This article of Jay Singh Rawat appeared in Divya Himgiri on June 8, 2019 |
उत्तराखण्ड को ‘निशंक’ का तोहफा त्रिवेन्द्र के
जी का जंजाल
-जयसिंह रावत
शासन प्रशासन के क्षेत्र
में सबसे अनुभवी
रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को कैबिनेट में शामिल
कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी ने उत्तराखण्ड
को दुबार सत्ता
में आते ही
पहला तोहफा देने
के साथ ही
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत
की मुश्किलों का
बोझ भी कुछ
कम कर दिया
लगता है। पूरे
आठ साल बाद
निशंक की सत्ता
में वापसी से
उत्तराखण्ड की उम्मीदों
के पंख लगने
के साथ ही
निशंक के भाजपाई
और गैर भाजपाई
समर्थक जितनी ऊर्जा त्रिवेन्द्र
रावत की जड़ें
खोदने में लगा
रहे थे उतनी
ऊर्जा निशंक की
खोई हुयी महिमा
को पुनः स्थापित
करने में खर्च
करंेगे।
उत्तराखण्ड
से नव निर्वाचित
पांचों ही सांसदों
में वरिष्ठता के
लिहाज से सबसे
अग्रणी रमेश पोखरियाल
‘निशंक’ को केन्द्रीय
मंत्रिमण्डल में शामिल
किये जाने के
बाद राज्य में
भाजपाइयों के अलावा
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश
रावत समेत भाजपा
विरोधियों की भी
जिस तरह सकारात्मक
प्रतिक्रियाएं आ रही
हैं उससे सहज
ही अंदाज लगाया
जा सकता है
कि राजनीति के
इतर भी लोग
‘निशंक’ की ताजपोशी
से इसलिये उत्साहित
हैं क्योंकि उनमें
केन्द्रीय मंत्री के तौर
पर उत्तराखण्ड के
हित में काफी
कुछ कर दिखाने
की क्षमता है। सोलहवीं
लोकसभा में मंत्री
पद न होते
हुये भी ‘निशंक’ ने उत्तराखण्ड के मुद्दों
को जिस पुरजोर
ढंग से उठाया
उसी को देखते
हुये राज्यवासियों को
उम्मीद है कि
‘निशंक’ केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में
भी इसी तरह
राज्य के हितों
की पैरवी करेंगे।
‘निशंक’ को मानव
संसाधन विकास की महती
जिम्मेदारी मिली है।
सबसे अधिक युवा
शक्ति वाले दुनिया
के सबसे युवा
लोकतंत्र में उस
शक्ति को राष्ट्र
निर्माण में संवारने
और निखारने की
जिम्मेदारी किसी भी
अन्य जिम्म्ेदारियों से
कम नहीं है।
मात्र सौ दो
सौ रुपये की
सरस्वती शिशु मंदिर
की नौकरी से
अपने कैरियर की
शुरुआत करने वाले
एक पहाड़ी गरीब
घर के युवा
का प्रदेश के
मुख्यमंत्री पद से
लेकर केन्द्र में
मानव संसाधन जैसे
विभाग का मंत्री
बनने तक उनके
हौसले और लगन
का उदाहरण है।
वह बहुत 33 वर्ष
की उम्र में
1991 में कर्णप्रयाग सीट से
डा0 शिवानन्द नौटियाल
जैसे राजनीति के
धुरन्धर को हरा
कर उत्तर प्रदेश
विधानसभा में पहुंच
गये थे। उनकी
काबिलियत को परख
कर कल्याण सिंह
और उनके बाद
राम प्रकाश गुप्त
ने उन्हें राज्य
के पहाड़ी क्षेत्र
की जिम्मेदारी का
निर्वहन करने के
लिये अपनी कैबिनेट
में पर्वतीय विकास
विभाग का मंत्री
बनाया था। वह
विभाग बाद मंे
उत्तरांचल विकास विभाग बना
और उसी विभाग
की संकल्पना आगे
