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Friday, June 28, 2019

गढ़वाल को निगलने लगा देहरादून

गढव़ाल कमिश्नरी की मौत का जश्न मनाने पौड़ी कूच
-जयसिंह रावत
Article of Jay Singh Rawat author and journalist published in Uttar Ujala 
कभी 52 गढ़ों के देश रहेगढ़वालको स्वतंत्र भारत में एक प्रशासनिक मण्डल या कमिश्नरी का दर्जा मिले 50 साल हो गये हैं। मण्डल मुख्यालय पौड़ी की स्वर्ण जयन्ती मनाने के लिये 29 जून को वहां कैबिनेट बैठक सहित कई कार्यक्रम प्रस्तावित हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि शिमला, मसूरी और नैनीताल की ही तरह कभी अंग्रेजों की पंसदीदा नगरी रही पौड़ी देश का ऐसा अजब मण्डल या कमिश्नरी का मुख्यालय है जहां पिछले 3 दशकों से कमिश्नर तो रहा दूर मण्डल स्तर के अन्य अधिकारी तक नहीं रहते, जिस कारण यह उत्तराखण्ड के पालयन की ज्वलन्त समस्या का प्रतीक बन गया है। विस्मयकारी तथ्य तो यह है कि यह राज्य के पहले पलायन आयोग का मुख्यालय भी है जिससे इसके अध्यक्ष एवं अन्य अधिकारी तक यहां से पलायन कर देहरादून में बैठ गये। इसी कमिश्नरी के मूल निवासी दो बार उत्तर प्रदेश के तथा तीन बार उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। नेता अपनी बीबियों और रिश्तेदारों को पहाड़ के स्कूल और कार्यालय छुड़वाकर दिल्ली देहरादून ले गये।
राज्यपाल वी.गोपाला रेड्डी ने स्थापित की गढ़वाल कमिश्नरी
उत्तराखण्ड के पहले (उस समय देहरादून मेरठ मण्डल में था) के पहले बार एट लॉ हुये बैरिस्टर मुकन्दी लाल के प्रयासों से 1 जनवरी 1969 को नैनीताल कमिश्नरी के विभाजन के बाद स्थापित गढ़वाल कमिश्नरी की स्थापना के पूरे 50 साल बीत गये। इस कमिश्नरी की मांग के पीछे मुकन्दी लाल जैसे समाज सेवियों और प्रबुद्ध नागरिकों का तर्क यह था कि सुदूर गढ़वाल के उत्तरकाशी और चमोली जैसे क्षेत्रों से छोटे-छोटे कार्यों एवं जमीन या राजस्व सम्बन्धी वादों के लिये भी लोगों को दूर नैनीताल के चक्कर काटने पड़ते हैं। दूसरा तर्क यह था कि गढ़वाल कभी अपने आप में 52 गढ़ों का एक देश ही था, जिसका अधिपति राजा नहीं बल्कि महाराजा कहलाता था। चूंकि 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भी संयुक्त प्रान्त में विलय हो कर गढ़वाल सम्पूर्ण एकीकरण हो चुका था, इसलिये बैरिस्टर मुकन्दी लाल और विधायक चन्द्रसिंह रावत जैसे बुद्धिजीवियों ने गढ़वाल को नैनीताल कमिश्नरी से अलग करने का अभियान शुरू कर दिया। मुकन्दी लाल उत्तराखण्ड के पहले बैरिस्टर तो थे ही साथ ही वह देश के ऊंगलियों में गिने जाने वाले इंग्लैण्ड में बार एट लॉ की डिग्री हासिल करने वाले विधि विशेषज्ञों में से भी एक थे गढ़वाल के जानेमाने इतिहासकार डा0 योगेश धस्माना के अनुसार मुकन्दीलाल केे भारत लौटने पर उन्हें एक सप्ताह तक पुलिस द्वारा बंबई में रोका गया और जब वह बम्बई से इलाहाबाद पहुंचे तो उनकी अगवानी करने स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू