चीन के निशाने पर बाड़ाहोती भी
-जयसिंह रावत
सिक्किम सेक्टर में दोकलाम
क्षेत्र में भारत
और चीन के
बीच सीमा विवाद
को लेकर चल
रही तनातनी की
आंच उत्तराखण्ड से
लगी भारत-तिब्बत
सीमा तक महसूस
की जाने लगी
है। सीमान्त जिला
चमोली के बाड़ाहोती
क्षेत्र में चीनी
सैनिकों द्वारा आयेदिन भारतीय
क्षेत्र में घुसने
की घटनाओं ने
इस क्षेत्र को
और भी अधिक
संवेदनशील बना दिया
है। तिब्बत कब्जे
के बाद चीन
मैकमोहन लाइन को
इंकारने के साथ
ही तवांग मठ
के साथ ही
बदरीनाथ को भी
एक बौद्ध मठ
मानकर इस सम्पूर्ण
क्षेत्र को भी
अपना भूभाग मानता
है।
मई के अंतिम
पखवाड़े में गंगतोक
में केन्द्रीय गृहमंत्री
राजनाथ सिंह का
सीमा से सटे
राज्यों के मुख्यमंत्रियों
की बैठक में
सुरक्षा व्यवस्था पर मंथन
करना ही था
कि उसके कुछ
ही दिन बाद
चीनी सेना के
दो हेलीकाप्टर बाड़ाहोती
क्षेत्र में वायुसीमा
का उल्लंघन कर
घुस आये। इस
बैठक में मुख्यमंत्री
त्रिवेन्द्र सिंह रावत
ने चीनी सेना
द्वारा बार-बार
सीमा का उल्लंघन
किये जाने का
मुद्दा उठाया था। वास्तव
में चीन द्वारा
सीमा का उल्लंघन
किये जाने की
यह पहली घटना
नहीं बल्कि लाल
सेना 1956 से लेकर
अब तक लगभग
हर साल सीमा
का उल्ल्ंाघन करती
आ रही है।
सन् 1956 में भारत
और चीन की
सेनाएं दोकलाम की तरह
बाड़ाहोती में भी
आमने-सामने डट
गयीं थीं। तिब्बत
की ओर से
भौगोलिक कारणांे और बिल्कुल
सीमा तक सड़कों
का जाल बिछ
जाने तथा निकट
ही ल्हासा तक
रेल के पहुंचने
के कारण इस
क्षेत्र में चीन
सामरिक दृष्टि से स्वयं
को ज्यादा सुविधाजनक
पाता है। कभी
भारत-तिब्बत का
व्यापार केन्द्र रहा बाड़ाहोती
भी एक पठारी
क्षेत्र है जो
कि 1962 के बाद
निर्जन ही है
और वहां केवल
भोटिया चरवाहे ही अपनी
बकरियों के साथ
कुछ समय के
लिये जाते हैं।
त्रिवेन्द्र सिंह रावत
ही नहीं बल्कि
नारायण दत्त तिवारी
से लेकर अब
तक के उत्तराखण्ड
के सभी मुख्यमंत्री
आन्तरिक सुरक्षा पर प्रधानमंत्री
की अध्यक्षता में
आयोजित होने वाली
बैठकों में चीनी
सेना द्वारा उत्तराखण्ड
से लगी सीमा
का उल्लंघन करने
का मुद्दा उठाते
रहे हैं। सन्
2013 की बैठक में
विजय बहुगुणा ने
घुसपैठ की दर्जनों
घटनाओं का ब्यौरा
रखा था। उसी
साल बाड़ाहोती क्षेत्र
में चीनी सेना
ने तीन बार
सीमा का उल्लंघन
किया था। उससे
अगले साल चीनी
हैलीकाप्टर इसी क्षेत्र
में काफी देर
तक मंडराता रहा।
जुलाइ 2015 में चीनी
सेनिकों ने बाड़ाहोती
क्षेत्र के बुग्याल
में भारतीय चरवाहों
के टेंट उखाड़
कर उनका राशन
नष्ट कर उन्हें
भगा दिया था।
भारत सरकार की
ओर से चमोली
के जिला प्रशासन
के अधिकारियों के
दल द्वारा लगभग
प्रत्येक वर्ष में
4 बार (जून से
अक्टूबर माह) बाड़ाहोती
में भ्रमण कर
उपस्थिति दर्ज करायी
जाती है। लेकिन
2016 में हर साल
की तरह अपने
भूभाग का सत्यापन
करने गयी चमोली
के प्रशासन की
टीम को चीनी
सैनिकों ने भगा
दिया था।
उत्तराखण्ड
के तीन जिलों
पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी
