Search This Blog

Tuesday, July 25, 2017

नेता, नौकरशाह और धन्नासेठों को क्या लेना देश की सुरक्षा से ?

कारगिल दिवस की औपचारिकता
-जयसिंह रावत
कारगिल में भारतीय सेना के शौर्य, बलिदान और त्याग का स्मरण करने के लिये एक बार फिर कारगिल दिवस गया है। इस अवसर पर नेतागण अपने जोशीले भाषणों में गला फाड़-फाड़ कर हमारे सैनिकों की वीरगाथाओं को गायेंगे। युद्ध में घायल और अपंग हुये बहादुरों की सराहना करेंगे और साथ ही शहीदों के परिजनों के प्रति अपनी सहानुभूति भी प्रकट करेंगे और इसके साथ ही सालभर में आने वाली एक औपचारिकता पूरी हो जायेगी। इन औपचारिकताओं में वे नौकरशाह और धनपशु भी शामिल होंगे जिनका सेना से कहीं दूर-दूर का भी रिश्ता हो। इस अवसर पर सर्वाधिक बखान करने वाले लोग कभी नहीं कहेंगे कि चलो अब हम भी अपने देश की आन, बान और शान की खातिर अपनी आस औलाद को सेना में झौंक देंगे। कहेंगे भी क्यों ? इनके बच्चे या वंशज देश की रक्षा की खातिर जान हथेली पर रख कर हर वक्त मौत का सामना करने, खन्दकों और बीहड़ों में भूखे प्यासे सोने या सियाचिन जैसे बर्फानी इलाकों में जिन्दगी के सबसे हसीन पलों को बिताने के लिये थोड़े पैदा होते हैं! नेताओं के बच्चों को बिना मेहनत किये राज करना, व्यपारी के बच्चे को धन कमा कर ऐशो आराम से जीना और नौकरशाह के बच्चे को नौकरशाह बन कर हुक्म चलाना और तमाम श्रोतों से अर्जित संपदा से जिन्दी के मजे लूटना होता है। अगर आप को ध्यान हो तो भारतीय सैन्य अकादमी की जब छमाही पासिंग आउट परेड होती है तो उसमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड और राजस्थान जैसे राज्यों के मध्यम और निम्न मध्यम दर्जे की आय वाले परिवारों से आये हुये जैंटमैन कैडेट होते हैं, जबकि गुजरात जैसे राज्य का कभी कभार ही कोई नौजवान सेना में शामिल होता है।
पाकिस्तान की हरकतें देशवासियों के सामने छिपी नहीं हैं। इधर चीन भी दोकलाम से लेकर लद्दाख तक छेड़खानी करता रहता है। जबकि देश के अन्दर भी देश के दुश्मन घुस कर आतंकी कार्रवाहियां चलाते रहते हैं। हमारे बहादुर थल सेना अध्यक्ष ने ढाइ मोर्चे पर लड़ने के लिये तैयार रहने की बात कर देशवासियों को उनकी तथा देश की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त तो कर दिया लेकिन क्या अकेले सेना इन ढाइ मोर्चों पर लड़ने के लिये काफी है? यह बात गौर करने की है। आप सवा सौ करोड़ देशवासियों के समर्थन की बात तो करते हैं। लेकिन उन सवा सौ करोड़ लोगों के केवल राजनीतिक समर्थन से आपका काम तो चल जायेगा मगर बिना उनके सक्रिय सैन्य समर्थन के देश की रक्षा जरूरतों का काम नहीं चलेगा। अगर इस देश मे ंसचमुच सवा सौ करोड़ लोगों की सेना खड़ी हो जाय तो इस धरती पर उसका सामना कोई नहीं कर सकता। इसके लिये जरूरी है कि देश की रक्षा की जिम्मेदारी केवल आम लोगों पर हो बल्कि सभी सवा सौ करोड़ लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी हो और चाहे कोई नेता हो या उद्योगपति ? सबके लिये सैन्य सेवा एक निश्चित अवधि के लिये अनिवार्य हो।
युद्धों के इतिहास के पन्नों को अगर आप पलटें तो पता चलता है कि उस युग में सबसे पहले मरने वाले भी जातीय या क्षेत्र के आधार पर तय किये जाते थे। जब तीर समाप्त हो जाते थे और तलवारें कंुद हो जाती थीं तो तब सेनापतियों के अपने लड़ाकू मैदान में उतारे जाते थे। क्षत्रिय तो मरने के लिये ही पैदा होता था। उसके जीवन का लक्ष्य मरना या मारना ही होता था। लेकिन आज, जबकि समाज जातीय बंधनों को तोड़ कर हर क्षेत्र में हर आदमी को हाथ आजमाने का मौका दे रहा है तो शासक और प्रशासक वर्ग अब भी अपनी सुविधानुसार उस प्राचीन व्यवस्था को बनाये रखना चाहता है, जिसमें मरने या मारने की जिम्मेदारी शासक नहीं बल्कि शासित वर्ग की होती है। यह जिम्मेदारी आज भी एक फौजी, किसान, मजदूर या फिर वंचित वर्ग को उठानी पड़ रही है।
