आखिर कांग्रेस का
पीडीएफ से
तलाक हो
ही गया
-जयसिंह रावत
कई महीनों की
खींचातानी और मानमनोब्बल के बाद
मंगलवार को
पांच साल
से हर
संकट में
साथ दे
रहे पीडीएफ
से कांग्रेस
पार्टी का
औपचारिक तलाक
हो ही
गया। इसके
साथ ही
प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रण्ट नाम के
इस गठबंधन
का भी
नामोनिशां मिट गया। इस कामचलाऊ
गठबंधन के
बचेखुचे दो
सदस्यों द्वारा
कांग्रेस के
टिकट पर
लड़ने से
इंकार किये
जाने के
बाद कांग्रेस
ने इन
दोनों के
खिलाफ भी
प्रत्याशी उतार दिये।
कांग्रेस द्वारा
और खासकर
मुख्यमंत्री हरीश रावत की ओर
से किये
जा रहे
मानमनोब्बल के बावजूद निर्धारित तिथि
और निर्धारित
समय तक
कैबिनेट मंत्री
दिनेश धनै
और प्रीतम
सिंह पंवार
द्वारा कांग्रेस
के निशान
पर चुनाव
लड़ने की
घोषणा न
किये जाने
के बाद
कांग्रेस ने
अन्ततः टिहरी
से न
रेन्द्र
चन्द रमोला
और धनोल्टी
से मनमोहन
मल को
अपना अधिकृत
प्रत्याशी घोषित कर दिया। इन
दोनों ही
कैबिनेट मंत्रियों
को अल्टीमेटम
दिया गया
था कि
अगर वे
मंगलवार दोपहर
तक कांग्रेस
के टिकट
पर लड़ने
की सहमति
नहीं देते
हैं तो
उनको टिहरी
और धनोल्टी
में समर्थन
देने के
बजाय कांग्रेस
पार्टी इन
सीटों पर
अपने उम्मीदवार
घोषित कर
देंगी। पीडीएफ
के ये
दोनों ही
मंत्री निर्दलीय
के रूप
में चुनाव
लड़ रहे
हैं। इस
घटनाक्रम के
बाद कांग्रेस
का पीडीएफ
से कोई
संबंध नहीं
रह गया
है।
दिनेश धनै और
प्रीतम पंवार
से संबंध
विच्छेद के
साथ ही
पीडीएफ का
अस्तित्व भी
समाप्त हो
गया है।
इससे पहले
पीडीएफ के
मुखिया मंत्री
प्रसाद नैथाणी
देवप्रयाग से कांग्रेस की ओर
से अपना
नामांकन दाखिल
कर चुके
हैं। इसी
तरह हरिश्चन्द्र
दुर्गापाल भी कांग्रेस का हाथ
थाम कर
उसके निशान
पर लालकुंआं
से अपना
नामांकन दाखिल
कर चुके
हैं। पीडीएफ
में दो
सदस्य बहुजन
समाज पार्टी
के भी
थे जिनमें
से एक
हरिदास भी
कांग्रेस में
शामिल हो
गये हैं
तथा एक
अन्य सरबत
करीम अंसारी
मंगलौर विधानसभा
सीट से
बसपा प्रत्याशी
के रूप
में मैदान
में उतर
चुके हैं।
कांग्रेस में तख्तापलट
और अभूतपूर्व
उठापटक के
बावजूद 13 मार्च 2012 से लेकर अब
तक पहले
विजय बहुगुणा
के नेत्त्व
वाली और
फिर हरीश
रावत के
नेतृत्व वाली
सरकारों को
हर संकट
से बचाने
तथा असाधारण
परिस्थितियों में भी सात फेरों
के कौलबचन
की तरह
गठबंधन धर्म
निभाने वाले
पीडीएफ का
गठन 3 निर्दलियों,
तीन बसपा
सदस्यों एवं
एक उत्तराखण्ड
क्रांतिदल (उक्रांद) सदस्य को मिला
कर 2012 में
किया गया
था। निर्दलियों
में गठबंधन
के नेता
मंत्री प्रसाद
नैथाणी, हरिश्चन्द्र
दुर्गापाल और दिनेश धनै थे।
जिनमें से
दो कांग्रेस
में चले
गये। बसपा