की भारत और
तिब्बत के बीच
लगभग 365 कि०मी० लम्बी सीमा,
सुरक्षा की दृष्टि
से बहुत ही
संवेदनशील हो गयी
है। इस सीमा
पर हिमालय में
लगभग 12 दर्रे सार्वजनिक हैं।
इनमें उत्तरकाशी का
एक दर्रा, चमोली
की नीती और
माणा घाटियों के
5 दर्रे और पिथौरागढ़
के 6 दर्रे शामिल
हैं। चीन की
उदण्डता को ध्यान
में रखते हुये
ही भारत सरकार
ने 1960 में अल्मोड़ा
से पिथौरागढ़, गढ़वाल
से चमोली और
टिहरी से उत्तरकाशी
अलग कर तीन
नये जिलों का
श्रृजन कर एक
नया मण्डल गठित
कर दिया था।
उस मण्डल या
डिविजन का नाम
पहली बार उत्तराखण्ड
दिया गया था
जो कि 1965 तक
चला और उसके
बाद विघटित कर
गढ़वाल और कुमाऊं
दो मण्डलों को
बरकरार रखा था।
सुरक्षा की दृष्टि
से सेना एवं
आईटीबीपी इस समय
नीती घाटी के
मलारी, गिर्थी, गोबाला, सुमना,
रिमखिम, अपर रिमखिम,
बड़ाहोती, टोपीढुंगा, लपथल व
माणा घाटी में
माणा, घसतोली एवं
माणा पास (अग्रिम
चौकियां) में मुस्तैद
हैं। लेकिन इनमें
सबसे संवेदनशील बाड़ाहोती
क्षेत्र का लपथल
और टोपीढंुगा ही
है।
दोकलाम से लेकर
बाड़ाहोती और लद्दाख
तक सीमा पर
चीनी उदण्डता की
वजह उसकी विस्तारवादी
नीयत एवं ताकत
का दंभ तो
रही ही है,
लेकिन इससे बड़ी
वजह उसका मैकमोहन
लाइन को नकारना
है। सन् 1914 में
भारत और तिब्बत
की सीमा तय
करने के लिये
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और
तिब्बत के बीच
सीमा को लेकर
समझौता हुआ था
उसमें मैकमोहन लाइन
तय हुयी थी।
इस समझौते और
नक्शे पर ब्रिटिश
विदेश सचिव हेनरी
मैकमोहन और तिब्बत
सरकार के प्रतिनिधि
लोंचेन सात्रा द्वारा हस्ताक्षर
किये गये थे।
लेकिन चीन ने
तत्काल इसे अस्वीकार
कर दिया था।
चूंकि हेनरी मैकमोहन
के नेतृत्व में
शिमला में सर्वेयरों,
कार्टोग्राफरों और ड्राफ्ट्मैनों
की मदद से
यह काल्पनिक सीमा
रेखा नक्शे पर
तय की गयी
थी, इसलिये इसे
मैकमोहन लाइन का
नाम दिया गया,
जिसे शुरू में
भारत सरकार ने
ही मानने से
इंकार कर दिया
था। सन् 1935 में
ब्रिटिश सिविल सेवा के
अधिकारी ओलफ कैरोइ
द्वारा सरकार को आश्वस्त
किये जाने के
बाद ही यह
काल्पनिक रेखा सर्वे
ऑफ इंडिया द्वारा
भारत के नक्शे
में दिखाई जाने
लगी। मैकमोहन लाइन
पश्चिम में भूटान
से लेकर करीब
890 किलोमीटर के क्षेत्र
को रेखांकित करते
हुए नक्शे पर
खींची गई। पूर्व
में इसने ब्रह्मपुत्र
नदी तक के
करीब 260 किलोमीटर के क्षेत्र
को सीमाओं में
बांटा। जब यह
समझौता हुआ था
उस समय तिब्बत
स्वायत्त देश तो
था मगर वह
चीन से उसी
तरह संरक्षण प्राप्त
था, जिस तरह
भूटान को भारत
का संरक्षण प्राप्त
है। इसलिये चीन
का स्टैण्ड था
कि तिब्बत को
इस तरह का
समझौता करने का
अधिकार ही नहीं
था। चीन अपने
आधिकारिक मानचित्रों में मैकमोहन
रेखा के दक्षिण
में 65 हजार वर्ग
किमी के क्षेत्र
को तिब्बती स्वायत्त
क्षेत्र का हिस्सा
दर्शाता है। इस
क्षेत्र को चीन
दक्षिणी तिब्बत बताता है।
1962 के भारत-चीन
युद्ध के समय
चीनी फौजों ने