स्टेशन पहुंचे। इसलिये पहाड़ के मामले में बैरिस्टर मुकन्दी लाल की शासन-प्रशासन में सुनी जाती थी। चूंकि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त का निर्वाचन क्षेत्र रानीखेत ही हुआ करता था इसलिये उनकी भी कुमाऊं कमिश्नरी के विभाजन में रुचि नहीं थी। इसलिये जब 1969 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा तो तत्कालीन राज्यपाल वी. गोपाल रेड्डी के हाथ में कार्यकारी अधिकार आते ही इसका लाभ उठाते हुये गढ़वाल के नेताओं ने उन्हें 32,449 वर्ग किमी में फैले गढ़वाल की अलग कमिश्नरी के गठन के लिये मना लिया। इसीलिय गोपाल रेड्डी के जीतेजी उनकी प्रतिमा गढ़वाल मुख्यालय पौड़ी में स्थापित की गयी। वर्तमान में यहां उत्तराखण्ड के पांच में से 3 लोकसभा क्षेत्र, 70 में से 41 विधानसभा क्षेत्र, और 9,319 गांव शामिल हैं।
Article of Jay Singh Rawat published in Shah Times on 29 June 2019
कलक्टरों की समिति ने चुना था पौड़ी को
नैनीताल कमिश्नरी के विभाजन एवं गढ़वाल कमिश्नरी के गठन की स्वीकृति मिलने पर राज्यपाल वी. गोपाल रेड्डी द्वारा कमिश्नरी के मुख्यालय के चयन के लिये 5 कलक्टरों की एक समिति का गठन किया था जिसके संयोजक बैरिस्टर मुकन्दीलाल बनाये गये। डा0 योगेश धस्माना के अनुसार उस समय देहरादून को गढ़वाल में मिला कर मुख्यालय देहरादून बनाने का भी एक विचार कुछ लोगों द्वारा दिया गया था, मगर मुकन्दीलाल इस विचार के सख्त खिलाफ थे। उनका जो भय था वह आज सच साबित हो रहा है। कलक्टरों की इस कमेटी में कुमाऊं मण्डल के अल्मोड़ा, नैनीताल, पौड़ी और टिहरी के सभी चार कलक्टरों के साथ ही पांचवां कलक्टर मेरठ मण्डल से भी लिया गया था जो कि पौड़ी के पक्ष में सबसे अधिक था। अन्ततः समिति द्वारा गढ़वाल मण्डल के मुख्यालय के लिये पौड़ी नगर को चुन लिया गया और मुख्यालय का निर्माण पौड़ी नगर के शीर्ष कण्डोलिया में कर दिया गया।
गढ़वाल को निगलने लगा देहरादून
यह सही है कि दून घाटी सदियों से बाहरी आक्रमणों के बावजूद गढ़वाल राज्य का हिस्सा रही। इसी देहरादून के खुड़बुड़ा के युद्ध में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह के गोरखा आक्रमणकारियों के हाथों मारे जाने के बाद 1804 में समूचा गढ़वाल नेपाल के अधीन चला गया था और इसी देहरादून के खलंगा युद्ध में बलभद्र थापा और उसके बचे खुचे चन्द गोरखा सैनिकों को मार भगाने के बाद गढ़वाल ‘‘आतताई गोरख्याणी राज’’ से मुक्त हुआ था। लेकिन इस भीषण युद्ध में विजय के बाद अंग्रेजों ने अलकनन्दा और मंदाकिनी के दायें हिस्से के गढ़वाल और फिर बाद में समूचे कुमाऊं को अपने अधीन करने के कुछ समय बाद कुमाऊं जिले का गठन कर देहरादून को 1817 में सहारनपुर जिले में शामिल कर दिया। इसके बाद 1825 में इसे कुमाऊँ मण्डल में जोड़ दिया गया। सन् 1829 में देहरादून को मेरठ खण्ड को हस्तांतरित कर दिया गया। 1842 में देहरादून को सहारनपुर जिले से जोड़ दिया गया और इसे जिलाधीश के अधीनस्थ सुप्रींटेंडेंट एफ.जे. शोर के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। 1871 में इसे एक जिला बना दिया गया। सन् 1975 में जब इसे पुनः गढ़वाल के साथ जोड़ा गया तो इसके बाद यह गढ़वाल को ही निगलने लगा।
