महाराज की
संभावनाओं ने
उड़ाई प्रतिद्वन्दियों
की नींद
भाजपा
ने भीतरघात
के डर
से भले
ही उत्तराखण्ड
में अपने
मुख्यमंत्री का
चेहरा उजागर
न किया
हो मगर
परोक्ष रूप
से इशारा
अपने गदिग्गज
नेता सतपाल
महाराज की
ओर कर
अपने ही
दल के
दिग्गजों की
नींद उड़ा
दी है।
जानकारों के
अनुसार भाजपा
में महाराज
के नये
पुराने प्रतिद्वन्दियों
ने मुख्यमंत्री
की कुर्सी
तक महाराज
की बढ़त
रोने के
लिये जाल
बिछाने शुरू
कर दिये
हैं। जानकार
यहां तक
कहते हैं
कि जिस
चौबट्टाखाल विधानसभा
क्षेत्र से
सतपाल महाराज
चुनाव लड़
रहे हैं
वहां भी
‘वोट काटू’ प्रत्याशी
मैदान में
उतार दिये
गये हैं।
पिछले 2012 के
चुनाव में
खण्डूड़ी हैं
जरूरी का
नारा देकर
पछता रहे
भाजपा नेतृत्व
द्वारा इस
बार यह
गलती दुहराने
के बजाय
कोई भी
चेहरा आगे
करने से
परहेज किये
जाने के
बावजूद पार्टी
के चुनाव
प्रभारी जे.पी.
नड्ढा की
जुबान फिसल
ही गयी।
उनका कहना
था कि
इस बार
2007 की तरह
मुख्यमंत्री पैराशूट
से नहीं
उतरेगा और
विधायकों में
से ही
चुना जायेगा।
नड्ढा की
जुबान क्या
फिसली कि
राजनीतिक अकलबाजों
की शक
की सुई
सतपाल महाराज
की ओर
घूम गयी।
अटकलबाज ही
क्यों? नड्ढा
के इस
इशारे से
पार्टी के
वरिष्ठ नेता
और खास
कर मुख्यमंत्री
पद के
दावेदारों की
नींद भी
उड़ गयी।
जानकार तो
यहां तक
की रहे
हैं कि
भाजपा के
अन्दर जो
महाराज विरोधी
तत्व हैं
उन्हें भी
नड्ढा ने
असहज कर
दिया है।
अगर नड्ढा
बात में
दम है
तो सीधे-सीधे
भाजपा के
तीन मुख्यमंत्रियों
में से
भुवन चन्द्र
खण्डूड़ी, भगत
सिंह कोश्यारी
और रमेश
पोखरियाल निशंक
इस दौड़
से पहले
ही बाहर
हो गये।
मुख्यमंत्री पद
से हटाये
जाने के
बाद पार्टी
से बगावत
कर भाजपा
में शामिल
हुये विजय
बहुगुणा भी
इस लिहाज
से मुख्यमंत्री
पद की
दौड़ से
बाहर माने
जा सकते
हैं। अपने
को स्वयं
मुख्यमंत्री की
दौड़ में
प्रचारित करते
आ रहे
अनिल बलूनी
भी अपने
आप ही
दौड़ने से
पहले ही
बाहर हो
गये। खण्डूड़ी
इतने वृद्ध
हो गये
कि अब
उनकी सारी
संभावनाएं स्वतः
ही समाप्त
हो चुकी
हैं। हालांकि
उनके समर्थक
अब भी
हार मानने
को तैयार
नहीं हैं।
चूंकि नड्ढा
उत्तराखण्ड में
चुनाव प्रभारी
हैं इसलिये
उनकी बात
को यूंही
नहीं टाला
जा सकता।
इसलिये अगर
भाजपा सचमुच
सत्ता में
आती है
तो विधायक
दल में
सतपाल महाराज
से बड़ा
चेहरा दूसरा
कोई नहीं
है। उन्हें
हरक सिंह
रावत अवश्य
टक्कर दे
सकते थे
लेकिन कल
पार्टी में
आये व्यक्ति
को आज
मुख्यमंत्री का
ताज पहनाने
की बात
भाजपा शायद
ही सोचे।
सतपाल महाराज
का देश
विदेश का
एक्सपोजर और
उनका संसदीय
अनुभव भी
उन्हें अन्य
विधायकों से
अलग करेगा।
केन्द्र में
मंत्री के
तौर पर
उनका रिकार्ड
भी मोदी
और अमित
शाह को
प्रभावित कर
सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों
का मानना
है कि
जिस दिन
सतपाल महाराज
ने अमृता
रावत की
जगह स्वयं
चुनाव लड़ने
का फैसला
किया उसी
दिन उन्हें
मुख्यमंत्री बनाये
जाने की
संभावना प्रबल
हो गयी
थी। जानकार
यहां तक
कहते हैं
कि महाराज
ने केवल
विधायक या
मंत्री बनने
के लिये
चुनाव लड़ने
का फैसला
तो नहीं
किया होगा।
उनके समर्थकों
का मानना
है कि
भाजपा हाइकमान
से कोई
संकेत मिलने
पर ही
महाराज ने
यह कदम
उठाया होगा।
कांग्रेस छोड़ने
के बाद
महाराज की
अतिम शाह
से लेकर
आरएसएस प्रमुख
मोहन भागवत
से बढ़ती
करीबी को
भी उनकी
भवी संभावनाओं
से जोड़ा
जा रहा
है।
महाराज की बढ़ती संभावनाओं को देखते हुये भाजपा के अन्दर उनके ‘‘नये-पुराने’’ विरोधियों की बेचैनी बढ़ना स्वभाविक ही है। सूत्रों के अनुसार महाराज को रोकने के लिये कई स्तरो ंपर काम चल रहा है। सबसे पहले तो उन्हें चौबट्टाखाल में चित्त करने के लिये शतरंज की गोटियां बिछाई गयी हैं। चौबट्टाखल में 16 प्रत्याशियों ने अपना नामांकन किया है। किसी भी अन्य पहाड़ी सीट पर प्रत्याशियों की इतनी बड़ी संख्या का न होना अपने आप में महाराज के लिये कांटे बोये जाने का पहला सबूत माना जा रहा है। जानकारों के अनुसार इन 16 में से अधिकतर प्रत्याशी नहीं बल्कि गोटियां हैं जिनका काम केवल सतपाल महाराज के वोट काटना है। जानकार यहां तक कहते हैं कि एक पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा के विधायक दल के अन्दर अपना प्रेशर ग्रुप बनाना चाहता है। इसके लिये कुछ प्रत्याशियों का चुनाव खर्च वहन किया जा रहा है तो कुछ को अन्य तरह से मदद की जा रही है। अगर उक्त पूर्व मुख्यमंत्री अपने मंसूबे में कामयाब हो गया तो किसी अन्य के नेतृत्व में बनने वाली सरकार के खिलाफ भी ‘‘दस का दम’’ दिखाया जा सकता है। इधर टिकट बंटवारे और भाजपा में कांग्रेस के बागियों के वर्चस्व के कारण उभरे असंतोष के चलते कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी मान रहे हैं कि भाजपा का ग्राफ दिनप्रतिदिन गिर रहा है और कांग्रेस बराबरी के मुकाबले में आ चुकी है।
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