केन्द्र या किसी भी राज्य सरकार का कर्मचारी केवल उस जगह पर अपनी तैनाती चाहता है जहां पर सुख सुविधाओं के सारे संाधन उपलब्ध हों। यही नहीं वह तैनाती स्थल पर ऊपरी कमाई की भी कामना करता है। रिस्क वाली जगह पर तैनाती की बात करना भी उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। इसी तरह नेताओं की बिरादरी के बच्चे सरहद पर जान जोखिम में डालना तो रहा दूर वे सरकारी या किसी की भी नौकरी नहीं करना चाहते। उन्हें नौकर रखने या शासन करने का विशेषाधिकार चाहिये। व्यापारी या उद्योगपति का बेटा अपनी धन दौलत के सहारे सत्ता और संसाधनों को अपने कब्जे में रखना चाहता है। जबकि गरीब या एक आम आदमी का बेटा सैनिक के रूप में सियाचिन में बर्फ के अंदर महीनों रह सकता है। वह जंगलों में भूखा-प्यासा भटक सकता है। जरूरत पड़ने पर वह कारगिल में अपनी जान भी देश के लिये न्योछावर कर सकता है। लेकिन अगर नेता या ब्यूरोक्रैट का बेटा घर से दो कदम भी बाहर निकला तो उसके मां-बाप को चिंता हो जाती है कि कहीं उसे सर्दी या गर्मी लग जाय। कहीं उसकी बातानुकूलित कार में गड़बडी़ जाय! अगर इस देश के लोकतांत्रिक ढांचे में हर नागरिक बराबर है और हर नागरिक देश के शासन में शामिल है तो फिर यह भेदभाव क्यों है?
सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो भारत और इज्राइल की स्थिति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। भारत तो कम से कम दो परमाणु शक्ति सम्पन्न वैमनस्यता रखने वाले देशों की सैन्य आकांक्षाओं से घिरा हुआ है। इज्राइल के बजूद को मिटाने की इतनी कोशिशों के बावजूद उसका कोई बाल बांका नहीं कर पाता। इसकी वजह यह है कि भारत की तरह वहां एक वर्ग विशेष के जिम्मे देश की सुरक्षा हो कर यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी होती है। वहां के छोटे नेता से लेकर राष्ट्रपति तक हर किसी को कभी कभी सेना में योगदान देना ही होता है। दुनियां में अपनी ताकत का डंका बजाने वाले हमारे पड़ोसी चीन में भी सैन्य सेवा हर नागरिक के लिये आवश्यक है। आप चीन को साम्यवादी देश बता कर उसकी आवश्यक मिलिट्री सेवा के सिद्धांत को खारिज करने का तर्क दे सकते हैं, मगर ब्रिटेन के बारे में साम्यवादी दुराग्रह का तर्क नहीं चल सकता। वहां के युवराज या राजकुमारों को आवश्यक मिलिट्री सेवा से गुजरना होता है। ब्रिटिश युवराज चार्ल्स फिलिप अर्थर जॉर्ज स्वयं नोसेना के पदधारी रहे हैं। जबकि उनके बेटे और भावी युवराज विलियम हैरी ने एक सैनिक के तौर पर इराक युद्ध में सक्रिय भागीदारी की थी। इस युद्ध में इस युवराज की जान भी जा सकती थी, मगर वहां राजशाही होने के बावजूद सेना में योगदान के लिहाज से नागरिक और नागरिक में इतना भेदभाव नहीं है। अगर देखा जाय तो आज भारत को सबसे बड़ी सैन्य चुनौती चीन की ओर से है। चीन में भी  18 साल की उम्र तक पहुंचने वाले हर युवा को पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के दफ्तर में अपना पंजीकरण कराना होता है ताकि जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके।
दुनियां में इज्राइल जैसे आवश्यक मिलिट्री सेवा वाले देशों की कमी नहीं है। दुनियां के एकमात्र दारोगा संयुक्त राज्य अमेरिका में 1975 तक यह व्यवस्था थी जिसमें संशोधन तो कर दिया गया मगर पूरी तरह यह व्यवस्था समाप्त नहीं की गयी। अमेरिका को आज भी टक्कर देने की हिम्मत रखने वाले रूस में अब भी यह व्यवस्था किसी किसी रूप में जिन्दा है। इनके अलावा बोलीविया, बर्मा, इंडोनेशिया, फिनलैंड, इस्टोनिया, जॉर्डन, उत्तर कोरिया, . कोरिया, मलेशिया, स्विट्रजरलैंड, सीरिया, ताइवान, थाइलैंड, टर्की, बेनेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात में आज भी आवश्यक मिलिट्री सेवा का प्रावधान है। अमेरिका समेत पुर्तगाल, पोलैंड, नीदरलैंड, लिथुआनिया, जापान और हंगरी जैसे देशों ने आवश्यक मिलिट्री सेवा तो समाप्त कर दी मगर स्वेच्छिक सेवा का विकल्प बंद नहीं किया। जापान में भी सेल्फ डिफेंस फोर्स में 18 साल की उम्र वाले लड़कों को अपना पंजीकरण कराने की अपेक्षा की जाती है। सवाल केवल सेना में महज औपचारिक भागीदारी का नहीं है। सवाल यह भी है कि अगर हर क्षेत्र में काम करने वाले एक दूसरे के काम की जटिलताओं, जोखिमों और महत्व को समझेंगे तो उनमें तालमेल बढ़ेगा और उनका क्षमता विकास भी होगा। जब एक नेता या ब्यूरोक्रैट का बेटा सीमा पर शहादत देगा तो इस बिरादरी को तब जा कर सेना का महत्व समझ में आयेगा। ब्यूरोक्रैट सेना में भी काम करेंगे तो उनमें अनुशासन की भावना बढ़ेगी।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
09412324999

jaysinghrawat@gmail.com

No comments:

Post a Comment