22 सालों से देहरादून से चल रही है पौड़ी कमिश्नरी
सन् 1969 से लेकर 1982 तक तो कमिश्नरी के मुख्यालय में रौनक ही रौनक रही। उस दौरान कुमाऊं से अलग होने पर हर साल मुख्यालय पौड़ी में ‘‘गढ़वाल दिवस’’ भी मनाया जाता रहा। लेकिन देहरादून के गढ़वाल में शामिल होने पर गढ़वाल के कमिश्नर देहरादून के प्रति अपने मोह को ज्यादा समय तक नहीं रोक पाये। इसलिये मण्डल के 10वें कमिश्नर (आयुक्त) एस. के. विश्वास ने 1982 में देहरादून के मोहिनी रोड पर एक कैंप कार्यालय खुलवा ही दिया। कैंप कार्यालय क्या खुलना था कि मुख्यालय पौड़ी केवल गर्मियों में ठण्डी हवा खाने के लिये आराम स्थल और देहरादून का कैंप कार्यालय ही असली मण्डल मुख्यालय बन गया। कुछ समय पहले तक लोकलाज के डर से देहरादून के .सी. रोड स्थित आयुक्त कार्यालय बोर्ड पर कैंप कार्यालय लिखा होता था, लेकिन 28वें कमिश्नर विनोद शर्मा ने बोर्ड से कैंप शब्द भी हटवा दिया। पहले कमिश्नर एस.सी. सिंघा से लेकर वर्तमान डा0 बी.वी.आर. पुरुषोत्तम तक कुल 31 कमिश्नर इस मण्डल में पदासीन रह चुके हैं जिनमें से केवल 9 कमिश्नर ही पूरी तरह पौड़ी में बैठकर काम करते रहे। उसके बाद के सभी 22 कमिश्नर देहरादून के ही होकर रह गये। इस तरह अभागे मण्डल मुख्यालय पौड़ी को केवल 13 साल तक फुल फ्लेज्ड कमिश्नरी मुख्यालय का सौभाग्य हासिल हुआ और शेष 37 सालों तक गढ़वाल के कमिश्नर पौड़ी के नाम पर देहरादून से अपनी हाकिमी चलाते रहे।
कमिश्नर खिसके तो अधिकारी भी खिसके
मण्डल मुख्यालय पौड़ी से कमिश्नर का खिसक कर देहरादून में डेरा जमाना था कि एक-एक कर मण्डल स्तर के अधिकारी भी पौड़ी से खिसक कर देहरादून में कैंप कार्यालय के नाम पर गये और पौड़ी स्थित विभागीय मण्डल मुख्यालयों को बीरान कर गये। जब आइएएस काडर के कमिश्नर ने पौड़ी से खिसकने की शुरूआत की तो फिर आइपीएस काडर के वरिष्ठ अधिकारी डीआइजी कहां पीछे छूटने वाले थे। डीआइजी ने भी देहरादून में कचहरी के निकट ओल्ड पुलिस लाइन में कैंप कार्यालय के नाम पर अपना स्थाई ठिकाना बना दिया। आज की तारीख में राज्य सरकार को दो-दो जगहों इनके कार्यालयों के खर्चे तथा अफसरों के आवागमन आदि के भत्ते भुगतने पड़ रहे हैं। शासन द्वारा वर्तमान में मण्डल मुख्यालय पौड़ी में कुल 27 विभागों के मण्डलीय कार्यालय स्वीकृत हैं मगर वहां केवल 13 अधिकारी ही बैठते हैं। उनमें से भी कुछ यदाकदा पौड़ी पहुंचने वालों में से हैं। कृषि निदेशक को देहरादून से पौड़ी भेजने के लिये नारायण दत्त तिवारी से लेकर बाद के मुख्यमंत्रियों तक सबने जोर लगाया मगर सभी थक हार गये। पौड़ी में जिन अधिकारियों के मुख्यालय होने थे और वे इन मुख्यालयों को केवल कैंप आफिस के रूप में प्रयोेग कर रहे हैं उनमें आयुक्त और डीआइजी के अलावा लो.नि.वि के मुख्य अभियन्ता तथा गढ़वाल जल संस्थान के साथ ही जल निगम के महा प्रबंधक शामिल हैं। अपर निदेशक कृषि का भी केवल कैंप कार्यालय चल रहा है। अपर निदेशक चिकित्सा का यहां कार्यालय तो है मगर अधिकारी बहुत कम बैठता है। महाप्रबंधक पावर कारपोरेशन, आरएफसी, एवं पुरातत्व अधिकारी ने पौड़ी में कैंप कार्यालय तक नहीं खोले। वहां आरटीओ का पद है मगर सहायक आरटीओ को बिठाया गया है।
