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Wednesday, July 13, 2016

“उत्तराखंड की जनजातियों का इतिहास”

जनजातीय संस्कृति पर धर्मांतरण का साया
-त्रिलोचन भट्ट -
आदिवासियों के धर्मांतरण के लिये देशभर में इसाई मिशनरियां ही ज्यादा बदनाम रही हैं, मगर उत्तराखंड में शायद ही कोई ऐसा धर्म हो जो कि आदिवासियों या जनजातियों को उनकी धार्मिक आस्थाओं से विचलित न कर रहा हो। उत्तराखंड के बौद्ध धर्म के अनुयायी जाड भोटिया जहां लोसर को होली की तरह मनाने लगे हैं, वहीं तराई में बड़ी संख्या में थारू और बोक्सा अमृत छक कर सिख बन गये हैं। जबकि मिशनरियां उत्तरकाशी की बंगाण पट्टी से लेकर तराई के उधमसिंहनगर तक लोगों को ललचा रही हैं। यहां तक कि कुछ भोटिया परिवारों द्वारा इस्लाम कबूले जाने की पुष्टि जनगणना रिपोर्टों से हो रही है। अगर यह सिलसिला इसी तरह अनवरत जारी रहा तो उत्तराखंड की जनजातीय संस्कृति की विलक्षणता और विविधता मानव विज्ञान और समाजशास्त्र की पुस्तकों तक ही सिमट कर रह जायेगी।
सन् 2000 में उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद उसकी पांच की पाचों जनजातियां उत्तराखंड के हिस्से में आ गयीं थीं। नये राज्य को उस समय न केवल जनजातीय विविधता मिली बल्कि विरासत में एक अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर भी मिली। लेकिन विभिन्न धर्मों की विस्तारवादी मनोवृत्तियां धर्मांतरण के लिये जिस तरह उत्तराखण्ड की पाचों जनजातियों को ललचा रही हैं, उससे प्रदेश की इस विलक्षण सांस्कृतिक विविधता के लिये संकट खड़ा हो गया है। पूर्वोत्तर में इसाई मिशनरियों ने आदिवासियों का धर्म तो बदला है मगर उनकी संस्कृति से छेड़छाड़ नहीं की, लेकिन उत्तराखंड में जनजातीय रीति रिवाजों के साथ धर्मांतरण हो रहा है।
देशभर में कहीं मुसलमानों को हिन्दू बनाने तो कहीं आदिवासियों को इसाई बनाये जाने पर कोहराम मचाया जा रहा है। लेकिन पिछली जनगणना की रिपोर्टों पर न तो समाजशास्त्री और ना ही विभिन्न धर्मों के झंडाबरदार ध्यान दे रहे हैं। अगर 2001 की जनगणना रिपोर्ट के पन्ने पलटे जांय तो आपको उच्च हिमालयी क्षेत्र में रह रहे भोटिया जनजाति के कई लोगों द्वारा अपना धर्म हिन्दू के अलावा, इस्लाम, इसाई और सिख तक लिखाये जाने का पता चलता है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की जादुंग और नेलंग घाटियों के भोटिया समुदाय के लोग मूलतः बौद्ध धर्म के अनुयायी रहे हैं। मगर अब वे हिन्दू धर्म के प्रभाव में इतने अधिक आ चुके हैं कि वे अपना लोसर जैसा सबसे बड़ा पर्व भी होली की तर्ज पर मना रहे हैं। उनमें से कई लोग हिन्दू बन गये हैं और आम गढ़वालियों के साथ समरस हो चुके हैं। अब तक तराई में मिशनरियों द्वारा थारू और बोक्सा जनजाति के लोगों को ललचाने की चर्चाऐं होती थीं। लेकिन पिछली जनगणना की रिपोर्ट पर गौर करें तो मालूम होता है कि इन जनजातियों के लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म को अपना चुके हैं। यही नहीं सन् 2001 में जौनसारियों में भी मुस्लिमों और इसाइयों की गणना हो चुकी है।
मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा हाल ही में विमोचित  मेरी पुस्तक “उत्तराखंड की जनजातियों का इतिहास” नामक पुस्तक में जनजातियों पर माओवादियों और मिशनरियों द्वारा डोरे डाले जाने का विस्तार से उल्लेख किया गया है। उस पुस्तक के अनुसार ऊधमसिंह नगर जिले के खटीमा ब्लाक के मोहम्मदपुर भुड़िया, जोगीठेर नगला, सहजना, फुलैया, अमाऊं, चांदा, मोहनपुर, गंगापुर, भक्चुरी, भिलय्या, टेडाघाट, नौगवा ठगू, पहनिया, भूड़िया थारू आदि गांवों के कई थारू परिवार धर्म परिवर्तन कर इसाई बन गए हैं। कुछ विद्वान इन्हें गौतम बुद्ध के सीधे वंशज मानते हैं, इसलिये कुछ थारू धर्म बदल कर बोद्ध भी बन गये हैं। पुस्तक के लेखक ने खुलासा किया है कि धर्म बदल कर इसाई बन चुके लोगों से पूछताछ करने पर पता चला कि जब गांवों में कोई बीमार होता है तो वे उसे झाड़-फूॅक और तंत्र-मंत्र के लिए ’भरारे’ के पास ले जाते हैं। भरारे की तंत्र-मंत्र विद्या का जब कोई असर नहीं होता है तथा बीमार की बीमारी गंभीर होती जाती है तो तब अक्सर लोग बीमार को पौलीगंज स्थित इसाइयों के सेण्ट पैट्रिक अस्पताल ले जाते हैं। वहां इसाइयों का तो मुफ्त इलाज होता है, परन्तु गैर इसाइयों से इलाज का पूरा खर्च वसूला जाता है। ऐसी स्थिति में थारू इसाई बन जाते हैं, ताकि उनके परिजन की जान तो बच जाए।
पुस्तक में कहा गया है कि खटीमा ब्लाक में ही जोगीठेर नगला के लक्ष्मण सिंह की पत्नी 1998 में बीमार हुई। शुरू में लक्ष्मण ने तांत्रिकों और देवी देवताओं के खूब चक्कर लगाये मगर बीमारी बढ़ती गई। इसी दौरान उसका सम्पर्क पादरी दानसिंह से हुआ जो कि स्वयं पूर्व में हिन्दू थारू था। फादर दानसिंह ने कहा कि धर्म बदलो तो औरत का इलाज हो जाएगा। लक्ष्मण ने धर्म बदल लिया और फिर पादरी की सिफारिश पर लक्ष्मण अपनी पत्नी को पौलीगंज स्थित सेण्ट पेट्रिक अस्पताल ले गया। वहां पता चला कि रोगिणी को कैंसर है। लक्ष्मण के अनुरोध पर डाक्टरों ने उसकी पत्नी का आपरेशन किया लेकिन वह फिर भी न बच सकी। कैंसर का इतना महंगा इलाज निशुल्क हुआ था। लक्ष्मण ने लेखक को बताया कि वह पुनः हिन्दू बन गया है। लेकिन लेखक जब उसके घर के अन्दर गया तो पवित्र क्रास का निशान एवं सफेद कपड़े वहां तब भी भी मौजूद थे। ईसाई बनने पर उसके भाईयों ने उसका बहिष्कार कर दिया था। घर के आंगन में बाकी भाइयों के संयुक्त परिवार का एक ही चूल्हा जलता था इसलिये एक विधुर के लिये संयुक्त जानजातीय परिवार से अलग चूल्हा जलाना  व्यवहारिक नहीं था, इसलिए संभव है कि वह पजिनों को खुश रखने के लिए पुनः पूर्व धर्म में लौटने की बात कर रहा हो। किसी की उपासना के तरीके में किसी की कोई दखल नहीं होनी चाहिए। परन्तु महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति इतने मजबूत लगाव वाले अन्धविश्वासी थारुओं को क्यों धर्म बदलना पड़ रहा है?
तराई क्षेत्र ही नहीं बल्कि जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर पर भी मिशनरियों की नजर टिकी हुयी है। खास कर कोल्टा और अन्य दलित वर्ग के लोग मिशनरियों के साफ्ट टारगेट माने जाते हैं। सन् 1866 में जब ब्रिटिश सेना की 55 वीं रेजिमेंण्ट के कर्नल ह्यूम और उनके सहयोगी अधिकारियों ने सेनिकों के लिये समर कैम्प के रूप में चकराता छावनी क्षेत्र स्थापित किया तो उसी समय अंग्रेज सैनिकों और अफसरों के लिये तीन चर्च भी स्थापित किये गये थे। आजादी के बाद अंग्रेज तो चले गये मगर चकराता में चर्च छूट गये। हालांकि अति संवेदनशील सैन्य क्षेत्र में होने के कारण फिलहाल वहां तीनों ही चर्च सेना के कब्जे में हैं, मगर मिशनरियों ने स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करा कर उनके ही माध्यम से चर्चों को सेना के नियंत्रण से मुक्त करने की मुहिम शुरू कर रखी है। चकराता के इन तीन चर्चों में से एक में पादरी सुन्दर सिंह चौहान और उनका परिवार रहता है। चौहान स्थानीय जौनसारी ही हैं और चर्च मुक्ति अभियान चला रहे हैं।
