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Sunday, June 9, 2019

उत्तराखण्ड भाजपा में शक्ति सन्तुलन



This article of Jay Singh Rawat appeared in Divya Himgiri on June 8, 2019
उत्तराखण्ड कोनिशंक’ का तोहफा त्रिवेन्द्र  के जी का जंजाल
-जयसिंह रावत
शासन प्रशासन के क्षेत्र में सबसे अनुभवी रमेश पोखरियालनिशंकको कैबिनेट में शामिल कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तराखण्ड को दुबार सत्ता में आते ही पहला तोहफा देने के साथ ही मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की मुश्किलों का बोझ भी कुछ कम कर दिया लगता है। पूरे आठ साल बाद निशंक की सत्ता में वापसी से उत्तराखण्ड की उम्मीदों के पंख लगने के साथ ही निशंक के भाजपाई और गैर भाजपाई समर्थक जितनी ऊर्जा त्रिवेन्द्र रावत की जड़ें खोदने में लगा रहे थे उतनी ऊर्जा निशंक की खोई हुयी महिमा को पुनः स्थापित करने में खर्च करंेगे।
उत्तराखण्ड से नव निर्वाचित पांचों ही सांसदों में वरिष्ठता के लिहाज से सबसे अग्रणी रमेश पोखरियालनिशंकको केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल किये जाने के बाद राज्य में भाजपाइयों के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत समेत भाजपा विरोधियों की भी जिस तरह सकारात्मक प्रतिक्रियाएं रही हैं उससे सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि राजनीति के इतर भी लोगनिशंककी ताजपोशी से इसलिये उत्साहित हैं क्योंकि उनमें केन्द्रीय मंत्री के तौर पर उत्तराखण्ड के हित में काफी कुछ कर दिखाने की क्षमता है।  सोलहवीं लोकसभा में मंत्री पद होते हुये भीनिशंकने उत्तराखण्ड के मुद्दों को जिस पुरजोर ढंग से उठाया उसी को देखते हुये राज्यवासियों को उम्मीद है किनिशंककेन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी इसी तरह राज्य के हितों की पैरवी करेंगे।निशंकको मानव संसाधन विकास की महती जिम्मेदारी मिली है। सबसे अधिक युवा शक्ति वाले दुनिया के सबसे युवा लोकतंत्र में उस शक्ति को राष्ट्र निर्माण में संवारने और निखारने की जिम्मेदारी किसी भी अन्य जिम्म्ेदारियों से कम नहीं है।
मात्र सौ दो सौ रुपये की सरस्वती शिशु मंदिर की नौकरी से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले एक पहाड़ी गरीब घर के युवा का प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से लेकर केन्द्र में मानव संसाधन जैसे विभाग का मंत्री बनने तक उनके हौसले और लगन का उदाहरण है। वह बहुत 33 वर्ष की उम्र में 1991 में कर्णप्रयाग सीट से डा0 शिवानन्द नौटियाल जैसे राजनीति के धुरन्धर को हरा कर उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुंच गये थे। उनकी काबिलियत को परख कर कल्याण सिंह और उनके बाद राम प्रकाश गुप्त ने उन्हें राज्य के पहाड़ी क्षेत्र की जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिये अपनी कैबिनेट में पर्वतीय विकास विभाग का मंत्री बनाया था। वह विभाग बाद मंे उत्तरांचल विकास विभाग बना और उसी विभाग की संकल्पना आगे चल कर उत्तरांचल राज्य के गठन की नींव बनी। निशंक की क्षमता को देखते हुये उनसे कहीं अधिक वरिष्ठ और उम्र दराज विधायकों को पीछे कर उन्हें इस विभाग की जिम्मेदारी दी गयी। उस समय निशंक के अधीन उनसे उम्र दराज 3 राज्यमंत्री रखे गये थे।
