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Saturday, January 3, 2015

जनजातियों पर माओवादियों और मिशनरियों की नजर
-जयसिंह रावत
आज घरेलू मोर्चे पर भारत सरकार तथा कई राज्य सरकारों को जिन सबसे भयानक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनमें से एक नक्सलवाद की समस्या भी है, जिसकी जड़ें 9 राज्यों के 170 जिलों तक काफी गहराई तक पहुंच चुकी हैं। उत्तराखण्ड सरकार माओवाद और पुलिस के आधुनिकीकरण के नाम पर गाहेबगाहे दिल्ली में माओवाद का हव्वा तो खड़ा कर लेती है, मगर समस्या की तह तक जाने की जहमत नहीं उठाती। विचारणीय विषय यह है कि नक्सल प्रभावित ज़िलों का दो-तिहाई हिस्सा आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ही है। कुछ समय से धुर वामपंथियों की जनजातीय और पिछड़े क्षेत्रों में बढ़ रही सक्रियता भविष्य के खतरे की ओर इशारा कर रही है।
उत्तराखण्ड की तराई में मिशनरियों के साथ ही माओवादियों की निगाह थारू और बोक्सा जनजातियों पर टिकी हुयी है। इधर उत्तरकाशी जिले की मोरी तहसील के कुछ गावों में धर्म परिवर्तन की गतिविधियों के कारण उस क्षेत्र में तनाव की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा विमोचित पुस्तकउत्तराखंड की जनजातियों का इतिहासमें जनजातियों पर माओवादियों और मिशनरियों की सक्रियता की ओर साफ इशारा किया गया है। उस पुस्तक में कहा गया है कि उत्तरकाशी जिले की बंगाण पट्टी के कलीच के ग्राम प्रधान के अनुसार मिशनरी कार्यकर्ता लम्बे समय से जनजातीय लोगों को धर्म परिवर्तन के लिये ललचा रहे हैं। तराई के जंगलों में माओवादी कैम्प चलने का दावा स्वयं उत्तराखण्ड पुलिस करती रही है, जबकि खटीमा ब्लाक में मिशनरी जाल पहले से फैला हुआ है।
आदिवासी एवं छोटे किसान नक्सलियों के कैडर का सबसे अहम हिस्सा होते हैं। प्रेरक नेतृत्व, प्रतिबद्ध कैडर, प्रशिक्षित लड़ाके और अत्याधुनिक हथियारों के सहारे नक्सली आज राष्ट्र की सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा बन गए हैं। कॉम्पैक्ट रिवोल्यूशनरी ज़ोन (सीआरजेड) के नाम से मशहूर रेड कॉरिडोर नेपाल से शुरू होकर भारत के कुछ सबसे पिछड़े इलाक़ों तक फैला है। इसमें बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और महाराष्ट्र के कुछ इलाक़े शामिल हैं। इन राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में नक्सलवादियों की समानान्तर सत्ता चल रही है। उनका पिछड़े और आदिवासी इलाकों में काम करना तो केवल जड़ें जमाने के लिये है। वरना उनका असली लक्ष्य सशस्त्र क्रांति के जरिये शोषित शासित सर्वहारा वर्ग की बुर्जुवा शोषक शासक वर्ग पर तानाशाही स्थापित करना है।
उत्तराखण्ड से भारत और तिब्बत की लगभग 350 कि.मी. लम्बी और नेपाल से लगभग 281 कि.