चल कर उत्तरांचल
राज्य के गठन
की नींव बनी।
निशंक की क्षमता
को देखते हुये
उनसे कहीं अधिक
वरिष्ठ और उम्र
दराज विधायकों को
पीछे कर उन्हें
इस विभाग की
जिम्मेदारी दी गयी।
उस समय निशंक
के अधीन उनसे
उम्र दराज 3 राज्यमंत्री
रखे गये थे।
राज्य गठन के
समय नवम्बर 2000 में
वह मुख्यमंत्री पद
की दौड़ में
शामिल थे लेकिन
मौका नित्यानन्द स्वामी
को मिला मगर
स्वामी ने ‘निशंक’ की क्षमता को देखते
हुये उन्हें वित्त
जैसे विभाग की
जिम्मेदारी सौंपी। वर्ष 2007 में
भाजपा उत्तराखण्ड की
सत्ता में लौटी
तो उस समय
भी ‘निशंक’ मुख्यमंत्री पद
के दावेदार रहे
लेकिन इस बार
भी उन्हें वित्त
और स्वास्थ्य जैसे
महत्वपूर्ण मंत्रालयों से सन्तोष
करना पड़ा। लेकिन
भाजपा के इसी
कार्यकाल में उनकी
किश्मत जागी और
वह 2 साल के
अन्दर ही 2009 में
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री
बन गये। हालांकि
2 साल के अंदर
ही 24 जून 2009 को
उन्हें भुवन चन्द्र
खण्डूड़ी के स्थान
पर भाजपा विधायक
दल का नेता
चुन लिया गया
और 27 जून 2009 को
उन्होंने उत्तराखण्ड की सत्ता
संभाल ली। एक
तरह से खण्डूउ़ी
ने ‘निशंक’ को पद्च्युत
कर दिया था।
राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता
को एक ही
गठरी में लेकर
चलने वाले ‘निशंक’ ने प्रदेश के पांचवें
मुख्यमंत्री के रूप
में उत्तराखण्ड की
बागडोर सम्भाली तो उन्हें
अनिश्चित्ता और अस्थिरता
अपने पूर्ववर्ती भुवन
चन्द्र खण्डूड़ी से विरासत
में मिली थी।
सत्ता के इस
संघर्ष में उन्होंने
पद छोड़ने वाले
भुवन चन्द्र खण्डूड़ी
की मदद से
कोशियारी गुट को
पछाड़ कर मुख्यमंत्री
पद हासिल किया
था। लेकिन बाद
में उनके राजनीतिक
संरक्षक खण्डूड़ी भी उनसे
खिलाफ हो गये
और कभी प्रतिद्वन्दी
रहे खण्डूड़ी एवं
कोश्यारी ने आपस
में हाथ मिला
कर ‘निशंक’ को 11 सितम्बर
2011 को सत्ता से बेदखल
करा दिया और
खण्डूड़ी की दुबारा
ताजपोशी हो गयी।
‘निशंक’ के इस 808 दिन के
कार्यकाल में कई
विवाद भी हुये।
उसी दौरान बहुचर्चित
सिटुर्जिया घोटाला और 56 पावर
प्रोजेक्ट घोटाले भी उठे
जो कि हाइकोर्ट
भी पहुंचे। हालांकि
नैनीताल हाइकोर्ट की निर्णायक
दखल से पहले
ही ‘निशंक’ सरकार ने
सिटुर्जिया जमीन आबंटन
और पावर प्रोजेक्ट
आबंटन के निर्णय
वापस ले लिये
थे लेकिन तब
तक उनकी सरकार
की काफी छिछालेदर
हो गयी थी।
उस दौरान अन्ना
हजारे का आन्दोलन
भी चरम पर
था और निशंक
के राजनीतिक संरक्षक
रहे भुवनचन्द्र खण्डूड़ी
ने सम्मेलनों, रैलियों
और बैठकों के
माध्यम से ऐसा
मौहाल बनाया कि
जैसे ‘निशंक’ सरकार भ्रष्टाचार
में डूब चुकी
हो। निशंक को
उनकी ही पार्टी
के नेताओं ने
उन्हें इतना बदनाम
किया कि वह
तब से लेकर
अब तक उन
आरोपों से अभिशप्त
रहे। समझा जाता
है कि मोदी
सरकार के पिछले
कार्यकाल में इसीलिये
उन्हें केन्द्र में मंत्री
नहीं बनाया गया।
ऐसा भी नहीं