राज्य गठन के समय नवम्बर 2000 में वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे लेकिन मौका नित्यानन्द स्वामी को मिला मगर स्वामी नेनिशंककी क्षमता को देखते हुये उन्हें वित्त जैसे विभाग की जिम्मेदारी सौंपी। वर्ष 2007 में भाजपा उत्तराखण्ड की सत्ता में लौटी तो उस समय भीनिशंकमुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे लेकिन इस बार भी उन्हें वित्त और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों से सन्तोष करना पड़ा। लेकिन भाजपा के इसी कार्यकाल में उनकी किश्मत जागी और वह 2 साल के अन्दर ही 2009 में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बन गये। हालांकि 2 साल के अंदर ही 24 जून 2009 को उन्हें भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के स्थान पर भाजपा विधायक दल का नेता चुन लिया गया और 27 जून 2009 को उन्होंने उत्तराखण्ड की सत्ता संभाल ली। एक तरह से खण्डूउ़ी नेनिशंकको पद्च्युत कर दिया था।
राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता को एक ही गठरी में लेकर चलने वालेनिशंकने प्रदेश के पांचवें मुख्यमंत्री के रूप में उत्तराखण्ड की बागडोर सम्भाली तो उन्हें अनिश्चित्ता और अस्थिरता अपने पूर्ववर्ती भुवन चन्द्र खण्डूड़ी से विरासत में मिली थी। सत्ता के इस संघर्ष में उन्होंने पद छोड़ने वाले भुवन चन्द्र खण्डूड़ी की मदद से कोशियारी गुट को पछाड़ कर मुख्यमंत्री पद हासिल किया था। लेकिन बाद में उनके राजनीतिक संरक्षक खण्डूड़ी भी उनसे खिलाफ हो गये और कभी प्रतिद्वन्दी रहे खण्डूड़ी एवं कोश्यारी ने आपस में हाथ मिला करनिशंकको 11 सितम्बर 2011 को सत्ता से बेदखल करा दिया और खण्डूड़ी की दुबारा ताजपोशी हो गयी।
निशंकके इस 808 दिन के कार्यकाल में कई विवाद भी हुये। उसी दौरान बहुचर्चित सिटुर्जिया घोटाला और 56 पावर प्रोजेक्ट घोटाले भी उठे जो कि हाइकोर्ट भी पहुंचे। हालांकि नैनीताल हाइकोर्ट की निर्णायक दखल से पहले हीनिशंकसरकार ने सिटुर्जिया जमीन आबंटन और पावर प्रोजेक्ट आबंटन के निर्णय वापस ले लिये थे लेकिन तब तक उनकी सरकार की काफी छिछालेदर हो गयी थी। उस दौरान अन्ना हजारे का आन्दोलन भी चरम पर था और निशंक के राजनीतिक संरक्षक रहे भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने सम्मेलनों, रैलियों और बैठकों के माध्यम से ऐसा मौहाल बनाया कि जैसेनिशंकसरकार भ्रष्टाचार में डूब चुकी हो। निशंक को उनकी ही पार्टी के नेताओं ने उन्हें इतना बदनाम किया कि वह तब से लेकर अब तक उन आरोपों से अभिशप्त रहे। समझा जाता है कि मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में इसीलिये उन्हें केन्द्र में मंत्री नहीं बनाया गया।
ऐसा भी नहीं किनिशंकसरकार केवल विफलताऐं और अपयश ही बटोरती रही हो। निशंक ने ‘‘अन्त्योदय विकास यात्रा’’ के माध्यम से लगभग 40 से अधिक विधान सभा क्षेत्रों में जाकर लाखों लोगों से सीधा संवाद किया और उनकी समस्याएं मोके पर ही निपटाने का प्रयास किया।निशंकने उत्तराखण्ड में ‘‘सरकार जनता के द्वार अटल आदर्श ग्राम चौपाल’’ कार्यक्रम भी शुरू किया, जिसमें मंत्रीगणों, विधायकों, एवं दायित्वधारी गांव-गांव जनता से सीधे संवाद स्थापित करना थ। विकास के मोर्चे पर अनुभव और धन की कमी के बावजूद वह अपनी व्यवहार कुशलता के बल पर योजना आयोग से 6800 करोड़ का सालाना योजना आकार अनुमोदित कराने में कामयाब रहे। पिछले योजना परिव्यय में लगभग 1700 करोड़ खर्च कर सकने के बावजूद वह अपने कार्यकाल की दूसरी योजना में लगभग 1200 करोड़ की वृद्धि कराने में कामयाब रहे। कैग की रिपोर्ट में जिस कुंभ मेले में घोटाले का आरोप लगा था उसी कुंभ मेले को यूनेस्को ने बाद में अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता दी।निशंकने ही अपने कार्यकाल में केन्द्र सरकार से इको सर्विस के बदले वन बाहुल्य राज्य उत्तराखण्ड को ग्रीन बोनस की मांग सबसे पहले उठाई थी।
