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Friday, January 27, 2017

उत्तराखण्ड के चुनाव- मुद्दे पीछे भ्रष्टाचार आगे
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड की चौथी निर्वाचित सरकार के चयन के लिये विधानसभा चुनावों की तिथि नजदीक आती जा रही है मगर राज्य की सत्ता के प्रमुख दावेदारों के प्रचार अभियान में असली मुद्दे अब भी कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं रहे हैं। अतीत से सीख लेकर भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुये राज्य के वर्तमान को संवारने के लिये अपनी सोच प्रकट करने के बजाय उस भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाया जा रहा है जिससे सभी का किसी किसी तरह से संबन्ध रहा है। सत्ता पक्ष को नीचा दिखाने के लिये विपक्ष तो नेगेटिव प्रचार का सहारा ले ही रहा है, मगर सत्ता पक्ष भी राज्य के चहुंमुखी विकास के लिये अपना विजन प्रस्तुत करने के बजाय विपक्ष की कमजोर नसों को टटोल रहा है।
तराई से लेकर नेपाल और तिब्बत की सीमा से जुड़े उच्च हिमालय और टोंस से लेकर काली-शारदा नदियों के बीच तक फैले उत्तराखण्ड में जितनी भौगोलिक और जनसांख्यकीय विविधताएं हैं उतनी ही समस्याएं और उतनी ही विकास की जरूरतें भी हैं। लेकिन अगर आप उत्तराखण्ड के चुनाव अभियान पर गौर करें तो लगता है कि यहां केवल भ्रष्टाचार ही होता है और असली राजभ्रयटाचारियों तथा शराब, खनन और वन माफिया का ही चलता है। हैरानी का विषय तो यह है कि कुछ समय पहले तक जिन पर घोटालों के आरोप लगते थे वे गला फाड़-फाड़ कर भ्रष्टाचार के खिलाफ ज्यादा नारे लगा रहे हैं।
देखा जाय तो उत्तराखण्ड में सबसे बड़ा मुद्दा राजनीतिक अस्थिरता का है। राज्य का भविष्य उन लोगों के हाथों में होता है जिनका अपना ही भविष्य वहुत ही अस्थिर होता है। जिन नेताओं को अपने कल का भरोसा हो उनसे राज्य के कल को संवारने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। पिछले 16 सालों में प्रदेश में प्रदेश में 8 सरकारें चुकी हैं। नौकरशाही के समक्ष लोकशाही बौनी साबित हो रही है। सरकारों को विपक्ष के बजाय अपने ही पदलोलुप और अवसरवादी लोगों से खतरा उत्पन्न हो रहा है। लेकिन इस गंभीर मुद्दे पर किसी का ध्यान नहीं है।
राज्य गठन से पहलीे इस पहाड़ी राज्य में पलायन की जो गंभीर समस्या थी वह जस की तस है। गांव खाली हो रहे हैं और मैदानी शहरों में पलायन कर पहुंची आबादी का अत्यधिक बोझ सीमित नागरिक सुविधाओं पर पड़ रहा है। शहरों की धारक क्षमता समाप्त होने के साथ ही नगरों का विकास अस्तव्यस्त हो गया है। पहाड़ी गांवों में हालत यह है कि किसी वृद्ध के मरने पर शव को शमशान तक ले जाने के लिये चार युवा कन्धे नहीं मिल पा रहे हैं। आदमियों की जगह वीरान गावों में वन्यजीव अपना डेरा जमा रहे हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस दिशा में मंडुवा-झंगोरा जैसी पहाड़ी उपज को प्रचारित और प्रोत्साहित कर ग्रामीण आर्थिकी को मजबूत करने का प्रयास तो अवश्य किया, मगर यह फिलहाल ऊंट के मंुह में जीरे के बराबर ही है। राज्य के एक पूर्व कृषिमंत्री का दावा था कि राज्य गठन के बाद के 16 सालों में ही 50 हजार हैक्टेअर से अधिक जमीन छोड़ कर लोग मैदानों में चले आये। वैसे भी राज्य में 12 प्रतिशत भूभाग ही कृषियोग्य था। ये बंजर खेत कैसे आबाद होंगे, इस पर किसी का ध्यान नहीं है। जबकि जमीन वह संसाधन है जो कि युगों-युगों तक और पीढ़ीदर पीढ़ी तक आजीविका का स्थाई श्रोत है। हम पहाड़ी दालों, मंडुवा, झंगोरा, भट्ट, रामदाना जैसे अनाजों और जैविक खेती के मामले में एकाधिकार कर सकते हैं लेकिन करते नहीं हैं। यहां फूड सिक्यौरिटी को कृषि से जोड़ा जा सकता है मगर राजनीतिक नेतृत्व केवल राजनीतिक प्रपंचों में ही मशगूल रहता है।
