देरी के कारण न्याय से वंचित हो गये लाखों उत्तराखण्डी
-जयसिंह रावत
Writer and Journalist Jay Singh Rawat addressing a seminar |
न्याय शास्त्र की भावना
के अनुसार न्याय
में विलम्ब होना
न्याय से वंचित
होना या अन्याय
होना ही है।
बेहतर और त्वरित
न्याय की चाह
में विशलकाय उत्तर
प्रदेश से अलग
हुये उत्तराखण्ड राज्य
में भी नागरिकों
को समय से
न्याय न मिलने
के कारण न्याय
से वंचित होना
पड़ रहा है।
जबकि भारत गणतंत्र
में समानता और
न्याय की गारण्टी
इसके संविधान की
प्रस्तावना में ही
स्पष्ट की गयी
है। इस 19 की
आयु वाले राज्य
की अदालतों में
लंबित वादों की
संख्या 2.66 लाख तक
पहुंच चुकी है।
इससे भी गंभीर
बात यह है
कि राज्य में
सकेड़ों की संख्या
में ऐसे वादकारी
भी हैं जो
पिछले 30 सालों से न्याय
की आस लगाये
अदालत के चक्कर
काट रहे हैं।
नैनीताल हाइकोर्ट की आफिशियल
वेबसाइट में उपलब्ध
’नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड’ के अनुसार प्रदेश के
हाइकोर्ट में ही
2 मई 2019 तक 56,823 मामले लंबित
थे जिनमें 29,130 दीवानी
और 21,006 मामले फौजदारी के
शामिल थे। चिन्ता
का विषय तो
यह है कि
न्याय की मूल
भावना के विपरीत
इन पेंडिंग मुकदमों
या वादों में
657 (1.6 प्रतिशत) वाद ऐसे
भी हैं जो
कि पिछले 30 से
अधिक वर्षों से
लंबित पड़े हैं।
हाइकोर्ट में 15,222 वाद (26.79 प्र.श.) 10 से लेकर
20 साल तक एवं
6,441 वाद (11.34 प्र.श.)
20 से 30 वर्ष से
लंबित पड़े हुये
हैं। और तो
रहे और जिन
आन्दोलनकारियों के त्याग
और सर्वोच्च बलिदान
से उत्तराखण्ड राज्य
अस्तित्व में आया
उनको पिछले 25 साल
से न्याय नहीं
मिला और हत्यारे,
बलात्कारी एवं नारी
लज्जा हरण करने
वाले सरकारी आतंकवादियों
(हाइकोर्ट ने 2 अक्टूबर
1994 के मुजफ्फरनगर काण्ड को
सरकारी आतंकवाद कहा था)
के गिरेबान तक
कानून के हाथ
नहीं पहुंचे।
सूचना अधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट
नदीम उद्दीन को
सूचना के अधिकार
के तहत मिली
जानकारी के अनुसार
दिसम्बर 2018 तक उत्तराखण्ड
उच्च न्यायालय के
अधीनस्थ न्यायालयों में कुल
2 लाख 32 हजार 338 वाद (मुकदमे)
लंबित थे। जिसमें
1 लाख 98 हजार 300 वाद अपराधिक
तथा 34038 दीवानी केे वाद
शामिल थे। उस
तिथि तक उत्तराखण्ड
उच्च न्यायालय मेें
कुल 34049 वाद लम्बित
थे जिसमें सेे
12705 वाद अपराधिक तथा 21344 वाद
दीवानी के शामिल
थे। स्पष्ट है
कि इस वर्ष
जनवरी से लेकर
30 अप्रैल तक हाइकोर्ट
में ही लंबित
वादों में 22,774 की
वृद्धि हुयी है।
नदीम कोे पूूर्व
मेें उपलब्ध सूचना
के अनुुसार 2014 के
अंत में कुल
1,68,431 केस लंबित थेे जिसमेें
1,22,159 अपराधिक तथा 46272 दीवानी के
थेे। इस चार
वर्ष की अवधि
मेें 97956 मुकदमों की वृद्धि
हुुई हैै जोे
58 प्र्रतिशत सेे अधिक
है। अपराधिक वादों
में 88846 की वृद्धि
हुुई हैै जोे
72 प्रतिशत सेे अधिक
है जबकि दीवानी
वादों में केेवल
9110 की वृृद्धि हुई है
जोे 19 प्र्र्रतिशत सेे अधिक
है।
उत्तराखण्ड
के अधीनस्थ न्यायालयों
में 31 दिसम्बर 2018 कोे लंबित
कुुल 2 लाख 32 हजार 338 वादों
या मुकदमों मेें
सेे सर्वाधिक 98,429 वाद