निशंकके बारे में कहा जाता है कि एक कवि की तरह देखने में वह जितने मीठे और सहृदय लगते हैं, अन्दर से उतने ही चालाक और अपने शत्रुओं के प्रति कठोर होते हैं। उनके मीठे जहर के आगे कोई पानी भी नहीं मांग पाता। ऐसा माना जाता है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी कोटद्वार विधानसभा क्षेत्र सेनिशंकके मीठे कोप से ही हारे थे। राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की 2012 में रायपुर क्षेत्र से तथा 2014 के उप चुनाव में डोइवाला से हार के पीछे भी निशंक का ही कोप माना जाता है।निशंकजब 2012 के विधानसभा चुनाव में डोइवाला से लड़े थे तो उसी क्षेत्र से लगी हुयी रायपुर सीट से उस समय त्रिवेन्द्र रावत मैदान में थे इसलिये अगल-बगल की सोटों पर प्रत्याशियों का असर होना स्वाभाविक ही था। चूंकि उस समय त्रिवेन्द्र को भगत सिंह कोश्यारी का कट्टर समर्थक माना जाता था और कोश्यारी 2011 मेंनिशंकको पद्च्युत कराने में अहं भूमिका निभा चुके थे। इसी चुनाव मेंनिशंककी कुर्सी हथियाने वाले भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को निशंक समर्थकों ने कोटद्वार सीट पर दुश्मनी का मजा चखाया।निशंकने मुख्यमंत्री रहते हुये अपने स्टिंग आपरेशनों के लिये चर्चित रहे पत्रकार उमेश जे. शर्मा को भी खूब सताया था। शर्मा के खिलाफ लुकआउट नोटिस तक जारी हो गया था। उनके बारे में कहा जाता है कि वह जितने सहृदय मित्र और दयालु नेता हैं उतने ही खतरनाक शत्रु भी हैं।
एक समय था जबकि उत्तराखण्ड भाजपा के अन्दर कुर्सी की लड़ाई में उत्तराखण्ड में खण्डूड़ी और कोश्यारी के दो गुट थे।निशंकभले ही मूल रूप से खण्डूड़ी गुट में माने जाते थे लेकिन उन्होंने भी अपना अलग प्रेशर ग्रुप बना लिया था। ये दो गुट 2011 में निशंक को हटाने के लिये एक तो हो गये मगर लक्ष्य पूरा होने के बाद फिर दोनों भविष्य की संभावनाओं को देख कर अपनी ढपलियां अलग-अलग बजाने लगे। वर्ष 2011 में सत्ता से बेदखल होने परनिशंकने अपना अलग गुट फिर बना लिया। लेकिन अब जबकि वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण जनरल खण्डूड़ी राजनीति से दूर हो गये और बढ़ती उम्र के कारण राजनीतिक संभावनाएं समाप्त होते देख कोश्यारी द्वारा एक तरह से चुनावी राजनीति से सन्यास का मार्ग चुनने से उनकी गुटीय राजनीति भी समाप्त हो गयी तो फिर उत्तराखण्ड में भाजपा की राजनीति में नये समीकरण उभर गये। चूंकि जमाना उगते सूरज को सलाम करने का है, इसलिये त्रिवेन्द्र रावत राजनीतिक कद के हिसाब से काफी कम होने के बावजूद मुख्यमंत्री बन गये और फिर भाजपा की गुटबंदी उनके इर्दगिर्द घूमने। इसे उत्तराखण्ड की राजनीति में ‘‘खैरासैण के सूरज का उदय’’ कहा जाने लगा। पौड़ी गढ़वाल में खैरासैण गांव मुख्यमंत्री रावत का पैतृक गांव है। लेकिन दूसरी तरफ सत्ता से लम्बे वनवास के बावजूदनिशंकने अपना गुट विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रखा। वह निश्चित रूप से मित्रों के मित्र हैं इसलिये उनसे जुड़े जो लोग भाजपा से बाहर चले भी गये थे वे भीनिशंकसे जुड़े ही रहे। यही गैर भाजपाई समर्थक त्रिवेन्द्र रावत के लिये सबसे बड़े सिरदर्द बने। इस तरह से उत्तराखण्ड भाजपा मेंनिशंकऔर त्रिवेन्द्र गुटों में लुक-छिप कर घात-प्रतिघात होता रहा। फिलहाल राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ीज्ञाजपा की राजनीति में तीसरा कोण बनाने का प्रयास कर रहे हैं मगर फिलहाल उत्तराखण्ड और खास कर गढ़वाल की राजनीति में वर्चस्व का असली सवाल त्रिवेन्द्र और निशंक के ही बीच है।