जमीन ही क्यों ? जंगल और जल भी उत्तराखण्ड के सबसे बड़े संसाधन हैं। इन संसाधनों के बारे में राजनीतिक नेतृत्व की सोच सामने नहीं पा रही है। उत्तराखण्ड एक वन प्रदेश ही है जिसका 64 प्रतिशत भाग वन विभाग के अधीन है तथा 45 प्रतिशत से अधिक भूभाग में वनावरण है। इन वनवासियों के लिये प्रकृति की यह अनुपम धरोहर पर्यावरण संबंधी कानूनों के कारण बरदान के बजाय अभिशाप साबित हो रही है। ग्रामीण आर्थिकी को वनापेज और संजीवनी बूटियों से सुदृढ़ किया जा सकता था। लेकिन इन चुनावों में यह मुद्दा गायब है। इसी तरह जल संसाधन पर भी राजनीतिक नेतृत्व मौन है। एक वक्त था जबकि कहा जाता था कि यह राज्य केवल बिजली बेच कर भी मालोमाल हो सकता है और देश को बिजली की रोशनी से आलोकित कर सकता है। इस अपार जल संपदा का उपयोग अगर बिजली बनाने के लिये किया जाय तो पर्यावरणवादी झण्डा लेकर खड़े हो जाते हैं और उनके धर्म के ठेकेदार लामबंद हो जाते हैं। इस संसाधन पर भी राजनीतिक दलों को अपनी राय साफ करनी चाहिये।
राज्य गठन के समय नवम्बर 2000 से पहले उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों के स्कूलों में मास्टर होने और अस्पतालों में डाक्टर होने की समस्या थी, जो कि आज भी बरकरार है। पहाड़ों से पलायन का एक प्रमुख कारण वहां शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का घोर अभाव माना जाता रहा है। ये दानों ही जिम्मेदारियां पूरी तरह सरकार पर निर्भर हैं और अब तक की सरकारें इन समस्याओं का सही समाधान नहीं निकाल पायीं। वहां 108 जैसी आपातकालीन सेवा अवश्य ही शुरू की गयी तथा अस्पतालों का उच्चीकरण भी हुआ। वहां नये अस्पताल भी खुले मगर डाक्टर फिर भी नहीं पहुंचे। निशंक और हरीश रावत सरकार के प्रयासों से गंभीर घायलों को हैलीकाप्टर से देहरादून लाने की व्यवस्था तो हुयी मगर शेष गंभीर बीमारों के जीवन की रक्षा अब भी भगवान भरोसे है।
मौसम परिवर्तन के कारण पहाड़ों में जीवन असुरक्षित होता जा रहा है। कभी उत्तरकाशी और चमोली के जैसे भूकम्प तो कभी मालपा और केदारनाथ की जैसी त्वरित बाढ़ तथा ऊपर से बादल फटने और भूसखलन की आपदाओं ने पहाड़वासियों को बेचैन कर रखा है। आपदाओं की दृष्टि से 3 सौ से अधिक गांव संवेदनशील घोषित किये गये हैं मगर उनके पुनर्वास पर किसी का ध्यान नहीं है। मौत के मुहाने पर खड़े ये हजारों परिवार किसी भी दल के ऐजेण्डे में नहीं हैं। सन् 2013 में केदार घाटी में हजारों लोगों की मौत का सबक कोई भी सीखने का तैयार नहीं है।
उत्तराखण्डवासियों को अपना भाग्य तय करने के लिये अपना राज्य तो मिल गया मगर 16 साल बाद भी अपने राज्य की स्थाई राजधानी नहीं मिली। चमोली जिले के गैरसैण में तीसरी बार विधानसभा का सत्र आहूत हो गया। वहां भराड़ीसैण में एक भव्य विधानसभा भवन और सचिवालय भवन तैयार हो गये फिर भी कोई भराड़ीसैण को स्थाई या ग्रीष्मकालीन राजधानी कहने को तैयार नहीं है।सन् 2012 के विधानसभा चुनावों के समय भाजपा ने प्रदेश में चार नये जिले बना कर जिलों की संख्या 17 तक पहुंचाने की घोषणा की थी। कांग्रेस ने भी नये जिलों के गठन का वायदा किया था। लेकिन 5 साल गुजरने के बाद भी नये जिलों का कहीं नामोनिशान नहीं है। फिजूलखर्ची के चलते राज्य पर कर्ज का बोझ 46 हजार करोड़ तक पहुंच गया है। ब्याज ही हजारों करोड़ में देना पड़ रहा है। कर्मचारियों का वेतन देने के लिये भी उधार लेना पड़ रहा है। भाजपा ने कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बना रखा है तो कांग्रेस जवाब देती है जो घोटालेबाज उसके साथ थे वे अब भाजपा में ही हैं। यही नहीं कांग्रेेस गिरा कर राष्ट्रपति शासन लगाने तथा राज्य के बजट को महीनों तक दबा कर रखने को भी मुद्दा बना रही है।

 -जयसिंह रावत
-फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
उत्तराखण्ड।
09412324999

jaysinghrawat@gmail.com

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