कि ‘निशंक’ सरकार केवल
विफलताऐं और अपयश
ही बटोरती रही
हो। निशंक ने
‘‘अन्त्योदय विकास यात्रा’’ के माध्यम
से लगभग 40 से
अधिक विधान सभा
क्षेत्रों में जाकर
लाखों लोगों से
सीधा संवाद किया
और उनकी समस्याएं
मोके पर ही
निपटाने का प्रयास
किया।‘निशंक’ ने उत्तराखण्ड
में ‘‘सरकार जनता
के द्वार अटल
आदर्श ग्राम चौपाल’’ कार्यक्रम
भी शुरू किया,
जिसमें मंत्रीगणों, विधायकों, एवं
दायित्वधारी गांव-गांव
जनता से सीधे
संवाद स्थापित करना
थ। विकास के
मोर्चे पर अनुभव
और धन की
कमी के बावजूद
वह अपनी व्यवहार
कुशलता के बल
पर योजना आयोग
से 6800 करोड़ का
सालाना योजना आकार अनुमोदित
कराने में कामयाब
रहे। पिछले योजना
परिव्यय में लगभग
1700 करोड़ खर्च न
कर सकने के
बावजूद वह अपने
कार्यकाल की दूसरी
योजना में लगभग
1200 करोड़ की वृद्धि
कराने में कामयाब
रहे। कैग की
रिपोर्ट में जिस
कुंभ मेले में
घोटाले का आरोप
लगा था उसी
कुंभ मेले को
यूनेस्को ने बाद
में अमूर्त सांस्कृतिक
धरोहर के रूप
में मान्यता दी।
‘निशंक’ ने ही
अपने कार्यकाल में
केन्द्र सरकार से इको
सर्विस के बदले
वन बाहुल्य राज्य
उत्तराखण्ड को ग्रीन
बोनस की मांग
सबसे पहले उठाई
थी।
‘निशंक’ के बारे में
कहा जाता है
कि एक कवि
की तरह देखने
में वह जितने
मीठे और सहृदय
लगते हैं, अन्दर
से उतने ही
चालाक और अपने
शत्रुओं के प्रति
कठोर होते हैं।
उनके मीठे जहर
के आगे कोई
पानी भी नहीं
मांग पाता। ऐसा
माना जाता है
कि 2012 के विधानसभा
चुनाव में तत्कालीन
मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी कोटद्वार
विधानसभा क्षेत्र से ‘निशंक’ के मीठे कोप
से ही हारे
थे। राज्य के
वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह
रावत की 2012 में
रायपुर क्षेत्र से तथा
2014 के उप चुनाव
में डोइवाला से
हार के पीछे
भी निशंक का
ही कोप माना
जाता है। ‘निशंक’ जब 2012 के विधानसभा
चुनाव में डोइवाला
से लड़े थे
तो उसी क्षेत्र
से लगी हुयी
रायपुर सीट से
उस समय त्रिवेन्द्र
रावत मैदान में
थे इसलिये अगल-बगल की
सोटों पर प्रत्याशियों
का असर होना
स्वाभाविक ही था।
चूंकि उस समय
त्रिवेन्द्र को भगत
सिंह कोश्यारी का
कट्टर समर्थक माना
जाता था और
कोश्यारी 2011 में ‘निशंक’ को पद्च्युत कराने में
अहं भूमिका निभा
चुके थे। इसी
चुनाव में ‘निशंक’ की कुर्सी हथियाने वाले
भुवन चन्द्र खण्डूड़ी
को निशंक समर्थकों
ने कोटद्वार सीट
पर दुश्मनी का
मजा चखाया। ‘निशंक’ ने मुख्यमंत्री रहते हुये
अपने स्टिंग आपरेशनों
के लिये चर्चित
रहे पत्रकार उमेश
जे. शर्मा को
भी खूब सताया
था। शर्मा के
खिलाफ लुकआउट नोटिस
तक जारी हो
गया था। उनके
बारे में कहा
जाता है कि
वह जितने सहृदय
मित्र और दयालु
नेता हैं उतने
ही खतरनाक शत्रु
भी हैं।
एक समय था
जबकि उत्तराखण्ड भाजपा
के अन्दर कुर्सी
की लड़ाई में
उत्तराखण्ड में खण्डूड़ी
