लोकतंत्र पर भारी भीड़तंत्र
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड
के हरीश रावत
तथा गोवा के
लक्ष्मीकान्त पारसेकर सत्ता में
रहते हुये चुनाव
हारने वाले देश
के चौथे और
पांचवें मुख्यमंत्री बन गये।
संयोग से इतना
घोर सत्ता विरोधी
कीर्तिमान लगातार दूसरी बार
उत्तराखण्ड में ही
बना। चलो माना
कि इन दोनों
के खिलाफ सत्ता
विरोधी लहर थी
मगर मणिपुर के
मतदाताओं ने नागरिक
स्वतंत्रता की प्रतीक
इरोम शर्मिला के
साथ इतना बड़ा
अन्याय क्यों किया? अगर
प्रमुख राजनेता हार भी
गये तो उनको
हराने वाले किसी
न किसी मामले
में उनसे बेहतर
तो होने ही
चाहिये, जो कि
हैं नहीं। लोकतंत्र
पर भीड़तंत्र के
हावी होने से
मतदाताओं को दागियों
के दाग और
उनके पाप नजर
नहीं आ रहे
हैं, जो कि
स्वस्थ लोकतंत्र के लिये
एक खतरनाक संकेत
है।
सत्ता में रहते
हुये चुनाव हारने
का सिलसिला उत्तर
प्रदेश में अप्रैल
1971 में तब शुरू
हुआ था जबकि
कांग्रेस (संगठन), भारतीय क्रांतिदल
और जनसंघ की
साझा सरकार के
मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह
गोरखपुर जिले की
मणिराम सीट से
चुनाव हार गये।
इसके ठीक 38 साल
बाद झारखण्ड में
2009 में तमार विधानसभा
क्षेत्र के मतदाताओं
ने सिब्बू सोरेन
को हरा कर
राजनीतिक दलों को
स्पष्ट संदेश दे दिया
कि जनता जनार्दन
राजनीतिक दलों को
ही नहीं बल्कि
मुख्यमंत्री को भी
धूल चटा सकती
है। सिब्बू सोरेन
के बाद चुनाव
हारने वाले तीसरे
मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी थे
जो कि 2012 के
विधानसभा चुनाव में पौड़ी
गढ़वाल की कोटद्वार
सीट से लगभग
5 हजार मतों से
चुनाव हार गये
थे। लगता है
कि अब तो
मुख्यमंत्रियों का सत्ता
में रहते हुये
चुनाव हारने का
सिलसिला ही शुरू
हो गया है।
गत 15 फरबरी को
हुये चुनाव में
उत्तराखण्ड के मतदाताओं
ने मुख्यमंत्री हरीश
रावत को हरा
कर न केवल
सिलसिला जारी रखा
बल्कि उन्हें दोनों
जगहों से हरा
कर एक और
कीर्तिमान बना दिया।
हरीश रावत हरिद्वार
जिले की ग्रामीण
सीट के साथ
ही उधमसिंहनगर की
किच्छा सीट से
भी चुनाव हार
गये। खास बात
यह है कि
रावत को हराने
वाले दोनों ही
प्रत्याशियों पर अपराधिक
मुकदमें चल रहे
हैं। किच्छा में
मुख्यमंत्री को हराने
वाला प्रत्याशी जीते
हुये प्रत्याशियों में
धनबल के मामले
में दूसरे नम्बर
पर है। मुख्यमंत्रियों
को दण्डित करने
का सिलसिला केवल
उत्तराखण्ड में ही
नहीं चल रहा
है। गोवा के
मुख्यमंत्री लक्ष्मीकान्त पारसेकर को भी
वहां के मतदाताओं
ने धूल चटा
दी है। कई
बार सांसद रह
चुके भुवन चन्द्र
खण्डूड़ी और हरीश
रावत जैसे अनुभवी
पार्लियामेंटेरियन का विधानसभा
में न पहुंच
पाना उनका निजी
नुकसान तो है
ही लेकिन इतने
अनुभवी और सम्मानित
नेताओं की अनुपस्थिति
सदन की क्षति