मार्च 2017 में उत्तराखण्ड की सत्ता संभालते ही त्रिवेन्द्र रावत के खिलाफ हमले शुरू हो गये थे। त्रिवेन्द्र रावत के चुनाव को चुनौती देने के साथ ही राज्य के बहुचर्चित ढैंचा बीज घोटाले को लेकर जो लोग नैनीताल हाइकोर्ट पहुंचे थे वे कभी निशंक के कट्टर समर्थक माने जाते थे। इनमें से एक रघुनाथ सिंह नेगी को निशंक ने अपने कार्यकाल में गढ़वाल मण्डल विकास निगम का उपाध्यक्ष भी बनाया था। दरअसल त्रिपाठी जांच आयोग ने इस घोटाले में त्रिवेन्द्र रावत के कृषि मंत्री रहते हुये उनको भी घोटाले का दोषी पाया था। त्रिवेन्द्र की पत्नी के शैक्षिक प्रमाणपत्रों पर उंगली उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष शर्मा भी कभी भाजपा में ही थे और उन्हें भीनिशंकका करीबी मित्र माना जाता था। येनिशंकसमर्थक जो कि अब भाजपा में नहीं हैं आये दिन त्रिवेन्द्र सरकार के कामकाज और उनके कृया कलापों को लेकर प्रेस कान्फ्रेंस करते रहते है। इसलिये राजनीतिक गलियारों में ये धारणा बनी कि त्रिवेन्द्र को कुर्सी से हटाने के लिये यह सबनिशंकखेमे से हो रहा है। हालांकि अपने स्टिंग आपरेशनों से उत्तराखण्ड की राजनीति में निरन्तर खलबली मचाने वाले पत्रकार उमेश शर्मा कभी निशंक के कट्टर विरोधी रहे हैं और अब भी इन दोनों के मेल मिलाप के कोई संकेत नहीं हैं। मगर माना जाता है कि उमेश शर्मा के स्टिंग आपरेशनों सेनिशंकसमर्थकों के अभियान को बल मिला है। इन स्टिंग आपरेशनों की सच्चाई चाहे जो भी हो मगर उनसे त्रिवेन्द्र सरकार की छवि को काफी क्षति पहुंची है और उनकेजीरों टालरेंसके दावे की छिछालेदर हुयी है।
त्रिवेन्द्र रावत समर्थक सरकार के खिलाफ चलने वाले अभियानों के लिये सीधे तौर परनिशंकगुट को जिम्मेदार मानते रहे हैं। इसलिये लोकसभा चुनाव से पहले ऐसी भी चर्चा रही कि इस बारनिशंकका टिकट ही कट जायेगा और उनका वनवास लम्बा खिंच जायेगा। लेकिन भाजपा को जिताऊ प्रत्याशी चाहिये था और उसके पासनिशंकके अलावा कोई दूसरा परखा हुआ प्रत्याशी नहीं था, इसलिय उन्हें टिकट भी मिला और जीत भी हासिल की। उसके बाद कयास लगाया गया कि भले हीनिशंकजीत गये हों मगर उन्हें मंत्री नहीं बनाया जायेगा। यह कयास भी गलत निकला और निशंक मोदी और अमित शाह की परीक्षा में अब्बल निकल कर केन्द्र में एक महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री बन गये।
इस तरह राज्य में भाजपा के दोंनों गुटों में लड्डू थमा कर कर पार्टी नेतृत्व ने उत्तराखण्ड में शांति और विश्वास बहाली का प्रयास तो किया है मगर यह प्रयास कितना सफल होगा, यह आने वाला वक्त ही बतायेगा। क्योंकिनिशंकको मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाया गया था इसलिये उनका लक्ष्य अन्ततः मुख्यमंत्री की कुर्सी होना स्वाभाविक है। उन पर लगी तोहमत तो ईमान्दार छवि वाली मोदी सरकार में जगह पाने से मिट गयी। मगर वह टीस तब ही दूर होगी जब उन्हें एक बार राज्य की खोई हुयी सत्ता सम्मानपूर्वक लौटाई जायेगी। इसलिये उत्तराखण्ड में भाजपा का सत्ता संघर्ष इतनी जल्दी समाप्त होता नजर नहीं रहा है। कभीनिशंकको हटाने के लिये कोश्यारी और खण्डूड़ी जैसे घोर प्रतिद्वन्दी एक हो गये थे और आज भी त्रिवेन्द्र को बाहर का रास्ता दिखाने के लिये मिलन करने वाले घोर विरोधियो की कमी नहीं है। वैसे राज्यसभा सांसद जिनकी निगाह काफी समय से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी है, भी अमित शाह और मोदी के निकट होने की बात प्रचारित कर उत्तराखण्ड भाजपा में तीसरा गुट बनाने में कामयाब हो गये हैं लेकिन उनका गुट मीडिया में अधिक और धरातल पर कम प्रभावी नजर आता है। फिर भी इस त्रिकोणीय मुकाबले में भी लाभ ‘‘निशंक’’ को इसलिये मिल सकता है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में तो त्रिवेन्द्र रावत और ना ही अनिल बलूनी के नेतृत्व में भाजपा चुनाव जीत सकती है।

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