और कोश्यारी के
दो गुट थे।
‘निशंक’ भले ही
मूल रूप से
खण्डूड़ी गुट में
माने जाते थे
लेकिन उन्होंने भी
अपना अलग प्रेशर
ग्रुप बना लिया
था। ये दो
गुट 2011 में निशंक
को हटाने के
लिये एक तो
हो गये मगर
लक्ष्य पूरा होने
के बाद फिर
दोनों भविष्य की
संभावनाओं को देख
कर अपनी ढपलियां
अलग-अलग बजाने
लगे। वर्ष 2011 में
सत्ता से बेदखल
होने पर ‘निशंक’ ने अपना अलग
गुट फिर बना
लिया। लेकिन अब
जबकि वृद्धावस्था और
अस्वस्थता के कारण
जनरल खण्डूड़ी राजनीति
से दूर हो
गये और बढ़ती
उम्र के कारण
राजनीतिक संभावनाएं समाप्त होते
देख कोश्यारी द्वारा
एक तरह से
चुनावी राजनीति से सन्यास
का मार्ग चुनने
से उनकी गुटीय
राजनीति भी समाप्त
हो गयी तो
फिर उत्तराखण्ड में
भाजपा की राजनीति
में नये समीकरण
उभर गये। चूंकि
जमाना उगते सूरज
को सलाम करने
का है, इसलिये
त्रिवेन्द्र रावत राजनीतिक
कद के हिसाब
से काफी कम
होने के बावजूद
मुख्यमंत्री बन गये
और फिर भाजपा
की गुटबंदी उनके
इर्दगिर्द घूमने। इसे उत्तराखण्ड
की राजनीति में
‘‘खैरासैण के सूरज
का उदय’’ कहा जाने
लगा। पौड़ी गढ़वाल
में खैरासैण गांव
मुख्यमंत्री रावत का
पैतृक गांव है।
लेकिन दूसरी तरफ
सत्ता से लम्बे
वनवास के बावजूद
‘निशंक’ ने अपना
गुट विपरीत परिस्थितियों
में भी जीवित
रखा। वह निश्चित
रूप से मित्रों
के मित्र हैं
इसलिये उनसे जुड़े
जो लोग भाजपा
से बाहर चले
भी गये थे
वे भी ‘निशंक’ से जुड़े ही
रहे। यही गैर
भाजपाई समर्थक त्रिवेन्द्र रावत
के लिये सबसे
बड़े सिरदर्द बने।
इस तरह से
उत्तराखण्ड भाजपा में ‘निशंक’ और त्रिवेन्द्र गुटों में
लुक-छिप कर
घात-प्रतिघात होता
रहा। फिलहाल राज्यसभा
सांसद अनिल बलूनी
ीज्ञाजपा की राजनीति
में तीसरा कोण
बनाने का प्रयास
कर रहे हैं
मगर फिलहाल उत्तराखण्ड
और खास कर
गढ़वाल की राजनीति
में वर्चस्व का
असली सवाल त्रिवेन्द्र
और निशंक के
ही बीच है।
मार्च 2017
में उत्तराखण्ड की
सत्ता संभालते ही
त्रिवेन्द्र रावत के
खिलाफ हमले शुरू
हो गये थे।
त्रिवेन्द्र रावत के
चुनाव को चुनौती
देने के साथ
ही राज्य के
बहुचर्चित ढैंचा बीज घोटाले
को लेकर जो
लोग नैनीताल हाइकोर्ट
पहुंचे थे वे
कभी निशंक के
कट्टर समर्थक माने
जाते थे। इनमें
से एक रघुनाथ
सिंह नेगी को
निशंक ने अपने
कार्यकाल में गढ़वाल
मण्डल विकास निगम
का उपाध्यक्ष भी
बनाया था। दरअसल
त्रिपाठी जांच आयोग
ने इस घोटाले
में त्रिवेन्द्र रावत
के कृषि मंत्री
रहते हुये उनको
भी घोटाले का
दोषी पाया था।
त्रिवेन्द्र की पत्नी
के शैक्षिक प्रमाणपत्रों
पर उंगली उठाने
वाले सामाजिक कार्यकर्ता
सुभाष शर्मा भी
कभी भाजपा में
ही थे और
उन्हें भी ‘निशंक’ का करीबी मित्र माना
जाता था। ये
‘निशंक’ समर्थक जो कि
अब भाजपा में
नहीं हैं आये
दिन त्रिवेन्द्र सरकार
के कामकाज और
उनके कृया कलापों
को लेकर प्रेस
कान्फ्रेंस करते रहते
है। इसलिये राजनीतिक
