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Saturday, November 18, 2017

दून मेट्रो रेल -----आधा हकीकत आधा फ़साना

आशंकाओं के घेरे में दून घाटी की मेट्रो रेल
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में ऑल वेदर रोड और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल के बाद अब दून मेट्रो रेल की छुक-छुक सत्ता के गलियारों से लेकर राजनीतिक गलियारों तक गूंजने लगी है। केवल कल्पना से ही अति उत्साहित सत्ता पक्ष अपनी रंगीली टोपी पर एक और पंख जुड़ा मान रहा है तो विपक्ष मारे ईर्ष्या के इसे घरघरा कर बैठ चुके मोदी के डबल इंजन से जोड़़ने लगा है। हद तो तब हो गयी जबकि कांग्रेस के नेता ये भी भूल गये कि यह आइडिया उनकी ही सरकार का था और उनके कार्यकाल में उत्तराखण्ड मेट्रो रेल निगम के गठन के साथ ही उसके एमडी की नियुक्ति तक हो चुकी थी।
यह सही है कि जमीन पर सार्वजिनक परिवहन के प्रचलित संसाधनों के लिये जगह कम होने के कारण शहरों में ट्रैफिक की समस्या गहराती जा रही है। इसलिये त्वरित सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के लिये महानगरों में मेट्रो रेल की परिकल्पना हुयी। सन् 1863 में लंदन में भूमिगत मेट्रो रेल की शुरुआत के बाद आज दुनियां के 160 से अधिक शहरों में मेट्रो रेल प्रतिदिन करोड़ों यात्रियों को ढो रही है। अब तक की 500 किमी से अधिक लम्बी चीन की शंघाई मेट्रो रेल प्रतिदिन लगभग 2 करोड़ लोगों को परिवहन सुविधा उपलब्ध कराती है। जब नगरों में जमीन पर परिवहन सेवाओं के विस्तार की गुंजाइश हो तो जमीन के अन्दर और जमीन के ऊपर के मार्गों के विकल्प ही बचते हैं और उन्हीं विकल्पों में से एक नवीनतम विकल्प मेट्रो रेल भी है। उत्तराखण्ड में तो इसकी अलग भौगोलिक संरचना के कारण कानून व्यवस्था से अधिक संवेदनशील मामला ट्रैफिक का हो गया है। जिला मुख्यालय का बोझ भी मुश्किल से ढो रहे देहरादून पर राज्य की राजधानी का बोझ लाद देने से ट्रैफिक की समस्या बेहद नाजुक स्थिति में पहुंच गयी है। इस नगर में जाम की स्थिति में जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। लोग समय से गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाते हैं। बीमार या घायल की जान बचाने के लिये उसे समय से अस्पताल पहुंचाना एक चुनौती बन गयी है। वायु प्रदूषण की समस्या तो और भी भयावह रूप लेती जा रही है। लेकिन क्या प्रस्तावित मेट्रो रेल इस गंभीर समस्या से मुक्ति दिला पायेगी? यह सवाल भले ही सत्ता के नशे में चूर लोगों को विचलित कर रहा हो, मगर दूनवासियों अभी भी मेट्रो रेल का सपना मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसा लग रहा है।
प्रस्तावित मेट्रो लाइन हरिद्वार-ऋषिकेश और देहरादून के बीच चलनी है। इन तीन नगरों के बीच पहले ही बस सेवाएं संचालित हैं। असली समस्या इन नगरों के अंदर की भीड़ को कम करने और ट्रैफिक को सुचारू बनाने की है। अगर मेट्रो रेल के बाद भी देहरादून के गांधी रोड और राजपुर रोड जैसे स्थानों पर ट्रैफिक जाम ही मिलना है और लोगों को रेलवे स्टेशन से फिर सिटी बसों और विक्रम वाहनों में धक्के खाने हैं या फिर बाहर से आये अनजान लोगों को ऑटो चालकों के हाथों लुटना है तो फिर ऐसी मेट्रो का क्या फायदा। अभी हाल ही में प्रदेश के जिन 40 नगर निकायों के सीमा विस्तार का निर्णय हुआ है, उनमें देहरादून नगर निगम भी शामिल है। देहरादून नगर निगम क्षेत्र में लगभग 40 गावों को 12,951 हैक्टेअर क्षेत्र नगर निगम में शामिल हो रहा है। इसमें 1,77,738 आबादी निवास करती है। जब आप अब तक की देहरादून नगर की 5,83,053 आबादी को यातायात सहित बाकी जरूरी नागरिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं तो 7,60,791 की आबादी को कैसे सुविधाएं उपलब्ध करा पायेंगे, ये सवाल तो बार-बार उठना स्वभाविक ही है, लेकिन अब ये नया सवाल भी खड़ा हो गया है कि जब देहरादून मूल नगर के अधिकांश लोगों को प्रस्तावित मेट्रो रेल की सुविधा मिलती नजर नहीं रही है तो बाकी 40 गावों के लिये प्रस्तावित मेट्रो दूर की कौड़ी ही बनी रहेगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्मार्ट सिटी योजना का लाभ अभी तक देहरादून को नहीं मिल पाया मगर अब जबकि यह नगर उस सूची में ही गया है तो योजनाकारों ने नया शहर बसाने के बजाय इसी पुराने देहरादून की मरम्मत कर इसे नया बना डालने की कल्पना कर डाली और प्रस्तावित मेट्रो लाइन देहरादून नगर के मौजूदा क्षेत्र को ही पूरी तरह कवर नहीं कर पा रही है। इसका लगभग 10 किमी का हिस्सा