देेहरादूून जिलेे केे न्यायालयों
मेें, दूसरेे स्थान
पर 58,042 वाद हरिद्वार
के न्यायालयों मेें
तथा तीसरे स्थान
पर 43,451 वाद उधमसिंहनगर
जिले के न्यायालयोें
में लंबित थे।
अन्य जिलोें मेें
लंबित वादों में
1239 वाद अल्मोड़ा, 494 बागेश्वर, 1104 चमोेली, 1477 चम्पावत, 16398 नैैनीताल, 5547 पौड़ी, 1486 पिथौैरागढ़, 1025 रूद्र्रप्र्रयाग,
2223 टिहरी तथा 1423 वाद उत्तरकाशी
जिलांे के न्यायालयों
में लंबित थे।
गत वर्ष दिसम्बर
तक अधीनस्थ न्यायालयोें
में कुुल 1,98,300 फौैजदारी
वाद लंबित थे
जिसमें सर्वाधिक 86,210 वाद देहरादून,
47,615 हरिद्वार तथा 37,674 उधमसिंहनगर जिले
केे न्यायालयोें मेें
लंबित थे। अन्य
जिलों के न्यायालयों
मेें लंबित अपराधिक
केेसों मेें अल्मोेड़ा
मेें 883, बागेेश्वर मेें 374, चमोली
में 833, चम्पावत मेें 1288, नैैनीताल
मेें 14,085, पौैड़ी मंेे 4534, पिथौैरागढ़
में 1019, रूद्र्रप्र्रयाग मेें 906, टिहरी में
1925 तथा उत्तरकाशी मंे 954 वाद
शामिल थे। इस
अवधि तक अधीनस्थ
न्यायालयों मेें कुुल
34038 दीवानी वाद लंबित
थे। जिसमेें सर्वाधिक
12219 देहरादूून, 10427 हरिद्वार तथा 5777 उधमसिंहनगर
जिलेे की अदालतों
मेें लंबित थे।
जबकि अल्मोड़ा में
356, बागेश्वर में 120, चलोेली मेें
271, चम्पावत मेें 189, नैैनीताल मेें
2313, पौड़ी में 1013, पिथौरागढ़ में
467, रूद्र्रप्र्रयाग में 119, टिहरी में
298 तथा उत्तरकाशी जिले की
अदालतोें में 489 दीवानी मामलेे
लंबित थे। जाहिर
है कि निचली
अदालतों में भी
अप्रैल अंत तक
लंबित वादों की
संख्या 3 लाख तक
जा चुकी होगी।
अदालतों पर लंबित
मामलों का बोझ
बढ़ते जाने का
एक एक प्रमुख
कारण अदालतों में
जजों या न्यायिक
अधिकारियों की कमी
के साथ ही
वकीलों द्वारा आये दिन
की जाने वाली
हड़तालें या न्यायिक
कार्य से विरत
रहना भी एक
प्रमुख कारण माना
जा रहा है।
नैनीताल हाइकोर्ट के वरिष्ठ
अधिवक्ता डी.के.
जोशी के अनुसार
अदालतों में जिस
गति से वादों
की संख्या बढ़
रही है उस
हिसाब से जज
उपलब्ध नहीं हैं।
जजों की संख्या
बढ़ाना तो रहा
दूर अदालतों में
जितने पद खाली
हैं उन्हीं ही
नहीं भरा जा
रहा है। जोशी
के अनुसार अदालतों
में अक्सर सरकारी
पक्ष समय से
जवाब नहीं देता
जिस कारण मामले
लटक जाते हैं।
कई बार अगली
तारीख के बारे
में स्पष्ट आदेश
न होने के
कारण भी वाद
अनिश्चितकाल के लिये
लटक जाते हैं।
आरटीआइ कार्यकर्ता एडवोकेट नदीम
उद्दीन के अनुसार
नैनीताल हाइकोर्ट में ही
जजों की स्वीकृत
संख्या 11 है, जबकि
वहां केवल 8 जज
ही कार्यरत हैं।
इसी प्रकार राज्य
की अधीनस्थ अदालतों
में जिला जजों
और अतिरिक्त जिला
जजों समेत न्यायिक
अधिकारियों के 292 पद स्वीकृत
हैं लेकिन इन
पदों पर केवल
228 जज या न्यायिक
अधिकारी कार्यरत् हैं। सबसे
दयनीय स्थिति श्रमिक
सम्बन्धी वादों की है।
जजों के अभाव
में जिला स्तर
के श्रम न्यायालयों
में सालों तक
वाद लम्बित रहते
हैं। अगर श्रमिक
जिला स्तर की
अदालत से जीत
भी जाता है
तो मालिक पक्ष
हाइकोर्ट में अपील
कर कई साल
तक मुकदमें को
वहां लटकाता है
और वहां से
भी श्रमिक जीत
जाता है तो
