Search This Blog

Friday, November 17, 2017

पूर्ण राज्य के लिए परिपक्व नहीं था उत्तराखंड, पदलोलुपता ने फैलाई राजनीतिक गंध

हिमाचल के साथ ज्यादा तरक्की करता उत्तराखण्ड
-जयसिंह रावत
भारतीय गणतंत्र के 27 वें राज्य के रूप में 9 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आने वाला हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड भले ही कुछ क्षेत्रों में अच्छी प्रगति कर रहा हो मगर राजनीतिक अस्थिरता और वित्तीय कुप्रबंधन के कारण इस राज्य की सरकारें नागरिकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही हैं। लखनऊ से देहरादून पहुंची सत्ता पहाड़ों पर शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंच पा रही हैं। राज्य में वित्तीय संकट बढ़ता जा रहा है और कर्ज का बोझ निरन्तर बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में अब आवाजें उठने लगी हैं कि काश! यह राज्य भी अपने हिमालयी सहोदर हिमाचल प्रदेश की तरह शुरू में केन्द्र शासित हो जाता या फिर उत्तर प्रदेश की जगह यह हिमाचल का अंग बन जाता तो हिमाचल की तरह ही उत्तराखण्ड भी हिमालयी राज्यों के लिये विकास का एक मॉडल के रूप में उभरता।
उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश दो ऐसे हिमालयी राज्य हैं जिनमें केवल भौगोलिक समानता और निकटता ही नहीं बल्कि इनमें सांस्कृतिक समानता और दोनों समाजों में ऐतिहासिक सामाजिक मेलजोल भी रहा है। उत्तराखण्ड की टिहरी रियासत तो कभी हिमाचल की रियासतों में ही शामिल थी। दूरदृष्ट्वा डा0 यशवन्त सिंह परमार ने हिमाचल के विकास की एक सुविचारित राह चुनी और उनके उत्तराधिकारियों ने वही डगर ऐसी पकड़ी कि आज हिमाचलभारत की फलों की टोकरीके रूप में विख्यात हो गया। बागवानी के अलावा वह राज्य पर्यटन और बिजली उत्पादन में भी उत्तराखण्ड से कहीं आगे निकल चुका है। वहां उत्तराखण्ड की जैसी पलायन की गंभीर समस्या नहीं है। वहां गांव खाली इसलिये नहीं हो रहे हैं, क्यांेकि लोग अपने गांव और खेतों से जुड़े हुये हैं। राज्य के भाग्यविधाता कभी ऊर्जा राज्य की तो कभी पर्यटन और कभी जड़बूटी राज्य के जैसे राग अलापते रह गये हैं।
25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्यत्व हासिल करने के बाद से लेकर अब तक के 46 सालों में पड़ोसी हिमाचल ने डा0 यशवन्त सिंह परमार, ठाकुर राम लाल, शान्ता कुमार, प्रो0 प्रेम कुमार धूमल और वीरभद्र सिंह जैसे केवल 5 नेताओं को मुख्यमंत्री के तौर पर देखा। इनमें से वीरभद्र 5 बार मुख्यमंत्री बने और उनके अलावा बाकी सभी नेता दो-दो बार मुख्यमंत्री रहे। जबकि उत्तराखण्ड ने मात्र 17 सालों में 9 बार मुख्यमंत्री देख लिये जिनमें नित्यानन्द स्वामी, भगतसिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, भुवनचन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियालनिशंक’, विजय बहुगुणा, हरीश रावत और अब त्रिवेन्द्र सिंह रावत समेत 8 नेता शामिल रहे। इनमें से खण्डूड़ी विधानसभा के एक ही कार्यकाल में दो बार मुख्यमंत्री बने और तिवारी के अलावा कोई भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। अब त्रिवेन्द्र सिंह नवें मुख्यमंत्री बने हैं और 6-7 महीनों के कार्यकाल में ही उनकी विदायी की अटकलें भी शुरू हो गयी हैं। जाहिर है कि उत्तराखण्ड का राजनीतिक नेतृत्व राज्य संभालने के लिये अभी परिपक्व नहीं हुआ था। इसी कारण नारायण दत्त तिवारी जैसे मंझे हुये राजनीतिज्ञ भी यहां बड़ी मुश्किल से पांच साल टिक पाये। इस राज्य में आज जो कुछ दिखाई दे रहा है वह तिवारी के ही प्रयासों का प्रतिफल है। राजनीति के अवसरवादी और पदलोलुप जीव कुर्सी के लिये एक सांस में राहुल और सोनिया गांधी का राग अलापते हैं तो दूसरी ही सांस में उनके मुंह सेनमो नादगूंजने लगता है। यहां मुख्यमंत्रियों को विपक्ष से नहीं बल्कि अपने ही दल के लोगों से खतरा रहता है। पिछले साल 2016 में उत्तराखण्ड की राजनीति का भद्दा नाटक सारी दुनियां ने देखा और मजबूरन न्यायपालिका को हस्तक्षेप कर एक चुनी हुई सरकार को केन्द्र में सत्ताधारी दल और राज्य के अवसरवादियों के प्रपंच से बचाना पड़ा। यह पहला मौका था जबकि अदालत ने राष्ट्रपति शासन को ही पलट कर अपनी देखरेख में विधानसभा में बहुमत साबित करा दिया।
वित्तीय कुप्रबंधन और संसाधनों की लूट के कारण उत्तराखण्ड राज्य पर इन 17 सालों में लगभग 45 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है, जो कि प्रति नागरिक के हिसाब से लगभग 40 हजार बैठता है। इसका सालाना ब्याज ही राज्य को लगभग 4500 करोड़ के आसपास देना होता है। जबकि हिमाचल पर इन 46 सालों में अब तक केवल 38,568 करोड़ (वर्ष 2017-18 का बजट अनुमान) का ही कर्ज हुआ है। हिमाचल के चालू वर्ष के बजट में वेतन -भत्तों के लिये 26.91 प्रतिशत, पेंशन के लिये 13.83 प्रतिशत तथा ऋणों के ब्याज के लिये 9.78 प्रतिशत राशि रखी गयी है। जबकि उत्तराखण्ड में वेतन -भत्तों मजदूरी के लिये 31.01 प्रतिशत और पेंशन पर 10.71 प्रतिशत और कर्ज की ब्याज अदायगी के लिये 11.04 प्रतिशत राशि रखी गयी है। ये आंकड़े राज्य के वित्तीय कुप्रबंधन और फिजूलखर्ची की कहानी बयां करते हैं। दूसरी ओर उत्तराखण्ड के बजट में विकास या निर्माण कार्यों के लिये केवल 13.23 प्रतिशत राशि रखी गयी है जबकि हिमाचल सरकार ने विकास कार्यों के लिये 39.35 प्रतिशत राशि का प्रवाधान रखा है। हिमाचल सरकार ने बागवानी विकास के लिये चालू वर्ष में 1134 करोड़ की राशि प्रावधानित की है जबकि उत्तराखण्ड सरकार के पास बागवानी के लिये महज 264 करोड़ ही बच पाये। शुरू में जब हिमाचल केन्द्र शासित प्रदेश था तो पंचवर्षीय योजना की लगभग आधी राशि केवल सड़कों के विकास के लिये रखी गयी। उसके बाद शासन व्यवस्थाएं बदलती रहीं मगर सबका ध्यान इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास पर ही रहा। जबकि उत्तराखण्ड के कर्णधारों का ध्यान कुर्सियों से अलहदा नहीं हो सका।