गलियारों में ये
धारणा बनी कि
त्रिवेन्द्र को कुर्सी
से हटाने के
लिये यह सब
‘निशंक’ खेमे से
हो रहा है।
हालांकि अपने स्टिंग
आपरेशनों से उत्तराखण्ड
की राजनीति में
निरन्तर खलबली मचाने वाले
पत्रकार उमेश शर्मा
कभी निशंक के
कट्टर विरोधी रहे
हैं और अब
भी इन दोनों
के मेल मिलाप
के कोई संकेत
नहीं हैं। मगर
माना जाता है
कि उमेश शर्मा
के स्टिंग आपरेशनों
से ‘निशंक’ समर्थकों के
अभियान को बल
मिला है। इन
स्टिंग आपरेशनों की सच्चाई
चाहे जो भी
हो मगर उनसे
त्रिवेन्द्र सरकार की छवि
को काफी क्षति
पहुंची है और
उनके ‘जीरों टालरेंस’ के दावे की
छिछालेदर हुयी है।
त्रिवेन्द्र
रावत समर्थक सरकार
के खिलाफ चलने
वाले अभियानों के
लिये सीधे तौर
पर ‘निशंक’ गुट को
जिम्मेदार मानते रहे हैं।
इसलिये लोकसभा चुनाव से
पहले ऐसी भी
चर्चा रही कि
इस बार ‘निशंक’ का टिकट ही
कट जायेगा और
उनका वनवास लम्बा
खिंच जायेगा। लेकिन
भाजपा को जिताऊ
प्रत्याशी चाहिये था और
उसके पास ‘निशंक’ के अलावा कोई दूसरा
परखा हुआ प्रत्याशी
नहीं था, इसलिय
उन्हें टिकट भी
मिला और जीत
भी हासिल की।
उसके बाद कयास
लगाया गया कि
भले ही ‘निशंक’ जीत गये हों
मगर उन्हें मंत्री
नहीं बनाया जायेगा।
यह कयास भी
गलत निकला और
निशंक मोदी और
अमित शाह की
परीक्षा में अब्बल
निकल कर केन्द्र
में एक महत्वपूर्ण
विभाग के मंत्री
बन गये।
इस तरह राज्य
में भाजपा के
दोंनों गुटों में लड्डू
थमा कर कर
पार्टी नेतृत्व ने उत्तराखण्ड
में शांति और
विश्वास बहाली का प्रयास
तो किया है
मगर यह प्रयास
कितना सफल होगा,
यह आने वाला
वक्त ही बतायेगा।
क्योंकि ‘निशंक’ को मुख्यमंत्री
की कुर्सी से
हटाया गया था
इसलिये उनका लक्ष्य
अन्ततः मुख्यमंत्री की कुर्सी
होना स्वाभाविक है।
उन पर लगी
तोहमत तो ईमान्दार
छवि वाली मोदी
सरकार में जगह
पाने से मिट
गयी। मगर वह
टीस तब ही
दूर होगी जब
उन्हें एक बार
राज्य की खोई
हुयी सत्ता सम्मानपूर्वक
लौटाई जायेगी। इसलिये
उत्तराखण्ड में भाजपा
का सत्ता संघर्ष
इतनी जल्दी समाप्त
होता नजर नहीं
आ रहा है।
कभी ‘निशंक’ को हटाने
के लिये कोश्यारी
और खण्डूड़ी जैसे
घोर प्रतिद्वन्दी एक
हो गये थे
और आज भी
त्रिवेन्द्र को बाहर
का रास्ता दिखाने
के लिये मिलन
करने वाले घोर
विरोधियो की कमी
नहीं है। वैसे
राज्यसभा सांसद जिनकी निगाह
काफी समय से
मुख्यमंत्री की कुर्सी
पर टिकी है,
भी अमित शाह
और मोदी के
निकट होने की
बात प्रचारित कर
उत्तराखण्ड भाजपा में तीसरा
गुट बनाने में
कामयाब हो गये
हैं लेकिन उनका
गुट मीडिया में
अधिक और धरातल
पर कम प्रभावी
नजर आता है।
फिर भी इस
त्रिकोणीय मुकाबले में भी
लाभ ‘‘निशंक’’ को इसलिये
मिल सकता है
कि 2022 के विधानसभा
चुनाव में न
तो त्रिवेन्द्र रावत
और ना ही
अनिल बलूनी के
नेतृत्व में भाजपा
चुनाव जीत सकती
है।
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