पलायन आयोग के मुख्यालय से भी पलायन
मजेदार बात तो यह है कि पहाड़ों से पलायन रोकने के लिये अक्टूबर 2017 में त्रिवेन्द्र सरकार ने जिस पलायन आयोग का गठन कर उसका मुख्यालय पौड़ी बनाया था उसके अध्यक्ष डा0 एस.एस.नेगी ही पलायन कर देहरादून में ही बैठ गये। आयोग के अध्यक्ष पद पर भारतीय वन अनुसंधान संस्थान के निदेशक पद से सेवा निवृत्त वरिष्ठतम् भारतीय वन सेवा के अधिकारी एस.एस.नेगी को उनके लम्बे अनुभव एवं पहाड़ की पृष्ठभूमि को देख कर ही नियुक्त किया था। सबसे रोचक तथ्य यह है कि आयोग के अध्यक्ष का मूल स्थान ही पौड़ी नगर है जो कि कभी एक गांव हुआ करता था। आज वहां केवल डाक रिसीव करने के लिये दो या तीन ही कर्मचारी तैनात हैं। अब राज्य सरकार और खास कर पलायन आयोग की पहाड़ों और पौड़ी कमिश्नरी से हो रहे पलायन के प्रति पीड़ा महसूस की जा सकती है।
बड़ी-बड़ी हस्तियों के कारण भी बीरान हुयी कमिश्नरी
पौड़ी गढ़वाल कमिश्नरी का पौड़ी जिला केवल उत्तराखण्ड बल्कि उत्तर प्रदेश के भी जागरूक जिलों में से एक रहा है। इस जिले ने देश साहित्य जगत को पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, राजनीति को हेवती नन्दन बहुगुणा और भक्त दर्शन, सेना को जनरल बिपिन रावत राष्ट्रीय सुरक्षा को अजित डोभाल, अनिल कुमार धस्माना, साहित्य एवं संगीत को नरेन्द्र सिंह नेगी, फिल्मों को तिग्माशु धूलिया, अध्यात्म को सतपाल महाराज, भोले महाराज, मंगला रावत एवं प्रेम रावत के साथ ही विश्व प्रसिद्ध योगी स्वामीराम सहित कई आइएएस, आइपीएस, डाक्टर, इंजिनीयर, उद्योगपति एवं राजनीतिज्ञ दिये हैं। इसी पौड़ी गढ़वाल के मूल निवासी हेमवती नन्दन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और अब योगी आदित्यनाथ वहां मुख्यमंत्री हैं। उत्तराखण्ड को इसी पोड़ी गढ़वाल जिले में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक और विजय बहुगुणा जैसे मुख्यमंत्री दिये हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी इसी जिले के मूल निवासी हैं और उनके मंत्रिमण्डल में सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत एवं धनसिंह रावत इसी पौड़ी जिले के मूल निवासी हैं। लेकिन ये हस्तियां भी पौड़ी स्थित गढ़वाल कमिश्नरी के अस्तित्व को नहीं बचा पाये। खास कर राजनीतिज्ञ पलायन के नाम पर पहाड़ियांे को बेवकूफ बनाते रहे और खुद अपना राजनीतिक ठिकाना उठा कर मैदान ले आये। कई नेता पहाड़ के स्कूलों को शिक्षक विहीन छोड़ कर अपनी पत्नियों को देहरादून और दिल्ली ले गये।
 कमिश्नरी का सफर नैनीताल से पौड़ी तक