देहरादून शहर के अन्दर से गुजरेगा जो कि आइएसबीटी से राजपुर और प्रेमनगर तक का होगा। सहारनपुर चौक से राजपुर रोड तक का 5 किमी लम्बा हिस्सा भूमिगत होगा। होना तो यह चाहिये था कि मेट्रो के योजनाकारों को टाउन प्लानिंग विशेषज्ञों से मिल कर मेट्रो की डीपीआर बनानी थी। दिल्ली की 218 किमी लम्बी मेट्रो लाइन पर लगभग 164 स्टेशन हैं। इस हिसाब से वहां लगभग 1.32 किमी पर एक स्टेशन है। हरिद्वार-देहरादून की 100 किमी लाइन पर कुल 33 स्टेशन होंगे। मतलब यह कि यहां लगभग 3 किमी पर एक स्टेशन होगा। इसलिये मेट्रो लाइन बनने के बाद भी लोगों को सिटी बसों और विक्रम वाहनों का ही सहारा लेना पड़ेगा और दूरदराज के लोगों के लिये सांय 8 बजे बाद अपने घर पहुंचने के लिये तब भी साधन दुर्लभ ही रहेगा। दिल्ली के सारे स्टेशन शहर के अन्दर हैं जबकि यह लाइन के अन्दर कम और बाहर अधिक है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक कारणों से मेट्रो लाइन के मामले में जल्दबाजी हो रही है। अगर देहरादून नगर को कुछ और आकार लेने देते और फिर लाइन बनाते तो ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसका लाभ मिलता। देहरादून शहर का विस्तार हो रहा है। देहरादून से प्रेमनगर और राजपुर पहले ही मिल चुके हैं और एक एक दिन देहरादून और डोइवाला को मिल जाना है। भौगोलिक कारणों से देहरादून नगर की उत्तर की ओर विस्तार की गंुजाइश नहीं है। दक्षिण की ओर से शिमला बाइपास और नया गांव-पेलियो से कुल्हाल तक देहरादून शहर के फैलने की गुंजाइश है, जबकि प्रस्तावित मेट्रो लाइन हरिद्वार रोड से लेकर वर्तमान नगर के बीचोंबीच गुजर रही है। क्लेमेंटाउन वाला दक्षिणी हिस्सा अब भी मेट्रो से दूर ही रहेगा।
इस परियोजना पर लगभग 27 हजार करोड़ तक लागत आने का अनुमान है। वह भी तब जबकि परियोजना निर्धारित पांच साल में पूरी होगी। हरिद्वार देहरादून हाइवे की तरह अगर यह भी कई सालों तक लटकी रही तो परियोजना लागत कहां से कहां पहंच जायेगी, यह बताने की जरूरत नहीं है। भूमिगत लाइन पर ही 550 करोड़ रुपये प्रति किमी लागत आने का अनुमान है। इस लागत को आधा-आधा केन्द्र और राज्य सरकार ने वहन करना है। आधे का मतलब फिलहाल 13.5 हजार करोड़़ भी मान लिया जाये तो भी यह रकम उत्तराखण्ड सरकार से बूते के बाहर ही नहीं बल्कि कल्पना के बाहर भी है। राज्य सरकार वर्तमान में तमाम श्रोतों से लगभग 21 हजार करोड़ सालाना रकम जुटा पा रही है और यह सारी की सारी रकम वेतन, भत्तों, पेंशन, ब्याज आदि पर खर्च होने के बाद राज्य सरकार के पास विकास कार्यों के लिये एक कौड़ी भी नहीं बचती है। पिछले 6-7 महीनों में ही यह सरकार वेतन आदि के लिये 2 हजार करोड़ से अधिक का कर्ज उठा चुकी है। राज्य पर लगभग 45 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है, जिसका ब्याज ही लगभग 4500 करोड़ सालाना अदा करना पड़ रहा है। अगर सरकार ने इतनी बड़ी रकम उधार ले ली तो राज्य पर कर्ज का बोझ असहनीय हो जायेगा। फिर सवाल यह भी उठेगा कि राज्य सरकार ने देहरादून, ऋषिकेश और हरिद्वार की लगभग 15 लाख आबादी के लिये प्रदेश की शेष लगभग 90 लाख की आबादी को भी कर्ज के बोझ तले दबा दिया। यह प्रदेश की 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के हितों को दांव पर लगाने जैसा ही होगा। इसलिये इतना बड़ा कर्ज राज्य सरकार शायद ही ले। अगर कर्ज नहीं लेना है तो सारा प्रोजेक्ट पीपीपी मोड पर देना होगा और कोई भी निवेशक इतनी बड़ी पूंजी तभी लगायेगा जब उसे रकम लौटने का भरोसा होगा। इतनी बड़ी रकम तभी लौटेगी जब कि प्रतिदिन एक लाख से अधिक यात्री मिलेंगे। डीएमआरसी के आंकणों के अनुसार दिल्ली मेट्रो को प्रतिदिन औसतन लगभग 20 लाख 76 पैसेंजर मिलते हैं। हरिद्वार देहरादून मेट्रो को प्रतिदिन एक लाख पैसेंजर भी मिल पायेंगे, इसमें संदेह है। ऐसी स्थिति में इतनी बड़ी रकम लगाने वाला प्राइवेट पार्टनर शायद ही इतनी आसानी से मिले। अगर मिल भी गया तो क्या उसकी मर्जी का किराया आम पैसेंजर अदा कर पायेगा? बहरहाल देहरादून जैसे नगरों को त्वरित और अविछिन्न सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की सख्त जरूरत तो है ही और लोगों के स्वास्थ की रक्षा के लिये मेट्रो जैसी धुआं मुक्त परिवहन की भी महती आवश्यता है। इसलिये उम्मीद की जानी चाहिये कि राज्य सरकार तमाम आशंकाओं को ध्यान में रखते हुये ही आगे बढ़ रही होगी।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 9412324999

 jaysinghrawat@gmail.com

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