आमने-आमने हैं और भारत कह चुका है कि चीनी सैनिकों के वापस होने पर ही वह वहां से हटेगा।
·        मवेशी चरा रहे लोगों को धमकाया विरोध किए जाने पर लौट गए
·        आइटीबीपी की अग्रिम चौकी पर तैनात जवानों से हुआ सामना
·        चीनी सैनिकों ने पिछले साल भी की थी जुलाई में घुसपैठ

संवेदनशील है चमोली सीमा
चमोली में चीन से जुड़ी भारतीय सीमा घुसपैठ की दृष्टि से संवेदनशील मानी जाती है। विशेषकर 80 वर्ग किलोमीटर में फैला बाड़ाहोती चरागाह। यहां स्थानीय लोग अपने मवेशियों को लेकर आते हैं। पिछले माह भी इस क्षेत्र में दो चीनी हेलीकॉप्टर देखे गए थे। घटना के बाद प्रशासन का एक दल क्षेत्र का जायजा लेने भी गया था।
साल में चार बार जायजा
वर्ष में चार बार प्रशासन की टीम बाड़ाहोती का जायजा लेने जाती है। इससे पहले वर्ष 2014 में यहां चीन का विमान देखा गया था। जुलाई 2016 में क्षेत्र के निरीक्षण को गई राजस्व टीम से चीनी सेना का सामना हुआ था। सैनिकों ने टीम को लौट जाने का इशारा भी किया। वर्ष 2015 में चीनी सैनिकों द्वारा चरवाहों के खाद्यान्न को नष्ट करने की घटना भी सामने आई थी।
चीन के निशाने पर बाड़ाहोती भी
(जनसत्ता के १२ जुलाई २०१७ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा मेरा अग्रलेख )
-जयसिंह रावत
सिक्किम सेक्टर में दोकलाम क्षेत्र में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर चल रही तनातनी की आंच उत्तराखण्ड से लगी भारत-तिब्बत सीमा तक महसूस की जाने लगी है। सीमान्त जिला चमोली के बाड़ाहोती क्षेत्र में चीनी सैनिकों द्वारा आयेदिन भारतीय क्षेत्र में घुसने की घटनाओं ने इस क्षेत्र को और भी अधिक संवेदनशील बना दिया है। तिब्बत कब्जे के बाद चीन मैकमोहन लाइन को इंकारने के साथ ही तवांग मठ के साथ ही बदरीनाथ को भी एक बौद्ध मठ मानकर इस सम्पूर्ण क्षेत्र को भी अपना भूभाग मानता है।
मई के अंतिम पखवाड़े में गंगतोक में केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का सीमा से सटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में सुरक्षा व्यवस्था पर मंथन करना ही था कि उसके कुछ ही दिन बाद चीनी सेना के दो हेलीकाप्टर बाड़ाहोती क्षेत्र में वायुसीमा का उल्लंघन कर घुस आये। इस बैठक में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने चीनी सेना द्वारा बार-बार सीमा का उल्लंघन किये जाने का मुद्दा उठाया था। वास्तव में चीन द्वारा सीमा का उल्लंघन किये जाने की यह पहली घटना नहीं बल्कि लाल सेना 1956 से लेकर अब तक लगभग हर साल सीमा का उल्ल्ंाघन करती  रही है। सन् 1956 में भारत और चीन की सेनाएं दोकलाम की तरह बाड़ाहोती में भी आमने-सामने डट गयीं थीं। तिब्बत की ओर से भौगोलिक कारणांे और बिल्कुल सीमा तक सड़कों का जाल बिछ जाने तथा निकट ही ल्हासा तक रेल के पहुंचने के कारण इस क्षेत्र में चीन सामरिक दृष्टि से स्वयं को ज्यादा सुविधाजनक पाता है। कभी भारत-तिब्बत का व्यापार केन्द्र रहा बाड़ाहोती भी एक पठारी क्षेत्र है जो कि 1962 के बाद निर्जन ही है और वहां केवल भोटिया चरवाहे ही अपनी बकरियों के साथ कुछ समय के लिये जाते हैं। त्रिवेन्द्र सिंह रावत ही नहीं बल्कि नारायण दत्त तिवारी से लेकर अब तक के उत्तराखण्ड के सभी मुख्यमंत्री आन्तरिक सुरक्षा पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आयोजित होने वाली बैठकों में चीनी सेना द्वारा उत्तराखण्ड से लगी सीमा का