ऐसा भी नहीं कि इन 17 सालों में उत्तराखण्ड में कुछ भी नहीं हुआ हो। उत्तराखण्ड कुछ मामलों में तो आगे निकल चुका है। वर्ष 2015-16 में उत्तराखण्ड की प्रति व्यक्ति आय 151219 रुपये तथा हिमाचल प्रदेश की 1,30,067 रुपये अंाकी गयी है। इसी प्रकार वर्ष 2015-16 में चालू भावों पर राज्य के जीएसडीपी का 1,84,091 करोड़ और वर्ष 2014-15 में 1,61,985 करोड़ अनुमानित है। वर्ष 2015-16 में राज्य की आर्थिक विकास दर 8.70 फीसद रहने की संभावना है। जबकि हिमाचल प्रदेश का 2015-16 के अंाकलन में सकल घरेलू उत्पाद उस समय की दरों के आधार पर 1,24,570 हजार करोड़ रुपये ही आंका गया। दोनों पहाड़ी राज्यों की सिंचाई के मामले में तुलना करें तो हिमाचल का कुल सिंचित क्षेत्र 1,09,930 हेक्टेअर है जबकि उत्तराखण्ड का सिंचित क्षेत्र 1,31,226 हैक्टेअर तक पहुंच गया है। उत्तराखण्ड में सड़कों की लम्बाई 40,686 किमी तक और हिमाचल प्रदेश में सड़कों की लम्बाई अभी 35,583 किमी तक ही पहुंची है। उत्तराखण्ड में प्रति हजार वर्ग किमी पर 760.34 किमी सड़कें तथा हिमाचल में 639.14 किमी सड़कें बनी हुयी है। उत्तराखण्ड में प्रति लाख जनसंख्या पर 381.46 किमी और हिमाचल में 498.76 किमी सड़कें हैं। हालांकि हिमाचल शिक्षा, कृषि, फलोत्पादन और बिजली जैसे मामलों में अब भी उत्तराखण्ड से कहीं आगे है। उसकी विद्युत उत्पादन क्षमता 10,351 मेगावाट तक पहुंच गयी है जबकि टिहरी बांध निर्माण के बाद भी उत्तराखण्ड की क्षमता 3,177.27 मेगावाट तक ही पहुंच पायी है। इसमें टिहरी बांध भी शामिल है जिसके बिजली उत्पादन में केन्द्र के साथ उत्तराखण्ड नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी है। उत्तराखण्ड की साक्षरता दर 78.8 प्रतिशत तक ही पहुंच पायी जबकि हिमाचल प्रदेश की साक्षरता 82.80 प्रतिशत तक पहुंच गयी है। हिमाचल ने विकास के क्षेत्र में ऐसी कई ऊंचाइयां छुयी हैं जहां पहुंचने में उत्तराखण्ड को अभी काफी समय लगेगा। फिर भी इन आंकड़ों से स्पष्ट हो ही जाता है कि उस समय गढ़वाल भी सत्यदेव बुशहरी और परिपूर्णानन्द पैन्यूली के प्रयासों से हिमाचल के साथ बना रहता तो यहां विकास की इतनी संभावनाएं थीं कि उत्तराखण्ड आज हिमाचल ही नहीं बल्कि देश के विकसित राज्यों से भी आगे निकल गया होता।
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में भौगोलिक और सांस्कृतिक समानता ही नहीं बल्कि ये दोनों क्षेत्र सदियों से सामाजिक और राजनीतिक बन्धनों से भी बंधे रहे हैं। यहां के लगभग 3 दर्जन रियासतों के शासकों के आपस में राजनयिक और वैवाहिक सम्बन्ध भी रहे हैं। टिहरी के अंतिम महाराजा मानवेन्द्र शाह की दोनों माताएं कांगड़ा की राजकुमारियां थीं। गोरखा शासन के बाद टिहरी रियासत के पुनर्संस्थापक सुदर्शन शाह की सभी रानियां और उपपत्नियां सिरमौर, कटौच और कांगड़ा आदि हिमाचली रियासतों की थीं। सास्कृतिक एकता के चलते टिहरी समेत इस हिमालयी क्षेत्र के राजा-महाराजाओं, राणाओं और अन्य सामन्तों के एक दूसरे राज्य से वैवाहिक सम्बन्ध प्राचीन काल से चले रहे थे। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जबकि टिहरी नरेश की ओर से गुलेर, क्योंथल, सिरमौर आदि नरेशों को आर्थिक सहायतार्थ ऋण दिया गया। गोरखा आधिपत्य से पूर्व रामीगढ़ (राईंगढ़) मैलीगढ़ और डोडाक्वांरा की जागीरें गढ़ नरेश के अधीन थीं। इनमें से रामीगढ़ स्वतंत्र हो गया। मैलीगढ़ के जागीरदार को क्योंथल ने अपने अधीन कर दिया और डोडाक्वांरा की जागीर को गढ़ नरेश ने बिशहर को दहेज में दे दिया। देहरादून जिले का जौनसार बावर इलाका कभी सिरमौर का हिस्सा था।