मी लम्बी अन्तराष्ट्रीय सीमा लगी हुयी है। इन दोनों देशों में से एक चीन में साम्यवादी शासन काफी पुराना हो चुका है और वह शासन भारत के उग्र और अति उग्र वामपंथियों समेत संसदीय लोकतंत्र की मुख्य धारा में शामिल वामपन्थियों के लिये भी सदैव प्रेरणा का श्रोत रहा है। जबकि नेपाल का उग्र वामपन्थ भारत के लिये नया सिरदर्द बन रहा है। खास कर नेपाल के यंग कम्युनिस्ट लीग युवा संगठन का भारत विरोधी रुख चिन्ता पैदा करने वाला है। वे लोग भारतीय सीमा में कालापानी तक का भूभाग नेपाल का मानते हैं। त्तराखंड की जनजातियों का इतिहासनामक पुस्तक में कहा गया है कि, भले ही नेपाल के माओवादी फिलहाल संसदीय लोकतंत्र की धारा में लौट गये हैं, मगर उनके पुराने हथियार अब भी भारत के लिये चिन्ता का विषय बने हुये हैं। चमोली जिले के कर्णप्रयाग के निकट सिमली में 6 नवम्बर 2009 को 2 हैण्ड ग्रिनेड के साथ एक पूर्व नेपाली माओवादी लड़ाका पकड़ा गया था। यह भी आंशंका जताई जा रही है कि नेपाल से लेकर उत्तराखण्ड की तराई तक एक और रेड कॉरिडोर स्थापित हो सकता है। उत्तराखण्ड के जाने माने विद्वानों में से एक और पूर्व वरिष्ठ आइ..एस. सुरेन्द्र सिंह पांगती के अनुसार ऐसा रेड कारिडोर पहले ही अस्तित्व में चुका है। इसी कॉरिडोर में धुर वामपन्थी गतिविधियां काफी पहले से चलती रही हैं जोकि केन्द्र या उत्तराखण्ड सरकार की पूरी जानकारी में हैं। उत्तराखण्ड सरकार बार-बार इसकी जानकारी केन्द्र को देती भी रही है। नेपाल सीमा से लगा उत्तराखण्ड का 2810 वर्ग कि.मी. क्षेत्र काफी संवेदनशील माना जाता है। हालांकि नेपाल से भारत आवागमन के लिये कालापानी, सीतापुल, धारचुला, बलुवाकोट, जौलजीवी, झूलाघाट, मढ़ीनेगी, टनकपुर और बनबसा कुल 8 वैध मार्ग हैं, लेकिन बाकी कालापानी से लेकर मेलाघाट तक का 175 कि.मी. क्षेत्र खुला है। उत्तराखण्ड के गृह विभाग के सूत्र भी स्वीकार करते हैं कि इन 8 स्थानों के अलावा भारत नेपाल सीमा पर ऐसे 49 अन्य चोर रास्ते हैं, जहां से बड़ी संख्या में आवागमन होता है। गृह विभाग के रिकार्ड के अनुसार सन् 2005 में इन वैध मार्गों से 3 लाख लोग नेपाल से भारत पहुंचे। इसी प्रकार 2006 में 2 लाख 50 हजार तथा 2007 में लगभग 2 लाख नेपालियों ने भारत में प्रवेश किया। सन् 1950 की भारत- नेपाल सन्धि के चलते दोनों देशों के बीच आवागमन बेरोकटोक है।
उत्तराखण्ड पुलिस की वेबसाइट परमाओवाद- चैलेंज”,  शीर्षक से कुछ साल पहले एक सामग्री दी गयी थी जो कि अब उस साइट पर नहीं है। उस साइट को देखने से राज्य पुलिस की चिन्ता साफ महसूस की जा सकती थी। उसमें कहा गया था कि प्रदेश में उग्र वामपन्थियों की गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 2004 में इन संगठनों ने जहां 52 धरने प्रदर्शन सम्मेलन, ज्ञापन, बन्द और चक्का जाम आदि किये वहीं 2005 में ऐसे 225 तथा 2006 में 298 आयोजन हुये। इनमें से ज्यादा आयोजन उधमसिंहनगर और नैनीताल जिलों में हुये जहां कि जनजाति बहुल क्षेत्र मौजूद हैं। पुलिस वैबसाइट में 12 माओवादियों को पकड़ने नैनीताल जिले के सौफुटिया में अस्त्र, शस्त्र, प्रशिक्षण सामग्री, और माओवादी साहित्य तथा चम्पावत के व्यानधुरा जंगल और उधमसिंहनगर के दिनेशपुर में माओवादियों से हथियारों के साथ ही माओवादी साहित्य और प्रशिक्षण सामग्री जब्त किये जाने का दावा किया गया था। यह बात दीगर है कि कई सामाजिक संगठनों ने पुलिस के उन दावों को फर्जी करार दिया था। आशंका है कि माओवादी तराई के उन थारू और बोक्सा जनजातियों को आसानी से प्रभावित कर उन्हें लामबन्द कर सकते हैं। सरकार की उपेक्षा तथा बाहरी दबंगों द्वारा शोषण और दमन बारूद बन कर कभी भी विस्फोट का रूप धारण कर सकता है। हालांकि राजी समुदाय की अभी अति अल्पसंख्या और अति पिछड़ा होने के कारण माओवाद की ओर जाने की सम्भावना काफी क्षीण है, फिर भी उनका वनवास, सरकार की उपेक्षा और भूमिहीन होना उनकी माओवाद के बारे में संवेदनशीलता को बरकरार अवश्य रखता है।