उल्लंघन करने का मुद्दा उठाते रहे हैं। सन् 2013 की बैठक में विजय बहुगुणा ने घुसपैठ की दर्जनों घटनाओं का ब्यौरा रखा था। उसी साल बाड़ाहोती क्षेत्र में चीनी सेना ने तीन बार सीमा का उल्लंघन किया था। उससे अगले साल चीनी हैलीकाप्टर इसी क्षेत्र में काफी देर तक मंडराता रहा। जुलाइ 2015 में चीनी सेनिकों ने बाड़ाहोती क्षेत्र के बुग्याल में भारतीय चरवाहों के टेंट उखाड़ कर उनका राशन नष्ट कर उन्हें भगा दिया था। भारत सरकार की ओर से चमोली के जिला प्रशासन के अधिकारियों के दल द्वारा लगभग प्रत्येक वर्ष में 4 बार (जून से अक्टूबर माहबाड़ाहोती में भ्रमण कर उपस्थिति दर्ज करायी जाती है। लेकिन 2016 में हर साल की तरह अपने भूभाग का सत्यापन करने गयी चमोली के प्रशासन की टीम को चीनी सैनिकों ने भगा दिया था।
उत्तराखण्ड के तीन जिलों पिथौरागढ़चमोली और उत्तरकाशी की भारत और तिब्बत के बीच लगभग 365 कि०मी० लम्बी सीमासुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील हो गयी है। इस सीमा पर हिमालय में लगभग 12 दर्रे सार्वजनिक हैं। इनमें उत्तरकाशी का एक दर्राचमोली की नीती और माणा घाटियों के 5 दर्रे और पिथौरागढ़ के 6 दर्रे शामिल हैं। चीन की उदण्डता को ध्यान में रखते हुये ही भारत सरकार ने 1960 में अल्मोड़ा से पिथौरागढ़गढ़वाल से चमोली और टिहरी से उत्तरकाशी अलग कर तीन नये जिलों का श्रृजन कर एक नया मण्डल गठित कर दिया था। उस मण्डल या डिविजन का नाम पहली बार उत्तराखण्ड दिया गया था जो कि 1965 तक चला और उसके बाद विघटित कर गढ़वाल और कुमाऊं दो मण्डलों को बरकरार रखा था। सुरक्षा की दृष्टि से सेना एवं आईटीबीपी इस समय नीती घाटी के मलारीगिर्थीगोबालासुमनारिमखिमअपर रिमखिमबड़ाहोतीटोपीढुंगालपथल  माणा घाटी में माणाघसतोली एवं माणा पास (अग्रिम चौकियांमें मुस्तैद हैं। लेकिन इनमें सबसे संवेदनशील बाड़ाहोती क्षेत्र का लपथल और टोपीढंुगा ही है।
दोकलाम से लेकर बाड़ाहोती और लद्दाख तक सीमा पर चीनी उदण्डता की वजह उसकी विस्तारवादी नीयत एवं ताकत का दंभ तो रही ही हैलेकिन इससे बड़ी वजह उसका मैकमोहन लाइन को नकारना है। सन् 1914 में भारत और तिब्बत की सीमा तय करने के लिये तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच सीमा को लेकर समझौता हुआ था उसमें मैकमोहन लाइन तय हुयी थी। इस समझौते और नक्शे पर ब्रिटिश विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन और तिब्बत सरकार के प्रतिनिधि लोंचेन सात्रा द्वारा हस्ताक्षर किये गये थे। लेकिन चीन ने तत्काल इसे अस्वीकार कर दिया था। चूंकि हेनरी मैकमोहन के नेतृत्व में शिमला में सर्वेयरोंकार्टोग्राफरों और ड्राफ्ट्मैनों की मदद से यह काल्पनिक सीमा रेखा नक्शे पर तय की गयी थीइसलिये इसे मैकमोहन लाइन का नाम दिया गयाजिसे शुरू में भारत सरकार ने ही मानने से इंकार कर दिया था। सन् 1935 में ब्रिटिश सिविल सेवा के अधिकारी ओलफ कैरोइ द्वारा सरकार को आश्वस्त किये जाने के बाद ही यह काल्पनिक रेखा सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा भारत के नक्शे में दिखाई जाने लगी। मैकमोहन लाइन पश्चिम में भूटान से लेकर करीब 890 किलोमीटर के क्षेत्र को रेखांकित करते हुए नक्शे पर खींची गई। पूर्व में इसने ब्रह्मपुत्र नदी तक के करीब 260 किलोमीटर के क्षेत्र को सीमाओं में बांटा। जब यह समझौता हुआ था उस समय तिब्बत स्वायत्त देश तो था मगर वह चीन से उसी तरह संरक्षण प्राप्त थाजिस