गोरखों ने उत्तराखण्ड और हिमाचल को एक साथ जीता था और दोनों भूभाग अंग्रेजों की मदद से एक साथ गोरखा राज से मुक्त हुये। स्वाधीनता से पूर्व गढ़वाल की टिहरी रियासत हिमाचल की तीन दर्जन रियासतों में से एक थी जिसका पॉलिटिकल ऐजेंट लौहोर बैठता था। ब्रिटिश शासन के दौरान रियासती भारत में कांग्रेस की ही अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद सक्रिय थी और इन रियासतों के लिये परिषद ने 1946 में जोहिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिलबनायी थी उसके अध्यक्ष पद पर 1947 जून में टिहरी के परिपूर्णानन्द पैन्यूली आसीन हुये थे जिन्होंने कार्यकारिणी चुनाव में डाव यशवन्त सिंह परमार को हराया था।
चूंकि टिहरी हिमाचल की सभी रियासतों में सबसे बड़ी थी इसलिये काउंसिल में उसके सबसे अधिक मत थे, इसलिये टिहरी के वर्चस्व को समाप्त करने के लिये डा0 परमार और पद्मदेव आदि ने अलग शिमला हिल स्टेट्स सब रीजनल काउंसिल बना डाली और उसके बाद जब सुकेत आन्दोलन में परमार गुट को भारी सफलता मिली तो टिहरी हिमाचल की रियासतों में अगल-थलग पड़ती चली गयी। उस टिहरी गढ़वाल के ज्यादातर नेता भी बंटे हुये थे। चूंकि आधा गढ़वाल और समूचा कुमाऊं ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा होने के नाते संयुक्त प्रान्त में शामिल था और इस पहाड़ी भूभाग के निवासी गोविन्दबल्लभ पन्त उस प्रान्त के प्रीमियर (मुख्यमंत्री) थे, इसलिये टिहरी के ज्यादातर नेता हिमाचल की तरह या हिमाचल में मिलने के बजाय संयुक्त प्रान्त में मिलने को आतुर हो गये। गोविन्द बल्लभ पन्त जहां हिमाचल की पहाड़ी रियासतों वाले हिस्से के अलग अस्तित्व के पक्षधर थे वहीं वे टिहरी को मैदानी संयुक्त प्रान्त में मिलाने के लिये नेताओं को प्रान्तीय एसेम्बली की मेंबरी से ललचाते रहे। अन्ततः पन्तजी कामयाब हो ही गये और टिहरी 1 अगस्त 1949 को भारत संघ के संयुक्त प्रान्त में विलीन हो गयी। इस रीजनल काउंसिल की बाकी सारी रियासतें क्रमबद्ध ढंग से हिमाचल प्रदेश में शामिल हुयीं। सर्व प्रथम 8 मार्च 1948 को शिमला हिल्स की 30 पहाड़ी रियासतों को मिला कर हिमाचल प्रदेश के गठन की शुरूआत हुयी और 15 मार्च को मण्डी और सुकेत के शासकों ने भी विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर लिये। 23 मार्च 1948 को सिरमौर के भी इसमें शामिल होने से हिमाचल में शामिल होने वाली रियासतों की संख्या 30 हो गयी। 15 अप्रैल 1948 को इसे केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दे कर इसे चीफ कमिश्नर के अधीन कर दिया गया। आगे चल कर 25 जनवरी 1971 को हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया।

जयसिंह रावत
पत्रकार
-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999





No comments:

Post a Comment