ब्रिटिश गढ़वाल सन् 1831 तक कुमाऊं के एक परगने के तौर पर रहा और उसके बाद वह एक जिले रूप में अस्तित्व में आया। सन् 1839 में गढ़वाल एक स्वतंत्र जिला बन गया जिसका उत्तरदायित्व एक वरिष्ठ सहायक कमिश्नर को दिया गया, जोकि कुमायूँ कमिश्नर के मातहत होता था। सन् 1854 में नैनीताल को कुमाऊं का मण्डल मुख्यालय बनाया गया। सन् 1854 से लेकर 1890 तक कुमाऊं कमिश्नरी में दो ही जिले रहे। सन् 1891 में कुमाऊं को अल्मोड़ा एवं नैनीताल, दो जिलों में बांट दिया गया। सन् 1891 से लेकर 1949 तक कुमाऊं मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा और गढ़वाल जिले शामिल रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सन् 1949 में टिहरी रियासत के भारत संघ के संयुक्त प्रान्त में विलय होने के उपरान्त टिहरी भी कुमाऊं मण्डल या कमिश्नरी का हिस्सा बन गया। सन् 1960 में टिहरी जिले से उत्तरकाशी और टिहरी, गढ़वाल जिले से पौड़ी और चमोली तथा अल्मोड़ा जिले से अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिले विभक्त कर दिये गये। सन् 1960 से 1968 तक कुमाऊं मण्डल में अल्मोड़ा, नैनीताल, पौड़ी और टिहरी चार जिले रहे। जबकि सीमान्त जिला उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ को कुमाऊं मण्डल से अलग उत्तराखण्ड मण्डल में गठित किया गया, जिसका मुख्यालय लखनऊ हुआ करता था। लेकिन सन् 1969 में गढ़वाल मण्डल का गठन कर उसमें देहरादून, चमोली, पौड़ी, टिहरी और उत्तरकाशी शामिल किये गये। सन 1975 में देहरादून जिले को जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया। इससे गढवाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गई। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, तीन जिले सम्मिलित थे। सन 1994 में उधमसिंहनगर और सन 1997 में रुद्रप्रयाग, चम्पावत बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं।
कुमाऊं के प्रारम्भिक कमिश्नर
गढ़वाल और कुमाऊं को गोरखों से मुक्त कराने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटिश गढ़वाल सहित कुमाऊं का प्रशासन अपने हाथ में लेते ही कर्नल एडवर्ड गार्डनर को मई 1815 में कुमाऊँ मामलों के कमिश्नर के रूप में तैनाती की और उनके सहायक के रूप में जार्ज विलियम ट्रेल को नियुक्त कर दिया जो कि गार्डनर के बाद दूसरा आयुक्त बना। ट्रेल का कार्यकाल जुलाई 1817 से अक्टूबर 1835 तक रहा। ट्रेल के बाद यह जिम्मेदारी  कमिश्नर जार्ज गोबान को सौंपी गयी जो कि अप्रैल1836 से सितम्बर 1838 तक रहा। पांचवें कमिश्नर  जॉन हैलेट बैटन का कमिश्नरी का काल 1848 से 1856 तक रहा। छटा कमिश्नर हेनरी रैमजे फरवरी, 1856 से मई 1884 तक के 26 वर्षों तक इसी पद पर बना रहा।
जयसिंह रावत
-11,फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून
मोबाइल-&9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
 




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