स्वभाव से ये प्रकृति पुत्र निश्चित रूप से शान्त स्वभाव के रहे हैं मगर इतिहास गवाह है कि जब भी उन पर शोषण और दमन की इन्तहा हुयी है, उन्होंने हथियार उठाने में भी संकोच नहीं किया है। मुगल शासनकाल में औरंगजेब ने जब धर्म-परिर्वतन औरजाजिया करचलाया तो इन आदिवासियों ने इसका विरोध किया। सन् 1817 में भीलों ने खान देश पर आक्रमण किया और वह आंदोलन 1824 में सतारा और 1831 में मालवा तक चला गया। सन् 1846 में जाकर अंग्रेज इस विद्रोह पर काबू पा सके। डूंगरपूर में ललोठिया तथा बांसवाड़ा, पचमहाल (गुजरात) में गोबिंद गिरी ने धार्मिक आंदोलन चलाए। सन् 1812 में गोबिंद गिरी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया। उड़ीसा मेंमल का गिरीका कोया विद्रोह सन् 1871-80 में हुआ। फूलबाने का खांडे विद्रोह (1850) में तथा साओरा का विद्रोह (1810-1940) में हुआ। ये विद्रोह आर्थिक शोषण के कारण हुए। सन् 1853 में संथाल-विद्रोह हुआ। सन् 1895 में मुंडा विद्रोह हुआ। सन्  1914 में उंरावों का ताना-मगत विद्रोह हुआ। मिजो आंदोलन लंबे समय तक चला और लालडेंगा मुख्यमंत्री बने।
तराई में बाहरी दबंगों ने जनजातियों की जमीनें कब्जा रखी हैं और मूल निवासी अपने ही खेतों पर मजदूरी करने को विवश हैं। खटीमा के फुलैया गांव में जमीनों को लेकर 2011 में हिंसा की शुरुआत हो चुकी है। इन जनजातीय क्षेत्रों में धुर वामपन्थियों या माओवादियों की सक्रियता की सम्भावनाऐं बढ़ती जा रही हैं। सन् 1967 में नक्सलवाद की बुनियाद पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव में संथाल आदिवासी किसानों के सशस्त्र विद्रोह से पड़ी थी तो नक्सलवाद के संस्थापक चारू मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल ने भी यही सोचा था कि व्यवस्था परिवर्तन की क्रांति केवल ग्रामीण और पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों से शुरू हो सकती है।


जयसिंह रावत-
पत्रकार
-11  फ्रेंड्स एन्क्लेव,
शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल 09412324999



2 comments:

  1. जय सिंह रावत जी आपके समस्त लेखों को मै शब्दनागरी के माध्यम से पढता रहता हूँ, आपके अन्य लेख जैसे गंगा के बारे में भ्रमित है भारत सरकार भी (http://shabdanagari.in/post/33607/ganga-ke-baare-me-bhramit-hai-bharat-sarkar-bhi-4212012) को भी पढ़ा वाकई काफी दिलचस्प है. आपको बहुत बहुत बधाई.....

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  2. जय सिंह रावत जी आपके समस्त लेखों को मै शब्दनागरी के माध्यम से पढता रहता हूँ, आपके अन्य लेख जैसे गंगा के बारे में भ्रमित है भारत सरकार भी (http://shabdanagari.in/post/33607/ganga-ke-baare-me-bhramit-hai-bharat-sarkar-bhi-4212012) को भी पढ़ा वाकई काफी दिलचस्प है. आपको बहुत बहुत बधाई.....

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