के विधायकों
में हरिदास,
सरबरत करीम
अंसारी और
सुरेन्द्र राकेश थे। इनमें से
सुरेन्द्र राकेश को कैबिनेट मंत्री
बनाया गया
था जिनका
देहान्त फरबरी
2015 में हो
गया। उनके
निधन के
बाद उनकी
पत्नी ममता
रोकश कांग्रेस
में शामिल
हो गयीं
और भगवानपुर
से कांग्रेस
के टिकट
पर उप
चुनाव भी
जीत गयीं।
इस समय
वह इसी
सीट पर
कांग्रेस की
प्रत्याशी हैं। पीडीएफ में एक
सदस्य उक्रांद
के प्रीतमसिंह
पंवार भी
थे जिन्हें
कैबिनेट मंत्री
बनाया गया।
लेकिन अब
पंवार न
तो अपने
दल उक्रांद
से और
ना ही
समर्थक दल
कांग्रेस से
चुनाव लड़ने
को तैयार
हुये। वह
निर्दलीय के
तौर पर
टिहरी जिले
की धनोल्टी
सीट पर
दम ठोकने
जा रहे
हैं जहां
पूर्व मंत्री
एवं जसपाल
राणा के
पिता नारायण
सिंह राणा
पहले ही
भाजपा से
मैदान में
उतर चुके
हैं।
पीडीएफ और कांग्रेस
कीह जोड़ी
अपने आप
में बेमिसाल
रही। इस
गठबंधन के
बल पर
कांग्रेस चार
बार राज्यसभा
चुनाव जीता।
पहली बार
पीडीएफ ने
महेन्द्र सिंह
महरा का
जिताने में
मदद की
और उसके
बाद मनोरमा
शर्मा को
राज्यसभा पहुंचाने
में अहं
भूमिका अदा
की। दुर्भाग्य
से मनोरमा
शर्मा का
निधन हो
गया। उनके
स्थान पर
राजबब्बर को
और भाजपा
के तरुण
विजय के
स्थान पर
प्रदीप टमटा
राज्य सभा
पहुंचे। अगर
पीडीएफ के
विधायकों का
सहयोग न
मिलता तो
प्रदेश में
कांग्रेस की
सरकार का
बनना मुमकिन
नहीं था।
उस समय
कांग्रेस के
32 और भाजपा
के 31 सदस्य
चुनाव जीते
थे। अगर
ये भाजपा
की ओर
झुकते तो
उसकी सरकार
बन जाती।
कांग्रेस में
जब सत्ता
परिवर्तन हुआ
तो पीडीएफ
अविचलित रह
कर हरीश
रावत सरकार
के लिये
भी ग्लूकोज
का काम
करता रहा।
गत वर्ष
18 मार्च को
बजट पास
करते समय
कांग्रेस के
उसके अपने
उसका साथ
छोड़ कर
सरकार गिराने
पर उतारू
हो गये
मगर पीडीएफ
के सदस्य
चट्टान की
तरह हरीश
रावत सरकार
के साथ
खड़े रहे।
जबकि उनके
लिये चारों
ओर लालच
ही लालच
बिछाया गया
था। राष्ट्रपति
शासन के
दौरान ये
6 सदस्य किसी
की ओर
झुक कर
पलड़ा भारी
कर सकते
थे मगर
उन्होंने नहीं
किया। उन्होंने
विषम परिस्थितियों
में न
केवल समर्थन
जारी रखा
अपितु भारतीय
जनता पार्टी
जैसे संगठन
और भारत
सरकार के
खिलाफ संघर्ष
में हरीश
रावत की
हौसलाफजाई भी की। वह नैतिक
समर्थन अत्यधिक
महत्वपूर्ण था। उसके बाद सुप्रीमकोर्ट
के आदेश
पर विधानसभा
में 10 मई
2016 को हुये
शक्तिपरीक्षण में पीडीएफ ने हरीश
रावत का
साथ देकर
हरीश रावत
को राष्ट्रीय
हीरो बना
दिया। इसीलिये
हरीश रावत
अपने प्रदेश
अध्यक्ष और
संगठन की
नाराजगी मोल
ले कर
भी आखरी
वक्त तक
पीडीएफ के
इन दो
साथियों को
साथ रखने
का प्रयास
करते रहे।
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