भी है।
उत्तराखण्ड
जैसे राज्यों में
स्पष्ट बहुमत न मिलने
से जो राजनीतिक
अस्थिरता का माहौल
रहा उससे अवसरवाद,
पदलोलुपता और खरीद
फरोख्त की गंभीर
समस्या उत्पन्न होने के
साथ ही विकास
कार्य बुरी तरह
प्रभावित हुये हैं।
नौकरशाही के सामने
लोकशाही का उपहास
हुआ है। लेकिन
अब जिस तरह
एकतरफा जनादेश आने लगा
है उससे लोकतंत्र
और भीड़ तंत्र
में अंतर करना
मुश्किल हो गया
है। लोग विवेक
से ज्यादा भावनाओं
से अपने भाग्यविधाताओं
का चयन करने
लगे हैं। दल
या व्यक्ति विशेष
के प्रति अति
अनुराग के कारण
लोगों को दागियों
के दाग भी
सुहाने लग रहे
हैं। कहा जाता
है कि भीड़
का कोई चरित्र
नहीं होता है।
दुनिया के इस
सबसे बड़े लोकतंत्र
को भीड़ की
भेड़चाल की नहीं
बल्कि विवेक की
जरूरत है।
अगर सत्ताधारी दल लोगों
की आशाओं और
आकाक्षाओं पर खरे
नहीं उतरेंगे तो
लोग उन्हें कुर्सी
से उठा कर
पटकेंगे ही। उत्तराखण्ड
में बारी-बारी
से दो दलों
के शासन की
परम्परा ही चल
पड़ी है। इस
सोलह साल की
उम्र वाले प्रदेश
में सामान्यतः 60 प्रतिशत
विधायक और 80 प्रतिशत से
अधिक मंत्री चुनाव
हार जाते हैं।
इस बार तो
तीन मंत्रियों के
अलावा बाकी कोई
मंत्री चुनाव नहीं जीत
पाया। चलो माना
कि हरीश रावत
का शासन खराब
रहा और वह
जनता की अपेक्षाओं
पर खरे नहीं
उतरे। मणिपुर के
मतदाताओं ने उस
इरोम शर्मिला से
इतना बेरहम बर्ताव
क्यों किया, जिसने
उस प्रदेश के
लोगों के नागरिक
अधिकारों के लिये
अपनी जवानी का
सबसे बेहतरीन समय
होम कर डाला।
शर्मिला को 16 सालों की
भूख हड़ताल के
बदले मणिपुरवासियों ने
केवल 90 वोट देकर
उनकी बेहद कठिन
और कष्टमय तपस्या
को रद्दी की
टोकरी में डाल
दिया।
सवाल केवल इरोम
शर्मिला या हरीश
रावत की हार
का नहीं है।
सवाल उन बाहुबलियों
और भ्रष्टाचार के
आरोपों के बोझ
तले दबे सेकड़ों
प्रत्याशियों की जीत
का भी है।
जिस मणिपुर के
चुनाव में इरोम
शर्मिला की यह
दुर्गति हुयी उसी
मणिपुर के चुनाव
में 3 प्रतिशत ऐसे
प्रत्याशी जीत गये
जिन पर हत्या
और हत्या का
प्रयास जैसे गंभीर
आरोप हैं। इनमें
से भाजपा के
विधायक सोइबम शुभचन्द्रा भी
एक हैं। इस
बार गोवा में
38 प्रत्याशी, उत्तर प्रदेश में
859 प्रत्याशी, पंजाब में 100 प्रत्याशी
और उत्तराखण्ड में
91 प्रत्याशी अपराधिक पृष्ठभूमि के
थे जिनमें से
कई चुनाव जीत
गये हैं। एडीआर
ऐजेंसी द्वारा किये गये
एक विश्लेषण के
अनुसार उत्तर प्रदेश के
चुने गये 403 विधायकों
में से 143 पर
हत्या और हत्या
का प्रयास जैसे
गंभीर अपराधिक मामले
चल रहे हैं।
चुने गये विधायकों
में से 8 पर
हत्या और 34 पर
हत्या का प्रयास
करने के आरोप
हैं। एक भाजपा
विधायक पर महिला
की लज्जा भंग
करने का भी
आरोप है। भाजपा
के बाहुबली विधायकों
की संख्या सबसे
अधिक 83 है। सन्
2012 के चुनाव में वहां
अपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायकों
की संख्या 189 थी।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) की ताजा सर्वे रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड के 70 नव निर्वाचित विधायकों में से 22 पर अपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। पिछले चुनाव में इस पृष्ठभूमि के 19 प्रत्याशी चुने गये थे। इस बार के विधायकों में से 14 याने कि 20 प्रतिशत पर हत्या, हत्या का प्रयास और डकैती जैसे गंभीर आरोप हैं। सन् 2012 के चुनाव में गंभीर अपराधों के मुकदमें केवल 5 विधायकों पर थे। इस बार स्वच्छ, भ्रष्टाचार मुक्त और अपराधमुक्त शासन का वायदा कर सत्ता में आने वाली भाजपा के 57 में से 17 विधायकों पर अपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। इनमें मुख्यमंत्री हरीश रावत को हराने वाले दो भाजपा विधायक भी शामिल हैं। कांग्रेस के 11 विधायकों में से 4 पर मुकदमें चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश
के बहमई गांव
में 14 फरबरी 1981 को दस्यु
फूलन देवी के
गैंग द्वारा 22 ठाकुरों
की सामूहिक हत्या
की गयी और
मुलायम सिंह यादव
ने इस जघन्य
अपराध के लिये
फूलन देवी को
दलित स्वाभिमान का
प्रतीक घोषित कर संसद
में भेज दिया।
कानूनों की सामूहिक
हत्या करने वालों
को कानून निर्माता
बनाना भी भीड़तंत्र
की विडम्बना ही
है। उत्तर प्रदेश
के नव निर्वाचित
विधायकों की सम्पत्तियों
पर अगर गौर
करें तो स्पष्ट
हो जाता है
कि केवल करोड़पति
ही विधायक बनने
का सपना देख
सकते हैं। इस
बार उत्तर प्रदेश
में चुने गये
403 विधायकों में से
केवल तीन विधायक
ऐसे हैं जिनकी
सत्पत्तियां 10 लाख रुपये
से कम की
हैं। अबकी बार
वहां 332 ऐसे विधायक
चुने गये जिनकी
सम्पत्तियां 1 करोड़ से
लेकर 118 करोड़ तक
की हैं। इनमें
सबसे अधिक 246 करोड़पति
विधायक भाजपा के हैं।
जनादेश का सम्मान
तो होना ही
चाहिये। वैसे भी
भारत का मतदाता
सन् 1951 से लेकर
अब तक काफी
परिपक्व हो गया
है। लेकिन चुनावबाज
नेता मतदाताओं की
मानसिकता को जातिवाद,
क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद और भाषावाद
जैसी ऐसी तंग
गलियों में ले
गये हैं जहां
से एक स्वच्छ
और लोकतंत्र को
मजबूत करने वाला
जनादेश निकाल पाना कठिन
हो गया है।
इस बार के
चुनाव में जातिवाद
के असर को
मोदी की सुनामी
ने काफी हद
तक कम तो
किया है लेकिन
फिर सवाल खड़ा
हो गया है
कि क्या इस
तरह के राजनीतिक
आंधी-तूफान में
क्या योग्य लोगों
के नेस्तेनाबूत होने
पर अयोग्य लोग
स्थापित नहीं हो
रहे?
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
09412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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