कुछ समय के
लिए इस क्षेत्र
पर अधिकार भी
जमा लिया था,
लेकिन बाद में
चीनी सेना वापस
हट गयी थी।
लेकिन सन् 1993 एवं
1996 के समझौतों के तहत
दोनों देशों ने
वास्तविक नियंत्रण रेखा का
सम्मान करने पर
सहमति जताई थी,
जिसका सम्मान चीन
की सेना नहीं
कर रही है।
जहां तक उत्तराखण्ड
के बाड़ाहोती का
सवाल है तो
इस सम्बन्ध में
इतिहास के पन्ने
अवश्य पलटे जाने
चाहिये। चीनी दखल
से पहले तिब्बत
एक स्वतंत्र देश
था तो गढ़वाल
और कुमाऊं भी
कभी स्वतंत्र राज्य
थे। अतीत में
गढ़वाल राज्य और
तिब्बत के बीच
दोस्ती और दुश्मनी
दोनों ही रही
हैं। दुश्मनी के
दौर में कभी
गढ़वाल राज्य तिब्बत
पर हमला करता
था तो कभी
तिब्बती इस क्षेत्र
में घुस आते
थे। पंवार वंश
के श्याम शाह
से लेकर प्रद्युम्न
शाह तक के
शासनकाल में तिब्बत
और गढ़वाल के
बीच युद्धों के
कई प्रसंग मौजूद
हैं। गढ़वाल के
महानायक लोदी रिखोला
से लेकर माधोसिंह
भण्डारी और भीमसिंह
तक गढ़ सेनापतियों
के तिब्बत विजय
के प्रसंग इतिहास
में मौजूद हैं।
सीमान्त कुमाऊं का रं
महोत्सव भी तिब्बतियों
के आक्रमणों के
इतिहास का गवाह
है। गढ़वाल में
तिब्बत को हूणदेश
और तिब्बतियों को
हुणिया या हूण
कहते थे। तिब्बती
शासक गढ़वाल राज्य
पर हमला कर
लूटपाट के लिये
अन्दर तक चले
आते थे और
फिर गढ़नरेशों की
सेनाएं हूणों को दापा
तक खदेड़ देती
थी। एक बार
गढ़नरेश महिपति शाह ने
दापागढ़ के बौद्ध
विहार पर कब्जा
कर अपने सेनापति
भीमसिंह के भाई
को वहां का
प्रशासक नियुक्त कर दिया
था। लेकिन उस
समय गढ़वाल के
आयुद्धजीवी क्षत्रिय एक दूसरे
का पकाया हुआ
खाना नहीं खाते
थे और स्वयं
खाना पकाते समय
केवल लंगोट धारण
करते थे। इस
कमजोरी का लाभ
उठाकर तिब्बती सेनिकों
ने गढ़वाली शिविर
पर छापा मार
कर खाना पका
रहे नंगधड़ंग गढ़वाली
सेनिकों को मार
डाला था। बाद
में सहअस्तित्व की
भावना से दोनों
राज्यों में व्यापारिक
संबन्ध भी प्रगाढ़
होते गये। भारत
के व्यापारी नेलंग-जादुंग, नीती-माणा
और मिलम क्षेत्र
से तिब्बत की
मंडियों में अनाज
और कपड़ा आदि
सामान पहुंचाते थे
और बदले में
वहां से ऊन,
हींग और चट्टानी
नमक जैसी सामग्री
गढ़वाल और कुमाऊं
में लाते थे।
हालांकि चीनी दखल
के कारण 1956 के
बाद यह व्यापार
घटता चला गया
और 1962 में चीनी
आक्रमण के बाद
तो पूरी तरह
ही बंद हो
गया। वर्ष 1991 में
चीनी प्रधानमंत्री के
भारत आगमन पर
एक मसौदे के
तहत 1992 से केवल
कुमाऊ क्षेत्र से
व्यापार शुरू किया
गया। वर्तमान में
उक्त व्यापार की
व्यवस्था भारत सरकार
के वाणिज्य मंत्रालय
के निर्देशानुसार जिला
प्रशासन पिथौरागढ़ द्वारा की
जाती है। गुंजी
में ट्रेड ऑफिसर
द्वारा भारतीय व्यापारियों का
रजिस्ट्रेशन कर उन्हें
ट्रेड पास जारी
किये जाते हैं।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालानी रोड,
देहरादून।
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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