तरह भूटान को भारत का संरक्षण प्राप्त है। इसलिये चीन का स्टैण्ड था कि तिब्बत को इस तरह का समझौता करने का अधिकार ही नहीं था। चीन अपने आधिकारिक मानचित्रों में मैकमोहन रेखा के दक्षिण में 65 हजार वर्ग किमी के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा दर्शाता है। इस क्षेत्र को चीन दक्षिणी तिब्बत बताता है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय चीनी फौजों ने कुछ समय के लिए इस क्षेत्र पर अधिकार भी जमा लिया थालेकिन बाद में चीनी सेना वापस हट गयी थी। लेकिन सन् 1993 एवं 1996 के समझौतों के तहत दोनों देशों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने पर सहमति जताई थीजिसका सम्मान चीन की सेना नहीं कर रही है।
जहां तक उत्तराखण्ड के बाड़ाहोती का सवाल है तो इस सम्बन्ध में इतिहास के पन्ने अवश्य पलटे जाने चाहिये। चीनी दखल से पहले तिब्बत एक स्वतंत्र देश था तो गढ़वाल और कुमाऊं भी कभी स्वतंत्र राज्य थे। अतीत में गढ़वाल राज्य और तिब्बत के बीच दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही रही हैं। दुश्मनी के दौर में कभी गढ़वाल राज्य तिब्बत पर हमला करता था तो कभी तिब्बती इस क्षेत्र में घुस आते थे। पंवार वंश के श्याम शाह से लेकर प्रद्युम्न शाह तक के शासनकाल में तिब्बत और गढ़वाल के बीच युद्धों के कई प्रसंग मौजूद हैं। गढ़वाल के महानायक लोदी रिखोला से लेकर माधोसिंह भण्डारी और भीमसिंह तक गढ़ सेनापतियों के तिब्बत विजय के प्रसंग इतिहास में मौजूद हैं। सीमान्त कुमाऊं का रं महोत्सव भी तिब्बतियों के आक्रमणों के इतिहास का गवाह है। गढ़वाल में तिब्बत को हूणदेश और तिब्बतियों को हुणिया या हूण कहते थे। तिब्बती शासक गढ़वाल राज्य पर हमला कर लूटपाट के लिये अन्दर तक चले आते थे और फिर गढ़नरेशों की सेनाएं हूणों को दापा तक खदेड़ देती थी। एक बार गढ़नरेश महिपति शाह ने दापागढ़ के बौद्ध विहार पर कब्जा कर अपने सेनापति भीमसिंह के भाई को वहां का प्रशासक नियुक्त कर दिया था। लेकिन उस समय गढ़वाल के आयुद्धजीवी क्षत्रिय एक दूसरे का पकाया हुआ खाना नहीं खाते थे और स्वयं खाना पकाते समय केवल लंगोट धारण करते थे। इस कमजोरी का लाभ उठाकर तिब्बती सेनिकों ने गढ़वाली शिविर पर छापा मार कर खाना पका रहे नंगधड़ंग गढ़वाली सेनिकों को मार डाला था। बाद में सहअस्तित्व की भावना से दोनों राज्यों में व्यापारिक संबन्ध भी प्रगाढ़ होते गये। भारत के व्यापारी नेलंग-जादुंगनीती-माणा और मिलम क्षेत्र से तिब्बत की मंडियों में अनाज और कपड़ा आदि सामान पहुंचाते थे और बदले में वहां से ऊनहींग और चट्टानी नमक जैसी सामग्री गढ़वाल और कुमाऊं में लाते थे। हालांकि चीनी दखल के कारण 1956 के बाद यह व्यापार घटता चला गया और 1962 में चीनी आक्रमण के बाद तो पूरी तरह ही बंद हो गया। वर्ष 1991 में चीनी प्रधानमंत्री के भारत आगमन पर एक मसौदे के तहत 1992 से केवल कुमाऊ क्षेत्र से व्यापार शुरू किया गया। वर्तमान में उक्त व्यापार की व्यवस्था भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के निर्देशानुसार जिला प्रशासन पिथौरागढ़ द्वारा की जाती है। गुंजी में ट्रेड ऑफिसर द्वारा भारतीय व्यापारियों का रजिस्ट्रेशन कर उन्हें ट्रेड पास जारी किये जाते हैं।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेवशाहनगर,
डिफेंस कालानी रोड,
देहरादून।
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com