इसाई मिशनरियों ने पहले तराई की जनजातियों में अपना नेटवर्क बढ़ाया और अब वे सीमांत उत्तरकाशी जिले की सुदूर रवांईं घाटी में भी सक्रिय होने लगी हैं। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल से सटी उत्तरकाशी जिले की बंगाण पट्टी के कलीच गांव में रोहडू (हिमाचल) से आए कुछ लोग ग्रामीणों को धर्मांतरण के लिये प्रेरित कर रहे हैं। कलीच के ग्राम प्रधान जगमोहन सिंह रावत के अनुसार एक वर्ष से कलीच, आराकोट, ईशाली, जागटा, मैंजणी, थुनारा, भुटाणु, गोकुल, माकुडी, देलन, मोरा, भंकवाड़, बरनाली, डगोली एवं पावली आदि दर्जनों गांवों में हिमाचल से आए कुछ लोग सभाएं कर और पैसे का लालच देकर धर्म परिवर्तन करा रहे हैं। अकेले कलीच गांव में चार साल के भीतर ही अनुसूचित जाति के 17 परिवार धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन चुके हैं। धर्मान्तरण को लेकर क्षेत्र में विवाद के बाद दोनों पक्षों ने एक दूसरे के खिलाफ तहसील मोरी में मुकदमा तक दर्ज करवा है। ग्राम प्रधान जगमोहन सिंह की शिकायत पर भी मुन्नू सहित 16 लोगों के खिलाफ भादंसं की धारा 323, 147, 296 एवं 298 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। वास्तविकता यह है कि कोल्टा और अन्य अनुसूचित जाति के लोग मिशनरियों द्वारा सम्मान की जिन्दगी देने और अस्पृस्यता से मुक्ति दिलाने के वायदे से काफी प्रभावित हो रहे हैं। अस्पृस्यता वास्तव में बहुत बड़ा सामाजिक कलंक है, और इस दाग से मुक्ति पाये बिना मिशनरियों का विरोध बेमानी है।

सन् 2011 की पूरी जनगणना विश्लेषण की रिपोर्ट अभी प्रतीक्षित है। लेकिन 2001 की रिपोर्ट को अगर देखें तो उसमें उत्तराखंड की जनजातियों के लोगों की गणना हिन्दू, इस्लाम, सिख, इसाई, बौद्ध एवं जैन धर्म में भी की गयी है। जबकि प्रदेश की सभी जनजातियों का हजारों सालों का इतिहास चाहे जो भी हो मगर वे वर्तमान में हिन्दू ही हैं। भोटिया जनजाति के कुछ लोग सिक्किम में इस्लाम के अनुयायी जरूर हैं, मगर उत्तराखंड में मुसलमान भोटिया होना एक नयी बात ही है। अब तक पंजाब से आये हुये लोगों द्वारा तराई में थारुओं और बोक्सों की जमीनें हड़पने की बातें आम रही हैं, मगर अब तो उनकी आस्था की पुरातन पद्धति को भी हड़पने की बात जनगणना रिपोर्ट से सामने आ रही है। यही नहीं उत्तरकाशी के बोद्ध भोटिया समुदाय का हिन्दू बन जाना भी कोई साधारण बात नहीं है। दरअसल यह एक तरह से जनजातियों का अपनी संस्कृति से विचलित होना ही है। अगर वे इसी तरह अपनी विशिष्ठ संस्कृति को हीन भावना से देखते रहे तो उत्तराखंड जल्दी ही अपनी इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर से वंचित हो सकता है।
संविधान (उत्तर प्रदेश) अनुसूचित जाति आदेश 1967 के तहत उत्तर प्रदेश की भोटिया, जौनसारी, थारू, बोक्सा और राजी को अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया था, लेकिन उत्तर प्रदेश के विभाजन के साथ ही पांचों जनजातियां उत्तराखण्ड के हिस्से में आ गयीं। सन् 1974 में भारत सरकार ने राजी और बोक्सा सहित देश की 75 जनजातियों को आदिम जाति की सूची में शामिल कर दिया। बिरासत में मिली इन जनजातियों के गुलदस्ते ने छोटे से इस नवोदित प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता पर चार चांद लगा दिये। भारत में जनजातीय आसबादी का प्रतिशत 8.2 है तो उत्तराखंड में भी जनजातियों की आबादी लगभग तीन प्रतिशत तक है।
पुस्तक- “उत्तराखंड की जनजातियों का इतिहास”
लेखक-जयसिंह रावत
प्रकाशक- कीर्ति नवानी, विन्सर पब्लिसिंग कंपनी, 8, प्रथम तल, के.सी. सिटी सेंटर, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून। मोबाइल: 9456372442 एवं 9412325979, 9412324999
आइएसबीएन- 978-81-86844-83-0
मूल्य-रु0 395-00


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