मालिक पक्ष सपुप्रीम
कोर्ट चला जाता
है ताकि बेरोजगार
श्रमिक का लड़ने
से हौसला ही
टूट जाय।
उत्तराखण्ड
की 3500 से अधिक
संख्या वाली प्रदेश
की सबसे बड़ी
देहरादून की बार
द्वारा हाइकोर्ट बेंच के
लिये पिछले 38 सालों
से शनिवार के
दिन की हड़ताल
चल रही है।
देहरादून में ही
राज्य की सर्वाधिक
पेंडेंसी भी है।
पहले यह हड़ताल
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में
इलाहाबाद हाइकोर्ट की बेंच
की मांग को
लेकर चल रही
थी लेकिन वर्ष
2000 में उत्तराखण्ड राज्य गठन
के साथ ही
नैनीताल में उत्तराखण्ड
हाइकोर्ट की स्थापना
हो गयी तो
वर्षों से शनिवार
को चल रही
हड़ताल देहरादून में
बेंच की मांग
में बदल गयी।
देहरादून बार एसोसिएशन
के अध्यक्ष मनमोहन
कण्डवाल के अनुसार
फिलहाल बेंच की
मांग का मामला
प्रगति पर है
इसलिये एक महीने
के लिये हड़ताल
स्थगित कर रखी
है। कण्डवाल के
अनुसार देहरादून की बार
के सबसे अधिक
सदस्य हैं और
हाइकोर्ट में लगभग
90 प्रतिशत केस देहरादून
और हरिद्वार जिले
के ही होते
हैं इसलिय देहरादून
में हाइकोर्ट बेंच
की मांग भी
वादकारियों के हित
में ही की
जा रही है।
सामान्य वादकारी तो रहे
दूर, राज्य बनने
के बाद अब
तक उत्तराखण्ड आन्दोलन
के उन आन्दोलनकारियों
को न्याय नहीं
मिला जिनके साथ
वर्दीधारियों ने बलात्कार
और लज्जाभंग करने
के साथ ही
आठ आन्दोलनकरियों को
मार डालने के
साथ ही दर्जनों
को घायल कर
अपराधिक षढ़यंत्र कर अपने
पाप छिपाने का
प्रयास किया था।
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 2 अक्टूबर
1994 को हुये मुजफ्फरनगर
काण्ड सहित उत्तराखण्ड
आन्दोलन के दौरान
की गयी दमन
की कार्यवाही को
सरकारी आतंकवाद बताया था।
सीबीआइ जांच में
रामपुर तिराहे पर 7 आन्दोलनकारी
महिलाओं के साथ
बलात्कार, 17 के साथ
लज्जाभंग और 8 आन्दोलनकारियों
की हत्या की
पुष्टि हुयी थी।
महिला आयोग द्वारा
की गयी जांच
में तो सामूहिक
बलात्कार और तलाशी
के नाम पर
महिलाओं के अंगों
से छेड़छाड़ के
साथ ही निजी
अंगों पर प्रहार
जैसी जघन्य हरकतों
की पुष्टि हुयी
थी। लेकिन आज
तक उस काण्ड
के दोषियों का
कानून बालबांका नहीं
कर सका। यह
मामला पहले देहरादून
में सीबीआइ अदालत
में चल रहा
था लेकिन घटनास्थल
मुजफ्फरनगर होने के
कारण मुकदमें वही
स्थानांतरित हो गये।
जहां एसीजेएम की
अदालत में हत्या,
बलात्कार, लज्जाभंग अपराधिक षढ़यंत्र,
मौलिक अधिकारों का
हनन आदि के
4 मामले चल रहे
हैं। दशकों तक
फैसला न होने
और एक गवाह
की संदिग्ध मृत्यु
के बाद प्रमुख
आन्दोलनकारी नेते रवीन्द्र
जुगरान ने गत
वर्ष अक्टूबर में
इलाहाबाद हाइकोर्ट में त्वरित
न्याय हेतु याचिका
दायर की तो
अब मुजफ्फरनगर की
अदालत से इलाहाबाद
फाइलें तलब हुयी
हैं। उत्तराखण्ड में
भाजपा और कांग्रेस
की सरकारें सत्ता
की मौज उड़ाती
रहीं मगर किसी
का ध्यान उत्तराखण्ड
आन्दोलनकारियों को न्याय
दिलाने की ओर
नहीं गया।
-जयसिंह
रावत
ई-11, फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालानी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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